आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

बुख़ार में लिखी गयी चिट्ठी: मृत्युंजय

अपनी एक कविता ‘एक महाविद्यालय से’ में पंकज चतुर्वेदी उस जगह और परिस्थिति का पता बताते हैं, जहाँ ये कविताएँ रची गयीं। एक भरा-पूरा मध्यवर्गीय क़स्बा, उसमें हिन्दी क्षेत्र की सभी ख़ासियतें लपेटे एक महाविद्यालय और एक आदमी, जो इस सबके बीच अपनी ही सही भूमिका तलाश रहा है। यहाँ चारों तरफ़ भ्रष्टाचार है, हिन्दी के स्वनामधन्य विभागाध्यक्ष हैं, जो ‘अपने से केवल आठ वर्ष कनिष्ठ महिला प्रवक्ता को/पुकारते हैं कहकर बेटा’, बेरोज़गारी है, अध्यापक हैं, जो पढ़ाने की बजाए दूसरे व्यवसायों के लिए जाने जाते हैं और सरकार है, जिसका परम कर्तव्य ‘जायज़ या नाजायज़ तरीक़ों से/पैसा वसूलना है/वह भी इस बिना पर/कि लोग मरें नहीं’। इस मकड़जाल में फँसने और इससे निकलने की छटपटाहट को पंकज का यह नया संग्रह रेखांकित करता है। इस संग्रह में कुल सत्तर कविताएँ हैं। पिछले संग्रह की तरह कवि ने इसमें उपशीर्षक नहीं रखे हैं, पर सुविधानुसार एक पाठक इस संग्रह की कविताओं को ‘समकालीन राजनीति’, ‘प्रेम’, ‘घर’, ‘भाषा’ आदि उपबंधों में पढ़ सकता है। इन सबको मिलाकर संग्रह अपने समकाल के बीच प्रतिरोध की एक मुकम्मल तस्वीर रचने का यत्न करता है।

भारत में खगोलीकरण के प्रपंच का एक चरण बीत चुका है। यह दूसरा चरण है, जिसमें यथार्थ पर उत्पाद हावी हुआ जाता है। तक़रीबन, चेतना के सभी स्तरों पर पूँजी ने जादुई और आभासी दुनिया की रचना शुरू कर दी है। ‘उदार’ लोगों ने लम्बी यात्राएँ कीं और अब ‘रक्तपायी वर्ग से नाभिनालबद्ध’ हो चिंतन में मगन हैं। भूपेन हजारिका एवं बशीर बद्र भाजपा में जा चुके हैं और कांग्रेस के पास बौद्धिकों की लंबी कतारें हैं। एन०जी०ओ० प्रपंच पूँजी के लिए नये बौद्धिक रच रहा है। ऐसे में कोई कवि इस आभासी दुनिया के पार ज़मीनी हलचलों और वहाँ की ज्ञानमीमांसा को आधार बनाकर अपनी बात कहेगा, तो आयरनी (विडम्बना) उसकी कविता में सिर चढ़कर बोलेगी! पंकज की कविताओं में यह आयरनी कई जगह मिलती है-

दिल्ली में जगमग रौशनियाँ देखकर
लल्लू दुबे को अचरज हुआ
रघुवंशी को हुई तकलीफ़
अब हमने जाना
क्यों हमारे गाँव नहीं पहुँचता है
मिट्टी का तेल’
 
अगरचे आप ही देखिये
डी०ई० साहब के होने से ह०च०रा० है
अन्यथा इन अक्षरों में क्या है?
 
यह रेल है या
रोती-झींकती व्यवस्था हमारी
बहुत-कुछ के भार से लथपथ
कुछ न करने की इच्छा से भरी
समय से कहीं न पहुँचती हुई
 
गीत में मछुवारे से निवेदन था
कि वह एक बार और जाल फेंके
शायद किसी मछली में बंधन की चाह हो
 
मैंने सोचा उन सबसे जाकर पूछूँ
इस पर क्यों मुग्ध हुए जाते हो मित्रो
मछली कोई मरना क्यों चाहेगी?’

