समय के बदले जगह, राष्ट्र के बदले प्रान्त: सदन झा
रेणु साहित्य और आंचलिक आधुनिकता
यह एक ऐतिहासिक संयोग भी हो सकता है कि महबूब खान की मशहूर सिनेमा मदर इंडिया और फणीश्वर नाथ रेणु का दूसरा उपन्यास परती: परिकथा 1957 में एक मास के भीतर ही रिलीज हुए. मदर इंडिया उस बरस पहले पहल 25 अक्टुबर को बम्बई और कलकत्ता में परदे पर आयी और परती: परिकथा के लिये इससे कुछ पहले 21 सितम्बर को राजकमल प्रकाशन के दफ्तर में दिल्ली में और 28 सितम्बर को पटना में बड़े धूम-धाम से ‘प्रकाशनोत्सव’ मनाया गया. देश के अख़बारों में इश्तेहार छापे गये, लेखक से मिलिये कार्यक्रम और जलपान का आयोजन भी साथ साथ था. गौर तलब कि यह देश के स्वाधीनता की दसवीं सालगिरह भी थी. मदर इंडिया और परती: परिकथा दोनो ही भारत के ग्रामिण परिवेश के बदलाव की दास्तान हैं. मदर इंडिया की कहानी फ्लैश-बैक में चलती है जिसके घटना-क्रम में हम एक ऐसे धरातल से प्रवेश करते हैं जो सन् पचास के नव भारत के सपनो की धरती है. एक इच्छित भारत जहाँ आपकी आँखें ट्रैक्टरों की घरघराहट, बिजली के तारों और बाँध के पानी की आशा से चका-चौंध हैं.
मदर इंडिया एक औरत की कहानी है, एक गाँव की जो भारत के पूरे उत्तर पट्टी के किसी भी गाँव की हो सकती है. यह एक भारतीय गाँव है. यहाँ स्थान, क्षेत्र और जाति एवं बहुतेरे अन्य विशिष्टताओं को खुरचकर समतल कर दिया गया है. यहाँ गाँव के परिवर्तन की कहानी बस्तुत: राष्ट्र के विकास की कहानी है.बहुत कुछ सुमित्रानन्दन पंत की कविता ‘भारत माता’ का भाव लिये हुए जब उन्होने सन् तीस के दशक के अंत की ओर लिखा:
भारतमाता ग्राम वासिनी
खेतों में फैला है श्यामल, धूल भरा मैला सा आँचल,
गंगा-यमुना में अंशुजल, मिट्टी की प्रतिमा उदासिनी,
दैन्य जरित अपलक नव चितवन, अधरों में चिर निरव रूदन,
युग युग के तम से विषणन, वह अपने घर में प्रवासिनी,
भारत माता ग्राम वासिनी.
भारत की स्वतंत्रता के बाद पंत ने कु्छ पंक्तियाँ और जोड़ी:
सफल आज उसका तप संयम, पिला अहिंसा सतन्यं सुधोपम,
हरति जन-मन भय, भव तम भ्रम,
जग जननि, जीवन विकासिनी,
भारतमाता ग्रामविसिनी.
(पंत, “भारतमाता”)
एम. एफ. हुसैन की पेन्टिंग कुछ इसी अंदाज में भारत के परिवर्तन और समृद्धि को सेलिब्रेट करता है.
परतीः परिकथा भी एक गाँव के परिवेश के परिवर्तन की कहानी है. यहाँ भी बाँध बनता है, यहाँ भी सपने आकार लेते हैं नेहरुवादी विकासमूलक सपने. परतीः परिकथा के अंत की ओर पाठक एक ऐसे ही जश्न से रुबरु होता है:
पाँचवाँ चक्र: उदघोषक की आवाज-निराश, हताश, कोसी-कवलित मानवों की टोली में जनजागरण ने विद्रोह मंत्र फूँका-धु-तु-तु-तु-तु…! लड़ाई के नक्काड़े बजते हैं. कोसी बह रही है, लहरें नाच रही है. अर्ध-नग्न- जनता का विशाल दल! पर्वत तोड़, हइयो! पत्थर जोड़ हइयो! इस कोसी को साधेंगे… बच्चे मर गये, हाय रे! बीबी मर गयी, हाय रे! उजड़ी दुनिया, हाय रे! हम मजबूर हो गये. घर से दूर हो गये. वर्ष-महीना, एक कर! खून पसीना एक कर! बिखरी ताकत, जोड़कर. पर्वत-पत्थर, तोड़कर. इस डायन को साधेंगे. उजड़े को बसाना है ठक्कम-ठक्कम, ठक्कर-ठक्कर! घटम-घटम, घट-टिड़िरक-टिड़िरक! ट्रैकटरों और बुलडोजरों की गड़गड़ाहट!… लहरें पछाड़ खाती हैं. अट्ट हास! मंच रह रहकर हिलता है. … दर्शकों के मुँह अचरज से खुले हुए हैं. कौन जीतता है-मार जवानो, हइयो! एक डैम की प्रतिछाया परदे पर! गड़-गड़, गुड़-गुड़ गर्र-र्र-र्र-र्र-र्र!…
वीरान धरती का रंग बदल रहा है धीरे-धीरे…हरा, लाल, पीला, वैगनी. …हरे-भरे खेत
(परती: परिकथा, 645-6).
ये किस प्रकार का उत्सव है? क्या इस उत्सव को, इस नेहरुवादी लम्हे को भिन्न रुपों में देखा जा सकता है? इस कोसी, इस डायन, इस वीरान धरती और इसके गाँव में रेणु का वह कौन सा तान है जो हमें भारत के गाँवो को देखने का एक नया नजरिया देता है?
