Grass, Here, Here, Here, Here And Here: Ramesh Chandra Dwivedi
यहाँ भी घास है, यहाँ भी घास है, यहाँ भी घास है, यहाँ भी घास है: रमेश चन्द्र द्विवेदी
वैसे तो हर शाम को सुबह हो जाती है. कितनी शामें आईं और गईं. पलक उठी तो पलक झपकी भी बड़ी से बड़ी महत्वपूर्ण और रंगीन शामें खाक में मिल गईं. चाहे सुबह-बनारस या शामे-अवध. वक्त के हाथों सब लुट चुकीं. एक शायर परवानों की खाक देखता रहा बड़ी देर तक सोचता रहा क्या महफिल होगी? कैसी रंगीन शामें और रातें होंगी सारंगी के लहरे से वातावरण में कुछ धुआँ सा उठा होगा. संगीत और नृत्य ने रातों के माथे को रौशन कर दिया होगा. मदिरा की प्यालियों में पिघली हुई अशर्फियां रातों को जगमगा जाती होंगी. परवानों की खाक ने शायर के दिल में क्या-क्या जज्बात उभारे, बुझी हुई महफिल में फिर से जान डाली, शमायें फिर से रौशन हो गई, परवाने फिर से जान निसार करने लगे. तभी हवा का एक झोंका आया और परवानों की खाक को उड़ा ले गया. खाक हवा हो गई. शायर खड़ा रहा वहीं युगों-युगों तक. एक आह निकली जो शेर में ढल गई-
सुबह तक वह भी न छोड़ी तूने ऐ वादे सबा,
यादगारे रौनके महफिल थी परवाने की खाक.
लेकिन कुछ ऐसी शामें भी होती हैं जो जम जाती हैं, जिसे वक्त मिटा नहीं पाता. ऐसी ही एक यादगार शाम का बयान करने जा रहा हूँ. जिसका ख़ुद फ़िराक़ गोरखपुरी ने जिक्र किया था. वक्त भी शाम का ही था. वातावरण गंभीर था. फ़िराक़ संजीदा थे. फ़िराक़ सहेज-सहेज कर बोल रहे थे. फ़िराक़-प्रेमचंन्द मजनूं और मैं, हम सब लोग सुबह से ही लक्ष्मी भवन (फ़िराक़ की रहाइशगाह गोरखपुर में ) बैठकर हल्की फुल्की बातें कर रहे थे. वहीं सबका नाश्ता था और दोपहर का खाना भी. प्रेमचन्द अपनी जिंदगी से बाबस्ता कुछ वाकये बयान कर रहे थे. कुछ बीती हुई दुख भरी कहानियाँ, कुछ अच्छे दिनों के चहकते बोल. बात कभी सियासत पर आती कभी मजदूरों और किसानों पर. प्रेमचन्द को शायरी में दिलचस्पी बहुत कम ही थी. कभी मजनूं फिरदौसी की बातें करते तो कभी हाफिज की. सर मोहम्मद इकबाल की शायरी में उन्हें बहुत कुछ नापसंद भी था. बात का केन्द्र घूम-फिरकर समाजवाद बनता और दुःखी भारत की दास्तान दोहरायी जाती. गुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई कलाइयों से रिसते हुए खून और खून के धब्बों का जिक्र होता. इन्हीं खून के कतरों में आजाद भारत की छवि भी उभरकर सामने आ जाती हैं. कभी-कभी मुहल्ले टोले वालों की कहानियाँ भी उभरकर सामने आतीं. उजड़ा हुआ गाँव, मिटे हुए विश्वास की तरह लगता. बीच-बीच में अंग्रेजी लेखकों और कवियों पर भी चर्चा होती हैं. गाँव की बात आतीं तो ‘डिजर्टेड विलेज’ भी सामने अभर आता. मजनूं ने कहा प्रेमचन्द जी, उजड़ा हुआ गाँव भी शायरी में बस जाता हैं. पजझर भी बसंत लगने लगता हैं. प्रेमचंद जी ने कहा शायरी के यही सब तो खतरे हैं. मंजनू बोल उठे, अच्छी कहानी या जैसी कहानी आप लिखते हैं उससे भी तो कुछ ऐसी ही सूरत पेश आती है. मैंने कहा भाई, मंजनू, प्रेमचन्द जी की सबसे बड़ी खूबी तो यही है कि ये गाँव को उठाकर दिल में बसा देते हैं. बड़े-बड़े शहरों में रहने वालों के दिलों में प्रेमचन्द ने गाँवों को आबाद कर दिया . मेरा विचार है कि प्रेमचन्द जी कहानी कला में विश्व के चन्द अज़ीम कहानीकारों मे से हैं. शरतचंद्र से तो निश्चय ही ये बड़े कहानीकार हैं. प्रेमचन्द का कहना था कि शरतचंद्र को कहानियाँ पारिवारिक जीवन में उलझी सी लगती हैं. प्रेमचन्द के भीतर कई-कई संसार करवट लेने रहते थे. बाल का रुख एक बार फिर अंग्रेजी उपन्यासकारों तक पहुंच गया.