 
यह आयरनी दो स्थितियों के अन्तर्विरोध से नहीं, बल्कि दो ज्ञान-मीमांसाओं की टकराहट से उपजती है। प्रतिरोध के पक्ष और सत्ता की टकराहट से। चेखव की एक कहानी का संदर्भ लें, जिसमें एक ग्रामीण रेल की पटरी से लोहे का टुकड़ा उखाड़कर मछली मारने का काँटा बनाता है। पुलिस उसे पकड़ती है, पर अदालत उसे समझाने में नाकाम रहती है कि उसने कोई जुर्म किया है। उसका तर्क है कि मछली मारने के लिए लोहा लेना कोई जुर्म नहीं है। किसान के इस तर्क से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण तर्क के पीछे की वैचारिकी है, जो सत्ता के ‘तर्क’ की वैचारिकी के बरअक्स खड़ी है। इससे आयरनी उपजती है। पंकज की ‘तूफ़ान’ शीर्षक कविता में लल्लू दुबे नाम के किसान तूफ़ान एक्सप्रेस को देखने जाते हैं और ‘दोपहर का समय था/तपी हुई लोहे की पटरियों पर से/गुज़र गयी ट्रेन सनसनाती/परछाईं भी तुरत मिट गयी/रह गयी बस एक साँय-साँय/लल्लू दुबे किसान थे/बोले बेसाख़्ता/यह कैसा तूफ़ान है/जिसकी है कौए जैसी छाया।’ यह तूफ़ान भूमण्डलीकरण का है, जो मनमोहन सिंह से बरास्ते ‘फ़ील गुड’ फिर नये अंदाज़ में अवतरित हुआ है, इसमें लल्लू दुबे के लिए कुछ भी नहीं है। इस रूपक को समय की विमा में और फैलाया जाये, तो जब से रेल आयी, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से लेकर आज तक, ‘विकास’ और ‘व्यवस्था’ की रेल आम आदमी की नज़रों के सामने साँय-साँय गुज़रती रही और उसके हिस्से लगी सिर्फ़ ‘कौए जैसी छाया’।

पंकज की यही ख़ासियत उनको परम्परा के उन पहलुओं तक ले जाती है, जिसे ‘दूसरी परम्परा’ कहते हैं। प्रतिरोध की इस परम्परा का एक मक़ाम भारत का पहला स्वाधीनता-संग्राम भी है। हम अपने समय में किन सवालों से जूझ रहे हैं, इसी की रौशनी में हम अपना अतीत भी व्याख्यायित करते हैं। हम वही सवाल अपनी परम्परा में करते हैं, जिसकी हमें समकाल में ज़रूरत हो। ‘फै़ज़ाबाद से अयोध्या तक/एक जुलूस निकालना है’, जिससे कि ‘साम्राज्यवाद और साम्प्रदायिकता की दुरभिसंधि का’ सही तरीके़ से प्रतिकार किया जा सके। इसी चिन्ता के साथ अगर १८५७ के बारे में सोचा जाये, तो उसे ठीक तरीके़ से समझा जा सकेगा। इसकी बजाए औपनिवेशिक इतिहास-बोध इस परिघटना की व्याख्या करते-करते ‘वर्ण-व्यवस्था के इस यत्किंचित्‌ विनाश के लिए/अंग्रेज़ों की पर्याप्त सराहना नहीं हुई’ के निष्कर्ष तक पहुँचता है। जब यह मान लिया जाए कि ‘देश तो हाथ से निकल चुका है’, तब ऐसे निष्कर्षों तक पहुँचने में तनिक भी देर न लगेगी। इस तर्क-पद्धति की राजनीतिक प्रासंगिकता भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के व्याख्यान से पता चलती है। ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में बोलते हुए प्रधानमंत्री ने अंग्रेज़ों के क़सीदे काढे़ कि उन्होंने हिन्दुस्तान को ‘सभ्य’ बनाया। यह ‘सभ्य’ अमरीका के सिविलाइजिं़ग  मिशन का अनुवाद है, जिसमें मुनाफ़ा और नृशंसता ही कसौटियाँ हैं। बर्बर को सभ्य बनाने का यह खेल इराक़ से लेबनान तक और अबू-गरेब के कै़दख़ानों तक पसरा है और इस ‘सभ्यता’ के विचारक हिन्दुस्तान में भी सरेआम राज कर रहे हैं।