रेणु के गाँव और मदर इंडिया के गाँव में एक बड़ा फर्क है. रेणु के गाँव को उत्तर भारत में किसी दूसरे क्षेत्र में प्रतिस्थापित नही किया जा सकता है.यह कोशी नदी के पूरब का गाँव है, इसे कोशी के पच्छिम भी नहीं सरका सकते. मदर इंडिया और परती: परिकथा दो रूप हैं सन पचास के गाँव पर नेहरुवादी आधुनिकता की औपनिवेशिकता के. मदर इंडिया जिसमें आपकी कल्पना को इज़ाज़त है जगह चुनने की क्योंकि स्थानिकता के विस्तार में जगह की बिशिष्टताओं को खुरचकर समतल कर दिया गया है. परतीः परिकथा, जहाँ पाठक के स्थातनजनित कल्पना को जगह के इर्द-गिर्द समेटने की कोशिश है. दोनो ही भारत के गाँवो के पिछड़ेपन की कहानी है. एक में औरत के जीवन-चरित के तौर पर, दूसरे में धरती के टुकड़े की. यह पिछड़ा टुकड़ा है पूर्णिया जिला का एक गाँव.अपने पहले उपन्यास, मैला आँचल की भूमिका में रेणु इस धरती से परिचय करवाते हैं–
यह है ‘मैला आँचल’, एक आँचलिक उपन्यास. कथानक है पूर्णिया. पूर्णिया बिहार का एक जिला है इसके एक ओर है नेपाल, दूसरी ओर पाकिस्तान और पश्चिम बंगाल. विभिन्न सीमा-रेखाओं से एसकी बनावट मुकम्मल हो जाती है, जब हम दक्खिन में संथाल परगना और पच्छिम में मिथिला की सीमा-रेखाएँ खींच देते हैं. मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को-पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर-इस उपन्यास-कथा का क्षेत्र बनाया है
(मैला आँचल, रेणु रचनावली-2:22).
मैला आँचल का पिछड़ापन, परती: परिकथा में निरंतरता के साथ लेकिन एक भिन्न विस्तार लेता है. मैला आँचल के अंत की ओर एक भावना-सघन लम्हे में जब नायक डॉक्टर प्रशांत जो मलेरिया का इलाज ढूँढ़ रहे हैं अपने दोस्त ममता से अपने रिसर्च की असफलता की बात कहते हैं और प्रति-उत्तर में एक सबल नायिका कमजोर पड़ते नायक को मानवीय सांत्वना देती है.
‘कोई रिसर्च कभी असफल नही होता है डाक्टर! तुमने कम से कम मिट्टी को पहचाना है… मिट्टी और मनुष्य से मुहब्बत. छोटी बात नहीं’.
डॉक्टर ममता की ओर देखता है – एकटक. ममता बाहर की ओर देख रही है – विशाल मैदान!… वंध्या धरती!… यही है वह मशहूर मैदान – नेपाल से शुरु होकर गंगा किनारे तक – वीरान, धूमिल अंचल. मैदान की सूखी हुई दूबों में चरवाहों ने आग लगा दी है – पंक्तिबद्ध दीपों – जैसी लगती है दूर से. तड़बन्ना के ताड़ों की फुगनी पर डूबते सूरज की लाली क्रमश: मटमैली हो रही है (304)
आईये इस अंचल में एक अलग माध्याम से प्रवेश करें. जैसे बम्बईया सिनेमा के कैमरे ने प्रवेश किया. बैलगाड़ी पर क्षमा करें ‘सम्पनी’ पर, तीसरी कसम में. सुब्रत मित्रा के कैमरे ने 1966 में पहली बार इस क्षेत्र की जमीन को देश के सामने पेश किया.
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“…मन समझती हैं न आप.…” रेणु, अंचल के इसी मन को शब्दों में बयान कर रहे थे. यहाँ मैं तीसरी कसम और इस सम्पनी की ओर नहीं जाउंगा लेकिन यह कहने से पीछे नहीं हटूंगा कि मुझे बहुत ताज्जुब होता है कि बैलगाड़ी और उसके अनेक प्रकार जिसके संबंध में औपनिवेशिक दस्तावेजों और बाद के सरकारी कागजों से भी बहुत कुछ मिल जाता है. और, जिसका होना भारतीय गाँव की लोकप्रिय तस्वीर, पोस्टरों इत्यादि के लिये आज भी लाजिमी माना जाता है वह बैलगाड़ी भारतीय गाँवों पर शोध कर रहे एंथ्रोपोलॉजिस्ट, समाजशास्त्री , इतिहासकार या फिर साहित्य के आलोचकों का मन क्यों नहीं खींचा. कुछ बातें महज कविता, कहानी, सिनेमा, पोस्टरों में ही क्यूँ रह जाती? विश्लेषणात्मक फ्रेम का हिस्सा क्यूँ नही बन पाती.
इस गीत के शुरुआत में ही हिरामन कहता है कि यदि अपनी बोली में गाना सुनना है तो लीक छोड़नी पड़ेगी. ये जिक्र करना यहाँ अतिरंजना नही होगा कि एक बहुत पुरानी कहाबत है, लीक लीक गाड़ी चले, लीके चले कपूत. तीन लीक पर ना चले, सुरमा,संत सपूत. तो रेणु निश्चित ही अपने को इन तीन में से एक के रुप में देखते थे. खैर, यहाँ मेरे लिये महुआ घटवारिन का दर्द और सिनेमा की हिराबाई का अंत की ओर देखना बहुत मानीखेज है. गीत के अंत की ओर हीराबाई की आँख ( जिसे सिनेमाई भाषा में पोईंट आफ व्यू शाट्स कहते हैं) और सामने फैले नदी के विस्तार के बीच एक अजीब सा विजुअल संवाद होता है मानो हीराबाई की अंत:पीड़ा, महुआ घटवारिन का दर्द और बाहर फैले अंचल का दर्द एकमेक हुआ जाये. रेणु ने इस जमीन को ‘कच्छपपृष्ठ सदृश भूमि! कछुआ पीठा?’ कहा है (परती: परिकथा, 311) और इसकी पीड़ा के दस्तावेजीकरण के लिये सुरती राय के रुप में एक घाट-हाकिम भी रेणु ने नियुक्त किये जो घाटों की कहानी का संग्रह कर रहा है.घाट बरदिया का व्यबहार, करो बेगारी उतरो पार(परती: परिकथा, 324). गौर तलब कि औपनिवेशिक काल में घाट-कर महत्वपपूर्ण हुआ करता था.
