मोही जोगिनी बना के कहाँ गइले रे जोगिया: गिरीन्द्र नाथ झा
(फणीश्वर नाथ रेणु मौजूद हैं अपने गाँव में या फिर ..)
कोसी के दोनों पाटों के बीच गूंजती हैं चिड़िया-चूरमून की आवाजें…चूं..चूं.चूं.. भैया उठिए, आ गया रेणु का देश, भोर (सुबह) हो गई है. जम्हाई लेते हुए, गाड़ी से बाहर देखता हूँ. बांस-फूस की बनी बस्तियां. कुछ पक्के मकान भी. मटमैल धोती और कुर्ते में एक बुजुर्ग पर नजर टिकी तो उसने पूछा- कि बात भाईजी, गाम में पहली बार आएं है क्या? किसके घर जाना है? मैंने कहा, रेणु जी का घर किधर है? उन्होंने पूछा- दिल्ली-विल्ली से आए हैं क्या? रिसरच करने आए हैं? दरअसल यहाँ बाहर से लोग रेणु के गाँव की फोटू उतारने आते हैं..फेमस राटर (राइटर) कहते हैं सब रेणु बाबू को…………..
अररिया जिले के औराही हिंगना की तस्वीर कागज पर उतराते वक्त कुछ ऐसी ही बातें याद आने लगती है. रेणु अपने गाँव और उसके आसपास के इलाकों की बातें अपनी कहानियों, उपन्यासों,रिपातार्जों आदि में उतारते रहते थे. उनकी कृतियों और आंचलिकता पर खूब लिखा जा चुका है, लेकिन मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि रेणु के गाँव में इस कालजयी रचानाकार की मौजूदगी अब किस रूप में है… जिस खेत में बारिश के दौरान वे कादो (धान की रोपाई से पहले खेत को गिला किया जाता है) में अपने पाँव फंसाया करते थे और कहते थे कि धान की खेती का कुछ अलग ही मजा होता है, अब उन्हीं के गाँव में, उन्हीं के खेत में सबकुछ बदल चुका है. वह जिस कृषि संस्कृति की वकालत किया करते थे वह अब बाजारु एग्रो टेक्निक में बदल चुका है. ऐसे पौधे लगाए जा रहे हैं, जिस 10 साल में काटकर बेच दीजिए..सब पैसे का खेल.
ग्राम व्यवस्था को बदलने में बुद्धिजीवियों की भूमिका को चाहे गाँधी जी ने ज्यादा करके आंका हो, पर यह सही है, जबतक गाँवों में कृषि क्रांति नहीं होती, उनका जनाधार नहीं बदलता, तबतक यह कार्य शहरी बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी है. रेणु इसी सोच के आधार पर पटना में बैठे भी गाँव की तस्वीर बदलने में जुटे रहते थे लेकिन अब उनके घर में भी ऐसा नहीं होता है. यहीं पर उनकी मौजदूगी पर सवाल उठाने का मन करने लगता है.
गाँव में बदलाव की बयार लाने की वकालत करते थे साथ ही उनकी इच्छा ग्राम्य संस्कृति को बचाए रखने की भी थी. इसी वजह से वह विद्यापत मंडली बनाया करते थे. उनके गुजर जाने के बाद क्या उनकी बातें उन्हीं के गाँव में मौजूद है? यह सवाल मुझे अक्सर परेशान करता रहता है. रेणु को एक बदलाव की संस्कृति के रूप में देखते वक्त जब नज़र उन्हीं के गाँव पर टिकती है तो मन बेचैन हो जाता है. लोककलाओं पर जान न्यौछावर करने वाले औराही के रेणु शायद बेचैन होंगे क्योंकि अब कोई उन ग्राम्य गीतों को गुनगुनाना भी नहीं चाहता है. यदि कहीं उल्लेख भी होता है तो शोध पत्रों आदि में.
रेणु के एक रिपोतार्ज को पढ़ते वक्त इन पंक्तियों पर नजर ठहरती है- “ मेरा गाँव ऐसे इलाके में हैं,जहाँ हर साल पश्चिम पूरब और दक्षिण की कोसी, पनार,महानंदा और गंगा की बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं. सावन भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट परती से पर गाय गाय-बैल-भैंस बकरियों भेड़ों के हजारों झुंड के झुंड देखकर ही लोग विभीषिका अंदाजा लगा लेते हैं.“ रेणु के गुजरने के बाद यदि कुछ नहीं बदला है तो औराही की यह तस्वीर. साल में एक बार फारबिसगंज के समीप स्थित इस इलाके में ऐसी विभीषिका देखी जा सकती है.
