Whoever Sees God…: Gagan Gill
जो भी ईश्वर को देखता है: गगन गिल
जो भी ईश्वर को देखता है, मर जाता है, मरना एक ढंग है ईश्वर को देखने का ……..
मॉरिस ब्लांशो का यह कथन निर्मल ने मेरी किताब ‘अँधेरे में बुद्ध’ के लिए अनुवाद किया था ……. यह और कई अन्य कथन. उन दिनों मॉरिस ब्लांशो हम दोनों के प्रिय लेखक थे ……….
मुझे क्या पता था, एक दिन मैं इस वाक्य को बार-बार दोहराऊँगी……..
मरना एक ढंग है ईश्वर को देखने का ….
क्या निर्मल ने ईश्वर को देखा होगा?
मैं कभी नहीं जान पाऊँगी.
जो प्रार्थनाएँ मैं करती हूँ, वे कहीं पहुँचती भी हैं कि नहीं.
मैं कभी नहीं जान पाऊँगी.
मुझे कैलाश जाना है…..
बुलावा न हो तो आप जा नहीं सकते, हर कोई यही कहता है.
मुझे तो कब से लग रहा है, मुझे बलावा है, फिर मैं क्यों नहीं जा पा रही?
– तो आप जाने के लिए तैयार हैं?
अंकित पूछ रहे हैं, फिज़ियोथैरेपी के डॉक्टर, पिछले साढ़े तीन महीने से मेरे जाम हो गये कंधे को ठीक कर रहे हैं.
पता नहीं, इस सूटकेस को मेरे कंधे पर ही क्यों गिरना था? आठ महीने होने को आये, चोट वैसी की वैसी हैं, जरा सी बाँह मुड़ जाए तो चीखें निकल जाती हैं, कपड़े बदलना तक मुहाल है.
– मैं मन की पीड़ा जानती थी, शरीर की पीड़ा ऐसी होगी, पता न था…
पीड़ा से बेहाल एक दिन मैं कहती हूँ.
अमरज्योति अपाहिजों का सेवा-केन्द्र हैं, वे लोग चीखें सुनने के अभ्यस्त हैं, फिर भी मेरी बात सुनकर मुँह फेर लेते हैं,
कुछ दिनों से मैं एक गोपनीय खेल कर रही हूँ, जैसे ही डॉक्टर मेरी बाँह मोड़ते (मरोड़ते) हैं, मैं शरीर से बाहर निकल जाती हूँ, दूर कैलाश-हिमालय की घाटियों में, मुझे लगता है, डॉक्टर नहीं, महादेव मुझे खींच रहे हैं, कि मैं मनुष्य नहीं, कोई पतंग हूँ, जो उड़ना चाहती हैं…. बस एक झटका और, कि मैं आसमान में होऊँगी….
– तो आप जाने के लिए तैयार हैं ?
डॉक्टर को मालूम है, मुझे कैलाश जाना हैं.
– अगर वही टुंडी बाँह के साथ बुलायेंगे, तो टुंडी बाँह लेकर जायेंगे…..
– घबराइये नहीं, अब आप काफ़ी ठीक हैं, इसके बाद आपकी चोट को स्वस्थ हाने का रास्ता खुद तय करना हैं,
अब नहीं रुका जा सकता…..
इस बीच जापान से मित्र मुराकामी ने पीड़ानिवारक पट्टियाँ भेज दी हैं, दिल्ली में उसने मुझे बदहाल देखा था.
– मामी जी, मैं आपको मलहम लगा दिया करूँगी.
रूबी कहती है.
वह और उसका पति पंकुल, निर्मल के भांजे, मेरे सहयात्री होने वाले हैं, युवा दंपती, ट्रेकिंग के शौकीन, आस्था है या नहीं, अभी ठीक से मालूम नहीं, पिछले साल हमने यह यात्रा तय की थी.
अगर मई में जाएं, उनके बच्चों की स्कूली छुट्टियों के दौरान, तो हम एक साथ जा सकते हैं, यदि मैं अपने कंधे को सह लूँ, तो हम जा सकते हैं,
मुझे कब से कैलाश जाना हैं.
चोट को स्वस्थ होने का रास्ता खुद तय करना है…
३
ब्रह्मा ब्रह्मलोक में, विष्णु वैकुठं में, शिव कैलाश पर रहते हैं,
जीते जी मनुष्य न ब्रह्मलोक, न वैकुंठ जा सकते हैं, केवल कैलाश जा सकते हैं,
कैलाश जाना यानी एक देव-कथा में जाना…. एक देव-पर्वत पर जाना…..