लेकिन अंचल के इन उपर वर्णित प्रवेश-द्वारों की सीमाएं हैं इसीलिये रेणु ने इस धरती, इस लैण्डस्केप की जटिलता, इसकी समृद्धता को उकेड़ने के लिये महज बाहरवालों पर र्निभरता नहीं रखी. परती की परिकथा कई स्तरों पर चलती है.
चिरई-चुनमुन की कहानी पर परतीत न हो, संभव है.परती की अन्तहीन कहानी की एक परिकथा वह बूढ़ा भैंसवार भी कहता है. गँजेड़ी है तो क्या! गुनी आदमी जरा अमल पाँत तो लेता ही है (परती: परिकथा, 313).
मेरे लिए सवाल है कि यह किस तरह की जमीन है. इसकी पीड़ा को और इस धरती से इस बिबरण के नाते को हम इतिहास में किस तरह से देखें? इस जगह का नेहरुवादी आधुनिकता से क्या संवंध है. रेणु जो साहित्य में ऐसी वीरान धरती की कथा लिख रहे हैं उस साहित्य में किस प्रकार के आधुनिक सरोकार हैं और इनमें जगह एवं समय की कौनसी स्थापनाएं आकार ले रही है?
धरती नहीं, धरती की लाश… 1967 के मिशेल फूको के चर्चित लेक्चर, हेटेरोटोपिया की याद दिलाता है…एक जगह जो यथार्थ होते हुए भी अन्य सभी जगहों से जुदा. जो हमेशा अपने होने की अनिश्चितता व्याख्यायित होती है. जो अपने होने की शर्तों को नकारती चलती है(फूको, 1967/1986). यह कोशी अंचल है. पूर्णिया जिला. आज का पूर्णिया नहीं, रेणु के समय का और अंग्रेज़ों के समय का पुरेनिया जिला. बहुत हाल तक, कहाबत मशहूर था, ‘ना जहर खाओ ना माहूर खाओ मरना है तो पूर्णिया जाओ’. कोशी के पच्छिम वाले जो अपने को मैथिल समझते हैं उनके लिये पूर्णिया कालापानी के समान. एक ऐसा क्षेत्र जहाँ आप महज जा सकते हैं, लेकिन जहाँ से आप वापस नहीं आते. ऐसे प्रांतों के लिये बरनार्ड कोहेन ‘कुल दे सेक’(Cul de Sac) का प्रयोग करते हैं, वे प्रान्त जो अपनी भौगोलिक स्थिति और पर्यावरण के कारण दूसरे क्षेत्रों से पीछे छूट गए. इतिहास लेखन में इस प्रान्त को और इसके पिछड़ेपन को इसी फ्रेम में रख कर अंग्रेजी राज के आयातित भू-राजस्व नीति के टेस्टिंग लेबोरटरी (हिल १९९७), अंग्रेजी राज और स्वतंत्र भारत के गलत और अल्पकालिक पर्यावरण सोच और कार्यान्वयन के रूप में(दिनेश मिश्र) या फिर औपनिवेशिक इंजीनियरिंग, भू-राजस्व निकायों और जमींदारी के बीच के झगड़ों का कारण बताया गया है( प्रवीण सिंह). लेकिन रेणु का पूर्णिया और कफन ओढ़े धरती की लाश, पिछड़ेपन की कहानी को अलग अंदाज में हमारे सामने लाते हैं या फिर कहें कि हमसे यह कथा कुछ अलग अपेक्षा रखती है. रेणु का पिछड़ापन समय केन्द्रित न होकर जगह को अहमियत देता है मेरे लिये चुनौती यह है कि रेणु के इस गाँव को, इस अंचल को किस तरह देखें, किस तरह से व्यारख्यायित करें. रेणु के इस गाँव का, इस अंचल का सन् पचास के दशक (जो रेणु के दोनो ही उपन्यायसों को पृष्ठभूमि देता है) और उस दशक में हो रही अन्य विकासमूल घटनाओं तथा बौद्धिक चाल-चलनों के साथ किस तरह का नाता-रिश्ता बनता है? यदि मोटे लफ्जों मे कहा जाय तो रेणु का गाँव, दूसरे भारतीय गाँवों से, उन गाँवो से जो हम मदर इंडिया और गोदान में देखते और पढ़ते हैं उनसे किन अर्थों में भिन्न हैं? लेकिन जिस खास सवाल कि ओर मेरा इशारा है वह यह कि यदि रेणु का गाँव भिन्न है तो रेणु के शिल्प की भिन्नता के क्या मायने हुए? इस मायने को समझने के लिये इतिहास और साहित्य के बीच के संबंधों की पड़ताल के सवाल क्या हों? क्या? रेणु साहित्य हमें वह अन्तंर्दृष्टि देता है जो गाँव को देखने, रुपांकित करने, अध्ययन करने या कहानी कहने के अँदाज पर सवालिया निशान लगाये?
