आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

निराला का उत्तराधिकार: व्योमेश शुक्ल

निराला का स्मरण मुश्किल है। उनकी स्मृति उनकी उपस्थिति की ही तरह मायावी है और पर्याप्त वैचारिक, कलात्मक, नैतिक और मानसिक दिक़्क़तें पेश करती हैं। मसलन यही दिक़्क़त कि वह स्मृति है या उपस्थिति, या यही कि निराला के प्रसंग में स्मृति और उपस्थिति का इतना स्याह-सफ़ेद विभाजन मुमकिन या जायज़ है। एक तरफ पाठ्यक्रमों-शोधों-अनुसंधानों-संस्थानों-समारोहों में उनके काव्य का जगमगाता हुआ स्वीकार है और दूसरी ओर कवि की ही सुदूर क्षुब्ध पुकार है जिसके मुताबिक वह हरेक जगह से बाहर कर दिया गया है। क्या जहाँ-जहाँ से कवि को बाहर कर दिया गया था, वहाँ-वहाँ उसे भीतर बुला लिया गया है ? क्या जितना वह स्वीकृत है उतना ही समझ भी लिया गया है? क्या अब वह बिलकुल निरापत्ति और सतह पर उपलब्ध है? क्या वह चालू वक़्त की तर्कपूर्ण, मोहक और अक्सर अश्लील जीवन-व्यावहारिकताओं में पूरी तरह समा गया है? क्या वह पूरी तरह समा सकता है? उसकी स्मृति या उसकी उपस्थिति को कितनी दूर तक अनुकूलित या नियन्त्रित किया जा सकता है? उसके कृतित्व के विराट को धारण करने के लिए क्या एक भिन्न राजनीतिक-सांस्कृतिक ट्रेनिंग दरकार नहीं है?

लगातार पराजय, अपमान और दुखद असामयिक मृत्यु के बाद हिन्दीसंसार ने अन्यान्य निधियों के साथ निराला को भविष्य के कवियों की चेतना की रखवाली और निगरानी का दायित्व भी सौंप दिया है और इस रूप में वह हिन्दी के हर अगले कवि के सिर पर पहरा देते हुए देखे जा सकते हैं। या कम से कम उनकी झलक देखी जा सकती है। साहित्य-विवेक के सामूहिक अन्तःकरण में वह नैतिकता का एक पैमाना हैं और उनकी झलक किसी असाधारण और नामुमकिन स्पेस में शक्ति और सौन्दर्य – जो निराला के सिलसिले में एक ही वस्तु के दो अलग अलग नाम हैं – के विद्युत्कणों की तरह चमकती है और हमारी मदद कर जाती है।

अद्वितीय स्त्रष्टा श्मशेर बहादुर सिंह के शब्दों में –  भूल कर जब राह- जब जब राह ………… भटका मैं / तुम्हीं झलके, हे महाकवि, / सघन तम की आँख बन मेरे लिए, / अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिए, / जगत के उन्माद का / परिचय लिए, – / और आगत प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम, / ऐसे अनेक उदाहरण मुमकिन हैं और उनेक भीतर मनमाफ़िक तरीक़े से भटका जा सकता है लेकिन उदाहरणों की बजाय संकल्पों और लक्ष्यों की शायद ज़्यादा ज़रूरत है इसलिए भटकने की प्रक्रिया को उदाहरणों से प्रतिश्रुतियों के सफ़र में बदल लेना चाहिए और यह बदलाव हमारा अहर्निश कार्यभार होना चाहिए।

