प्रतिलिपि प्रश्नावली/Pratilipi Questionnaire
शैलेन्द्र दुबे
1. क्या आपने कभी किसी चीज से आतंकित महसूस किया है? क्या आपने इसके बारे में कभी किसी से बात की? क्या यह अनुभव आपके काम में अभिव्यक्त हुआ है?
मुझे फोन की घंटी से डर लगता है, इसका संबंध शायद उस अनुभव से है जो कुछ वर्षों पहले मुझे हुआ था. मगभग पंद्रह साल पहले. मेरे विवाह को बीस बरस हो गये.माँ तब अमेरिका में थीं. दोनो भाई पिता के साथ थे. एक भाई रोज पी कर बाहर होता था और मैं रोज शाम सात से दस सिर्फ़ फोन का इंतज़ार करता था. लगभग रोज ही पिता फोन करके बताते कि वो लॉकअप में है, कि उसे पी कर हंगामा करते हुए पुलिस पकड़ ले गई. तब मैं अपने उस भाई को लेकर आतंकित रहता था जिसे मैं बेहद प्यार करता था. अब वो समय जुजर चुका लेकिन जब भी फोन की घंटी बजती है और कोई कहता है यह मेरा फोन है तब मेरा चेहरा किसी मूत व्यक्ति के चेहरे जैसा हो जाता है ऐेसा मुझे कई लोगों ने बताया है.
2. मनोवैज्ञानिक/सौन्दर्यशास्त्रीय/दार्शनिक धरातल पर क्या आतंक के अनुभव का कला में प्रतिनिधित्व/निरूपण सम्भव है? क्या आप किन्हीं कृतियों का नाम लेना चाहेंगे जिनमें ऐसा प्रभावशाली ढंग से हुआ हो?
हाँ, मेरा अपना एक प्रोज़ जो की सुग्राहयता के नाम से प्रतिलिपि में ही छपा है के पीछे की दास्तान कुछ भय और आतंक से ग्रसित मानसिकता में ही बनी थी, जिसके तहत मैने कुछ चित्र भी निर्मित किये थे.
3. आपके निकट सर्वाधिक आतंककारी क्षण/घटना/विचारधारा कौनसी है?
पेंटिंग करते हुए कुछ ऐसा मैंने महसूस किया था जिसे मैं कह सकता हूँ कि शायद इतना पारदर्शी था और एक ऐसी दृष्टि जिसको मैंने कभी किसी से शेयर नही किया. और जिससे मैं कई बार भीतर तक बुरी तरह से डरा हुआ रहता था. सौंदर्य से भरी हुई मृत्यु. कभी हुआ तो उसे बता पाउँगा जैसा सच में वह था. बकौल शमशेरजी
हम अपने ख्याल को सनम समझे थे
अपने को ख्याल से भी कम समझे थे
होना न था
होना भी कहाँ था
जो हम समझे थे
4. मुख्यधारा मीडिया और राजनीति के आतंक के रहेटरिक के प्रति आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
मेरे हिसाब से मीडिया या राजनीति अपने बहुआय्मी दृष्टिकोण में अपने-अपने चश्मे साथ रखकर ही व्यवहार करती है. एक कविता पढ़ी थी जिसमे दुनिया का भला चाहने वालों का भला होता है, दुनिया वहीँ रह जाती है. आज सब कुछ जब इतना संदेहास्पद लगता है तब इससे बड़ा आतंक और क्या हो सकता है कि हम अपने मूल जीवन को ही नही ढूंढ पा रहे हैं. अपने ही प्रति इतनी बड़ा अपरिचय, कितना भयानक है.
5. क्या (सीरियल) बम धमाकों के बाद आप असुरक्षित अनुभव करने लगे हैं?
आज का जीवन शायद सबसे असुरक्षित लगता है. निर्भय जीवन एक ऐसी गुहार है जो भीतर तक जाती है और वैसी ही लौट आती है. कविता में कहीं, शब्दों के पास अभी भी कुछ है जो सुरक्षा देते हैं सभी को अपने भीतर. हाँ, चूंकि हम दूर बैठे हैं इसलिए शायद आतंक को बयान नहीं कर पा रहे हैं पर उनका भय और दुख कष्टप्रद है.
I don’t know why, but this line has been one of the most comforting in recent times: “we are not as important in the universe as we might believe.” Thanks Sameer!