दो
पूर्णिया, सन् पचास के दशक और रेणु के जगत के सहारे मैं पिछड़ेपन के चित्र की बारीकियों में झांकने की कोशिश करूंगा जो आधुनिकता, पूंजी और विकास के मूल में भी रहा है. यहाँ एक ओर प्रेमचंद्र की परंपरा है तो दूसरी तरफ सन पचास के दशक के ग्राम्य अध्ययन का अत्यंपत व्यस्त परिवेश है. पर दोनो ही तरफ गाँव भारतीय हैं – अपनी समग्रता और राष्ट्रीय विस्तार में अपनी स्थानीयता से मरहूम.
रेणु का आंचलिक गाँव तीन बातों पर टिका हुआ है. ये हैं, रेणु का अनोखा लहजा (उनके लेखनी में साहित्य के अनूठे रूपों के साथ खेलने की बाजीगरी) जो उन्हें प्रेमचंद की विरासत से अलग करती है; दूसरा, उनके द्वारा अंचल और गाँव के जीवन से जुड़े सूचनाओं का अपार संग्रह और उपयोग( ग्रामीण जीवन का लेखा जोखा जो अद्भुत एन्थ्रोपोलॉजिकल डिटेल और सूक्ष्म नजरिये से भरा पड़ा है) जिसे मैं अंचल की सांस्कृतिक स्मृति कहूँगा; और तीसरा उनके कथा कहने का अनूठापन. ये तीन कुल मिलाकर अंचल की एक बिशिष्ट छवि बनाते हैं जिसमे आंचलिक ग्राम्य के साथ अपनापे (belongingness) की अहम् भूमिका है. यह अपनापा हमे एक ख़ास एतिहासिक परिपेक्ष्य में आंचलिक ग्राम्य का एक वैकल्पिक आर्काइव प्रदान करता है. यह अपनापा हमें 1950 के दशक के गाँव के एन्थ्रोपोलॉजिकल-समाजशास्त्री में एक सिरे से नदारद दिखता है. रेणु के कथा-शिल्प और उनके भाषा सम्बन्धी प्रयोग के संबंध में बहुत कुछ लिखा गया है (खासकर देखें केथरीन हानसेन और इंदु प्रकाश पाण्डेय.भारत यायावर ने महज रेणु रचनावली मुहैया करने के साथ साथ रेणु को पढ़ने और गुणने के रास्ते भी दिखाये हैं. हिन्दी साहित्य में रेणु पर लिखी महत्वपूर्ण आलोचनाओं का संदर्भ केथरीन हानसेन के शोध और लेख में मिल जाता है. इन सबके अलावे भी रेणु साहित्य पर बहुत कुछ मानीखेज़ लिखा गया है लेकिन सभी को शामिल करना इस छोटे से लेख में संभव नहीं. इसे मेरी और इस लेख की कमी के तौर पर देखा जाय). हानसेन बताती है कि रेणु भाषा के उच्चारित रूप को खड़ी बोली हिंदी के उस लिखित परम्परा के स्थान पर तरजीह देते हैं जो उन्नीसवीं सदी के अंत के दशकों तक जाती है. इसका सीधा सम्बन्ध रेणु के पात्रों के सामजिक सरोकारों से जुड़ता है और रेणु के गाँव में अलग अलग भाषा बोलने बाले अलग अलग जाति के लोग अपनी भाषाई और जातिगत भिन्नताओं के द्वारा गाँव पर अपने दावेदारी पेश करते नजर आते हैं. यहाँ यह ताकीद कर देना लाजमी है कि रेणु का गाँव समकालीनता से असम्पृक्त नहीं है लेकिन यह प्रेमचंद के गाँव के समान राष्ट्र के स्पेस में बिलीन भी नहीं है.
रेणु का गाँव दावेदारियों से अटा पड़ा है. ये दावे, भाषागत हैं. जमीन के हैं, जातिगत हैं और वैचारिक भी. परती:परिकथा में
सर्वे सेटलमेण्टि के हाकिम साहब परीशान हैं. परानपुर इस्टेट की कोई भी जमा ऐसी नहीं जो बेदग हो. सभी जमा को लेकर एकाधिक खूनी मुकदमे हुए हैं; आदमी मरे हैं, मारे गये हैं.…
( परती: परिकथा, 329).
