गुजरात पर कवितायें / Gujarat Poems
गुजरात के मृतक का बयान: मंगलेश डबराल
पहले भी शायद मैं थोड़ा थोड़ा मरता था
बचपन से ही धीरे धीरे जीता और मरता था
जीवित बचे रहने की अंतहीन खोज ही था जीवन
जब मुझे जलाकर पूरा मार दिया गया
तब तक मुझे आग के ऐसे इस्तेमाल के बारे में पता भी नहीं था
मैं तो रंगता था कपड़े तानेबाने रेशेरेशे
चौराहों पर सजे आदमक़द से भी ऊँचे फिल्मी क़द
मरम्मत करता था टूटीफूटी चीज़ों की
गढ़ता था लकड़ी के रंगीन हिंडोले और गरबा के डाँडिये
अल्युमिनियम के तारों से छोटी छोटी साइकिलें बनाता बच्चों के लिए
इस के बदले मुझे मिल जाती थी एक जोड़ी चप्पल एक तहमद
दिन भर उसे पहनता रात को ओढ़ लेता
आधा अपनी औरत को देता हुआ
मेरी औरत मुझसे पहले ही जला दी गई
वह मुझे बचाने के लिए खड़ी थी मेरे आगे
और मेरे बच्चों का मारा जाना तो पता ही नहीं चला
वे इतने छोटे थे उनकी कोई चीख़ भी सुनाई नहीं दी
मेरे हाथों में जो हुनर था पता नहीं उसका क्या हुआ
मेरे हाथों का ही पता नहीं क्या हुआ
उनमें जो जीवन था जो हरकत थी वही थी उनकी कला
और मुझे इस तरह मारा गया
जैसे मारे जा रहे हों एक साथ बहुत से दूसरे लोग
मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मक़सद नहीं था
और मुझे मारा गया इस तरह जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मक़सद हो
और जब मुझसे पूछा गया तुम कौन हो
क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम
कोई मज़हब कोई तावीज़
मैं कुछ नहीं कह पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था
सिर्फ़ एक रंगरेज़ एक कारीगर एक मिस्त्री एक कलाकार एक मजूर था
जब मैं अपने भीतर मरम्मत कर रहा था किसी टूटी हुई चीज़ की
जब मेरे भीतर दौड़ रहे थे अल्युमिनियम के तारों की साइकिल के
नन्हे पहिए
तभी मुझपर गिरी आग बरसे पत्थर
और जब मैंने आख़िरी इबादत में अपने हाथ फैलाए
तब तक मुझे पता नहीं था बंदगी का कोई जवाब नहीं आता
अब जबकि मैं मारा जा चुका हूँ मिल चुका हूँ
मृतकों की मनुष्यता में मनुष्यों से भी ज़्यादा सच्ची ज़्यादा स्पंदित
तुम्हारी जीवित बर्बर दुनिया में न लौटने के लिए
मुझे और मत मारो और न जलाओ न कहने के लिए
अब जबकि मैं महज़ एक मनुष्याकार हूँ एक मिटा हुआ चेहरा एक
मरा हुआ नाम
तुम जो कुछ हैरत और कुछ खौफ़ से देखते हो मेरी ओर
क्या पहचानने की कोशिश करते हो
क्या तुम मुझमें अपने किसी स्वजन को खोजते हो
किसी मित्र परिचित को या खुद अपने को
अपने चहरे में लौटते देखते हो किसी चहरे को.
devi ke bare men yah theek likha hai aapne ki unke prayaog lagbhag kufr hain hindi men…par inhin prayogon se swayam devi aur is tarah se aathwen dashak ki peedhi ke baad ki kavita men bahut bada badlaw bhi lakshit hua hai…unka jo pahla sangrah hai, usmen is baat ke aasaar nazar aate hain…par baad ki kavitayen jo patrikaon men padhne men aati hain…aap unse andaza laga sakte hain ki devi ne khud apne ko kitna tarasha hai….bahut km kavion ke bare men yah ukti kahi jani chahiye, pr devi ke bare men awashya kahi jani chahiye ki isse hinki ki abhi bilkul abhi ki kavita par bhi bada sarthak prabhav pada hai…unke naye sangrah aur upanyaas ki pratiksha rahegi…
Devi Prasad ke bheetar ki akulahat jaise puri sadi ki akulahat hai. unhone sirf kavitaen nahin likhi,usake saath aaj ki kavita ke safar me lagane wale jhatke aur hichkole bhi likhe hain.ve apne samay ke aise kavi hain jo lagatar kavita ke lie nai bhasha gadhhte hain,jo bar bar apni zameen se bedakhal hokar bhi kahin na kahin kavita ki zameen dobara khoj lete han.i
mama ji bahut acchi kavita hai….mujhe kuch pata to nahi kavita ke bare me lekin agar koi cheej padh ke ya sun ke ya dekh ke man ko acchi lage jaise mere man ko lagi aapki ye kavita such me…..bahut acchi hai ….
kawita ke pradesh se baahar nikalnekee aawashyakta hai sacmuch! Garaj hai apne aape se baahar aane kee,deemag se nahi man se sochne kee!