प्रेमचन्द डिकेंस के बड़े प्रशंसक थे. बोले भाई डिकेंस की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उनके पात्रों में या उनके वर्णन में भूलभुलैया वाला पेचीदापन नहीं हैं. बड़ा सीधा और साफ़ बयान होता हैं. पात्रों में कोई काम्पेक्लेक्सिटी होती ही नहीं. मगर दिल को हिला देने वाला प्रभाव पैदा कर देते हैं डिकेंस साहब. जीनियस के लिए कोई कायदा कानून नहीं. सूखे हुए पेड़ को छू लिया तो हरा हो गया एक वृक्ष जंगल हो गया और संसार भर के पक्षियों का बसेरा हो गया. भांति-भांति के मधुर बोलों से वृक्ष आबाद हो उठा. अब बात आ पहुंची ‘अंकिल टॉम’स केबिन’ पर. मजनूं ने कहा रघुपत यार ‘अंकिल ऑमस केबिन’ भी गजब का नावेल हैं. इस वक्त हाफिज़ा काम नहीं कर ही है – मुसन्निफ का नाम भूल रहा हूँ. मैंने कहा हैरियट बीचर स्टो. पहले तो प्रकाशक नाक-भौं सिकोड़कर तैयार हुआ. लेकिन बाद में आठ-आठ छापाखाने चौबीस घंटे साल भर छापते रहे. इतनी ज्यादा डिमांड बढ़ गई थी. एक अमेरिकन यात्री इसे लेकर इग्लैंड पहुंचा और उसने बहुत से प्रकाशकों को छापने के लिए दे दिया. आखिर में एक राजी हो गया. दस वर्ष के भीतर पंद्रह लाख प्रतियां छपीं. ‘अंकिल टॉम’स केबिन’ पहला बेस्ट सेलर उपन्यास था. बाइबिल के बाद यह उपन्यास दूसरे नंबर पर था सेल में. ‘अंकिल टॉम्स केबिन’ का तर्जुमा संसार की तेईस भाषाओं में हो चुका था. अब्राहम लिंकन की मुलाकात कहीं एक बार हैरियट से हुई तो लिंकन ने कहा-
So you are the little lady who started the great war!
गुलामी को खत्म करने में इस नावेल का बड़ा असर रहा. यह सिर्फ पहना बेस्ट सेलर नॉवेल ही नहीं था. यह पहला प्रोटेस्ट नॉवेल था. जिसका प्रभाव राजनीति पर गहरा पड़ा. मजनूं गोरखपूरी ने अपनी उंगगलियों को सर पर फिराते हुए कहा, ‘काक एंड बुल स्टोरी’ (Cock and Bull Story) का मतलब तो साफ है – बे-बुनियाद, अतिशयोक्तिपूर्ण, निराधार. मगर उनका ऑरिजिन क्या है मुझे मालूम. इस सिलसिले में मैंने दो-चार डिक्शनरियां भी देख डालीं मगर हाथ कुछ नहीं लगा. प्रेमचन्द ने कहा, Cock and Bull Story वाला फ्रेज तो बहुत पहले से सुनते आए हैं. मगर इसका सरचश्मा कहाँ है यह अब तक नहीं खुला. मैंने (फ़िराक़ से) कहा भाई मैं बहुत दावे के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन जहाँ तक मुझे मालूम है इसका आगाज़ बकिंघम शायर से माना जाता है. स्टोनी स्टैट फोर्ड्स हाई स्ट्रीट में दो पुरानी सरायें थीं जिनका नाम काक और बुल ; Cock and Bull था. मुसाफिर पहले एक सराय में फिर दूसरी सराय में अफसाने सुनाते थे. एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर जिसमें मुबालगा (अतिशयोक्ति) बहुत होता था. यह अफसाने मनगढ़ंत और बेसिर-पैर के होते थे. धीरे-धीरे इन्हें ‘काक एंड बुल’ स्टोरी कहने लगे. प्रेमचन्द और मजनूं ने साथ-साथ कहा चलिए जनबा रघुपत से एक नई जानकारी हासिल हुई.
