आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

Single Wicket Series: Vishnu Khare

Pages: 1 2

द्रौपदी के विषय में कृष्ण

कितना समय बीत गया जब तुमने मुझे अंतिम बार पुकारा था
वह बहुत बड़ी शूरवीरता नहीं थी दोनों या तीनों बार
लज्जित भीरुता और उद्दंड कायरता के बीच से
केवल एक सामान्य साहस में तुम्हारे समीप होने की छोटी-सी बात थी

हर बार जब लौटा था तो जानता था जो कुछ तुमने कहा
उसे लोग स्तुति या पुकार कहकर निस्सार कर देंगे
तुम पाँच योद्धा पतियों की साध्वी पत्नी
मैं सहस्रों गोपियों तथा पटरानियों का संदिग्ध भोक्ता
राधा के मुग्ध प्रेम की अनेक कथाओं का नायक
जिसका उल्लेख मात्र मुझे बाद में संकोच और झुंझलाहट से भर देता था
किंतु किसे विश्वास होगा कि तुम्हारे मुख पर सदैव ऐसा कुछ था
कि प्रासाद में अकेले छोड़ दिए गए हम
परस्पर अर्थों को अंतिम सीमा तक समझते हुए
एक-दूसरे के स्पर्श की इच्छा तक नहीं करते थे
चुप विदा होते हुए जब मैं लौटता था
तो इन्द्रप्रस्थ से द्वारका के लम्बे रास्ते में
वह रथ की घरघराहट नहीं
तुम्हारी वाणी की गूंज तुम्हारी आँखों की दीप्ति होती थी
और दारुक पीछे मुड़-मुड़कर व्यग्र होता था

फिर मैंने देखा अपने ही सामने
तुम्हारे और मेरे बांधवों और प्रियजनों को मरते हुए
तुम्हें देखा शिविर में लौटते हुए अपने पतियों की सुश्रुषा करते हुए
यह सब उस समय जब मैं अर्जुन से कह रहा था
और कृपाचार्य को सफल होते देख रहा था
कौरव तथा पाँडव मेरी मुस्कुराहट से संभ्रमित होते होंगे
किंतु पूरे कुरुक्षेत्र पर मैं तुम्हारी आँखें देखता था
उन्हीं के कारण कदाचित् मित्रों से इतनी दूर
द्वारका में आ बसा मैं
अब यह मेरा क्षण है
सारी भविष्यवाणियों शापों, अपशकुनों को चरितार्थ करता हुआ
सदा की भाँति हतप्रभ दारुक अभी-अभी गया है
और मैं बैठा हुआ हूँ प्रतीक्षा में कि वह मूढ़ व्याध जरा आए
और मेरे तलुए को मृग का मुख समझे
पटरानियां जिनके नाम भी ठीक से स्मरण नहीं कर सकता मैं
जो अब अधेड़ भी नहीं रहीं
उन्हें अपने बूढ़े मित्र तुम्हारे अब अशक्त पति
अर्जुन के हवाले कर दिया है
धैर्यहीन सागर बार-बार द्वारका के तट से लौट रहा है
कोई संदेश नहीं है तुम्हारे लिये मेरे पास
हमारे बीच वह आवश्यक ही कब था
हाँ देख रहा हूँ तुम्हें पीछे लिये हुए तुम्हारे पतियों का प्रस्थान
सबसे पहले तुम्हारा गिरना और छोड़ दिया जाना
अपने सदाशय दंभ में कुरु के वंशजों ने मुड़कर सत्य को बहुत कम देखा
तब शरीर से अलग होकर तुम कहोगी कृष्ण और पाओगी
कि मैं पहले ही की दूरी पर तुम्हारे समीप हूँ
हम चलेंगे साथ साथ तुम्हारे पतियों को एक एक कर गिरता देखते हुए
सुनते हुए तुम्हारे सबसे बड़े पति के सदा की तरह धर्मप्राण वाक्य
तुम उन सबकी इस अन्तिम पावन अहम्मन्यता पर मेरी ओर देखती हुई
और मैं मुस्कुराता हुआ किंतु तुम्हें नहीं मालूम होगा और मुझे भी नहीं
कि जाने क्यों वर्षों से विस्मृत बाँसुरी और उस पर आती राधा का
अचानक स्मरण करता हुआ

उम्मीद

यदि यूरोपीय शास्त्रीय संगीत के रूमानी युग में
पैदा हुआ होता और मेरे पास सामन्ती पैसा होता
तो मैं बेटहोफ़न हाइडन या मोत्सार्ट को बुलाकर पूछता
कितना मुआवज़ा लीजियेगा
संगीत की कोई नई संरचना लिखने का
जिसमें पूरा वाद्यवृन्द तो रहे ही
एकल पियानो के लिए भी जगह हो
एक नारी और एक पुरुष कण्ठ भी
और एक ऐसी गान-मण्डली
जिसमें आदमियों औरतों और बच्चों के लिए इकट्ठी गुंजाइश हो