कैलाश जाना यानी अपनी आदिम स्मृति में जाना….
महाभारत-रामायण हमारे पुरातन ग्रंथों में इसका जिक्र है, अर्जुन ने यहीं तपस्या कर भगवान शिव से पाशुपत अस्त्र वरदान में लिया था, युधिष्ठिर इसी स्वर्ग में सशरीर गए थे, रावण ने यहीं शिव आराधना की थी, बाद में उसकी आसुरी शक्तियों का पता चलने पर उससे वरदान वापस लेने का उपक्रम पार्वती-गणेश को करना पड़ा! भस्मासुर का कांड यही हुआ था, छू कर भस्म कर देने का वरदान लेकर असुर शिव पर ही उसका प्रयोग करना चाहता था! इन्हीं पर्वत श्रृंखलाओं में भोले शंकर जान बचाने को भागे-भागे फिरे थे, मानसरोवर की जुड़वाँ झील को आज भी राक्षस-ताल कहते हैं,
इस एक पर्वत को, झील को भारतवर्ष के लोग हजारों-हजारों वर्षों से प्रणाम करते आ रहे है, प्राचीन ‘भारतवर्ष’ – जो वर्तमान भारत से कहीं विशाल था…..
सदियों से उसकी परिक्रमा की जा रही है, उसके आसपास के पर्वतों पर चढ़ते-उतरते, कैलाश पर कभी पाँव नहीं रखा गया, इस साल एक दुस्साहसी स्विस पर्वतारोही टीम ने चीन सरकार से कैलाश पर जाने की विशेष अनुमति ली थीं, बाद में लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए यह अनुमति वापस ले ली गई…..
हमारे पुरखों को पता कैसे चला होगा कि यह पर्वत पूजनीय है, इस पर कभी पैर नहीं रखा जाएगा? कैलाश ने खुद तो कहा नहीं होगा कि मैं देव हूँ, वंदनीय हूँ!
कम-से-कम पाँच हजार साल पुराना हमारा संबंध तो ग्रंथ बताते हैं, भारतीयों को तिब्बत जाने के लिए, कैलाश जाने के लिए कभी अनुमति नहीं लेनी पड़ी थी. जैसे नेपाल गये, वैसे तिब्बत, राहुल सांकृत्यायान की १९२०-३० के दशक की तिब्बत यात्राएँ उसी दौर में हुई. यह और बात है, कि आज ये क्षेत्र चीन अधिकृत है, आप समूह में यात्रा न कर रहे हों तो वीजा मिलने की संभावना नहीं है.
– आप सचमुच जा रही हैं?
मित्र कवि श्री कैलाश वाजपेयी का फोन है.
– कई साल पहले मेरे एक परम मित्र प्रोफेसर युधिष्ठिर को मैंने कैलाश-यात्रा में गँवा दिया था…. अब आप जा रही हैं, सुबह से ही सोच-सोच कर परेशान हो रहा हूँ….
– जिनका नाम ही युधिष्ठिर था, वह यदि कैलाश-यात्रा से नहीं लौटे तो अचंभे की बात क्या!
मैं उनसे हँसी करती हूँ, लेकिन उनका बरसों पुराना शोक जाता नहीं.
बार-बार कहते हैं, ध्यान से जाइएगा.
बड़े पक्के मन से तैयारी की है, घर बंद करने को हूँ कि छाया आ जाती है.
अगर मैं सचमुच लौट कर न आई?
रुक कर वसीयत लिखती हूँ उसकी एक कॉपी माँ को भेज कर, दूसरी मेज पर छोड़ कर मुक्त मन होती हूँ.
यात्रा और आत्महत्या से पहले, जहाँ तक हो सके, सब साफ़ छोड़ना चाहिए…..
४
साल भर पहले से मेरी इच्छा थी, कैलाश जाएँगे तो सागा दावा के उत्सव पर ही, सागा यानी शाक्य, दावा यानी चाँद, शाक्य मुनि का चाँद! बुद्ध पूर्णिमा.
