आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

बनारसः अनिल यादव

तब कइसन लगी बनारस

सौ, सवा सौ साल बाद इतिहास पढ़ते भए कोई आज के बनारस पर पहुंचेगा तो क्या सोचेगा. इतिहास माने शिव के त्रिशूल पर टिके दुनिया के सबसे पुराने शहर का महिमा पुराण नहीं, हमारे दैन्दिन नागरिक जीवन का इतिहास. जो आसपास घट रहा है, आदमी जो बक रहा है, जो अखबारों में छप और टीवी पर दिख रहा है- उसे जिल्दबंद कर दिया जाए. तब पता चलेगा कि उन दिनों लोग बनारस में कैसे जी रहे थे वरना रनिवासों में रानियों की संख्या की तरह ही इतिहास के नाम पर लोगों को सांसद, विधायक निधि से कराए कामों के पत्थर और प्रशासन द्वारा जनता के हित में जारी टीपों एवं आख्याओं के साथ विज्ञप्तियां ही मिलेंगी.

हमारे समकालीन जीवन का इतिहास पढ़ते हुए आदमी पाएगा कि बिजली की भयंकर किल्लत थी. इसलिए नहीं कि लोग कटिया मार कर रोशनी चुरा रहे थे, बल्कि खुद सरकारी विभाग बिजली के बिल नहीं देते थे और भ्रष्टाचार के कारण विभाग का भट्ठा बैठ चुका था. अस्पताल में जनरेटर था लेकिन उसे चलाने के लिए डीजल नहीं था, उसे भद्र और शालीन दिखते अफसर पी चुके थे. अगर नहीं पी चुके थे तो वह किसी फाइल में कागज के एक टुकड़े पर एक दस्तखत के इंतजार में रखा हुआ था, जिसे आगे पिया जाना था. कभी-कभार मरीजों को चीरा लगाकर यूं ही छोड़ दिया जाता था और फिर बिजली आने पर आपरेशन होता था. अद्भुत समय था वह, मरीजों के परिजन अस्पताल के गलियारे में टहलते हुए मरीज की प्राणरक्षा के लिए गंगाजी की आरपार की माला की मनौती मानते रहते थे, नर्सें भुतहे स्टाफ रूम में लिपस्टिक लगाती रहती थीं और डाक्टर पूरी तल्लीनता से प्राइवेट प्रैक्टिस किया करते थे.

जगतविख्यात विश्वनाथ मंदिर में पारदर्शी दान पेटिका लगा दी गई थी ताकि जितना माल आए, झलकता रहे. किसी में हिम्मत नहीं थी कि धर्मप्राण पुजारियों की नीयत पर शक करे फिर भी यह व्यवस्था करना जरूरी समझा गया था. जो लोग तैरना नहीं जानते थे, गर्व से सीना तान कर गंगा को पैदल पार कर सकते थे. क्योंकि नदी सूख रही थी, लाशों और कचरे से प्रदूषित थी. आए दिन गंगा को बचाने के लिए प्रभातफेरियां, गोष्ठियां, सांस्कृतिक कार्यक्रम वगेरा होते. बच्चे मां गंगा के सुंदर चित्र बनाते, परोपकारीजन और एनजीओ विलापमुद्रा में नित्यप्रति घाटों पर सिर पटकते. फिर भी गंगा हर दिन और प्रदूषित होती जाती थीं और धार्मिकजन निरपेक्ष भाव से कचरा ठेलकर, गोता मारने भर की जगह बनाकर ईश्वर से एकतरफा संवाद करते रहते थे.

खड़बड़इया सड़कों पर इतनी भीड़ थी कि लोग चलते नहीं थे, धुंआ पीते हुए रेंगते थे. इतनी भीड़ में भी अपराधियों के गिरोह जिसे चाहे टपका कर हवा हो जाते थे. अद्भुत कौशल था उनका. बड़ी लगन और साधना से उन्होंने हर जगह सिग्नल पकड़ने वाला अपना नेटवर्क बनाया था. इनमें से अधिकांश चुनाव लड़ते थे और अक्सर जीत जाते थे. पुलिस उनके अपराधों के ब्यौरे तैयार करती थी और बड़ी हिफाजत से सहेज कर रखती थी. वे जेल में होते हुए भी वणिकों और श्रेष्ठियों से अबाध वसूली करते थे. नगर के नेता घनानन्द और चन्दवरदाई स्तर के कवि होने लगे थे जो अपने दल के बड़े नेताओं की प्रशस्ति में नए-नए छंद रचते रहते थे और चुनाव के वक्त टिकट पाने के लिए एक दूसरे को लंगी मारते थे. बाकी वक्त वे चाय की दुकानों पर मक्खियां मारने में एक दूसरे से स्पर्धा करते थे.

