It Flew Out of the Sky: Vinod Kumar Shukla
दूर से अपना घर देखना चाहिए
दूर से अपना घर देखना चाहिए
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में
सात समुन्दर पार चले जाना चाहिए.
जाते जाते पलटकर देखना चाहिये
दूसरे देश से अपना देश
अन्तरिक्ष से अपनी पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी
घर में अन्न जल होगा की नहीं की चिंता
पृथ्वी में अन्न जल की चिंता होगी
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ लौटना
घर की तरफ लौटने जैसा.
घर का हिसाब किताब इतना गड़बड़ है
कि थोड़ी दूर पैदल जाकर घर की तरफ लौटता हूँ
जैसे पृथ्वी की तरफ
समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य
समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य
इस तरह डूब रहा था
कि पश्चिम की दिशा भी उसके साथ
डूब रही थी
कि कल सूर्य के डूबने के लिए
पश्चिम की दिशा नहीं होगी
बाकी बची किसी दिशा में
वह डूबता है तो डूब जाए.
समुद्र में जहाँ उदित हो रहा है सूर्य
एक ऐसे समुद्री पक्षी की तरह
जो निकलने की कोशिश करता है
पर सतह के तेल से
पँख लिथडे़ होने के कारण
निकल नहीं पाता है.
इस न निकल पाने वाले सूर्योदय को देखने
न पर्यटकों की भीड़ थी
न पर्यटक आत्माओं की.
इस न निकल पाने वाले सूर्योदय के
दिन भर के बाद
न निकल पाने वाला सूर्य डूब जाता है.
जब मैं भीम बैठका देखने गया
जब मैं भीम बैठका देखने गया
तब हम लोग साथ थे।
हमारे सामने एक लाश थी
एक खुली गाड़ी में.
हम लोग उससे आगे नहीं जा पा रहे थे.
जब मैं उससे आगे नहीं जा पा रहे थे.
तब हम सब आगे निकल गये.
जब मैं भीम बैठका पहुँचा
हम सब भीम बैठका पहुँच गये.
चट्टानों में आदिमानव के फुरसत का था समय
हिरण जैसा, घोड़े बंदरों, सामूहिक नृत्य जैसा समय.
ऊपर एक चट्टान की खोह से कबूतरों का झुंड
फड़फड़ाकर निकला
यह हमारा समय था पत्थरों के घोंसलों में –
उनके साथ
जब मैं लौटा
तब हम लोग साथ थे.
लौटते हुए मैंने कबूतरों को
चट्टानों के घोंसलों में लौटते देखा.
आकाश से उड़ता हुआ
आकाश से उड़ता हुआ
एक छोटा सा हरा तोता
( गोया आकाश से
एक हरा अंकुर ही फूटा है. )
एक पेड़ में जाकर बैठ गया.
पेड़ भी ख़ूब हरा भरा था.
फ़िर तोता मुझे दिखाई नहीं दिया
वह हरा भरा पेड़ ही दिखता रहा.
आकाश की तरफ़
आकाश की तरफ़
अपनी चाबियों का गुच्छा उछाला
तो देखा
आकाश खुल गया है
ज़रूर आकाश में
मेरी कोई चाबी लगती है!
शायद मेरी संदूक की चाबी!!
खुले आकाश में
बहुत ऊँचे
पाँच बममारक जहाज
दिखे और छुप गए
अपनी खाली संदूक में
दिख गए दो-चार तिलचट्टे
संदूक उलटाने से भी नहीं गिरते!
मैं दीवाल के ऊपर
मैं दीवाल के ऊपर
बैठा
थका हुआ भूखा हूँ
और पास ही एक कौआ है
जिसकी चोंच में
रोटी का टुकड़ा
उसका ही हिस्सा
छीना हुआ है
सोचता हूँ
की आए!
न मैं कौआ हूँ
न मेरी चोंच है –
आख़िर किस नाक-नक्शे का आदमी हूँ
जो अपना हिस्सा छीन नहीं पाता!!
दूर से अपना घर देखना चाहिए – शुक्ल जी की यह कविता कब की है. अभी की या पहले की. क्योंकि उनका नौकर की कमीज उपन्यास भी लगभग इसी भावभूमि से शुरू होता है. अगर उसी काल की है, जिस काल का यह उपन्यास तो आपको बताना चाहिए था. और अगर नई है. यानी नौकर की कमीज के बहुत बाद की तो यह दिलचस्प है. लौट लौट कर घर को आने की जरूरत अभी भी बनी हुई है. यानी घर की जरूरत अभी भी बनी हुई है. वैसे घर उनके दूसरे दोनों उपन्यासों में भी पक्के राग की तरह आता है.
यह बातें तो मैं ऐसे ही लिख गया. मुझे तो असल में लिखना यह था कि पत्रिका बहुत अच्छी है. बधाई लें.
aadbut kavitayen hain.