फणीश्वीरनाथ रेणुका जन्म बिहार के पूर्णिया जिले के औराही-हिंगना नामक गाँव में हुआ जो अब अररिया नामक एक अलग जिला का हिस्सा है. कुल 36 साल के अपने लेखनी के शुरुआत में वे कवि बनना चाहते थे और इन 36 वर्षों में उन्होनें न मात्र साहित्य की हर विधा में मिसाल कायम की वरन् राजनीति में सक्रिय भागेदारी निभायी और चुनाव भी लड़े. रेणु उस समाज की जिंदगी से कटे नहीं थे जिसको वे कागज पर अक्षरों में रच रहे थे. यह तथ्य रेणु को अपने समकालीन लेखकों खासकर नयी कहानी के पुरोधाओं से अलग करता है. यह उन्हें उस प्रचलित आधुनिक पद्धति से भी कुछ दूरी पर खड़ा रखता है जिसमे ज्ञान-अर्जन हेतु असम्पृक्तता पर बल दिया जाता था/है. रेणु का अपने अंचल की जिंदगी में इस सक्रियता का उनके शिल्प के लिये क्या मायने होगा? लोथार लुत्से ने यही सबाल उनसे पूछा और रेणु नयी कहानी के लेखकों पर बिफर उठे. नयी कहानी के लेखकों के बिपरीत रेणु शहर के बदले गाँव पर केंद्रित हैं. लेकिन जो रेणु को उनके समकालीन लेखकों से जोड़ता है वह है अन्तःमन /आतंरिक पैठने की अदम्य चाह. नयी कहानी के लेखक मानवीय चरित्र के भीतर उर्ध्वाधर घुसने की जदोजहद में हैं तो रेणु अंचल को मानवीय चरित्र देने की फिराक में. लेकिन रेणु अपने चरित्र को मनोविज्ञानिकों के सामान सामने बैठकर अवलोकन नहीं करते वे खुद एक पात्र हैं. इस अंचल की जिंदगी में शामिल, फसल बोने-काटने में हिस्सेदार. रेणु के चरित्र अपने अंचल के इतिहास को साथ लेकर चलता है. लेकिन ये पात्र जो रेणु की जिंदगी से किसी न किसी रुप में जुड़े, इस अंचल के जीते जागते लोग हुआ करते थे, कभी भी स्वयं को इस अंचल से मुक्त नहीं कर पाते हैं. जित्तन बाबु प्राणपुर लौट आते हैं (परती:परिकथा), डॉक्टर प्रशांत मेरीगंज आता तो है लेकिन फिर वहीं का होकर रह जाता है गोदान के मिस्टर मेहता की तरह उसके लिए गाँव मध्यवर्गीय तफ़रीह की जगह नहीं, काम करने का ‘लेबोरेटरी’ है. हिरामन हीराबाई के साथ अंचल नहीं छोड़ता है और न हीराबाई ही रूकती है. रेणु की आन्तरिकता अंचल की भाषा में ही नहीं रूकती है वरन् वे इतिहास और भूगोल से निरंतर खेलते हैं. लेकिन गौरतलब है कि रेणु का न तो इतिहास ही आधुनिकता का इतिहास है और न हीं उनका भूगोल सेक्यूलर जगहों की निर्मितियों पर आधरित है. रेणु के कथासाहित्य में इतिहास अतीत के चिन्हों के रूप में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है जो समकालीन से जुदा नहीं होकर उनको पहचान देता है. यह सांस्कृतिक-अतीत है अपने बहुवचन में. कोसी के साथ रेणु का सरोकार इसका एक उदहारण है. कोसी मैया भी, भगवती भी, एक उन्मुक्त किशोरी भी और सास-ननद से सताई अबला से डायन बनी सबला भी. ध्यान देने लायक यह भी रेणु का लोक जगत लेखक के लिए किसी सांस्कृतिक भण्डार के सामान नहीं है जिसके लिए लेखक फोक लोरिस्ट के सामान शुद्धतावादी नजरिया अपनाए. रेणु के सोहर, फाग, बटगमनी, समदऊन आदि गाँधी-जवाहर से भी ताल्लुक रखते हैं. एक अजीब किस्म की रागधर्मिता है, समकालीन घटनाओं को समेटे हुए. यह मेरे दूसरे हिस्से से जुड़ा है जिसमें रेणु सन पचास के दशक के एक क्रॉनिक्लर के रूप में हमारे सामने आते हैं.
रेणु का लेखन अनेक बहुवचनों से मिलकर बना है जिसमें प्रांत की सांस्कृ्तिक स्मृति, सामुदायिक और सामाजिक ताने-बाने और नैतिकता सभी कुछ शामिल तो है लेकिन इनका शामिल होना पहले से चले आ रहे साहित्यिक मान्यताओं और मानदण्डों को तोड़ता-मरोड़ता है जैसे मैला-आँचल के दूसरे ही अध्याय में हम पाते हैं – तीन आने की लबनी ताड़ी, रोक साला मोटरगाड़ी. इन बहुवचनों के बीच गाँव को स्थापित करने के लिये रेणु ने शिल्प से संबंधित बहुतेरे प्रयोग किये जिससे अतित की संश्लिष्ट्ता के साथ बदलते ग्रामीण समाज की कहानी एक विशिष्ट एसथेटिक संवेदना के साथ सामने आयी और आँचलिक साहित्य की एक नयी विधा का सूत्रपात हुआ.
रेणु के इस आँचलिकता को व्याख्यायित करने से पहले संक्षेप में इसकी जन्म-पत्री का उल्ले्ख बेमतलब नहीं होगा.पर, हमें प्रेमचन्द से शुरुआत करनी होगी, जिनके सेवा सदन (1919) से हिंदी साहित्यो में उपन्यास को एक स्वतंत्र विधा का दर्जा हासिल हुआ. प्रेमचंद और उनके युग के लेखकों के लिये साहित्य का मुख्य उद्देश्य सामाजिक और राष्ट्रीय हितों की सेवा करना था. प्रेमचन्द की लेखनी का नैतिक और राजनितिक ओज एक तरफ तो गांधीबादी राष्ट्रवाद से आता था तो दूसरी तरफ आर्थिक और सामाजिक रुप से हाशिये पर के लोगों के चित्रण से जिसका उद्देश्य समाज का यर्थाथवादी रूप पेश करना और सामाजिक कुरीतियों का उद्भाषण करना था. इसे बहुत से आलोचकों ने ‘आर्दशोन्मुखी यर्थाथवाद’ कहा है. रँगभूमि (1925) का सूरदास और गोदान के गाँव और होरी (1936) स्वतः ही हमारे सामने आ खड़े होते हैं.