मजनूं ने कहा-रघुपत यह बताओं थिंकिंग या सोचने या गौर करने का मकसद क्या है. सोचने में क्या होता है. प्रेमचन्द जी बोल पड़े मजनूं साहब आज आपको क्या हो गया है. कैसे-कैसे सवाल उठा रहे हैं. मैंने इस सोचने पर ज़रा सोचना शुरू किया. बात समझ में यह आई कि थिंकिंग का मकसद है चीज़ों को एक-दूसरे से जोड़ने की कला या सलीका, वस्तुओं के आपसी संबंधों को स्थापित करना और उनकी कद्र करना ही थिंकिंग का उद्देश्य है. इसके लिए सबसे खूबसूरत शब्द संस्कृत में है ‘विचार’. विचार बहुत ही महत्त्वपूर्ण शब्द है. यह वह कुंजी है जिससे तिलिस्मों के दरवाजे खुलते हैं. वैसे ‘थिंक’ (Think) ‘थिंग’ (Thing) से ही निकला है. प्रत्येक वस्तु दिल में एक ख़याल को जन्म देती है. मैं कुछ और कहने जा रहा था कि मजनूं बोल उठे – रघुपत यार कुछ टूंगने का जी कर रहा है. हाँ भाई भूख तो मुझे भी लग आई है प्रेमचन्द ने कहा. अंदर से कुछ खस्ते, नमकीन, कुछ मिठाइयाँ और कुछ और भी आ गया.
हालसीगंज का बाजार चिड़ियों के लिए मशहूर हैं. कुछ बटेर, कुछ सुर्ख़ाब (लालसर) वगैरह भी दोपहर के खाने का जायका बढ़ा रहे थे. मछली भी पकी थी. भिंडी की कुरकुरी, बारीक कटी हुई सब्जी, माश की बघारी हुई दाल, फुलके और पोलाव. ड्राई जिन और बिटर्स. शाही टुकड़े भी थे. फ़िराक़ का बयान जारी था. हम लोग गावतकिये के सहारे पलंग पर बैठकर बातें कर रहे थे. प्रेमचन्द जी ने कहा, रघुपत जी को पैराडॉक्स में बात करने में बड़ा मज़ा आता है. मजनूं ने कहा बिना विरोधाभास के बात बनती नहीं. बात का दायरा विस्तृत हो जाता है. भाई पैराडॉक्स भी तो जीवन का अंग है. दरअसल बात ये है कि रघुपत का मिज़ाज़ बहुत दार्शनिक है और इनके ख़याल में हमेशा एक जिद्दत (मौलिकता) होती है. फिर लतीफ़े शुरू हुए. प्रेमचन्द के हँसने का अंदाज बड़ा विस्फोटक होता था. वह रह-रह कर बड़े जोर से हँस पड़ते थे. जैसे कोई धमाका फूट पड़े.
हम लोगों ने सात बजे सुबह से बैठ कर बातें शुरू कीं, नाश्ता खाया, बातों का सिलसिला दो बजे तक चलता रहा. हम लोग कभी-कभी उलझ भी पड़ते थे. नोक-झोंक भी खूब होती. लगभग ढाई बजे खाना खाया गया. खाना सबको बहुत पसद आया. मजनूं तो कबाब की तारीफ़ करते थकते नहीं थे. प्रेमचन्द भी बहुत सराह-सराहकर खा रहे थे. खाना खत्म हुआ. मजनूं ने कहा अब जरा टांगे पसार ली जाएं.
फ़िराक़ का बयान जारी था. लगभग पैंतालीस मिनट बाद हम लोग उठ बैठे. मुलाज़िम को हुक्का ताजा करने का हुक्म दिया गया. गोरखपुर का कवामी और जाफ़रानी तंबाकू अपनी दिलकश खुशबू के लिए दुनियाभर में नाम कमा चुका था.