वे कहते
पारिश्रमिक का प्रश्न नहीं है
लेकिन आपकी यह फ़रमाइश विचित्र है
संगीत रचना के समादृत सभी नियम तोड़ने वाली
सिम्फ़नी में एकल वाद्य नहीं होता
कोंचेर्तो में गायक सुने नहीं गए
ओपेरा में कोरस और सभी किस्म के गवैये सम्भव हैं
लेकिन उसमें पिआनो या किसी और एकल बाजे को
अचानक बीच में कैसे लायेंगे

मैं उत्तर देता
महासंगीतकारों फिर आख़िर मैंने आपको कष्ट दिया ही क्यों है
जब मैं आपको सिम्फनियाँ सुनता हूँ
मुझे पिआनो और एकल गायकों की कमी अखरती है
कोंचेर्तो सुनते-सुनते अचानक मैं
साथ-साथ या अलग-अलग कई कण्ठ सुनने लगता हूँ
और क्या आपको नहीं लगता
की ओपरा में जब आपके गायक गाते हैं
तो कभी-कभी बजाय पूरे आर्केस्ट्रा के
हल्के-से एकल पिआनो वायलिन या ओबो का साथ
ज़्यादा मार्मिक होता

उसे आप क्या कहकर पुकारेंगे
यह मैं आप पर ही छोड़ता हूँ
अपनी भाषा मैं संगीत-शब्दावली की कमी नहीं
आप ऐसी कोई स्वरलिपि रचिए तो सही

वे देखते मुझे और देखते एक-दूसरे को
और मेरे बारे में विचार चेहेरों पर न आने देते हुए
“हमें तो आप क्षमा कीजिये” कहकर निकल जाते
दूर गलियारे से आती बेटहोफ़न की गालियों
हाइडन और मोत्सार्ट के कहकहों की गूँज

महान प्रतिभाओं के पूर्वग्रहों से चकित और हतप्रभ
तकनीकी ज्ञान से वंचित
किंतु संगीत और स्वरों के अन्तहीन प्रकारों और विस्तार से कुछ परिचित
और उन्हें अर्पित
मैं तब अपने मन में गढ़ता और सुनता रहता
शब्दों और ध्वनियों की एक संरचना इस उम्मीद में
कि एक दिन शायद कोई सचमुच रचे उसे
और कोई नाम दे

लापता

महाभारत के स्त्रीपर्व के अंतर्गत श्राद्र उपपर्व में
दो श्लोक उन अध्येताओं के लिए विशेष महत्त्व के हैं
जो विचित्र आँकडों में दिलचस्पी रखते हैं –
उनमें से भी दूसरा अधिक आकृष्ट करता है

युद्ध के बाद जब युधिष्ठिर से धृतराष्ट्र पूछते है
कि इस महासमर में कितने मरे और कितने बचे
तो वह वंश और सभ्यता के लगभग सर्वनाश के बावजूद
शुद्ध वैज्ञानिक उत्सुकता का प्रतीक है

युधिष्ठिर का उत्तर भी
महासंग्राम की वीभत्सताओं के बीच
सूचनाएँ प्राप्त करने और स्मरण रखने की
वस्तुनिष्ठ क्षमता का अपूर्व उदहारण है

जब वे कहते है राजेंद्र इस युद्ध में
एक अरब छासठ करोड़ बीस हज़ार योद्धा मारे गए हैं
तो करोड़ के बाद सीधे हज़ार पर आने में
एक ऐसा सूक्ष्म सटीकपन है जो उनके उत्तर को
एक विलक्षण विश्वसनीयता देता है
लेकिन उससे भी आगे दूसरे श्लोक में
जब वे युद्ध के बाद न देखे गए सैनिकों की संख्या
ठीक ठीक चौबीस हजार एक सौ पैंसठ बताते है
तब एक तो मानव इतिहास में शायद पहली बार
लापता फ़ौज़ियों का उल्लेख होता है
दूसरे इतनी वाजिब संख्या न केवल वास्तविक लगती है
बल्कि हमें एक अजीब खीझ और कौतूहल जगाती है

खीझ इसलिए कि नहीं पूछते
कि इनमें से पांडवों के कितने गुम है और
कौरवों के कितने
उनमें महारथी अतिरथी एकरथी और अन्य कितने हैं
और वे किस किस राष्ट्र किस किस चमू के है
भी कोई प्रकाश नहीं डालते
और शेष पूरी महाभारत में पता नहीं चलता
कि इन लापता और भगोडों को खोजने के

