कितनी तकनीकी, स्वामीनाथन: समर्थ वाशिष्ठ
कितनी तकनीकी, स्वामीनाथन?
कितनी तकनीकी, स्वामीनाथन
कि ग्रीष्म से झुलसी सड़क पर
चलते तुम्हारे पांव
पाएं कुछ आराम
सत्तर पार की इस उम्र में
सुबह जब तुम लौटाओ
किसी परेड में तैनात
सिपाही सी कड़क मेरी कमीज़ें
विस्मय से भरी तुम्हारी आंखें
समझें मेरे लैपटॉप की टिमटिमाती बत्तियां
फ़ोन के छुअन से चलने का विज्ञान
मन करता है स्वामीनाथन
करूं तुमसे बहुत सी बातें
पूछूं तुम्हारे पोते-पोतियों के नाम
जानूं तुम्हारे महानायकों के
काले चश्में पहनने का रहस्य
तुम जानते भी हो, स्वामीनाथन
पहली दुनिया में गिना जाने वाला है
भारत?
कितनी तकनीकी
कि हमें मिल जाए चार शब्दों की एक भाषा
जिसमें बतिया पाएं सिर्फ़ एक बार खुलकर
तमिल की छंटी क्यारियों
और हिंदी के सुघड़ स्तनों
के परे?
शेष
मुझे याद नहीं रहते चेहरे
इसकी आप ऐसे व्याख्या भी कर सकते हैं
कि मुझे भूल जाते हैं चेहरे
पर नहीं
मुझे याद नहीं रहते चेहरे
मुझे याद रहती हैं भवें, ओंठ
कलमों के कटाव भी
पर इन सभी से
एक मुक़्क़मल चेहरा नहीं जोड़ पाता है
मेरा दिमाग.
गहरी नींद से तपककर उठाता है
मुझे जो दु:स्वप्न
उसमें मुझपर झुका रहता है
बिल्कुल सपाट चेहरे वाला कोई
फ़िल्में देखते भी अक़्सर
खूबसूरत चेहरों से ज़्यादा
मुझे इंतज़ार रहता है
पुष्ट नितंबों का.
बहरहाल, हालत ये है कि
मुझे लगने लगा है
सैंकड़ों आंखों सी मेरी आंखों
और हज़ारों नाकों सी मेरी नाक
को भी नहीं सोच पाएगा कोई
एक साथ
कैसा लगूंगा स्मृतियों में मैं?
शायद याद रहे
मेरी गेंद-सी तोंद!
घर
तुम्हारे साथ होने से चला पता
किसी व्यस्त रेस्त्रां की गंधाती मेज़ पर
भी होता है घर
एक कोने में सजाकर अपना रूमाल
तुम उठाती हो दीवारें अभेद्य
चारों दिशाओं में बिखरा मैं
सिमट जाता हूं उनके बीच
तुम्हारे साथ होने से आया समझ
कुमार विकल का
घर को एक लोकशब्द बनाने का
स्वप्न
महानगर के स्याह किसी टुकड़े में
दुबके रहने का
आनंद
और ये भी कि खिलखिलाया जा सकता है ताउम्र
बिना दिए तरज़ीह
कि उठाना पड़ेगा चाबियों का गुच्छा
यूहीं
अचानक
अच्छी, सोचने को मजबूर करती कविताएं। खासतौर,’ स्वामीनाथन’ मुझे बहुत भाई!