कुछ कुछ इसी लीक पर 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ ( Progressive Writers Association or PWA) की स्थापना हुई. बंगाली साहित्य का प्रभावशाली रूझान एक सार्वभौमिक मानव की तलाश में लिप्त था (और जिसका सीधा असर उन्नीसवीं सदी के अंत से विकसित हिंदी साहित्य पर भी खासा दिखता है), पर इसके विपरीत अब ऐसे आदमी की तलाश होने लगी जो अपने समाज और परिवेश से दमित हो. यहाँ PWA और बंगाली साहित्य के कल्लोल आंदोलन के बीच सीधा संबंध दिखता है. प्रेमचंद का ‘आदर्शोन्मुखी यर्थाथवाद’ और कल्लोल के क्षेत्रीय परिवेश का दबा-कुचला आदमी इन दोनो ने कहानी में समाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के सूक्ष्म लेकिन लंबे दस्तावेजीकरण पर जोर दिया. गोदान इस सम्मिश्रण का अदभुत उदाहरण है. बहुत दिनो तक और शायद आज भी इसे भारतीय गाँव का सम्पूर्ण लेखा जोखा माना जाता है. लेकिन गोदान में ग्रामीणों के मध्य राजनीतिक चेतना नदारद है. खड़ी बोली में लिखा उत्तर प्रदेश का यह गाँव अवधी, भोजपुरी या ब्रज नहीं के बराबर इस्तेमाल करता है. अंचल यहाँ अपने भाषाई विविधता से मरहूम है और यह गाँव जातियों से खाली.
रेणु या फिर राही मासूम रजा या अमृत लाल नागर का बूंद और समुद्र इन्हीं बातों को लेकर सामने आते हैं, साहित्य के नये तेबर के साथ. समय के हिसाब से देखा जाय तो नागार्जुन रेणु से पहले आते हैं. इंदु प्रकाश पांडे ने इस पूरी प्रक्रिया को हमारे सामने रखा है लेकिन रेणु के या फिर कहें तो हिंदी में आँचलिक साहित्य के उदय का इतिहास अभी लिखा जाना शेष है और इसके लिये जहाँ एक ओर उन्नीसवीं सदी के अंत से 1950 के दशक को फिर से खंगालने की जरुरत है (खासकर हिंदी साहित्य ने आधुनिकता के साथ किस तरह के संवाद स्थापित किये और किन स्तरों पर तथा किन क्षेत्रों में लोक को जीवंत बनाये रखा) वहीं 1936 से 1950 के बीच के साहित्यिक इतिहास पर गहन चिंतन की जरूरत है, खासकर मुझ जैसे कमअक्ल के लिये तो है ही. लेकिन यहाँ हम रेणु के गाँव की ओर चलें और देखें कि वह किस तरह प्रेमचन्द से भिन्न है और भारतीय गाँव की छवि में सेंध मारता है. रेणु के चरित्र अपने सामाजिक-भाषायी बिशिष्टमताओं से लिप्त हैं जहाँ हरेक की अपनी खास भाषाई पहचान है. इसीलिये महज एक ही अध्याय में हम मैथिली, तत्सम, अर्ध-तत्सम,तद्भव, नेपाली-हिंदी, संस्कृत-निष्ठ हिंदी और शुद्ध संस्कृत का इस्तेमाल देखते हैं (देखें मैला आँचल, 278-284). रेणु का यह प्रयोग उस खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार का प्रतिरोध भी दिखता है जिसमें क्षेत्रीय भाषाओं को बोलियों का दर्जा देकर मात्र दोयम स्थान दे दिया गया और साथ ही बोलने और लिखने के बीच एक नैतिक अंतर पर भी जोर दिया गया. रेणु इसके खिलाफ शब्द के उच्चातरित और लिखित रुपों के अंतर के साथ खिलबाड़ करते हैं. इस खेल में इनकी प्रतिबद्धता उच्चारित और व्यवहारित अनुभवों की तरफ है लेकिन इस क्रम में भाषायी नैतिकता नया आयाम ग्रहण करने लगती है. जैसा कि कैथरिन हानसेन ने भी दिखाया है आधुनिक हिंदी गद्य जिसका अकथित नियम अर्ध-तत्सम के स्थान पर संस्कृ्त या फिर तत्सम का उपयोग था उसे रेणु ने मानने से इंकार कर दिया.
इस भाषाई प्रयोग का एक परिणाम यह भी हुआ कि हमारे सामने एक समृद्ध भाषाई आर्काइव है, इस अंचल का. यह आर्काइव कोसी क्षेत्र के ग्रामीण समाज के सीमांत पर दम तोड़ते चरित्रों और सामाजिक कामों का अदभुत दस्ताआवेज भी है. इनकी कहानी ठेस (1957) का सिरचन एक सितल-पाटी बनाने बाला है. रसपिरिया का पंचकौड़ी मृदंगिया (1955), तीसरी कसम का बहलमान हिरामन (1955) ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं जो ग्रामीण समाज के अंग तो हैं लेकिन सीधे सीधे खेती से नहीं जुड़े हैं पर इन सबकी अपनी पहचान हैं, इनकी अपनी जिंदगी है जो समकालीन ग्राम अध्यनयन में नदारद है. रेणु के ये चरित्र अपनी विधा में महारथी हैं और इस रुप में काफी सबल हैं लेकिन ये सभी अत्यंत भावुक और कोमल अत: दुनियावी मामलों में कमजोर भी हैं जहाँ इनकी भावुकता की जरुरत सामाजिक संबंधों के प्रचलित दायरों और वर्गीकरणो को तोड़ती चलती है. तीसरी कसम में हिरामन और हिराबाई का संबंध रोमांस और दोस्ती की साधारण परिभाषा के बीच कहीं नजर आता है.रसपिरिया में बूढ़े मृदंगिया का एक छोटे बच्चे के प्रति आकर्षण अनेक तारों के बीच झूलता है जिसमें एक मृत प्राय संगीत की विरासत, घुमंतु उपाश्रयित संगीतकार की मार्मिकता और दयनीयता तथा गरीबी शामिल है.