कोई यत्न हुए भी कि नहीं
आज हम जानना चाहते हैं
की ये २४१६५ कहाँ गए
कहाँ छिपे रहे या जब लौटे तो उनके साथ क्या हुआ
वे भयभीत होकर भागे थे या खिन्न होकर
उन्हें वैराग्य हो गया था या वे विक्षिप्त हो चुके थे
या उनकी टुकडियां आपस में कई वर्षों तक
ऐसे अनेक छोटे छोटे महाभारत लड़ती रहीं
जिनकी आदिजननी का अंत कभी का हो चुका था

कुरुक्षेत्र से लापता हुए ये अब तक लापता हैं
उन्होंने युद्ध कर स्वर्ग जाना शायद उचित नहीं समझा
और जीवन का वरण किया ठीक ही किया
क्योंकि जो एक अरब छासठ करोड़ बीस हज़ार
इन्द्रलोक पहुंचे
उनके नामों का और परिवारों के बारे में भी महाभारत मौन है
ये जो अलक्षित थे
उनके वीर्य और विचार कहाँ तक पहुंचे
यह कौन कह सकता है
कहीं हिसाब है
विश्व की कितनी सभ्यताओं को इन्होंनें क्या दिया
और इनके युद्ध न करने से जो जीवित रह पाए
उन्होनें

क्या पता इनमें से कुछ ने या सबने
अलग अलग या मिल जुलकर
अपने अपने सम्पूर्ण या आंशिक महाभारत लिखे हों
किसे मालूम इन्हीं में से कुछ ने
पटरानियों के साथ लौटते अर्जुन का पराभव किया हो
क्योंकि महाभारत जैसा हमें मिलता हैं
वह महान होते हुए भी एकपक्षीय
या अधिक से अधिक उभयमुखी है
और यदि बलराम या द्वारका के निवासियों को नहीं
तो कम से कम इन २४१६५ में से
किसी एक को तो अपना संस्करण देना चाहिए था

लेकिन इतिहास में दर्ज होने के लिए
आपका जीवित या मृत पाया जाना अनिवार्य -सा है
जो लापता है उनका कोई उल्लेख नहीं होता
संजय के अधिकृत स्वीकृत और सुविधाजनक
आँखों देखे वृतांत पर
यदि मिल जाए तो इन में से केवल एक का
मात्र एक श्लोक प्रश्नचिह्न लगा सकता है
किसे मालूम हम में से ही कोई उन्हीं की संतानें हों
और हममें से ही कोई कभी उसे कहे

स्कोर बुक

क्रिकेट के मेरे दो महानतम क्षण
आँकडों या कीर्तिमानों की किसी पुस्तक में नहीं हैं

मिडिल स्कूल के लड़कों के आपसी इतवारी मैच
कौन गंभीरता से लेता है
टीमें आधी-पौनी पुराने बहुत बड़े या नए बहुत छोटे बैट
जिनपर पट्टियाँ बँधी हुई
गेंद पर टाउन हल वाले मोची का चढ़ाया चमड़ा
बेमेल स्टंप वे भी सिर्फ़ एक छोर पर
हाफ मैटिंग तक का सवाल नहीं उठता
स्कोर बुक छूना तो क्या देखना भी नसीब नहीं हुआ था
रफ़ कापी के आखिरी पन्नों पर ही हिसाब रखा जाता था

फिर भी हैट् ट्रिक हैट् ट्रिक होता है
लेने वाले के लिए तो होता ही है
भले ही वह उपरोक्त परिस्थितियों में ही क्यों न लिया गया हो
इकतालीस बरस बाद भी और आजीवन
क्या हुआ था उस दिन शाम चार बजे
कैसे मेरी तीन लगातार गेंदें ठीक उसी स्पॉट पर गिरीं
वैसी ही ऑफ ब्रेक हुईं
और रमेश सुरेन्द्र और मदन क्लीन बोल्ड (क्लीन बोल्ड!)
एक के बाद एक उसी तरह
रमेश हमारे साथ का तेंदुलकर था
तेरह बरस के लड़कों का क्या खेलना और क्या तो बैटिंग और बाँलिंग
लेकिन उस दिन मेरे स्कूल के मैदान के उस कोने के ठीक ऊपर
क्या कोई देवता थे मेरे लिए
जिसे अब नई बिल्डिंग ने हमेशा के लिया दबा लिया है
जैसे किसी ने रोन्ठाई की हो