रेणु को पढ़ते वक्त अहसास होता है कि उनकी जड़ें दूर तक गाँव की जिंदगी में पैठी हुई है. भारतीय गाँव, छोटे-बड़े, कस्बानुमा. मुझे कभी-कभी शहर भी गाँवों का आभास देता है. मार्क्स ने इन ग्राम समुदायों को नदी के द्वीप कहा था- जड़ और निरीह. मगर उन्होंने यह भी लक्षित किया था कि अपनी निरीहता के बावजूद इन ग्राम समुदायों ने विचित्र शक्तियों का सर्जन किया है. रेणु के गाँव में ऐसी ही शक्तियां पहले अफरा-तफरी मचाया करती थी. 50-60-70 के दशक का औराही वैचारिक केंद्र हुआ करता था, जहाँ तस्वीर बदलने के लिए योजनाएं बनती थी, आंदोलन की रुपरेखा तैयार की जाती थी, लेकिन 80 के दशक के आते-आते सब बदल गया. जिस राजनीतिक पृष्ठभूमि में बदलाव की बात की जाती थी वह पृष्ठभूमि ही मिट गई. भला ऐसे में औराही में रेणु की मौजूदगी पर सवाल उठाना क्या गलत है. औराही की तस्वीर को लिखते वक्त सन्नाटा वीराना, खामोशी अनजानी, जिंदगी लेती है करवटें तूफानी, जैसे शब्द सुनाई देने लगते हैं.
फ्लैशबैक में जाएं तो, रेणु अपने गाँव औराही में हों या फिर पटना में, उनके आसपास सृजनधर्मी लोगों की एक जमात हमेशा बनी रहती थी. उन्होंने एक बार अपने गाँव में लेखकों और रंगकर्मियों का एक शिविर आयोजित करने का निर्णय लिया था लेकिन अस्वस्थता के कारण वह कार्यक्रम नहीं हो पाया. बाद में उन्होंने पूर्णिया के कुछ इलाकों में कवियों की टोली के साथ कार्यक्रम आयोजित किए थे. रेणु ने आषाढ़ की बरसा में भींगते हुए नागार्जुन के साथ अपने खेत में धान रोपे थे. अब ऐसी बातें करने पर औराही में ही लोग हंस देंगे. पूर्णिया में रेणु के नाम पर एक पार्क है, उसमें उनकी एक प्रतिमा भी स्थापित की गई लेकिन उसकी दशा देखकर मन दुखी हो जाता है.
रेणु के बारे में जबसे कुछ ज्यादा जानने-समझने की इच्छा प्रबल हुई, ठीक उस समय से पूर्णिया जिले की फिज़ा में धुले उनके किस्से इकट्ठा करने में लग गया. बाकी उनका लिखा जो मिलता सो पढ़ता गया. रेणु को करीब से देखने वाले एक व्यक्ति ने उनके बारे में इक बार बताया था कि उनका रचनाक्रम उनके जीवन-कर्म की तीव्रता के बीच ही अधिक हुआ था. गाँव को लेकर वह बेहद गंभीर थे. औराही के अलावा पूर्णिया जिले के सभी गाँवों पर उनकी खास नजर बनी रहती थी. जब-जब वे संघर्षों के बीच जूझते रहे, तब-तब वे गाँवों का दौरा करते. उन्हें गाँव से रचनात्मक ऊर्जा मिलती थी.इसी दौरान साथ उन्होंने श्रेष्ठ कृतियों का सृजन किया. निश्चिन्तता और सुख-सुविधा की स्थिति में उन्होंने छोटी-छोटी फुटकल रचनाएं की.
रेणु को कुत्ते पालने का बेहद शौक था. अलग-अलग नस्ल के कुत्तों और उनके गुणों की उन्हें बारीक पहचान थी. उनके पास एक झबरीला कुत्ता हुआ करता था. वे कहते थे कि कुत्तों की छठी इंद्रीय अधिक जाग्रत होती हैं, यही सजग लेखकों में पायी जाने वाली संवेदनशीलता है. ऐसी संवेदनशीलता भला अब कौन जगाकर रखे. उनके गाँव पर बात करते वक्त ऐसी कई बातें उछाल मारने लगती है.
रेणु खुलकर बोलने और लिखने वाले थे, उनके कथा-पात्रों से इसे बखूबी समझा जा सकता है. गाँव ने उन्हें ऐसा कहने-लिखने की ताकत दी थी. इसका प्रमाण मैला-आंचल की भूमिका है. इसमें वे लिखते हैं-
इसमें फूल भी है शूल भी, धूल भी है, गुलाल भी, कीचड़ भी है चंदन भी, सुंदरता भी है कुरुपता भी. मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया. कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य के दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूँ.
