आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

Before The Translation: Madan Soni

Pages: 1 2

अनुवाद से पहले: मदन सोनी

हम अगर थोड़ी देर के लिए स्रोत भाषा को लक्ष्य भाषा के “अन्य” की तरह देखने पर सहमत हों, तो हम एक ऐसे अनुवाद (जिसे शायद “आदर्श” अनुवाद भी कहा जा सके) की कल्पना कर सकते हैं जहाँ इस “अन्य” भाषा में निबद्ध पाठ अपनी पहचान खोये या विकृत किये बिना लक्ष्य भाषा में रह सके। जहाँ अनुवाद उसके लिए सिर्फ़ अन्य (स्रोत भाषा) के प्रति खुद को अभिव्यक्त करने का नहीं, बल्कि अन्य की निगाह से खुद को देखने का माध्यम बन सके। इसे अनुवाद का एक ऐसा संवादपरक रूप कहा जा सकता है जहाँ दोनों पाठ अथवा दोनों भाषाएँ अपनी परस्पर अन्यता की चरमता को तज कर एक दूसरे के अधिकतम निकट आ सकती हैं; एक ऐसा रिश्ता जिसे निर्मल वर्मा के शब्दों में हम शयद “आत्मीय दूरी” का रिश्ता कह सकते हैं; जिसमें इस अन्यता की रक्षा करते हुए उसको अधिकतम इकॉनॉमिकल बनाया जा सकता है। यह सतर्कता और इकॉनॉमि ख़ासतौर से तब और भी ज़्यादा ज़रूरी प्रतीत होते हैं जबकि ये दो भाषाएँ या पाठ किन्हीं ऐसी दो संस्कृतियों से ताल्लुक रखते हों जिनके बीच स्वयं ही चरम अन्यता का रिश्ता हो, जैसा कि वह योरोप और भारत के बीच में है।

लेकिन योरोप और भारत के बीच सिर्फ़ इस चरम अन्यता का रिश्ता नहीं रहा है। आज इस रिश्ते की सूरत चाहे जैसी भी हो, लेकिन अपनी बुनियाद में वह “अन्य” के प्रति योरोपीय संस्कृति की उस अवधारणा से नियन्त्रित रिश्ता रहा है, जहाँ, एक बार फिर निर्मल वर्मा के पर्यवेक्षण के सहारे कहें तो, “अन्य” को “अपने से हमेशा अलग, एक बाहर की वस्तु” के रूप में, एक साथ “आतंक के स्रोत और आकांक्षा की वस्तु” के रूप में देखा गया है। इसलिए वह भारत को उसकी अपनी पदावली में समझने, उसके साथ संवाद करने का नहीं बल्कि उस पर कब्ज़ा करने, उसे उपनिवेशीकृत करने, और अपनी पदावली और कोटियों में उसकी पहचान को दुर्विनियोजित करते हुए उसके विरुद्ध अपनी पहचान को परिभाषित करने का रिश्ता रहा है। और यहाँ लगे हाथ यह याद करना भी सर्वथा प्रासंगिक है कि औपनिवेशिक-काल में किये गये प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के योरोपीय अनुवादों ने भी इस रिश्ते को गढ़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। इस रिश्ते के अतीत का स्मरण इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि यह कोई इतिहास हो चुकी घटना नहीं है, बल्कि वह विडम्बनापूर्ण ढंग से इस रिश्ते के वर्तमान पर अपनी छाया डालता है।