निराला अपने रचनात्मक संघर्ष के दरम्यान ही राजनीतिक और सांस्कृतिक सत्ता-प्रतिष्ठान के साथ एक संबंध बना लेते हैं। यह संबंध विरोध का संबंध है, और एक मूल्य की तरह, प्रतिफल की तरह अर्जित किया गया है। जिस रचनाकार के काव्य में इतना अपूर्व वैविध्य, जटिलताएँ और बारीकियाँ हैं, परम्परा, जीवन, प्रकृति और प्रतिकार की अनन्त रंगतें और तहें हैं, हैरत है कि उसका पक्ष उतना ही खुला, निर्भ्रान्त और आग्रही है। हमें, यानी आज की तारीख़ में कविता लिख रहे लोगों को अपना पक्ष तय करने में कितनी भी लौकिक और पारलौकिक तकलीफ़ क्यों न उठानी पड़े, निराला का पक्ष जानने में कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती, और इस बिन्दु पर निराला मुक्तिबोध के उस अनोखे पार्टनर की तरह नज़र आते हैं जिससे उसकी पॉलिटिक्स के बारे में सवाल पूछने की कोई ज़रूरत नहीं है – वह राजनीति ख़ुद में ही अपना बयान है। यहीं पर, निराला के चाहे अनचाहे, निराला का रचनात्मक संघर्ष उनके बाद हिन्दी के प्रत्येक आगामी कवि की आचार संहिता बन जाता है। निराला की अभिव्यक्तियों का एक बहुत बड़ा योगदान यह भी है कि उन्होंने अपने बाद की समूची कविता को प्रतिपक्ष की कविता बन जाने को प्रेरित और बाध्य किया है। यों तो हर दौर में कविता का एक प्रमुख काम अपने वक़्त की ताक़तों की मीमांसा करना रहा है और निराला के पहले की कविता से भी इस धारणा के उत्कृष्ट प्रमाण इकट्ठा किए जा सकते हैं, लेकिन आधुनिक हिन्दी कविता में जो शहादत निराला को हासिल हुई उसकी मिसाल ढूँढ़ने के लिए या तो हमें आजादी की लड़ाई और उसके लड़ाकों की ओर रूख करना होगा या बाद के दौर के मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय और धूमिल जैसी शख्सियतों के जीवन और अन्त की ओर। इस बात की समाजवैज्ञानिक जांच परख अभी होनी बाकी है कि क्यों निराला, मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय की जिन्दगियाँ और कार्यकलाप हिन्दी कविता के पाठक के कामन रेस्पांस में किसी शहादत की तरह दर्ज हैं। और यह भी दिलचस्प है कि निराला अपनी पोज़िशन को बहुत ज्यादा साफ और स्थिर बनाते हुए भी लेखक के साथ प्रतिष्ठान के रिश्ते की बहुआयामिता, बहुस्तरीयता और संश्लिष्टता को कभी भी ओझल नहीं करते। ऐसे लोगों, ऐसी प्रवृतियों की एक फेहरिस्त बनाई जा सकती है जिनकी निराला ने मुद्दों के आधार पर भीषण तारीफ़ और बुराई की है। मिसाल के लिए चार नाम लिए जा सकते हैं –  रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी, नेहरू और सुमित्रानन्दन पंत। दरअसल निराला प्रतिष्ठानपरकता के अचूक आलोचक हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक क्षेत्रों में वर्चस्वशाली विचार की अतियों, चूकों और अहम्ममन्यताओं के सामने जितने निर्भीक और उद्धत निराला हैं उसकी तुलना के लिए कोई दूसरा नाम ढूँढना दुश्वार है, और लगातार ज्यादा दुश्वार होता जा रहा है। रवीन्द्रनाथ के काव्य और जीवन दर्शन का निराला की चेतना पर गहरा सर्वविदित असर है लेकिन यही उनके और रवीन्द्रनाथ के संबंध का एकमात्र आयाम नहीं है; गाँधी के वे कट्टर प्रशंसक है और चर्खे के रचनात्मक और राजनीतिक इस्तेमाल पर रवीन्द्रनाथ के व्यक्तिवादी-अभिजनवादी संशयों का तर्कपूर्ण विध्वंस करने में अग्रणी लेकिन खुद गाँधी के व्यक्तित्व में साहित्य की सरलता के लिए जो दुराग्रह हैं, हिन्दी भाषा और उसके नव्यतम स्पंदनों के प्रति जो उपेक्षाभाव है, उसकी निराला घनघोर भर्त्सना करते हैं। यों ही, नेहरू और पंत के व्यक्तित्वों का वह अलग अलग मुद्दों पर विरोध या समर्थन करते हैं और लोगों इन प्रवृतियों के साथ एक तनावपूर्ण संबंध का आविष्कार और निर्वाह करते हैं जो आगे चलकर आधुनिक कविता के अस्तित्व की एक बुनियादी शर्त बन जाता है। निराला की प्रगतिवादिता की साहित्य संसार में बहुत बड़ी हैसियत है, उन्हें प्रर्वतक और निर्माता माना गया है लेकिन आज की कविता में क्रोध और विरोध का जितना व्यापक अमूर्तन संक्रमित हो गया है, करूणा, क्रन्दन और मृत्यु के सरलीकरणों की जो दुकानें चारों तरफ खुली हुई हैं, और इन वजहों ने एक साथ मिलकर आत्मसंघर्ष से कतराने वाले हीनतर कवियों के लिए काव्यरचना को जितना सरल और मामूली बना दिया है – इस स्थिति को निराला के वस्तुपरक क्रोध की एक स्मृति से नकली साबित किया जा सकता है। प्रबन्ध प्रतिमा नामक गद्यपुस्तक के शुरूआती चार निबन्धों को पढ़ने से मालूम हो जाता है कि निराला विरोध के फैशन या रिवाज़ के फेर में विरोध की मौलिकता और खुलेपन को नजरअंदाज़ नहीं करते। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर के इन मूर्धन्यों को साहित्य के बुनियादी सवालों के आलोक में निराला ने अपने बिलकुल आमने सामने लाकर खड़ा कर लिया है, और इस तरह हिन्दी के आगामी कवियों के लिए यह चुनौती भी खड़ी कर दी है कि उन्हें अपने दौर के राजनीतिक, सांस्कृतिक और कलात्मक प्रभुत्व के खिलाफ बेहद प्रत्यक्ष और पारदर्शी समर में उतरना होगा। और इस क्रम में सरलीकरण से भी बाज आना होगा। जैसे निराला के विरोधी का नाम और पता उनकी रचना में दिखाई देता है वैसा ही हमारी रचना में भी होना चाहिए। अगर ऐसा हो रहा है तो निराला हमारे बीच हैं और यदिन हीं हो रहा है तो वह हमसे बहुत दूर चले गए हैं।

