पाठक का लेखकत्व: गिरिराज किराड़ू
नवीन सागर की कविता ‘निर्मल वर्मा की किताबें’ निर्मल वर्मा की लिखी हुई या प्रकाशित किताबों के बारे में नहीं है। यह उस किताब के बारे में है जो कवि के पास नहीं है –
बहुत पास रखी हैं
उनकी जितनी किताबें उनके अलावा
मेरे अनुभव में
उनकी यह कौन-सी किताब है!
इसके आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि यह ऐसी कोई पुस्तक नहीं जो निर्मल वर्मा ने लिखी या प्रकाशित की। (आगे हमें पता चलता है इस कवि-आत्म के पास निर्मल वर्मा की ‘सारी’ किताबें हैं) और यह तो निश्चय ही कहा जा सकता है कि यह किताब निर्मल वर्मा के लेखन-क्षेत्र में नहीं इस कवि-आत्म के पाठक-क्षेत्र में स्थित हैः
मेरे अनुभव में
उनकी कौन-सी किताब
उनकी किताबों के पास अनुपस्थित खाली जगह में
बहुत पास और बहुत दूर होने से
इतनी धुंधली
क्या है इस किताब में जो एक पाठक-क्षेत्र में स्थित है किंतु फिर भी एक लेखक का, किन्हीं दूसरी किताबों के लेखक का हस्ताक्षर है, उसका अथॉरिटी-चिह्न हैः
रात में बहुत ऊपर जाता अमूर्त!!
किसी कोण पर चाँदनी में झलकता भ्रम!!!
xxx
इतनी धु़ँधली
कि अनन्त में विलुप्त कहीं मौन प्रार्थना!
जिसके शब्द आत्मा से अगम्य
ईश्वर से परिपूर्ण!
अगर यह इस किताब की अन्तर्वस्तु है तो क्या इस संक्षिप्त, ‘सांकेतिक, ‘लाक्षणिक’ पाठ में ऐसे संकेत, लक्षण मौजूद हैं कि उनके आधार पर हम यह निश्चय कर सकें कि निर्मल वर्मा की ‘किताबों के पास अनुपस्थित खाली जगह में’ उपस्थित यह किताब निर्मल वर्मा की है? क्या ‘आत्मा से अगम्य’ और ‘ईश्वर से परिपूर्ण’ शब्दों से बनी यह किताब निर्मल वर्मा की ‘द बुक’ है – क्या ये संकेत/लक्षण (‘आत्मा से अगम्य’,‘ईश्वर से परिपूर्ण’) निर्मल वर्मा की ‘द बुक’ को, उनके लेखन मात्र को संकेतित करते हैं?
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कवि-आत्म और निर्मल वर्मा की किताबों/किताब के अलावा एक और चरित्र है कविता में – बेटी जिसे ‘उनकी सारी किताबें दे चुका हूँ’ पर जिसे ‘शक है किताब कोई मैं उनकी छिपाए हूँ’। बेटी कविता में दूसरा ‘पाठक किरदार’ है और उसे भी इस ‘काल्पनिक’ किताब के कहीं होने का आभास है।
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निर्मल वर्मा के किसी भी पाठक को ‘रात में बहुत ऊपर जाता अमूर्त’, ‘किसी कोण पर चाँदनी में झलकता भ्रम’, ‘इतनी धु़ँधली कि अनन्त में विलुप्त कहीं मौन प्रार्थना’ ऐसे संकेत बल्कि हो सकता है ‘किताब के वाक्य/अंश’ जान पड़ सकते हैं जो उनकी किसी किताब में या कई किताबों में एक या अधिक बार आए हों – इन संकेतों की दृश्यात्मकता में, इनके अनिश्चयात्क स्वर में, हिन्दी गद्य की एक अतिविशिष्ट ‘छाप’ में निर्मल का हस्ताक्षर उसे पठनीय जान पड़ सकता है पर ‘आत्मा से अगम्य’,‘ईश्वर से परिपूर्ण’ पढ़कर वह असमंजस में पड़ सकता है। इन संकेतों/लक्षणों/ ‘अंशों’ पर ‘वही छाप’ नहीं – इनका लेखक ‘निर्मल वर्मा नहीं’ पाठक है, कवि-आत्म है। अगर यह काल्पनिक किताब कहीं है – कम से कम इस कविता में तो है ही – तो इसे लेखक और पाठक ने, निर्मल वर्मा और कवि-आत्म ने मिलकर लिखा है और यदि ऐसा हुआ किः
एक दिन मेरी बेटी जब
निर्मल वर्मा की किताबों के पास अकेली बचेगी
तो नहीं है उनकी जो किताब
उसकी खाली जगह में लेगी साँस
याद आएगा उसे अव्यक्त
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माँगेगी नहीं वह किताब
जो मै कभी नहीं दे पाया उसे
तो इस ‘सृष्टि जितने अकेलेपन’ के ‘रचयिता’ लेखक और पाठक दोनों होंगे, कि यदि यह अकेलापन एक सज़ा है, तो यह सज़ा सुनाने वाला न्यायाधीश ‘निर्मल वर्मा की किताब/बें’ही नहीं, उन किताब/बों का पाठक भी होगा।
achha vishleshan…mahtwapurn stambh…pathan ka yh kram brkarar rhe…usmen vividhta bhi…
क्या बात है। एक कविता ही मार्मिक है और वह इसलिए भी पसंद आई कि वह मेरे प्रिय लेखक पर है और उस लेखक ने यह कविता लिखी है जिसकी कविताएं और कुछ कहानियां मैं पसंद करता हूं।और फिर आपका यह मार्मिक पाठ सचमुच सुंदर बन पड़ा है। आपको बधाई गिरिराज जी।
बेहतरीन कविता। विश्लेषण भी सुंदर और अर्थ-विस्तार करता हुआ।