इस रिश्ते की पृष्ठभूमि में मैं जब किसी योरोपीय भाषा में आधुनिक हिन्दी साहित्य के अनुवाद के प्रश्न पर सोचता हूँ तो अनुवाद का प्रत्यय मेरे मन में एक और रूपक की तरह उभरता है। तब यह रूपक महज़ इन दो भाषाओं के बीच अनुवाद के रिश्ते का रूपक नहीं जाता, बल्कि वह उसका अतिक्रमण कर भारत और योरोप की दो संस्कृतियों के बीच के रिश्ते को अपनी व्याप्ति में समेट लेता प्रतीत होता है; वह भारत और योरोप के बीच के रिश्ते का रूपक बन जाता है। ज़ाहिर है, यह प्रयोग करते हुए मैं उपनिवेशीकरण को अनुवाद से समीकृत करने की कोशिश कर रहा हूँ। यह एक अव्याप्त या सरलीकृत रूपक प्रतीत हो सकता है। कहा जा सकता है कि यह एक ओर उपनिवेशवाद का डि-डिमॉनिफ़िकेशन करने की, उसे एक उदार-मानवतावादी कर्म के रूप में देखते हुए उचित ठहराने की, और दूसरी ओर अनुवाद-कर्म का मज़ाक बनाने, उसे एक गर्हित, अमानवीय कर्म के रूप में देखने की कोशिश है। हो सकता है कि यह समीकरण अपने आप में विद्रूप हो। लेकिन कम से कम भारत और योरोप के रिश्ते के सन्दर्भ में यह रूपक उतना असंगत शायद न होगा, बशर्ते कि हम अनुवाद के उस एक खास रूप-जिसे आप भले ही अच्छा अनुवाद न मानें (गोकि कम से कम हमारे यहाँ ऐसे अनुवादों को सराहा ही जाता है)-को स्वीकार करने पर सहमत हों जो “मूल”[1] के उपनिवेशीकरण, वशीकरण और उसके साथ हिंसा की उस पराकाष्ठा पर घटित होता है जहाँ अनुवाद “मूल” के हस्ताक्षर को अपने में विलीन कर खुद ही “मूल” की जगह लेता है। और आप अनुवाद को मूल की तरह देखना और बरतना शुरू कर देते हैं। उपनिवेशोत्तर भारत मुझे एक ऐसा ही अनूदित भारत प्रतीत होता है। इसलिए जब हम अपने सिम्पोजि़यम[2] के शीर्षक में “ट्रांसलेटिंग इण्डिया” जैसे पद का इस्तेमाल करते हैं तो यह महज़ एक आलंकारिक अभिव्यक्ति नहीं रह जाती, वह एक अभिधात्मक कथन के रूप में भी ध्वनित होता है, सिवा इसके कि “ट्रांसलेटिंग इण्डिया” की यह परियोजना बहुत पहले पूरी हो चुकी है। इस उद्यम को पूरा करने के लिए उपनिवेशवाद नाम का एक महान अनुवादक वर्षों कार्यरत रहा है। इसलिए कभी-कभी यह लगता है कि जो काम बचा रह गया है, और जो हम अनुवाद के नाम पर ज़्यादातर करते हैं, वह पहले से अनूदित भारत का लिप्यान्तरण मात्र है।

मुझे लगता है कि साहित्यिक अनुवाद की प्रक्रिया में भारतीय संस्कृति की छवि के निर्माण और सम्प्रेषण की चिन्ता करने, और इस तरह अनुवादक या अनुवाद की युक्तियों और मंशाओं पर समूचा ज़ोर देने से पहले, हमें इस सांस्कृतिक अनुवाद या इस “पहले से ही अनूदित भारत” के तथ्य को लेखे में लेना ज़रूरी है। और फिर इस बात को भी कि स्वयं हिन्दी साहित्य ने इस तथ्य को किस हद तक लेखे में लिया है, और उसके प्रति किस तरह की प्रतिक्रियाएँ स्वयं उसके संघटन का अंग बन सकी हैं।

अपने रूपक में मैं उपनिवेशीकरण के जिस पक्ष की तरफ़ इशारा करना चाह रहा हूँ वह उसका राजनैतिक अधीनता का वह पक्ष नहीं है जिसे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान सबसे ज़्यादा प्रतिरोध दिया गया और जिससे भारत को अन्ततः जैसी-तैसी मुक्ति भी मिल गयी। मेरा इशारा इसके उस पक्ष की तरफ़ है जिसे इसके एक सकारात्मक प्रभाव के रूप में ग्रहण किया गया था, और जिसने भारत के तत्कालीन बौद्धिक मानस में अपनी ज़बरदस्त छाप छोड़ी थी; मेरा इशारा उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया में प्रक्षेपित किये गये “आधुनिक” भारत के उस स्वप्न की ओर है जिसका इस बौद्धिक वर्ग ने लगभग सहज मानकर स्वागत और वरण किया – गाँधी के अकेले अपवाद को छोड़कर, जिन्होंने उपनिवेशवाद के इस पक्ष को, इसमें निहित अधीनता के गहनतर मनोवैज्ञानिक रूप को अपनी तरह से पहचाना, और इसको प्रतिरोध के प्राथमिक लक्ष्य पर रखने का आग्रह किया। गाँधी के इस आग्रह को तत्कालीन बौद्धिक वर्ग, जिसमें उनके निकटतम राजनैतिक अनुयायी और सहयोगी शामिल थे, ने जिस तरह अस्वीकृत किया, जिस तरह उसका उपहास किया, उससे इस छवि के प्रति इस वर्ग के आकर्षण की प्रबलता का पता चलता है।

