मार्च + जून २०१० / March + June 2010
अपर्याप्तताएँ और एक सच्चा अन्य
“गाँव” पर केन्द्रित यह वार्षिकांक देर से आया है. यह एक संयुक्तांक भी है और इसलिए इसमें अंक भर सामग्री मुख्य थीम के अलावा भी है.
जिस समय लाखों किसान आत्महत्या कर रहे हों, जब ‘विकास’ की मुख्यधारा में उपेक्षित रह गए समुदाय अपने सर्वाइवल के लिए हिंसा के उदास विकल्प को स्वीकार कर रहे हों, जब लोकप्रिय कल्पना में गाँव को एक तत्काल त्याज्य मध्यकालीन अवशेष में छवि-बंद किया जा रहा हो, जब गाँव पर हर वाक्य पलटकर शहर पर एक इबारत बन जाता हो तब मुख्यतः ‘नागर विशेषज्ञों’ और वक्ताओं के साथ गाँव पर किसी विमर्श का प्रस्ताव करना उसे मूलतः एक ‘समस्या’ में घटाने की दिशा में पहला अनचाहा कदम हो सकता है. क्योंकि इतिहास का अंत हुआ हो या न हुआ हो, मनुष्य ने अंतिम संभव राज्य व्यवस्था पा ली हो या न पा ली हो यह एक दुखद तथ्य है कि हमारे भविष्य से, भविष्य की हमारी योजनाओं और यूटोपियाओं से गाँव का लोप हो चुका है. न उसके लिए लिबरल डेमोक्रेटिक स्वर्गोद्यान (जिसे वह एक पीड़ादायक विडंबना के साथ ‘ग्लोबल गाँव’ कहता है) में कोई जगह है न उसके विकल्प के रूप में प्रस्तुत भविष्य कल्पनाओं में. दोनों की संसार और उसके भविष्य की कल्पना एक नागर, औद्योगिक स्पेस की है. हम एक गाँव-विहीन विश्व में रहने के अनुबंध पर हँसते हँसते हस्ताक्षर कर चुके हैं.
और शायद ऐसा होगा भी. इसके बावजूद, पिछले कुछ दशकों में नागर औद्योगीकरण पर आधारित विकास के जो दुष्परिणाम सामने आये हैं और उस तरह के विकास को ग्लोबल पूँजीवाद के नए संस्करण द्वारा तीसरी दुनिया में एकमात्र संभव भविष्य बनाने की परियोजना ने जिन प्रक्रियाओं ने जन्म दिया है उनके भीतर से कहीं उम्मीद की पैमाइश भी की जा सकती है. लेकिन (तीसरी दुनिया में) क्या वो एक अकादमिक, रिटॉरिकल उम्मीद ही हो सकती है, उससे अधिक नहीं? यह अंक इस प्रश्न के उत्तर पाने की एक बहुत सीमित, छोटी-सी, कई तरह से अपर्याप्त कोशिश है.
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अंक की एक प्रमुख अपर्याप्तता पी.साईनाथ के साथ एक संवाद का अभाव है जो हम उनकी व्यस्तता के कारण अंक के इतना देर से आने के बावजूद नहीं कर पाये. अंक का मुख्यतः हिन्दी-अंग्रेज़ी तक सीमित होना और इस तरह भारतीय अनुभव के एक अंश तक सीमित होना दूसरी बड़ी अपर्याप्तता है. और भी कुछ छोटी-छोटी अपर्याप्तताएँ हैं जो पाठकों को बीच बीच में कहीं दिखेंगी.
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गाँधी द्वारा प्रस्तुत सभ्यता के विकल्प की अनुगूंजें, अक्सर अनायास और अनियोजित, इस अंक में कई जगहों पर हैं पर यह अंक उस विकल्प को एक पताका की तरह लहराने और उसे एकमात्र विकल्प बनाने की अभियांत्रिकी से बचते हुए उसे एक सच्चे अन्य की तरह, लगातार घूरती एक नज़र की तरह अपने आस पास मौजूद एक सचेतक की तरह देखता है.
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इस अंक के साथ प्रतिलिपि की टीम का विस्तार हो रहा है. दो साल से अधिक समय तक हमने इसे बिना किसी भी तरह के समझौते के, और बिना किसी तरह की सरकारी गैर-सरकारी फंडिंग के निकाला है. जो मित्र ऐसे काम में साथ आ रहे हैं हमारे मन में उनके लिये अपार आदर है. हम उम्मीद करते हैं कि विभिन्न भाषाओं के परामर्शकों के सहयोग से हम इसका बहुभाषीय स्वरूप बरकरार रख पायेंगे.
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यह अंक उदयन वाजपेयी, आशुतोष भारद्वाज, मनोज कुमार झा, प्रभात रंजन, देसराज काली और प्रभात जैसे मित्रों के सहयोग के कारण संभव हुआ है, उनका गहरा आभार.
Insufficiencies and a True Other
This anniversary issue, focusing on the village is – to put it mildly – late. This is a double issue, therefore, and contains an issue-worth of material not pertaining to the theme as well.
At a time when lakhs of farmers are committing suicide, when communities ignored by mainstream ‘development’ have taken up the sad alternative of violence for survival, when the village is becoming a disposable medieval remnant in the popular imagination, when every sentence about the village turns into a text about the city – then having any discussion on the village risks reducing it to a ‘problem’. Because, whether this is the end of history or not , whether we have found the ultimate form of government or not, it is a sad fact that the village has disappeared from our plans and from our future utopias. It has no place in the Liberal Democratic paradise (ironically termed the ‘Global Village’), nor in any other imagined futures. They all see the future as an urban, industrial space. We have already signed our agreement to a village-less future.
And maybe that is how it will be. But still – despite the dangerous side-effects of urban industrialization that have become visible in the last few decades, and the processes that have come into being because of global capitalism’s project of bringing the only possible future to the third
world – there may be reason to hope. But can it only be a rhetorical, academic hope in the third world? This issue is a small, limited and, in many ways, insufficient attempt to find an answer to that question.
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One of the biggest insufficiencies of the issue is the missing conversation with P. Sainath which we could not make possible because of his demanding schedule. Being limited to mainly Hindi and English, and thus being limited to only a small part of the Indian experience is another insufficiency. And many other, smaller insufficiencies that readers will, now and then, run into.
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Echoes of the alternative civilization conceived by Gandhi resound, unexpected and unplanned, throughout this issue. But instead of brandishing that dream as the only legitimate one, this issue sees it as a true other, staring back at us with warning eyes.
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This issue also brings with it an expanded Pratilipi team. We have survived for more than two years now without compromise and without any sort of funding, and have the greatest respect for our friends who are joining us in this venture. We hope that, with the help of our language consultants, we will be able to keep intact Pratilipi’s multi-lingual character.
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We are grateful to Udayan Vajpeyi, Ashutosh Bhardwaj, Manoj Kumar Jha, Prabhat Ranjan, Desraj Kali and Prabhat, without whose help this issue would not have been possible.
behatar ank ke liye badhai.
gawon ki chinta ke liye bhi.
“Sabhyta ka vikalp ” aur ” Gandhi ki shav pariksha “. per ek tulnatamk kaam ke liye tyar ho raha hun
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