निराला के काव्य का उत्तराधिकार भी एक जटिल सवाल है। कविता की विरासत ज़ाहिर है कि घरेलू संपत्तियों या भारत की राजनीति की तरह तय नहीं होती। वह बहुत से अन्तरालों और अवकाशों में ठिकाना बना लेती है। वह कभी-कभी किसी को हासिल नहीं होती और कभी सबको नसीब हो जाती है। कभी वह बहुत सख़्र्त और निश्चित हो जाती है कभी हवा की तरह पारदर्शी और तरल। उसकी अनगिनत शक्लें हैं और हर समर्थ कवि अपनी राजनीति और सौन्दर्याभिरूचि के लिहाज से परंपरा को अर्जित और निरस्त करता है। निराला ने भी ऐसा ही किया था। उनके पहले और बाद के कवियों ने भी। निराला ने अपनी दृष्टि के मुताबिक तुलसीदास के महाकाव्यात्मक विज़न को आयत्त किया। तुलसीदास से रिश्ता रखने के जो भी जोख़िम मुमकिन हैं, उन्हें उठाते हुए। तुलसीदास और निराला के संबंध के सामने सहमत या समर्पित होना तो संभव नहीं है लेकिन निराला का रचनात्मक हौसला बेचैन कर देता है और विनय देखिए कि वह कभी भी अपने काव्य में तुलसी की उपस्थिति का दावा नहीं करते। लेकिन तुलसी के विराट से उलझने की परियोजना उनके काव्य की केन्द्रीय विशेषताओं में से है। इसी तर्ज पर निराला की व्यापकताएँ हमारे सामने हैं। उनसे उलझने, उसमें रोकटोक और दख़लअंदाज़ी करने और उसे पुनराविष्कृत करने की ज़िम्मेदारी हमारे लिए एक चुनौती है, लेकिन दिलचस्प है कि हमारी कविता का एक हिस्सा अपनी सहूलियत और युगानुकूल पॉलिटिकल करेक्टनेस के तकाजों के लिहाज़ से निराला की कविता के अत्यन्त सीमित दायरे को अपने लिए काम का मानता है। अपनी गद्य की एक किताब कविता और समय में अरूण कमल कहते हैं:

निराला ने जो सौन्दर्यबोध रचा वही सौन्दर्यबोध आज की कविता का आधार है, ऐसा मुझे लगता है, निराला ने अपने अनेक लेखों में लगातार इस बात पर बल दिया कि कविता एक अखंड इकाई है इसमें एक या दो पंक्ति या स्थल का अलग से महत्व नहीं, बल्कि प्रत्येक शब्द अपने पूरे वातावरण में ही अर्थवान होता है। ……………. समकालीन कविता ने एक बार फिर कविता के समग्र संश्लिष्ट विन्यास का आग्रह सामने रखा। अकविता के दौरान और उसके बाद धूमिल तक में तथा धूमिल के ठीक बाद भी प्रायः ऐसा देखा जाता है। कविता की एक या दो पंक्ति, पद या बिम्ब सारा ध्यान लूट ले जाते हैं। बाद की कविता ने एक बार फिर निराला जैसी अन्विति और अखंडता हासिल करने का यत्न किया। इसी का नतीजा है कि इन कवियों ने अधिकांशतः छोटी अथवा कम शब्दों की कविताएँ लिखीं क्योंकि वहाँ शब्दों का पारस्परिक सम्बन्ध निर्वाह ज्यादा सुगम था। ये कविताएँ प्रायः हमें उन कविताओं की याद दिलाती हैं जो राम की शक्तिपूजा, सरोज स्मृति, तुलसी दास समूह से इतर हैं। निराला की कविताओं में जो सघनता है, वैसी ही सघनता इन कविताओं का भी अभीष्ट है ऐसा लगता है।

गौरतलब है कि जिस तरह की कविताओं का पक्ष उद्धृत हिस्से में लिया गया है वह छोटी कविताएँ हैं – निराला की छोटी कविताओं को अपना आदर्श और आधार मानने और बताने वाली छोटी कविताएँ – ऐसी कविताएँ, जिनमें शब्दों का पारस्परिक सम्बन्ध निर्वाह ज़्यादा सुगम हो। इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि अरूण कमल यह भी स्वीकार कर रहैं हैं कि निराला की कविताओं जैसी अन्विति और अखण्डता छोटी कविता में ही मुमकिन है।