उत्तरऔपनिवेशिक विमर्श में इन तथ्यों को तो भलीभाँति पहचाना और अनेकषः दोहराया गया है कि “आधुनिक” भारत के इस स्वप्न को तत्कालीन भारत की उस छवि के विरोध में प्रक्षेपित किया गया था, जिसे ब्रिटिश शासकों और उनके सहयोगी अँग्रेज़ अध्येताओं तथा इसाई प्रचारकों ने अपने राजनैतिक, आर्थिक स्वार्थों, और प्रजातीय, बौद्धिक पूर्वग्रहों के आधार पर गढ़ा था (और इस छवि को गढ़ने में संस्कृत पाठों के अँग्रेज़ी अनुवादों ने भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी)। यह भी कि इस गढ़न में भारत एक अन्धकारग्रस्त, सैवेज, अन्धविश्वासी, जड़, पिछड़ी हुई, अकर्मण्य, निद्राग्रस्त, बूढ़ी, नामर्द, स्त्रैण, बचकाना, अपवित्र, अधोपतित, भ्रष्ट, अनैतिक, क्रूर, अन्यायपूर्ण संस्कृति के रूप में उभरता है। लेकिन इस छवि की गढ़न में स्वयं भारतीय बौद्धिकों की सहअपराधिता, जिसे मैं यहाँ रेखांकित करना चाहता हूँ, पर अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया गया है। भारतीय संस्कृति के बारे में इन उपनिवेशवादी पर्यवेक्षणों को तत्कालीन भारतीय बौद्धिकों ने किस तरह लगभग जस का तस स्वीकार कर लिया, इसे हम उन्नीसवीं सदी में कोलकाता में आरम्भ हुए उस पुनर्जागरणवादी रेह्‌टॉरिक से समझ सकते हैं जिसमें इन पर्यवेक्षणों की प्रति-ध्वनियाँ साफ़ सुनायी देती हैं (“प्रतिध्वनि” को अँग्रेज़ी में “इको” कहेंगे, लेकिन यहाँ मैं इस शब्द के साथ हल्का सा प्ले करते हुए इसका इस्तेमाल कर रहा हूँ जिसमें ध्वनि के दोहराव का अर्थ भी शामिल है और एक ऐसी ‘काउण्टर साउण्ड’ का अर्थ भी शमिल है जो मूल ध्वनि को काउण्टर करने की प्रक्रिया में उस ध्वनि को दोहराती है।) दरअसल हिन्दी में “पुनर्जागरण” और “ज्ञानोदय” के नाम से प्रसिद्ध यह “रेनेसाँ” स्वयं ही उस योरोपीय “रेनेसाँ” की प्रतिध्वनि लिये हुए था, जो एक “डार्क एज” के अवशेषों के भीतर से आधुनिक संसार के उठ खड़े होने की पूर्वमान्यता पर खड़ा हुआ था। और लगभग उसी काल में जारी उस Enlightenment की भी प्रतिध्वनि, जिसकी सार्वभौमिक शान्ति, सुख और प्रगति की योरोपीय परियोजना का एक विडम्बनापूर्ण अंग उपनिवेशवाद और उसकी यह पदावली थी। भारतीय अतीत और वर्तमान का योरोपीय “डार्क एज” की पदावली में किया गया यह अनुवाद जब भारतीय “पुनर्जागरण” के प्रतिहस्ताक्षर के साथ सामने आता है, तो वह बमुश्किल ही अनुवाद की तरह प्रतीत होता है। यहाँ तक कि उसको कुछ इस आत्मविश्वास के साथ “मूल” भाषा और “मूल” ग्रन्थ के उद्धरणों तक से ध्वनित होते सुना जा सकता है कि आपको उसका उपनिवेशवादी प्रारूप “मूल” का अनुवाद नहीं बल्कि महज़ एक लिप्यान्तरण तक लग सकता है : “तमसो मा ज्यातिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्योर्माह्ढमृतगमय”, या “उत्तिष्ठित, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत”।