विद्या का हाल यह था कि संस्कृत के आचार्य आजीविका के लिए अंग्रेजी की कापियां जांचते थे. कला-संस्कृति का परिदृश्य अद्भुत था. एक वादक ने देश का सर्वोच्च सम्मान न मिलने पर आत्महत्या की धमकी दे रखी थी जो अस्सी से दिल्ली तक गश्त करती रहती थी. चुप रहना, उस युग का प्रमुख शिल्प था. कोई किसी के फटे में टांग नहीं अड़ाता था. लोग सुबह नाश्ते के साथ सीवर मिला पानी पीकर घर से निकलते थे. दिन भर पान घुलाते हुए कुछ बुदबुदाते रहते थे. शाम को लौटकर टीवी पर रियलिटी शो देखते और सो जाते थे. हर छोटी, बड़ी मुसीबत के समय एक दूसरे को घूरते थे और अकबकाकर चिल्लाते थे- हर-हर महादेव.

आधी रात गए बौड़म पटेल

संकट मोचन संगीत समारोह की आधी रात लड़कियों की जबान पर बौड़म पटेल का नाम था. टी शर्टों और पाजामों में आधुनिक होती ये लड़कियां कुमार गंधर्व की बेटी कलापिनी कोमकली को गाते देखने अपने घर वालों के साथ आईं थीं. मृत्यु के सिवा शायद बातचीत की और कोई वजह होती तो बौड़म पटेल का सिर्फ नाम ही उन्हें खिलखिला देने के लिए काफी था. लेकिन वे गंभीर थीं. इन लड़कियों के सपनों के पुरूष शायद वैसे ही सफल दिखते, हिंग्लिश बोलते, एक्जीक्यूटिवनुमा लोग होंगे जो टेलीविजन पर कारों और कमीजों के विज्ञापनों में दिखते हैं. फिर भी वे अस्सी साल के बौड़म पटेल की बात कर रही थीं जो पांच दिन पहले मणिकर्णिका घाट पर अपनी पत्नी की चिता पर जल मरा था.

बौड़म के घर वाले कहते हैं कि वह सती होने के लिए नहीं कूदा था. पैर लड़खड़ा जाने के कारण गिर गया. उसके बेटे ने उसे चिता से बाहर खींचने की कोशिश की तो लोगों ने रोका था. हाथापाई हुई. वे बौड़म को तटस्थ होकर मिसाल बनते देखना चाहते थे. हाथापाई और आत्मदाह के बीच अतीत बन चुकी इस घटना के वक्त लड़कियां वहाँ नहीं थीं. फिर भी वे बौड़म को अपनी पत्नी का नाम बुदबुदाते हुए, चिता पर बैठते देखना चाहती थीं. बल्कि वे मान ही चुकी थीं कि ऐसा ही हुआ होगा. चिता पर दुर्घटनावश लड़खड़ाकर गिरता बौड़म, वैसा ही कमजोर, उदास बूढ़ा था जो हर रोज सड़कों पर रामनाम सत्य करती शवयात्राओं के पीछे सर झुकाए नजर आते हैं. लेकिन जैसे ही वह चिता में कूदा एक आवेग भरे समर्पित प्रेमी में बदल गया. जो चार साल से अपनी लकवाग्रस्त पत्नी के सिरहाने बैठा था, अब उसके चले जाने के बाद उसे जीना मंजूर नहीं था. संगीत समारोह की आधी रात लड़कियों के होंठों पर इसी गंवई बौड़म प्रेमी का नाम था.

हमारे पुरबिया समाज में स्त्री-पुरूष के बीच पता नहीं कभी वह बौड़म प्रेम था या नहीं लेकिन आजकल तो नहीं ही है वरना गर्भ में पलती लड़कियों का अल्ट्रासाउंड मशीनों से आखेट करने में हम चैम्पियन न होते. हमारे यहाँ प्रेम अघोषित, आपराधिक कार्रवाई है. जिस प्रेम को मान्यता है उसमें शर्तें हैं, अनुबंध हैं, जाति-वर्ण-कुंडली-हैसियत के मिलान के खटराग हैं. राधा-कृष्ण की लीलाओं का गुणगान करते टाटा सफारी से टहलान मारने वाले कथावाचकों की तादाद जिस गति से बढ़ रही है, उसी अनुपात में समाज में औरतों के प्रति क्रूरता भी बढ़ी है. ऐसे में जरा भी अस्वाभाविक नहीं है कि संगीत समारोह की आधी रात लड़कियां बौड़म पटेल की प्रेम की लपटों में दमकती छवि को सहलाएं और सहेज कर रखें. जिस समाज में सचमुच के बौड़म पटेल नहीं होंगे तो वे लड़कियों की कल्पना में ही तो पाए जाएंगे. …और कहाँ मिलेंगे.

फिर भी इस शहर पर कोई पवित्र आभा है?

नेट पर वह बनारस कहीं नहीं है जो मणिकर्णिका और गोदौलिया पर पान घुलाता मिलता है. वहाँ तो उसकी अतीत की भुस भरी खाल है. रंगीन तस्वीरों और छींटदार अंग्रेजी में वह मोक्ष का धर्मालोकित शहर है जहाँ  प्राचीनता की छाँव में एकमेक हो गए धर्म, संस्कृति और इतिहास को डॉलरदाता पर्यटक कैमरे में बंद कर मुफ्त अपने घर ले जा सकता है. तांत्रिक, मांत्रिक और अघोरी हैं, शास्त्रार्थ करते विद्वान हैं, मठों और अन्नक्षेत्रों में धर्म संरक्षित है. कंपूटर पर वह मूषक चालित आभासी तीर्थ है. तीर्थयात्री वे हैं जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय एयरलाइन्स और वातानूकूलित बसें ढोकर यहाँ तक लाती हैं.