हो सकता है कि कुछ लोगों की चेतना और क्षमताओं के लिए छोटी और कम शब्दों की कविताओं का शिल्प ज़्यादा  कारगर या आसान हो, लेकिन इस सुविधा को निराला का जायज़ और एकमात्र उतराधिकार मानना तो निराला के अलावा समकालीन कविता की अनोखी शक्तियों के साथ भी ज़्यादती होगी। निराला के यहाँ विराट और बेसम्भाल काव्यसंरचनाओं में जाने का जो दुस्साहस है, ख़ुद की ही अर्जित की हुई अन्विति और अखण्डता का ध्वंस कर डालने का जो औद्धत्य है, उसका उतराधिकार किसके पास है? निराला के यहाँ छंद और अछंद, गद्य और पद्य, प्रगति और प्रयोग, लघु और विराट, हाइकू और महाकाव्य का जो अद्वैत है, उसका उतराधिकार किसके पास है? अगर राम की शक्तिपूजा और सरोज स्मृति जैसी लम्बी कविताओं में निराला असफल हैं तो उनकी असफलताओं का उत्तराधिकार किसके पास है? अगर निराला अंतर्वस्तु की पुकार पर, अंतर्वस्तु की ज़रूरतों के मुताबिक अधिकतम संभव काव्यरूपों में जाने का अभियान छेड़ते हैं तो इस अभियानात्मकता का उतराधिकार किसके पास है? निराला की संपूर्णता का, उनके आरोहावरोह का, महाप्राणत्व का उतराधिकार किसके पास है? अगर निराला ने सिर्फ़ छोटी कविताएँ नहीं लिखी हैं तो सिर्फ़ छोटी कविताएँ न लिखने का उतराधिकार किसके पास है? दिक़्क़त छोटी कविताओं से नहीं, छोटी और लंबी कविताओं को इस कदर अलग-अलग मानने वाली जीवनदृष्टि से है। दृष्टि की इस स्थूलता के सामने तो उपलब्ध और प्रचलित स्थूलताएँ भी बारीक लगने लगती हैं। ………… और निराला की निर्बंधता – जिस तरह झूम झूम और गरज गरज कर निराला ने निर्बंधता का उद्घोष किया, वैसे ही पराक्रम से उसे चरितार्थ भी किया है। टूटें सकल बंध/ कलि के, दिशा ज्ञान गत हो बहे गंध। इस निर्बन्धता का उत्तराधिकार किसके पास है?

ज़ाहिर है कि कई सार्थक जवाब संभव है। देवीप्रसाद मिश्र की पहल ९० में प्रकाशित कविता के एक हिस्से के उद्धरण से बात और साफ़ होगी।

मैं भी क्यों इस तरह लिखना चाहूं, मैं भी क्यों उस तरह कहना चाहूँ। तु मुझे देखकर अफसोस कर रहा होगा मैं तुझे देखकर वल्लाह न कहना चाहूँ।

मैं जो हिन्दी में ही हिन्दी लिखा करता था। मैं वो हिन्दी में ही उर्दू में ही कहना चाहूं। ये मेरा रास्ता है और मेरा वास्ता है। तु मुझे रोकता है क्यों जो मैं सहना चाहूँ।

यह कविता सुनने में ग़ज़ल है और पढ़ने में गद्य – कवि ने इसे ग़ज़ल के तरीके से नहीं, गद्य के विन्यास में लिखा है –  यानी पंक्तियाँ एक के बाद एक लगातार आती रहती हैं, उनका प्रकाशित रूप गद्य का है और सुनाए जाने पर वह ग़ज़ल है और उल्लिखित हिस्सा अपने आप में पूरी कविता है और एक लंबी कविता का छोटा-सा हिस्सा तो वह है ही। तय है कि इस कविता के सामने गद्य-पद्य, लंबे-छोटे सरीखे विभाजन निरस्त और विघटित हो जाते हैं। यह विघटन क्या निराला का उत्तराधिकार नहीं है? उदयन वाजपेयी की कविता में परंपरा और समकाल का जितना गहन अद्वैत है और स्मृति की वर्तमानता के जितने मौलिक, कलात्मक और विवेकवान संस्तर हैं और वह कविता जिस शिद्दत से अनसुलझी जीवन-स्थितियों से उलझती है, उन्हें क्यों नहीं निराला का उत्तराधिकार माना जा सकता? अपनी सरासर गद्यमयता में कात्यायनी जिस तरह पतनशील राजनीति के ठीक सामने खड़ी हो जाती हैं अगर उससे भी लोगों को निराला के साहस की याद नहीं आती तो यह ख़ुद ऐसे लोगों की कायरता का दुखद प्रमाण है।