हुक्के की गुड़गुड़ाहट शुरू हुई. सवाल उठा शाम कहाँ और कैसे गुजारी जाए. तय पाया गया कि एक अच्छा-खासा ताँगा मंगवाया जाए और उस पर सवार होकर हम लोग स्टेशन चलें. वहाँ जैसा जी में आएगा वैसा किया जाएगा. बाम्बे होटल में बैठ लिया जाएगा या जो मिज़ाज़े यार में आए. आदमी भेजकर इलाही तांगेवाले को बुलाया गया. इलाही ने बड़े अदब से सलाम किया और पूछा कि उसके लिए क्या हुक्म है. मैंने कहा इलाही मियाँ चार और सवा चार बजे के बीच ताँगा सज-सजाकर दरवाजे पर इंतजार करे. जो हुक्म कहकर इलाही मियाँ जाने के लिए मुड़े ही थे कि मैंने कहा इलाही मियाँ तांगे पर साफ चादर पड़ी हो. घोड़ा खा-पीकर खुश नज़र आए. एक शर्त और. चाबुक तो हाथ में जरूर हो लेकिन घोड़े को छूने न पाए. इलाही ने हाथ जोड़कर कहा जैसा हुक्म हो मगर तीसरी शर्त ज़रा मुश्किल है. कोशिश यही होगी कि घोड़ा बातों के इशारों पर चले और कोड़ा छू न जाए. बहुत खूब इलाही मियाँ. याद रखिएगा. घोड़े की पीठ पर हर चाबुक मेरी पीठ पर पड़ने के बराबर होगा. इलाही चले गये. मंजनू ने कहा भाई ऐसी शर्त मत रख दिया करो जो दूसरों पर गरां गुजरे. प्रेमचन्द बहुत संजीदा होते नजर आ रहे थे. कह उठे एक दिल है कि जानवरों के लिए इस कदर प्यार से भरा है और सैकडों दिल ऐसे हैं जो इंसानों पर चाबुक बरसाने में आसूदगी, संतोष और ऐश्वर्य का अनुभव करते है. चाय आ गई. थोड़ी देर में मुलाज़िम ने आकर कहा इलाही ताँगे समेत हाज़िर है. चाय खत्म हुई. जेब में कुछ पैसे रखे और ताँगे पर हम सवार हो गए. इलाही मियाँ और घोड़ा दोनों खुश थे और हाई स्पिरिट में थे.
ताँगा चल पड़ा. इलाही बड़े खुश-मज़ाक और खुश-मिज़ाज़ शख़्स थे. रास्ते में कहानी किस्सा सुनाते खुशनुमा लोगों को देखकर फ़ब्ती कसते. घोड़े मियाँ की घोड़ी साहिबा के साथ गुज़ारे दिनों की याद दिलाते और कहते जाते अगर आपने मेरी इज्जत रख ली यानी चाबुक को अपने से दूर रखा तो कल नई-नवेली घोड़ी से आपकी मुलाकात करा दूंगा और हरी-हरी कुटी हुई दूब और चने का नाश्ता होगा. घर पहुंचने पर अच्छी-खासी पुश्तख़ार (जिससे घोड़े की मालिश की जाती है कुछ लोग इसे खरहा कहते हैं) से मालिश होगी. हम बातों का लुत्फ उठाते हिचकोले खाते आगे बढ़ रहे थे. दिन धीरे-धीरे डूब रहा था. ताँगा एक गाँव से गुज़र रहा था. एकाएक हम सब की नजर सड़क के किनारे एक घर के सामने झुकी आम की डाल पकड़े एक जवान गाँव वाली पर पड़ी. सर झुकाये किसी ख्याल में डूबी हुई दुख की तस्वीर बन रही थी. इलाही समेत मजनूं, प्रेमचन्द और मैं – सबके सब संजीदा हो गये. एक लमहे में क्या से क्या हो गया. हँसता-बोलता माहौल नमदीदा हो उठा. एक तो शाम, ढलती हुई रोशनी, आम का दरख़्त जो शाम की उदासी को बई गुना बढ़ा रहा था, सामने लेटी हुई वीरान होती जा रही सड़क, चिड़ियों की अपने-अपने बसेरों को वापसी और दूसरे उस खूबसूरत जवान औरत के दुख का बोझ जो जवानी में उसकी कमर ख़मीदा कर रहा था. हमारे दिलों में कई नश्तर एक साथ उतर गए. पूरा सफर स्टेशन तक खामोशी में बीता. न कोई किसी से कुछ बोल रहा था न किसी को किसी की कुछ खबर थी. पता नहीं क्या-क्या ख्याल उठ रहे थे. शायद घर में कोई गमी हो गई हो, शायद चूल्हे की राख ठंडी पड़ गई हो, शायद उसका शौहर बीमार हो और इलाज के लिए पैसे न हों, शायद उसके मैके से कोई आया ओ, दुःखी समाचार लाया हो. शायद उसका किसी ने अपमान कर दिया हो, शायद उसके शौहर में पुरुषत्व की कमी हो, शायद गाँव में कोई अप्रिय घटना हो गई हो. शायद वो एक शायर का दिल रखती हो और उसके दिल पर सितारों के चमक की चोट उभर आई हो, शायद बाल्मीकि की तरह किसी क्रौंच का वध देख लिया हो या शायद गमे दुनिया का बोझ नाकाबिले बरदाश्त हो उठा हो-स्टेशन तक गए और चुपचाप इलाही को वापस लौट चलने का इशारा किया सबके सब संजीदगी, मौन और दुख की तस्वीर बने वापस आ गए. बिना सलाम-दुआ एक दूसरे से जुदा हो गए.