हमारे और तिब्बती कैलंडर में एक मास का अंतर होने के कारण भारत में बुद्ध पूर्णिमा के उत्सव के ठीक एक माह बाद तिब्बत में सागा दावा मनाया जाता है, एक दिन नहीं, पूरे एक मास का कृतज्ञता-उत्सव! सारा माह पवित्र है, प्रार्थनाएँ और परिक्रमाएँ होती हैं, विशेषकर कैलाश पर्वत की, हिन्दुओं-बोद्धों के लिए कैलाश-मानसरोवर के दर्शन ही पुण्यकारी हैं, इस पवित्र महीने में हो जाएँ, तो उसका लाभ अलग,
साल भर ट्रैवल एजेंसी को सागा दावा उत्सव की तारीखों में यात्रा करने की पूर्वसूचना दे रखी थी, जाने का समय आया, तो पता चला, परमिट नहीं मिला, सागा दावा उत्सव के कारण वहाँ बहुत अधिक तीर्थयात्री, विदेशी सैलानी पहुँच गए थे, मौसम खराब हो गया, अब जब तक वे वहाँ से निकलें नहीं, और परमिट नहीं दिए जाएँगे, वैसे भी चीन सरकार को नेपाल के रास्ते आने वाले भारतीय जत्थों का विच्चेष उत्साह नहीं होती,
दुनिया जानती है, चीन से हमारे संबंध कूटनीतिक कम, कटु ज्यादा हैं.
अगले दस दिन ट्रैवल एजेंसी से कई तकाजों और चक्करों के बाद जिस दोपहर हम उम्मीद छोड़ कर लौट रहे होते हैं, वहाँ से हेमंत जी का फोन आता है,
– आप लोग कल सुबह जाने को तैयार हैं?
बुलावा आ जाए तो फिर कौन रुक सकता है?
बदहवासी और आधी-अधूरी तैयार के बीच ही रिनपोछे को फोन करती हूँ, कहीं एक विश्वास है, उनसे बात हो जाएगी, तो सब ठीक होगा……
– कल कैलाश-मानसरोवर जा रही हूँ.
– अच्छा?
आवाज एकदम कोमल हो आई है, तिब्बत…… उनका देश
बीस वर्ष की उम्र में छोड़ना पड़ा था, इतने लोग तिब्बत जाते हैं, वह नहीं जा सकते, चीन सरकार के प्रति सत्याग्रह छेड़ रखा है, जिस दिन जाएँगे, सब तिब्बती दलाई लामा की अनुवाई में तिब्बत वापस जाएँगे!
क्या ऐसा संभव हो पायेगा?
कैसा है यह दिल, निर्वासितों का, जिस बात की इतनी धुँधली उम्मीद है, उसी के लिए प्रार्थनाएँ करते हैं, अनशन, प्रदर्शन, कभी-कभी आत्मदाह तक.
– निर्मल जी के लिए ……..
– ज़रूर जाइए ……
उन्हें मालूम है, मैं क्या सुनना चाहती हूँ.
– आपकी यात्रा सफल हो, मेरा आशीर्वाद है, आपको महादेव जी के, उमा जी के दर्शन हों!
मेरी धड़कन तेज़ हो जाती है.
– क्या ऐसा संभव है?
– हाँ, हाँ, क्यों नहीं? यह तो आप पर है कि आप उन्हें पहचान पाती हैं कि नहीं.
– जब मेरे लिए यही प्रार्थना करिएगा, कि मैं उन्हें पहचान पाऊँ….
– जरूर!
थोड़ा रुक कर कहते हैं, निर्मल जी की इस्तेमाल की हुई कोई चीज़ साथ में रख लीजिएगा….
– जी!
और कुछ नहीं करते, थोड़ा अंदाजा उन्हें है, जा रही है, तो तैयारी करके जा रही होगी…
यही सबसे मुश्किल घड़ी है
निर्मल का पहना अंतिम वस्त्र निकालना, डॉक्टर ने कैंची से काट कर उनके शरीर से अलग किया था…..
निर्मल….
रात दो बजे वस्त्र हाथ में लिए अकेली बैठी हूँ, जैसे अभी तक पूरा विदा नहीं किया था, अब सचमुच बिछुड़ने की घड़ी आ गयी है….
– उन्हें जाने दीजिए, प्लीज….. उनका जाना मुश्किल मत करिए.
डॉक्टर ने कहा था, डेढ़ साल पहले, उस रात….
मैं बार-बार अपना हाथ उनके दिल पर रख देती थी, प्रार्थना करती हुई और उनका डूबता ब्लड प्रेशर हल्का-सा ऊपर आने लगता था, मॉनीटर की सारी लाइनें शून्य हो चुकीं थीं, जरा-सा ब्लड प्रेशर बचा था.
– ऐसा मत करिए…. आपको मालूम है, आप क्या कर रही हैं? आप उन्हें जाने नहीं दे रहीं, और उनकी देह उन्हें आने नहीं दे रही….