इस संग्रह में हमारे दौर के युवाओं के रूप भी दर्ज हैं। ‘गरबीली गरदनों वाले’ नौजवान जो बेरोज़गारी और लाचारी में पिस रहे हैं और उस व्यवस्था में कहीं न अँट पाने के चलते टूटते जा रहे हैं। उनके एक तरफ़ कठिनतम्‌ जीवन-स्थितियाँ हैं और दूसरी तरफ़ सहज प्राप्य लगनेवाला पूँजी का अलभ्य ‘मैट्रिक्स’। उन दो छोरों का तनाव युवा मन को अँधेरे कोनों की तरफ़ धकेल देता है। नकार, नशे और आत्मघात से बनी दुनिया उनकी शरणगाह होती है। जब यह लगता है कि यह दुनिया हमारे लायक़ नहीं है, न हम इसे बना सकते हैं, न बदल सकते हैं, ‘तब वे कहते हैं/कि उन्हें मृत्यु पसन्द है’। युवाओं की इस मनःस्थिति का फ़ायदा लेनेवाले लोगों के हित में यही है कि वे उन्हें नशे-अपराध-आत्महत्या-कुंठा के जाल में फँसा दें, जिससे कि सत्ता का प्रतिरोध करने की उनकी ताक़त को ख़त्म किया जा सके। ‘वे कौन लोग हैं जिन्हें वे जानते तक नहीं/पर जिनके उद्देश्यों की वे पूर्ति कर रहे हैं!’ ये नौजवान अपने से ही अलगा दिये गये खंडित व्यक्तित्व हैं, जिनकी हैसियत न बाज़ार में बची है, न परिवार में। उनकी हैसियत हमारे वक़्त या समाज में खगोलीय पूँजी के अपशिष्ट जैसी है।

इसी समाज में एक गुरुकुल भी है, जहाँ चहुँओर आनन्द-मंगल छिटका पड़ता है, यहाँ समय का न कटना ही एक दुख है। इस आनन्दोत्सव का सूत्र है-‘शासक अन्यायी भी हैं तो/व्यर्थ है विकलता/व्यर्थ है आन्दोलन/शासक बदल भी जाएँ तो/शासन नहीं बदलता/अतः स्तुति और निन्दा में/ऐसा रखें सन्तुलन/रुके न अपना हित-साधन’। यह गुरुकुल मध्य-वर्ग के अन्तर्द्वंद्व के पुराने दर्शन से आगे अन्तर्द्वंद्व को सत्ता तक पहुँचने की सीढ़ी के तौर पर परिभाषित करता है। यहाँ दोमुँहापन दोष नहीं, कला है। दोषों को कला में बदल देने का यह नायाब करिश्मा हमारे इस दौर की ख़ासियत है और ऐसी कला में माहिर लोग लगातार बढ़ते जा रहे हैं। कला की परिभाषा में भारी उथल-पुथल है और कला के भेष में क्या आयेगा, इसकी कल्पना मुश्किल होती जा रही हैः ‘यह राजत्व कलामय भी हो सकता है/और उसकी  कला में/इतने समारोह के साथ/मनुष्य की हत्या होगी/कि तुम्हें लगेगा/यही हो सकता था/इसलिए यही हुआ/और तुम उस पूरे आख्यान पर/मुग्ध हो जाओगे’।

हत्या का समारोहीकरण और नियति होना तो चली आ रही बातें थीं। नयी बात है, हत्या का आख्यान में बदलना। यह आख्यान बदलाव की किसी भी सम्भावना को सिरे से नकारता है और कार्य-कारण के सत्ता के तर्क को भूत और भविष्य दोनों विमाओं में जड़ कर देता है-‘यही हो सकता था/इसलिए यही हुआ’। यही पूँजी का रचा हुआ भ्रमजाल है, जो यथार्थ को मानसिक रचना में बदल देता है। तब अगर आपको इस विकल्पहीन दुनिया में रहना है, तो इसी हत्या-समारोह के साज़िंदे या दर्शक की तरह। अगर आप इस पर मुग्ध हो पाये, तो इस दुनिया के अन्तःपुर में आपका स्वागत है।