निराला की काव्यभाषा के संगीत पर भी तरह-तरह से बातें की गयी हैं। उस संगीत का असर शाश्वत है। वह निरन्तर गुंजायमान है और उसके होने के तर्क निहायत अन्दरूनी हैं।लेकिन काव्य और संगीत के अनाधुनिक और सामंती बोध ने निराला के प्रसंग में काव्य और संगीत – दोनों का – अवमूल्यन किया है; अपनी किताब छायावाद में नामवर सिंह लिखते हैं:

गीत तो निराला ने भी लिखे हैं और गीतिका उनके सौ गीतों का संग्रह है। परन्तु गीतिका के अधिकांश गीत संगीत को ध्यान में रखकर लिखे जाने के कारण प्रगीत के गौरवपूर्ण पद से हटकर संगीत के आसन पर चले गये हैं।

इस वक्तव्य से प्रतीत होता है कि संगीत कोई हीनतर वस्तु है और उसे हमेशा प्रगीत से एक दर्जा नीचे रहना चाहिए और गाना-बजाना-भर ही संगीत है। जो टेक्स्ट गाया जा सके, गेय हो, उसे संगीत मान लेना चाहिए और उसकी उपेक्षा होनी चाहिए। यह बयान ऐसा भी आभास देता है कि संगीत तुकान्तता, शब्दों की रूनझुन, वर्णों के दुहराव आदि से सम्भव होने वाली कोई चीज़ है। यहाँ संगीत के महान मानवीय अमूर्तनों, उसकी व्याप्ति, गरिमा, अद्वितीयता और समान्तरता के साथ तो बेशक अन्याय किया गया है, लेकिन क्या कविता के साथ न्याय किया गया है? कविता या गद्य की भाषा में संगीत की उपस्थिति के क्या माने होते हैं, वह किन तर्कों से पैदा होता है और पाठक कैसे उसे अपने लिए अर्जित कर लेता है, इस समझने के लिए विष्णु खरे के कवितासंग्रह ख़ुद अपनी आँख से की रघुवीर सहाय-लिखित समीक्षा के एक हिस्से का उद्धरण पर्याप्त होगा:

…….हम इन कविताओं के दृश्यों को एक सम्पादित फिल्म की तरह देखते हैं। और अगर हमें आज के शिल्पजगत से परिचय है तो हम उस निःशब्द फिल्म के पीछे एक संगीत भी कल्पना में सुन सकते हैं। वास्तव में यह संगीत कविता की भाषा की झनकार से पैदा नहीं होता।

शायद यही कविता का संगीत है और निराला की कविता का संगीत भी, जिसे, हद से हद, कल्पना में सुना जा सकता है और वस्तु संसार की सतह पर जिसके होने के निशान भी नहीं होते।

अंत में जिस गीतिका पर ‘संगीत’ होने का आरोप लगा कर उसे कुछ कम साबित करने की कोशिश की जाती रही है उसी गीतिका की कुछ पंक्तियाँ सुनाकर मैं अपने वक्तव्य का समापन करता हूँ।

सखि वसन्त आया।
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव-वय लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरू पतिका
मधुप-वृन्द बन्दी-
पिक-स्वर नभ बरसाया .

*

(यह लेख निराला पर केन्द्रित हिंदी अकादमी, दिल्ली के एक आयोजन में पढ़ा गया और अकादमी द्वारा भविष्य में एक पुस्तक में संकलित होगा. यहाँ प्रकाशन की अनुमति देने के लिए हम अकादमी सचिव ज्योतिष जोशी के आभारी हैं)

One comment
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  1. निराला जी तो हर प्रकार से निराले व्यक्ति थे .. उनकी कृतियों ने हमें किशोरावस्था में सुन्दर अनुभूति से सींचा .. नव नागती नव लाया ताल छंद नव् ..नव नभ के नव विहग वृन्द को नव पर नव स्वर दे ..वर दे वीणा वादिनी वर दे। वर दे वर दे …

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