आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

Khauf: Gulzar

Pages: 1 2

खौफ़

खौफ़ से नसें तन रही थी उसकी और बैठे-बैठे घुटने यूँ काँप जाते थे,जैसे मिरगी पड़ने वाली हो।

शहर में दंगे चलते चार दिन हो गये थे।कर्फ्यू कुछ देर के लिये सुबह खुलता था,कुछ देर के लिये शाम को। कर्फ्यू खुलता तो कुछ लोग जल्दी-जल्दी रोज़मर्रा की जरूरत का सामान खरीदते। कुछ लोग जल्दी-जल्दी मारधाड़ करते, आग लगाते, चाकू चलाते, और कूछ लाशें गिराकर, कर्फ्यू शुरू होने से पहले ही अपने घरों में आकर बंद हो जाते। गर्म-गर्म खबरें और गर्म-गर्म लहू मुसलसल बह रहा था बम्बई में। लेकिन रेडियो और टीवी बाकायदा अनाउन्स कर रहे थे कि शहर की हालत काबू में है और हालात नार्मल होते जा रहे हैं।

हालात नॉर्मल साबित करने के लिए कल से लोकल ट्रेनें  देर तक चल रही थीं। बेश्तर डिब्बे खाली थे, लेकिन रोशनियाँ पटरियों पर दौड़ती हुई नज़र आयीं, तो चार दिन के मुन्जमद अंधेरे में ज़रा जुम्बिश हुई। रेलवे ट्रैक्स के दोनों तरफ की बस्तियों में जो सन्नाटा पथरा गया था, वो ट्रेन के गुज़रने से कुछ देर के लिए खड़खड़या तो फिर से हरकत की उम्मीद बंधी। यासीन आवाज़ भी सुनता था और उठकर देखता भी था कि गाड़ी चलने लगी है। कल पाँचवा दिन होगा वो अपने घर से गायब था। अब तो इन्तज़ार खत्म हो चुका होगा और उसकी तलाश शुरू हो गयी होगी। दिन खत्म होने ही वाला था कि उसका सब्र टूट गया। शाम का कर्फ्यू खुलते ही वो अंधेरी  स्टेशन पर पहुँच गया। प्लेटफार्म सुनसान था। लेकिन इंडीकेटर पर ट्रेन का वक़्त टिमटिमा रहा था।

ट्रेन बहुत आहिस्ता से दाखिल हुयी स्टेशन में, रोजमर्रा के स्टाईल से नहीं, जैसे मोहताज थी या डरी हुई, सहमी हुई। कुछ लोग थे भी ट्रेन में, इक्का दुक्का, वो फैसला नही कर पाया कि किस डिब्बे में दाखिल हो। अक्सरियत तो हिन्दुओं की है ना।दो-दो चार के गुच्छों में कहीं-कहीं गुंथे हुये रखे थे। वह रूका रहा प्लेटफार्म पर और जब गाड़ी चलने लगी तो एकदम भागकर चढ़ गया। उसने वही डिब्बा चुना जिसमें और कोइ ना हो। बग़ौर देखा चारों तरफ। कोई नहीं था। फिर डिब्बे के आखिरी बैंच पर, कोने वाली सीट में जाकर डूब गया। जहाँ से वह पूरे डिब्बे पर नजर रख सके। ट्रेन ने रफ्तार पकड़ी तो उसकी सांस में सांस आयी।

अचानक डिब्बे के दूसरे कोने से एक मुंडी नमुदार हुई। यासीन के तो होश उड़ गये। घुटनों में फिर से मिर्गी दौड़ गयी।  झुककर सीट के इतना नीचे हो गया कि अगर वो उसकी तरफ आये तो फौरन बैंच के नीचे छुप जाये। या तन के सामने खड़ा हो। पोजीशन ले ले।