निर्मल….
एक पैकेट में सब अलग रख लिया है, निर्मल का अंतिम वस्त्र, दारजी की दस्तार, अभी तक उनकी गंध उसमें है! माँ की चुन्नी, कनु की कॉपी का एक पृष्ट…. माई नेम इज़ तनुप्रीत कौर…. उसने लिखा था, सोलह साल बीत गए… बच्ची की लिखावट वैसी की वैसी है.
इसकी रक्षा करना माँ!
और रिनपोछे?
रिनपोछे का कोरा कौन करेगा?
तिब्बतियों की सबसे बड़ी तीर्थयात्रा…..
कितनी-कितनी परिक्रमाएँ करते ये लोग!
वह तो किसी से कहेंगे नहीं.
कैसे निकले थे अपने देश से, कभी पैदल, कभी घोड़े पर, पूरा एक महीना पहाड़ों में लुकते-छिपते, तब कहीं भारत सीमा दिखी थी, तब भी आशंका यही, कि चीनी आ जाएँगे, पकड़ लेंगे, मार देंगे….
क्या मेरे पास कुछ है, जो साथ ले जा सकूँ?
है तो! कई साल पहले उनके नाखून का टूटा टुकड़ा माँग लिया था…. गहने की तरह सँभाल कर रखा है.
गुलाबी पन्नी अपने बटुए में रख लेती हूँ.
प्रभु, मेरी यात्रा स्वीकार करना….
मैंने इसे पढ़ा, लगभग सांस रोककर। यात्रा, प्रार्थनाएं और परिक्रमा, और कमीज, नाखून का टुकड़ा।
निर्मलजी मेरे सबसे प्रिय लेखक हैं। यह पढ़कर मेरा गला भर आया है। इसे भी शायद एक आत्मीय दूरी से लिखा गया है क्या?
निर्मल स्मरण
योगेंद्र कृष्णा
तुम्हारे अंतस से नि:सृत
तुम्हारी दुनिया लौट जाती है
हर बार तुम्हारे ही भीतर
हमें पता है
तुमने ही नहीं
तुम्हारे किरदारों ने भी
तुम्हें रचा है
और अपने किरदारों की ही दुनिया में
अंतत: रचने-बसने के लिए
चुन लिया तुमने
किराए का साझा एक घर
अंतिम अरण्य तुम्हारा अपना चुनाव था
मृत्यु में जीवन और जीवन में मृत्यु को
अपनी देह से दूर छिटक कर
देखने परखने का…..
अपनी दुनिया के बीहड़ में
होने और न होने के बीच
संपूर्णता में घटित होने का….
और जहां तुमने
आखिर राख हो चुकी देह से
चुन लीं अपनी ही अस्थियां
पहाड़ और निर्जन एक नदी
जिसमें ‘अवाक्’ हम देख सकें
दूर ‘गगन’ से
फूल की तरह झरती
कोमल आकांक्षाओं-आस्थाओं की
तुम्हारी अंतिम सुरक्षित पोटली
हम तो हम
प्राग के पतझड़ों
दिल्ली की गर्मियों की उदास लंबी दोपहरों
को भी इंतज़ार रहेगा तुम्हारा
क्योंकि हर बार वे उतरती रहीं
तुम्हारी दुनिया में ठीक तुम्हारी ही तरह…..
पहाड़ चीड़ और चांदनी
संवेदना और स्मृतियों से धुल-छन कर आतीं
गहन उदासियां, एकाकीपन
और एक चिथड़ा सुख की तलाश में
कांपते-थरथराते दुख से दीप्त चेहरे
तुम्हारे भी जीवन का ठौर बताते हैं
तुम छुपते रहे अपने शब्दों में
मगर हमने खंड खंड संपूर्ण
पा लिया तुम्हें
दो शब्दों के बीच
तुम्हारी खामोशियों में
तुम अपनी दुनिया में
जहां कहीं भी थे
अज्ञेय कहां थे……
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प्रतिक्रियास्वरूप यहां प्रस्तुत है निर्मल जी के स्मरण में लिखी मरी एक कविता।
मैंने इसे आज फिर पढ़ा। इस वक्त शाम के पांच बज रहे हैं और मैं आफिस में हूं। मेरे पीछे एक बड़ी कांच की खिड़की है। मौसम भारी है। बादल तैर रहे हैं लेकिन बारिश नहीं हो रही है…
और एक हो रही है…भीतर।