दूसरा ऐतिहासिक क्षण वह था जब कालेज टूर्नामेंट में
फुल टास पर नितांत अनैतिहासिक ढंग से जीरो पर आउट होने के बाद –
जिसके कारण पहले से ही संशयी साथियों और पेवीलियन के स्कूली दर्शकों में
स्थायी रूप से साख खत्म होने का खतरा तो था ही
टीम से निकले जाने तक की नौबत थी
अचानक बुरहानपुर की टीम के तीन कैच ले डाले
पहला कवर पाइंट पर दूसरा मिड ऑन पर तीसरा शार्ट स्क्वेयर लैग पर
इनमें शायद पहला जयप्रकाश चौकसे का था और आसान नहीं था
तीनों पकड़ में कैसे आ गए कहा नहीं जा सकता
टीम में जिसका भविष्य ही असुरक्षित हो गया हो
उसे मैदान में सब कठिन लगने लगता है और होश नहीं रहता
खास कर उस समय जब जब एक बढ़िया कैच लेने के बावजूद
सारे साथी अविश्वास से हँसते हुए लोटपोट हो गए हों
लेकिन जो तीसरे के बाद यदि कायल नहीं हुए
वो सकते में आ ही गए
इस तरह पक्की हुई टीम में मेरी जगह
(बाद में काना राजा बनती हुई कप्तानी तक पहुँची किस तरह वह किस्सा अलग है )

खेलों का एक पूरा दर्शनशास्त्र बन चुका है
जिसमें खेल भावना टीम वर्क दोस्ताना प्रतिद्वंद्विता
हारना जीतना तो लगा ही रहता है आदि अवधारणायें शामिल है
लेकिन कौन समझायेगा मुझे मेरा हैट् ट्रिक और वे तीन गिरते पड़ते कैच
और इससे भी ज़्यादा यह
कि क्यों दर्ज रह जाती हैं अपनी निरीह कामयाबियाँ
किस स्कोर बुक में

सिंगल विकेट सीरीज़

मैंने अभी अभी फिर गार्ड लिया है
जूतों दस्तानों हैलमेट की कसावट को जाँचा है
सामने की पिच को बैट से बराबर किया है
कुछ आश्वस्त कुछ व्यग्र
अब तक एक आध दफ़ा बीट हुआ हूँ
लेकिन अगली गेंद की प्रतीक्षा में हूँ

रोशनी के चार खंभों से सैकड़ों रोशनियाँ हो गयी है स्टेडियम में
मैदान की हर चीज़ की परछाई को चौगुना करती हुई
मैं भी अपने ही अक्स के कटपट निशान वाले चार सायों के बीच
पाँचवाँ खड़ा हूँ
अजीब चुप्पी है दीर्घाओं में
क्या यह कोई ऐसा क्षण है जिसने सबकी साँसे रोकी हुई हैं

तभी एक दूसरे छोर से प्रकट होता है वह
अश्वारोही जैसा तेज़ फिर भी मानों चाँद पर चलता हुआ
काली सी पोशाक में जैसे कोई चोगा उड़ रहा हो पीछे
फेंकता है गेंद वह सर झटककर
उसका पंजा झलकता है एक पल के लिए
कनपटी और जबड़े की रेखाएं उभरती हैं
आँखें धंसी हुई इसलिए सिर्फ काले विवर दीखते है
उसके दाँत चमके थे एक बार देखा हुआ सा लगता है फिर भी
कौन है पोशीदा यह जिसका मुकाबला मैंने पहले कभी नहीं किया

लेकिन मेरे पैर सीसे के हो गए
मेरा बल्ला पत्थर का
कलेजा और हाथ सर्द होठ सूखे पपड़ियाए
और अपने पैरों के पीछे व सीने पर मैंने वह परिचित आवाज़ सुनी
जैसे हवा से दरवाज़ा खुलने पर लैबोरेटरी में
दीवार से काल्बुद खड़खड़ाया हो

ये यकायक बत्तियां किसने बुझा दीं
देखने वाले क्यों हो गए गूँगे
स्टेडियम में यह क्या सिर्फ हवा की साँय-साँय है
अपने स्तंभित पथराएपन से मैं ही कैसे निकल आया बाहर
जैसे सारी पोशाक के ख़ोल से मुक्त हुआ हूँ
कि अपने तिरते हुए वेग में वह आ चुका होता है मेरे पास
कंधे पर महसूस करता हूँ मैं
उसकी ढाढस बंधाती पर मज़बूत साग्रह पकड़
फिर अंधेरे में ही आख़िरकार उसके काले नक्श पहचानकर कहता हूँ
वैल बोल्ड सर
पिच मैदान बुझी बत्तियाँ अँधेरा स्टेडियम
सब जैसे नीचे होते जाते हैं तब तलक
फिर वह गेंद फेंकता रहता है मेरे हाथों में और मैं वापस उसे
जब हम ओझल होते चलते हैं
कहीं और किसी अगले दौर के एकल खेल के लिए

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2 comments
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  1. Vishnu Bhai
    I like your Poetry. It is long time since I got a chance to read your Poerty.
    I live in Washington DC and I still miss(My small home town Chhindwara Madhya Pradesh) your poem reminded me of Chhindwara again. Good job.
    Manjul varma

  2. vishnu sir i appriciate u poetry.mainly single wicket series.

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