आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

Into A New Locale: Arun Kamal

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यह वो समय है

यह वो समय है जब
कट चुकी है फसल
और नया बोने का दिन नहीं

खेत पड़े हैं उघारे
अन्यमनस्क है मिट्टी सहसा धूप में पड़ कर –
हर थोड़ी दूर पर मेंड़ों की छाँह-
चमकती हैं कटी खूँटियाँ
दूर पर चरती भेड़ों के रेवड़
और मूसकोल
और चींटियों के बिल के बाहर मिट्टी चूर

यह वो समय है जब
शेष हो चुका है पुराना
और नया आने को शेष है

नए इलाके में

इस नए बसते इलाके में
जहाँ रोज बन रहे नये नये मकान
मैं अक्सर रास्ता भूल जाता हूँ

धोखा दे जाते हैं पुराने निशान
खोजता हूँ ताकता पीपल का पेड़
खोजता हूँ ढहा हुआ घर
और ज़मीन का खाली टुकड़ा जहाँ से बायें
मुड़ना था मुझे
फिर दो मकान बाद बिना रंग वाले लोहे के फाटक का
घर था इकमंजिला

और मैं हर बार एक घर पीछे
चल देता हूँ
या दो घर आगे ठकमकाता

यहाँ रोज कुछ बन रहा है
रोज कुछ घट रहा है
यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं
एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया
जैसे वसंत का गया पतझड़ को लौटा हूँ
जैसे वैशाख का गया भादो को लौटा हूँ

अब यही है उपाय कि हर दरवाज़ा खटखटाओ
और पूछो –
क्या यही है वो घर?

समय बहुत पास है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढहा आ रहा अकास
शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देख कर

शायर की कब्र

(नज़ीर अक़बराबादी के प्रति)

न वहाँ छतरी थी न घेरा
बस एक क़ब्र थी मिट्टी से उठती
मानों कोई सो गया हो लेटे-लेटे
जिस पर उतनी ही धूप पड़ती जितनी बाकी धरती पर
उतनी ही ओस और बारिश
और दो पेड़ थे आसपास बेरी और नीम के

मेमने बच्चे और गौरैया दिन भर कूदते वहाँ
और शाम होते पूरा मुहल्ला जमा हो जाता
तिल के लड्डू गंडे-ताबीज वाले
और डुगडुगी बजाता जमूरा लिए रीछ का बच्चा
और रात को थका मांदा कोई मँगता सो रहता सट कर

और वो सब कुछ सुनता
एक-एक तलवे की धड़कन एक कीड़े की हरकत
हर रेशे का भीतर ख़ाक में सरकना
और ऊपर उड़ते पतंगों की सिहरन

हर बधावे हर मातम में शामिल|
वह महज़ एक क़ब्र थी एक शायर की क़ब्र
जहाँ हर बसंत में लगते हैं मेले
जहाँ दो पेड़ हैं पास-पास बेरी के नीम के

सबसे ऊँची छत पर

अनेक मंजिलों के बाद ऊपर सबसे
जो सूनी छत हैं धूल विष्ठा झंडे पंखों भरी

चढ़ते चढ़ते पहुँचोंगे वहां साँस के अन्तिम मोड़ पर
तब मिलेगी धूप से भरी वो छत
और पहली बार तुम्हें लगेगा
जब कहीं भी नहीं है हवा तब भी यहाँ कुछ हवा है
सिहरेंगे छाती के अधपके केश

अनेक मंजिलों के बाद ऊपर सबसे

सन्नाटा है
सारी आवाजें पृथ्वी की डूब गई हैं
बस एक हलचल है पाँवों की तट पर –
ऊपर ताको
आकाश इतने पंखों पर तना
हवा इनती मथी हुई
बिलकुल शीश पर सूर्य
और नीचे कुंड का पानी

यहाँ से दिखते है घरों के आँगन मुँडेर
बरामदे भीतर रसोई तक
पर पहचानना मुश्किल है अपना ही घर
अपना ही मुहल्ला लगेगा अनजान
खुदाई में निकली किसी लुप्त सभ्यता का ध्वंसावशेष

दोनों हाथ मुंडेर पर रखे झांकता हूँ नीचे
तलमलाता घूमता है माथा
खींचता है झग्गर के अंकुशों से कोई
मुझे खींचता है नीचे
हवा अचानक कम फट रही नसें-
दरकता धुप में मिट्टी का सूखता शरीर
मेरा संपूर्ण रक्त भी मरते पक्षी को नहीं दे पायेगा जीवन
सैकडों खटमलों में बदल जाऊँगा बूँद बूँद

शायद ऐसा ही होना हो अंत

पीछे सीढ़ी की तरफ़ मुढ़ते मुझे डर लगा
कोई छुपा होगा दरवाजे के पीछे
मैं लौटूंगा और वो घूमेगा-
कौन सुनेगा मेरी पुकार उतनी दूर
यह पृथ्वी की सबसे ऊँची छत मेरा दखमा

सबसे अन्तिम तल पर किसी का निवास नहीं
वही अवसान है घर का झडे पंखों भरा

सूखे कुंड में मूर्ति विसर्जन
से रही हवा पृथ्वी पर जीवन

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