रेणु की खासियत उनका रचना संसार था(औराही के पात्र, परिवेश सबकुछ उनकी कृतियों में मौजूद हैं). वे अपने पात्रों और परिवेश को साथ-साथ एकाकर करना जानते थे. वे कहते थे कि उनके दोस्तों ने उन्हें काफी कुछ दिया है. वे खुद लिखते हैं-
इन स्मृति चित्रों को प्रस्तुत करते समय अपने लगभग एक दर्जन करीबी लंगोटिया यारों की बेतरह याद आ रही है. वे किसानी करते हैं, गाड़ीवानी करते हैं, पहलवानी करते हैं, ठेकेदार हैं, शिक्षक हैं, एमएलए हैं, भूतपूर्व क्रांतिकारी और वर्तमानकालीन सर्वोदयी हैं, वकील हैं, मुहर्रिर हैं, चोर और डकैत हैं. वे सभी मेरी रचनाओं को खोज-खोज कर पढ़ते हैं – पढवाकर सुनते हैं और उनमें मेरे जीवन की घटनाओं की छायाएँ ढूंढ़ते हैं. कभी-कभी मुझे छेड़कर कहते हैं- साले उस कहानी में वह जो लिखा है, सो वहाँ वाली बात है न ?” (पांडुलेख से)
रेणु को चाहने वालों में साहित्यिक बिरादरी के अलावा आम लोग भी हैं, जिन्हें रेणु के शब्दों से खास लगाव हैं. वे रेणु को प्यार करते हैं. वे आम पाठकों के रूह को छूने वाले कथाकार थे. कलकत्ता (अब कोलकाता) का एक अभिभूत कर देने वाला प्रकरण है. तब रेणु की पहुंच फिल्म तीसरी कसम से दूर-दूर तक फैल चुकी थी. रेणु कुछ फिल्मी दुनिया के साथियों के साथ देर रात धर्मतल्ला (कोलकाता) के इलाके में अंग्रेजी शराब के संधान में लगे हुए थे. उन्हें शराब की एक दुकान दिखी, जिसका मालिक दुकान का शटर गिरा चुका था और ताला लगा रहा था. रेणु ने जाकर उससे मनुहार की कि उन्हें शराब दे दी जाए. दुकानदार ने झुंझलाते हुए कहा- दुकान बंद हो चुकी है, शराब नहीं मिलेगी.
रेणु ने निराश होकर अपने साथियों को और दुकानदार को देखा. उनके मुँह से बरबरस निकल पड़ा- इस्सस थोड़ी देर पहले आ जाते तो….. दुकानदार ने चौंक कर रेणु को देखा. लंबे-लंबे घुंघराले बाल. संभवत उसने रेणु की कहीं तस्वीर देखी होगी. उसने पूछा अरे आप रेणु हैं. रेणु चौंके और कहा- हाँ.
दुकानदार अपनी खुशी छुपा न सका. उसने झटपट दुकान खोली और रेणु के हाथों में शराब की कुछ बोतले थमाते हुए पूछा- तीसरी कसम के नायक हीरामन के जुबान पर सादगी भरे लहजे में लजालू अभिव्यक्ति सूचक इस्स्स चढ़ाने की सूझी कैसे आपको. रेणु किंकर्त्तव्यविमूढ़ , क्या जवाब देते..बस हंसते रहे………
ये थी रेणु की पहुंच. लेकिन अबके दौर में उनकी उपस्थिति किन अर्थों में हैं, यह शोध का विषय हो सकता है. कोसी के इलाकों की नई पीढ़ी रेणु से अनजान है. कोसी के इलाकों में उनका क्रेज घटता चला गया. यहाँ तक कि औराही में भी रेणु केवल रिसर्च का विषय बन गए हैं.
रेणु के साहित्य में डूबे रहने की आदत से ही मुझे पता चला कि मनुष्य की आकृति, रूप-रंग, बोलचाल, उसके व्यक्तित्व की वास्त्विक कसौटी नहीं है और न हीं बड़ी-बड़ी इमारतों से देश की प्रगति मापी जा सकती है. दरअसल बहुत बार जिन्हें हम भद्दा और कुरूप समझते हैं, उनमें मनुष्यता की ऐसी चिनगारी छिपी रहती है, जो भविष्य को भी जगमग कर सके. औराही में भी ऐसी बातों को याद दिलाने की जरूरत है. मैला-आँचल में रेणु के बावनदास चरित्र की याद आ रही है. उपन्यास में बावनदास की मौत पर रेणु की मार्मिक टिप्पणी के साथ, मैं औराही के बहाने कोसी के ग्रामीण परिवेश की कथा खत्म करता हूँ-
दो आज़ाद देशों की, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की ईमानदारी को, इंसानियत को बावनदास ने बस दो ही डगों में माप लिया.“
(मैला आंचल पृष्ठ संख्या 320)
रेणु आपने समय के विलक्षण रचनाकार और उतने ही महत्वपूर्ण व्यक्तित्व थे. आज उनकी स्मृति और दाय को भुला देना स्वयम इस पीढ़ी की कलात्मक क्षति है. इस लेखा में आपने मौजूं सवाल उठाये हैं. हमें अपने पुरोधा साहित्यकारों के प्रति चाह को मरने नहीं देना है.
गिरीन्द्र आप का लेख पढ़ा। बहुत अच्छा लगा। रेणु की धरती से आते हैं और वहाँ के माटी-पानी की खुशबु आप के लेखन में भी है। खासकर भाखा के से साथ खेलना का अदम्य उत्साह।