लेकिन यदि रेणु के इस आर्काइव को हम ग्राम-समाज की सूचनाओं के लिये देखेंगे तो वह रेणु और साहित्य दोनो ही के लिये अन्याय होगा. यहाँ अपनापे और भावनाओं की प्रचुरता है जो रेणु के गाँव को उनके समकालीन बुद्धिजीवियों जैसे एम. एन. श्रीनिवास, एस. सी. दूबे और तमाम समाज-वैज्ञानिकों से अलग करता है. रेणु के लिये जो सबसे अहम था वह उनके अपने शब्दों में स्वयं उनकी अपने आप की तलाश थी जिसका मतलब था मानव मात्र का खोज (रेणु रचनावली, 1:580).
मैंने यहाँ ऊपर चार बातों का जिक्र किया है– आर्काइव, सन् पचास के दशक के ग्राम-अध्ययन का स्वरुप, सूचना और भावनात्मकता के बीच का अंतर और सन् पचास में अपने निज की तलाश. ये सब व्यापक विश्लेषण की मांग करते हैं जिसके लिये यहाँ समय और समीचीनता नहीं है लेकिन अपनी बातों को स्पष्ट करने के लिये मैं रेणु की एक कहानी समदिया (1962) का उदाहरण देना चाहुंगा. यहाँ रेणु ने एक संवाद वाहक के द्वंद के द्वारा सूचना के प्रति वफादारी और अपने निज की भावना के प्रति ईमानदारी के बीच का कश्मकश दिखाया है जिसमें अंत में लेखक ने सूचना संप्रेषण के बदले भावना के पक्ष में निर्णय दिया है लेकिन, पूर्ण बिन्दु लगाने से पहले यहाँ यह ताकीद कर देना लाजिमी होगा कि इस कहानी में समदिया का आत्म घनिष्ठ रूप से उसके गाँव के आत्म के साथ संलग्न है.
यह आत्म गाँव से जुड़ा है जो उस अंचल से जुड़ा है और इस जुड़ाव में अतीत की बड़ी अहम भागेदारी है. यह अतीत है अंचल के मलेरिया का, यह है एक अंचल का पूर्ण-अरण्य से बंध्या्-धरती बन जाने का. यह है नीलहे गोरों की स्मृतियों का. यह अतीत कम से कम दो स्तरों पर दर्शाया जा सकता है. पहला तो, पूर्णिया जिला में औपनिवेशिक काल में अंग्रेजी सरकार की नीतियों के कारण आये बदलावों के द्वारा. इस इतिहास में कोसी नदी को नियंत्रित करने की जद्दो-जहद है जिसके कारण कालाजार और मलेरिया ने इस जिले को डस लिया और हमे कहावत मिला ‘न जहर खाओ ना माहुर, मरना है तो पूर्णिया जाओ’.
दुसरे स्तर पर हमे लोक में संचित अतीत मिलता है जिसमे कोसी मैया भी है और डायन भी. जहाँ कोसी हरेक बंधन से अपने को बचाती अपने को मुक्त रखने में सफल है. रेणु इन दोनो स्तंरों के साथ निरंतर खेलते हैं. रेणु का लोक बहुत से रूपों में आता है… कथा कहने के अंदाज में, कथा के क्रम में लोक-गीत, मुहाबरे आदि में, कथा के भीतर की कथा में (परती:परिकथा में) और धरती के बन्ध्या हो जाने के औपनिवेशिक स्मृति में. लेकिन यह सब हो रहा है उपन्यास, कहानी और कथा-रिर्पोताज में जहाँ लेखक एक अंचल के गाँव को प्रमाणिक तरीके से अभिव्यक्त करना चाहता है ऐसे रूप में जो आधुनिक है.
अलग तरह से देखें तो इसे कह सकते हैं रेणु का आधुनिकता के भीतर से आधुनिक समय के साथ खिलवाड़. मैला आँचल में डॉक्टर प्रशांत कोशी क्षेत्र के मूल समस्या मलेरिया का समाधान खोज रहा है. लेकिन वह हल इसी क्षेत्र के वनस्पति में मौजूद है. यह क्षेत्र एक प्रयोगशाला है डाक्टर प्रशांत के लिए लेकिन इस प्रयोग के नियम और तरीके रेणु के अपने हैं. परतीः परिकथा में जित्तेन कछुआ पीठा परती में पानी धुंध रहा है जिससे वीरान धरती सुनहले रंग में रंग जाए. लेकिन समस्या का हल उसे रहस्यमय ताम्रपत्र में वर्णित जीवट पोखर की ओर ले जाता है. ये महज मिथक नहीं हैं लेखक लोक जगत के फकरों और लोकगीतों की तरह समकालीन समय को साथ लेते हुए इनका राजनैतिक इस्तेमाल करता है. एक ऐसे जगह की कहानी कहने के लिए जहाँ समय के साथ खेल तो बहुत खेले जा रहे लेकिन भिन्न भिन्न तरीके से. किसी एक चोखटे में रहकर नहीं. पश्चिम से उधार ली हुए आधुनिकता के चौखटे में खास तौर पर नहीं. लेकिन रेणु के द्वारा किये गए इन सब प्रयोगों के क्या मायने हुए?
क्या हम रेणु के प्रयोगों को उस श्रेणी में रख कर देखें जिसमें तीसरे विश्व के समाज ने यूरोपीय आधुनिकता को अपनी शर्तों पर परिमार्जित किया जिसे पार्थ चटर्जी ‘आवर मार्डनिटी’ कहते हैं? यह समझने के लिये हमें आधुनिकता के मूल में जाना होगा
आधुनिकता का बिमर्ष समय केंद्रीत है. यहाँ जगह को गौण महत्व दिया गया है. मिशेल फूको ने इस तरफ हमारा ध्यान खिंचा है और बताया है कि आधुनिकता ने जगह की अहमियत को गौण कर उसके स्थान पर समय को प्रतिस्थापित किया। आधुनिकता के आयण में जगह को महज नक्शे पर दो ज्यामितीय बिन्दुओं के बीच कैद कर दिया गया जिसका इतिहास तो हो सकता है लेकिन अतीत नहीं.इस आधुनिकता के पास गाँव और शहर, देश और प्रांत सब समय के एक उर्ध्वाधर स्केल पर लगी अलग पदानुक्रम मे स्थित ईकाईयां हैं जो पूंजी की क्रिया के द्वारा निर्देशित होते हैं. यही पूंजी तय करती है कि किस जगह को पिछड़ा कहा जाय और किसे विकसित. यहाँ कुछ समाजों के पास अपना इतिहास है तो कुछ के पास नहीं. लेकिन अतीत यहाँ किसी के पास नहीं.अपने नैतिकता और वर्तमान में अपनी उपस्थिति से मरहूम अतीत यहाँ महज पिछला, पिछड़ा, समय में पहले आया हुआ और भूतकाल रह जाता है.
