आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

Faith In Me Stands Vindicated: Nagarjuna

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पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने

शुरू-शुरू कातिक में
निशा शेष ओस की बून्दियों से लदी हैं
अगहनी धान की दुद्धी मंजरियाँ
पाकर परस प्रभाती किरणों का
मुखर हो उठेगा इनका अभिराम रूप ………
टहलने निकलता हूँ ‘परमान’ के किनारे-किनारे
बढ़ता जा रहा हूँ खेत की मेडों पर से, आगे
वापस जा मिला है अपना वह बचपन
कई युगों के बाद आज
करेगा मेरा स्वागत
शरद का बाल रवि…

पूर्वांचल प्रवाही ‘परमान’ की
द्रुत-विलंबित लहरों पर
और मेरे ये अनावृत चरण युगल
करते रहेंगे चहलकदमी
सैकत पुलिन पर

छोड़ते जाएँगे सादी-हलकी छाप….
और फिर आएगी, हँसी मुझे अपने आप पर
उतर पडूँगा तत्क्षण पंकिल कछार में
बुलाएंगे अपनी ओर भरी खुरों के निशान
झुक जाएगा ये मस्तक आनायास
दुधारू भैस की याद में….
यह लो, दूर कहीं शीशम की झुरमुट से
उडाता आया है नीलकंठ
गुज़र जाएगा ऊपर-ही-ऊपर
कहाँ जाकर बैठेगा?

इधर पीछे जवान पाकड़ की फुनगी पर
या उस बूढे पीपल की बदरंग डाल पर ?
या की, उडाता ही जाएगा
पहुंचेगा विष्णुपुर के बीचोबीच
मन्दिर की अंगनाई में मौलसिरी की
सघन पत्तियोंवाली टहनियों की ओट में
हो जाएगा अद्रश्य, करेगा वहीं आराम!
जाने भी दो,
आओ आज जी भरकर
उगते सूरज का अरुण-अरुण पूर्ण-बिम्ब
जाने कब से नहीं देखा था शिशु भास्कर
आओ रत्नेश्वर, कृतार्थ हो हमारे नेत्र !
देखना भाई, जल्दी न करना
लौटना तो है ही
मगर यह कहाँ देखता हूँ की रोज़-रोज़
सोते ही बिता देता हूँ शत-शत प्रभात
छूट-सा गया है जनपदों का स्पर्श
(हाय रे आंचलिक कथाकार!)

आज मगर उगते सूरज को
देर तक देखेंगे, जी भरकर देखेंगे
करेंगे अर्पित बहते जल का अर्थ
गुनगुनायेंगे गद्गद् हो कर –
“नमो भगवते भुवन-भास्कराय
ओ नमो ज्योतिश्वराय
ओ नमः सूर्याय सविते…”
देखना भाई रत्नेश्वर, जल्दी न करना.
लौटेंगे इत्मीनान से
पछाड़ दिया है आज मेरे आस्तिक ने मेरे
        नास्तिक को
साक्षी रहा तुम्हारे जैसा नौजवान ‘पोस्ट-ग्रेजुएट’
मेरे इस ‘डेविएशन’ का !
नहीं, मैं झूठ कहता हूँ ?
मुकर जाऊँ शायद कभी….
कहाँ! मैंने तो कभी झुकाया नहीं था
        मस्तक!
कहाँ! मैंने तो कभी दिया नहीं था अर्घ
        सूर्य को!
तो तुम रत्नेश्वर, मुस्कुरा-भर देना मेरी उस
        मिथ्या पर

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2 comments
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  1. Baba ke charno mein pranam. Mahakavi ke shabd-chitra jo kah jayen kam hai.

    Pranam hai.

  2. Baba ki kavita to swabhawtah achhi hai! The poem reminded me of the concept – Dharmetar adhyatma – given by Purushottam Agrawal. The poem has a transcendental effect.

    The translation is superb! Manoj ko badhai! Yah translation ek kavi hi kar sakta tha!

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