डिब्बे का दरवाजा भी दूर नहीं था। लेकिन चलती गाड़ी से कूद जाने से मौत के अलावा कोई खतरा नहीं था। और अगर वो गाड़ी आहिस्ता हो भी गयी तो, वो शख्स। अचानक वह शख्स अपनी जगह पर खड़ा हो गया। खड़े-खड़े ही उसने चारों तरफ देखा। लेकिन उसके चेहरे पर डर या खौफ़ के कोई आसार नहीं थे। वह यकीनन हिन्दू था। यासीन का पहला रिएक्शन यही था। टहलता हुआ वह गाड़ी के परले दरवाजे पर खड़ा हो गया। हवा से उसका मफलर फटे झण्डे की तरह लहरा रहा था। कुछ देर बाहर झांककर देखता रहा वो। और फिर लगा कि किसी चीज़ के साथ जोर आजमाई कर रहा है। यासीन जहाँ बैठा था वहाँ से साफ नज़र नहीं आ रहा था। कोई चीज़ वह खींच रहा था।  कभी दबाता था, उठाता था, कभी  खींचता था। यासीन को लगा कुछ तोड़ रहा है। कि अचानक जंगआलूद दरवाज़ा जोर से घिसटा और एक पुरजोर खड़खड़ाहट के साथ बंद हो गया। अच्छा हुआ यासीन के मुँह से चीख नहीं निकली। लेकिन वह शख्स खुद भी चौंक गया था उस आवाज़ से। उसने देखा था चारों तरफ। और उस तरफ कुछ ज्यादा देर तक देखता रहा जहाँ यासीन छुपा हुआ था। यासीन को शक हुआ, कहीं देख ही तो नहीं लिया उसनें? या आहट पा गया हो? उस शख्स की जोर आजमार्इ ने, यासीन के कलेजे में एक और दहशत बिठा दी। अगर आमना-सामना हो जाये तो क्या वह उसका मुकाबला कर पायेगा? वह शख्स टहलता हुआ दुसरी तरफ के दरवाज़े पर जाकर खड़ा हो गया। गाड़ी जोगेश्वरी का एक सुनसान स्टेशन फलांग गई। गाड़ी रूक जाती तो शायद वह उतर ही जाता। लेकिन ये तो कर्फ्यू वाला इलाका था इसलिए गाड़ी वहाँ नहीं रूकी। कर्फ्यू का इलाका ही शायद ज्यादा महफूज़ होता। कम से कम पुलिस तो होती। और अब तो मिलिट्री भी बुलवाई जा चुकी थी शहर में। फसादातजदा इलाकों में उनको खाकी चकतों वाले घूमते हुये नज़र आ जाते थे और उन पर उसी रंग की वर्दियां पहने फौजी, अपनी बन्दूकों, राइफलों की नलियाँ बाहर निकाले रखते । पुलिस तो बेकार हो गयी थी। अब उनसे कोई डरता नहीं था। हुजूम उन पर बेधड़क पत्थर और सोडा वाटर की बोतलें फेंकती थी। और अब तेजाब के बल्ब भी। पुलिस अगर टीयरगैस की गोलियाँ छोड़ती तो हुजूम के लोग, गीले रूमालों से उठाकर वही पुलिस के उपर फेंक देते थे। साकीनाका में जब वह बेकरी जली, जिसमें वह काम करता था, तो क्या किया था पुलिस ने? दूर खड़ी तमाशा देखती रही। और वहाँ लोग पतली गलियों से बचते  भागते, उन गैराजों की तरफ दौड़े थे, जिधर ठोकी पीटी, छिली अधछिली मोटरों के ढाँचे खड़े रहते थे। जान बचाकर भागे थे, छुपने के लिए। आठ दस लोग थे वो भला हो भाऊ का भागते-भागते उसकी कमर का गमछा पकड़ के चाय वाले के बगल के बाकड़े में खींच लिया। भाऊ को तो मालूम था वह मुसलमान है। लेकिन वह तो हिन्दू है। वह क्यों शगा? भाऊ कह रहा था जब हुजूम के सिर पे खुन सवार हो, तो वह नाम पुछने के लिए नहीं रूकते। उनकी प्यास,खुन से बुझती है या आग से। जला दो मार दो नेस्तनाबूद कर दो। उनका गुस्सा तभी ठंडा होता है, जब सामने कुछ ना रहे।

दूसरे दरवाजे की खड़खड़ाहट ने चौंका दिया उसे। डिब्बे के परले तरफ़ के दोनों दरवाज़े उस शख्स ने बन्द कर दिये थे। और देर तक उस तरफ देखता रहा, जिस तरफ यासीन छुपा हुआ था। खौफ़ ने फिर उसका सिर अपने शिकंजे में ले लिया। वह आदमी दरवाजे क्यों बंद कर रहा है डिब्बे के। क्या उसे मार के उसकी खून में लिथड़ी लाश वह उसी डिब्बे में छोड़कर उतर जायेग अगले स्टेशन पर? ट्रेन अब आहिस्ता हो रही थी। कोई स्टेशन आ रहा था। उस आदमी के कदमों में पहले से ज्यादा खुद एतेमादी थी। वह आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ उसकी तरफ आ रहा था। यासीन की सांस शरी हो गयी थी। माथे पर ठंडे पसीने की आमद महसूस कर रहा था। डर था। सांसें गुच्छा हो रही थीं, थुक निगला नहीं जा रहा था। कहीं उसे उच्छु ना हो जाये । वो खांस ना दे । यही सीट के नीचे पड़े पड़ै । गाड़ी रूकी । कोई स्टेशन आया था । वह आदमी आराम से उस दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया, जिस तरफ प्लेटफार्म था । उसका एक हाथ उसकी जेब में था । जेब में जरूर कोई हथियार होगा, पिस्तौल? या चाकू? यासीन ने सोचा भाग के दूसरी तरफ से बाहर कूद जाये । लेकिन जहाँ छुपा था, वहाँ से निकलते-निकलते तो वह आदमी उसका पेट चाक कर देगा । पेट ही क्यों? गला काट देगा, ताकि आवाज़ भी ना निकले । चोर आँख से उसने झाँककर देखा । वह शख्स बाहर की तरफ देख रहा था । प्लेटफाँर्म पर सन्नाटा था । किसी के कदमों की आवाज भी नहीं आयी । बहुत चाहा यासीन ने कि कोई आ जाये । लेकिन क्या पता कौन आये? हिन्दू? या मुसलमान? एक और हिन्दू ही सही । शायद भाऊ जैसा कोई रहमदिल हो । चाय के बाँकड़े से कैसे अपना जनेऊ पहनाकर वह उसे अपनी खोली तक ले गया था। चार दिन तक रखा। उसने कहा था-