रेणु के यहाँ गाँव का अतीत है. यह इतिहास में विलीन नहीं. यहां गोदान या श्रीनिवास के गाँवों की तरह इतिहास नदारद नहीं है. रेणु के गाँव के पास उसका अतित भी है और इतिहास भी. इन दोनो की सक्रिय भागेदारी इसलिये भी संभव हो पायी है क्योंकि रेणु अपने गाँव को महज समय के स्केल पर स्थानिकता से नंगा कर खड़ा नहीं कर रहे. यही कारण है कि रेणु के गाँव में समय भी बहुवचन में कई स्तरों पर कथाशिल्प से खिलवाड़ करता हमारे सामने आता है. एक क्षण में पंडुकी की कहानी, अगले क्षण में कोशिका मैया की कहानी फिर अगले क्षण में धरती के लाश बनते जाने का इतिहास और नेहरू के सपनो के भारत का भीषण आशावाद. यहाँ सब कु्छ है और यह सब रिक्त (एम्पटी) होमोजिनियस समय में नहीं (जैसा कि राष्ट्रवाद के एक विद्वान ने हमे किसी और संदर्भ में बताया है). यहां हेटरोजिनस समय की बात भी नहीं है जैसा कि दूसरे विद्वान ने हमें भारत के संदर्भ में बताया है. लब्बो लुआब यह कि रेणु के गाँव को उनके शिल्प को यदि समझना है तो हमे आधुनिकता के समय केंद्रित विमर्श से बाहर आना होगा. देश को देखने की तकनीक से अपने को दूर हटाना होगा. यहाँ साहित्य और गाँव की अंत: क्रिया को परिभाषित करने के लिये नये सवाल गढ़ने होंगे. समय के बदले केंद्र में जगह और उसकी स्थानिकता को रखना होगा. देश के एब्सट्रेक्ट स्पेस की जगह प्लेस की बात करनी होगी जहाँ जमीन पूंजी का महज एक और उदाहरण नहीं रह जाता और जमीन से लगाव महज इसलिये नहीं कि वह किसान का खेत है. यहाँ जमीन मतलब धरती है. मैया भी और बन्धया भी. रेणु का लेखन हमें ले जाता है राष्ट्र से प्रान्त की ओर. एक प्रान्त जो आधुनिकता के साथ साथ अपनी विरासत को भी इस्तेमाल कर रहा है, किसी और समय में नहीं अपने समकालीन समय में अपने शर्तों पर. यह इच्छित समय है, जो आधुनिकता भी चाहता है, इतिहास भी चाहता है, विकास भी चाहता है, खुला अतीत और उसकी स्मृति भी. और यह सब आंचलिक साहित्य में, एक खुले भविष्य के लिए. यदि कुछ शेष रह जाता है तो अंचल का मोह और अंचल को शव्दों में पिरोने की तकनीक.
मिशेल फूको के हेटेरोटोपिया की अवधारणा हमें उकसाती है कि रेणु साहित्य को समझने के लिये हमें समय केंद्रित नजरिये के बदले जगह को केंद्र मे रखना होगा. रेणु का लेखन हमें ले जाता है राष्ट्र से प्रान्त की ओर. एक प्रान्त जो आधुनिकता के साथ साथ अपनी विरासत का भी इस्तेमाल कर रहा है, किसी ओर समय में नहीं अपने समकालीन समय में अपने शर्तों पर. यह इच्छित समय है, जो आधुनिकता भी चाहता है, इतिहास भी चाहता है, विकास भी चाहता है, खुला अतीत और उसकी स्मृति भी. और यह सब आंचलिक साहित्य में, एक खुले भविष्य के लिए. यदि कुछ शेष रह जाता है तो अंचल का मोह और अंचल को शव्दों में पिरोने की तकनीक. लेकिन उस मोह का क्या करें जो रेणु की रचना के ठीक बीच में है. जो कोशी अंचल के लोगों को इस क्षेत्र की तमाम दिक्कतों के बाबजूद अपनी ओर खिंच लेता है. सन १९९५ में सहरसा जिले के सुर्तिपत्ति गाँव की ५० साल की संसा खातून कहती है, कुछ नहीं बचा, न घर, न खेत-पत्थर, कुछ नहीं. कोशी सब बहाकर ले गयी. कोशी हर साल करीब ८०,००० लोगों को बेघर करती है. लोगबाग पंजाब, हरियाणा और दिल्ली का रुख करते हैं. लेकिन फिर से लौट आने के लिए, अपने पानी में डूबे घर की ओर. “यह हमारा घर है, हम कहाँ जाएँ. जब पानी आता है हम महज बांध के दूसरी तरफ इंतजार करते हैं.”
संदर्भ
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सदन जी,
बहुत दिनों बाद रेणु पर एक रोचक व आत्मीय लेख पढ्ने को मिला। आपको बहुत बहुत धन्यवाद! डी. यू. के शोध की यादें ताजा हो आयीं।