सर्च इंजन पर काशी नाम का कोई डिब्बा जोड़िए गाड़ी सीधे किसी पुराणकालीन स्टेशन पर जाकर रूकती है. वहाँ वही काल्पनिक पुरातन शहर है जिसे हम मेले-ठेले पर पटरी साहित्य उर्फ काशी महात्मय जैसी पुस्तकों में पढ़ते आए हैं. सिर्फ भाषा बदल गई है.

वेबसाइटें बता रही हैं कि भारत में जैसे लोग खुलेआम शौच करते हैं वैसे ही मृत्यु भी सार्वजनिक ढंग से देह से स्खलित होती है. मुर्दों को चांडाल (परिजन नहीं) कंधों पर ढोकर मणिकर्णिका लाते हैं. पवित्र अग्नि डोम राजा के हाथ सुरक्षित रहती है और जो कभी नहीं बुझती. बच्चों की एक इलेक्ट्रानिक मैगजीन में बताया गया है कि इस पवित्रतम शहर में पंडे गंगा के किनारे खड़े रहते हैं और वे थोड़ा सा पैसा या अनाज लेकर श्रद्धालुओं को भोजन, फूल और प्रार्थना की कोचिंग देते हैं. ऐसे चांडाल और कोच यहाँ कहाँ हैं, किसी ने देखे हैं?

एक तरफ ये मूषक-चालित तीर्थ है दूसरी तरफ विदेशी सैलानियों के ट्रैवलाग हैं जो बनारस की ज्यादा सटीक तस्वीर पेश करते हैं. एक यात्री फिलिप बी आईवार्ड जूनियर लिखता है- सौ साल से पुरानी एक अंधेरी गली में गली में घूमते मुझे लगा कि मैं पंद्रहवीं शताब्दी में हूं. एक अंधेरी दुकान में मैने दो बनारसियों को, पच्चीस इंच के सोनी टीवी पर वीडियो गेम खेलते देखा. किताबी कल्पना से बनाया मेरा रोमांटिक संसार भरभरा कर ढह गया. एक संगीत समारोह में मुझे महसूस हुआ जैसे किसी खास गर्मी से ब्याकुल बिल्लियां आपस में लड़ रही हों. रात सपने में मुझे लगा जैसे तुरही बजाते लोगों, सांप, गोबर के बीच उठता गिरता भटक रहा हूं. शोर-शराबा इतना था कि भगवान शिव भी घबरा कर ईयर प्लग लगा लेते हैं.

एक और यात्रिन सोफिया स्मिथ लिखती है- रिक्शा, साईकिल, और टैंपो से भरे ट्रैफिक में हजारों लोग रेंग रहे थे. भैंसे बीच सडक में ढिठाई से खड़ी थीं और सांड़ एक दूसरे को चुनौती दे रहे थे. शोर पागल कर देने वाला था. गलियां और सड़कें पान की पीक से लाल थीं. फिर भी इस शहर पर कोई पवित्र आभा है जिसे बनारस कहते हैं.

बनारस पता नहीं क्या है, कैसा शहर है- मुझे अचरज है कि इस लोकसभा चुनाव में पतंगी हिंदू नेता मुरली मनोहर जोशी और खांटी माफिया मोख्तार अंसारी पर कोई ढंग का कोई नारा क्यों नहीं आया अब तक? ध्यान रहे जिस वीपी सिंह को बनारस ने राजर्षि की उपाधि दी थी उसी ने, राजा नहीं फकीर है देश का बवासीर है लंठारक्षणी नारा भी दिया था.

क्यों कहा जाता है- चना, चबैना, गंगजल जो पुरवै करतार – काशी कबहूं न छोड़िए विश्वानाथ दरबार. चना चबैना की जगह इडली-बर्गर है, गंगजल झंडूबाम हो चुका है और विश्वनाथ दरबार का सरकारी अधिग्रहण हो चुका है और वहाँ पारदर्शी दान-पेटिका लग चुकी है ताकि माल तिड़ी करे तो अफसर नीचे का कोई पंडा-पुजारीनुमा आदमी न कर पाए.

हमेशा कुछ दिन बाद लगने लगता है कि पता नहीं आजकल बनारस क्या है? रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी के उस पार क्या है. आप जानते हैं? है कोई बनारसी.

2 comments
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  1. ____…..इनसे बचे तो सेवे काशी। इ सका मतलब नहीं मालूम कोई कष्‍ट करके बता देवे। रांड, सांड़, सीढी सन्‍यासी इनसे बचे तो सेवे काशी। वैसे इस तरह के मजेदार लेखन का किसी दूसरी भाषा में अनुवाद काफी मुश्किल होगा।

  2. ….banaaras ka banaarasi andaj me chitran……
    badhai…..

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