बरसों यह वाकया हमारे दिलों में पलता रहा. कई शामें आईं, कई शामें गईं मगर उस शाम ने हमारे दिलों पर ऐसा कब्जा किया कि बस. फिर एक शाम ये शेर हुआ –
शाम भी थी धुआँ-धुआँ, हुस्न भी था उदास-उदास
याद सी आके रह गई दिल को कई कहानियाँ.
मजनूं ने एक नावेल लिखा ‘सोगवोर शबाब’ या ‘कुंवर कोट’. प्रेमचन्द ने एक उपन्यास लिख डाला. वह शाम सबको कुछ-न-कुछ दे गई.
इलाही चार-पाँच दिन बाद पैसा लेने आया तो उसने बताया कि सरकार उस शाम घोड़े ने घास नहीं खाई और तांगेवाला भी (यानी मैं) बेखाये सो रहा.
यह बात तो यहीं खत्म होती है. तब मैं (लेखक) १९५३-१९५४ में बी.ए. में दाखिला ले चुका था इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में. उन दिनों अमृतरायजी (प्रेमचन्द के पुत्र) लगभग रोज ही फ़िराक़ साहब के यहाँ आ जाया करते थे. वे उन दिनों राजापुर के पास किराये के मकान में रहते थे. पता चला कि शिवरानीजी (प्रेमचन्द की पत्नी) अमृतराय के यहाँ आई हैं. और फ़िराक़ साहब से मिलना चाहती हैं. मैं बहुत उत्सुक था उनका दर्शन करने के लिए. फ़िराक़ और मैं रिक्शे पर बैठकर अमृतरायजी के यहाँ पहुँचे. आँगन में शिवरानी जी बैठी थीं. फ़िराक़ साहब को देखते ही उनकी आखों में आँसू छलक आए और फ़िराक़ का हाथ पकड़े बहुत देर तक बैठी रहीं. अमृतराय जी भी वहीं खड़े थे. भाषा मौन थी. बड़ी देर के बाद शिवरानीजी ने आँसू पोंछते हुए फ़िराक़ का हाल पूछा. फिर बीते दिनों को याद करने लगीं. फ़िराक़ लगभग आधे घंटे वहाँ बैठकर बाहर चले आए और ड्राइंग रूम में बैठ गए. बरामदे मे अमृतराय जी ने कैक्टस का बाग सजा रखा था. बड़ी सूबसूरत प्यालियों में बड़ी दिलकश चाय पी जा रही थी. अंदर माहौल बड़ा संजीदा हो गया था. बातें घूम-फिरकर प्रेमचन्द जी ही पर आ रही थीं. फ़िराक़ ने कहा कि मैंने एक बार प्रेमचन्दजी से पूछा कि आपने कभी कोई इश्क किया है. प्रेमचन्द ने बताया कि कोई वाकया तो इश्क का नहीं है. हाँ हमारे लॉन में एक घसियारिन घास काटने आती थी – वह हमें बहुत अच्छी लगती थी. इज़हारे इश्क की हिम्मत तो न हो सकी. बस मैं उससे यही कह पाया – यहाँ भी घास है, यहाँ भी घास है, यहाँ भी घास है, यहाँ भी घास है.