‘मैं मराठा हूँ, लेकिन रोज गोश्त नहीं खाता । तुम कहो तो ले आऊँ । पता नहीं कैसा मिले । हलाल बलाल मैं समझता नहीं । और बाहर की हालत यें है कि सब्जियाँ सड़ रही है अंधेरी में । लेकिन बेचने वाला कोई नहीं । लूट लो तो जितनी चाहे ले जाओं। और रेडियों बार-बार यही कहता था कि शहर के हालात आहिस्ता-आहिस्ता नॉर्मल हो रहे हैं। गाड़ियाँ चल रही है। कुछ इलाकों में बसे भी जारी कर दी गयी हैं। इन चार दिनों में उसे घर वालो की बहुत फिक्र हुई । घर वाले भी उसकी फिक्र करते होगे । उसे एक डर था। कहीं फातिमा उसे ढूँढने के लिए बेकरी के पते पर ना चली जाये । जिस खोली में छुपा था, वहाँ से रेल की पटरी नज़र आती थी । गाड़ियाँ भी नजर आ रही थी। लेकिन भाऊ ने उसे जाने नहीं दिया ।

गाड़ी एक धचके से चली और यासीन खोली से डिब्बे में आ गिरा । वह शख्स बायें हाथ से रॉड पकड़े, बड़ी खुद-एतेमादी से खड़ा था । और दायाँ हाथ अभी तक जेब में था। गाड़ी थोड़ी दूर तक सरकती, घिसटती चलती रही। ये गाड़ी रफ्तार क्यों नही पकड़ रही । सिग्नल ना मिलने की कोई वजह नहीं हो सकती। पटरियों पर ट्रैफिक ही कहाँ हैं। अभी तक कोई गाड़ी दूसरी तरफ से नही गुजरी। गाड़ी बहुत देर तक घिसटती रही। घिसटती रही। और जहाँ आकर रूकी, वह भायंदर का पुल था। नीचे समन्दर की खाड़ी थी, जहाँ से अक्सर लाशों के निकलने की खबरे अखबारों में छपा करती थीं।

यासीन का दम घुटने लगा। इस खौफ़ में जीना मुश्किल था। और वह शख्स जेब से हाथ क्यों नहीं निकालता? उसकी आँखों से पता चलता है कि वह हमला करने वाला है! क्या होगा जब वह हमला करेगा? क्या उसे बाहर निकलने के लिये कहेगा? या सर के बालों से पकड़ के घसीट लेगा और चुप्प से चाकू उसके गले पर रख देगा? क्या करेगा वो? और कुछ करता क्यों नहीं?

उसी वक्त उस शख्स ने जेब से हाथ निकाला । और फिर जोर आजमाई करने लगा। तीसरा दरवाजा भी बंद कर रहा था वो । अब तो भागने का रास्ता भी बंद हो रहा था । और नीचे तो खाड़ी थी। कूद जाये तो मौत यकीनी थी। खौफ़ अब हद को पहुँच रहा था। गुफा बंद हो रही थी।

अचानक कूद के वो बाहर निकल आया । चौककर देखा उस आदमी ने। हाथ जेब में गया। और पता नहीं कहाँ से इतनी ताकत आ गयी यासीन में। ‘या अली’ कह के उस आदमी को टांगो के बीच से उठाया और फेंक दिया बाहर। नीचे गिरते गिरते उस आदमी की चीख सुनाई दी- ‘अल्लाह….’

यासीन खड़ा रहा। गाड़ी चल दी। यासीन को हैरत हुई। ‘क्या मुसलमान था वो भी?’ लेकिन खौफ़ के शिकंजे से जो छूटा था तो ऐसे जैसे मौत के मुँह से निकल आया हो।

उस रात वह फातिमा से कह रहा था ‘अगर ऐसा ना होता, तो मैं भी मुसलमान होने का क्या सबूत देता उसे? क्या नंगा हो जाता?’

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2 comments
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  1. this story was just awesome…. i just wanted to know wether it’s really a true story or not??
    when i read the climax of this story literrally. it was just to hard for me to believe….

  2. Beautiful story i just love gulzarsahib

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