इस संग्रह का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं प्रेम कविताएँ। प्रेम कविताएँ लिखना पुरुष-वर्चस्ववादी इस समाज में ख़ासा मुश्किल काम है। कविता का संसार ही इस बात की थाह देता है कि पितृसत्ता से प्रतिरोध, बराबरी और सहजता के लिए कवि में कितनी छटपटाहट है। यहाँ मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि इसी समाज में रहते हुए इस समाज की पितृसत्तात्मक कुंठाओं से कोई शत-प्रतिशत मुक्त नहीं हो सकता, पर जहाँ तक अपने भीतर और बाहर इसके प्रतिरोध का सवाल है, चीज़ें यहीं तय होती हैं। पंकज के पिछले संग्रह की कविताओं से लेकर नये संग्रह तक बिना दयार्द्र हुए बराबरी की ज़मीन रचने का प्रयास है, और इस प्रक्रिया से उपजे सवाल भीः ‘और मेरी आँखों में भीगता हुआ/उसकी इस इच्छा का अकेलापन था/कि वह अपने कारणों से काटकर/मुझे दूसरे कारणों से/खु़श रखना चाहती थी’। क्या यह ‘याचना में भीगा हुआ सौजन्य’ है, जो दुख और दया से उपजता है? इस भूमण्डलीकरण के दौर में जहाँ ‘इच्छाओं का बुरा हाल है’, प्रेम का ‘सौजन्य’ होना घट रहा है, यहाँ ‘फ़िल्म के रजत पर्दे पर/विवस्त्र देहों का अविचारित उल्लास/हिंसा का भव्य प्रदर्शन ही है’। यहाँ बाज़ार मनुष्य को ‘उत्पाद’ में बदल देने के लिए कमर कसे हुए है, इसी मार-काट में प्रेम करनेवालों की हत्याएँ होती हैं, वहीं ‘इसी भीड़ में/सम्भव है प्रेम’ । ऐकान्तिक और व्यक्तिगत की बजाए, भीड़ में, तुमुल कोलाहल के बीच से ही प्रेम के लिए पंकज की कविताएँ स्पेस रचती हैं। बदलते दौर में लड़ाई इतनी तेज़ हुई है कि पुराने हथियार और तरीके़ भोथरे होते गए हैं। अब इस जटिलता को देखने के लिए ‘व्याकुलता से ज़्यादा विवेक’ की माँग है, क्योंकि बदलाव की गति को बेहद धैर्य से देखने पर उसे समझा जा सकता है। यह ‘हिंस्र पशुओं से भरी शर्वरी’ का वक़्त है, जहाँ ‘समय पर नहीं/चेतना पर गिरती है बर्फ़’। नये दौर के इस प्रपंच के बीच प्रेम को प्रतिरोध की भूमिका में पंकज का यह संग्रह खड़ा करता है।

पंकज की कविताओं में ‘घर’ बहुत बार आया है। ‘घर’ परिवार है, सुरक्षा का घेरा है, शरण्य है, छुपने की जगह है; लेकिन पंकज मध्यवर्गीय जीवन की असलियतों के बीच से ‘घर’ को देखते हुए भी उसे ऐसी जगह के रूप में भी देख लेते हैं, जहाँ से समाज को जवाब भी दिया जा सकता है। ‘घर’ की परिभाषा में समय ने काफ़ी बदलाव कर डाले हैं और यह बदलाव पंकज की कविताओं का विषय बना है। ‘घर’ की सीमाएँ अगर फैला दी जाएँ, तो एक देश बनता है, जिसमें घर की समस्याएँ इस क़दर हावी हैं कि घर किसी दूसरे का घर लगता है। घर एक मुहावरे में बदल रहा है, जिसमें कोई अर्थ नहीं–‘तब मुझे यही कहना था मित्रो/कि उन मुहावरों से बचो/जिनकी कोई हक़ीक़त न हो/क्या तुम्हारा पता/इतना मिटा है/कि वह मिटते हुए लोगों का/पता हो सके ?’

भाषा की राजनीति में भी पंकज अपना पक्ष चुनते हैं, वे भाषा के बहते नीर की तरफ़ खड़े हैं, भाषा की दुनिया में रचे जा रहे छल को ध्वस्त करने का यह प्रयास शुद्धता और एक-भाषा के ख़िलाफ़ बहुलता के पक्ष में खड़ा होता है, जहाँ अभिव्यक्ति के अलग-अलग तरीक़ों को ज़बरिया घोंटकर उनका शुद्धीकरण नहीं किया जाता। वहाँ तबीयत ख़राब होने को ‘रजनीकान्त दिक़ हैं, उइ उछरौ-बूड़ौ हैं, उनका जिव नागा है, चोला कहे में नहीं है’  इत्यादि तरीक़ों से बताया जा सकता है। दूसरी तरफ़ हिन्दी के स्वनामधन्य अध्यक्षों की फौज़ है, जिनके मुताबिकः ‘नामवर सिंह को/नहीं लिखनी आती है व्याकरणसम्मत भाषा/’हिन्दी’ शब्द वैदिक है/कितनों को है पता/कैलास में जब तालव्य ‘श’ बनता है/तो उसका अर्थ हो जाता है गधा ‘। यह भाषा को उसकी हक़ीक़त और अर्थ से काटकर पीछे ले जाने की राजनीति है, जिसमें बहुलता की कोई गुंजाइश नहीं है।  ……..और ठीक इसीलिए आम जन की भी इस राजनीति में कोई जगह नहीं।

पंकज की यह किताब उन्हीं की भाषा में ‘बुख़ार में लिखी गयी चिट्ठी’ है, जहाँ परिघटनाओं के छुपाये जा रहे अर्थों को सामने लाने की कोशिश है।

One comment
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  1. मृत्युजंय ने अच्छा आकलन किया है। यह किताब जितने की अधिकारी थी, उतना दाय इसे नहीं मिला!
    और हां! चंद्रकांत देवताले की एक कविता है `एकदम अपने बुखार में´।

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