“पुनर्जागरण” के इन आह्‌वानों में जिन तमस, असत्‌, मृत्यु, जड़ता, सुषुप्ति और अज्ञान की ओर इषारा किया गया है, उनका ताल्लुक, जाहिर है, स्वयं उस औपनिषदिक चिन्तन से नहीं है, जहाँ से ये आह्‌वान लिये गये हैं, जहाँ ये सब अस्तित्व मात्र की अवस्थाएँ बतायी गयी हैं। इनका ताल्लुक वस्तुतः उसी “भारत दुर्दशा” से है जिसकी तस्वीर उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया में उकेरी गयी थी। लेकिन यह सहअपराधिता उन पर्यवेक्षणों का अनुमोदन कर उनको अपनी जुबान में दोहरा देने तक ही सीमित नहीं थी। वह इससे कहीं ज़्यादा गहरे इन पर्यवेक्षणों का आभ्यन्तरीकरण कर योरोपीय पदावली और कोटियों में अपने स्वत्व का, अपने अतीत और वर्तमान का, अपने धर्म और समाज-व्यवस्था का अनुवाद करने में थी- एक ऐसा अनुवाद जिसे जगह-जगह से उन पादटिप्पणियों के सहारे थामे रखने की कोशिश की गयी थी जिनमें कहीं अपनी परम्परा के प्रति क्षमायाचना के भाव थे, कहीं उसमें सुधार के प्रस्ताव और आश्वासन थे, और कहीं उसके तत्त्वों को उनके योरोपीय प्रतिरूपों के समतुल्य या उनसे बढ़चढ़कर दिखाने के प्रयत्न थे। कुल मिलाकर यह एक उदार मानवतावादी मूल्य-व्यवस्था, अतीत-वर्तमान-भविष्य की एकरैखिक कालदृष्टि, और एक सेमेटिक धार्मिकता की शक्ति-ज्ञान-शक्ति-मूलक पदावली में भारत की पेगन अन्तश्चेतना को उसकी सम्पूर्णता में दुर्विनियोजित, उपनिवेशीकृत करता हुआ अनुवाद था।

यह अनूदित भारत उपनिवेशवाद का वह दाय है जो भारत के विडम्बनापूर्ण वर्तमान में रूपायित होता है। यह विडम्बना भारत की उस विचित्र अवस्थिति में व्यंजित होती है जिसमें वह एक ओर अपनी परम्परा से कुछ इस तरह उन्मूलित है कि वह उसके अस्तित्व की लय न रह जाकर या तो उससे बाहर स्थित रूढ़ रूपाकारों में सिमटी हुई, और रूढ़ अनुष्ठानों के सहारे अभिगम्य वस्तु बनकर रह गयी है, या फिर वह सर्वथा विस्मृत या तिरस्कृत है; और दूसरी ओर, जिस आधुनिकता के लिए उसने अपनी परम्परा से उन्मूलन की यह क़ीमत चुकायी थी, वह आधुनिकता भी चूँकि उसका सहज अर्जन न होकर एक बाहर से आरोपित उपहार है, इसलिए वह भी उसका संस्कार नहीं बन सकी। उसकी चेतना पर आधुनिकता का शायद एकमात्र उत्कृष्टतम-सम्भव प्रभाव उस देश-प्रेम और राष्ट्रीयता की भावना तथा स्वतन्त्रता की आकांक्षा में देखा जा सकता है जिसने उसे उपनिवेशवाद से राजनैतिक मुक्ति दिलायी थी। अन्यथा आधुनिक संस्थाओं के साथ उसका कमोबेश वैसा ही बाहरी रिश्ता है जैसा कि वह उसकी पारम्परिक संस्थाओं और देवी-देवताओं के साथ है। साम्प्रदायिक और जातीय हिंसा, अल्पसंख्यकों, दलितों, स्त्रियों और बच्चों के साथ अत्याचार, बालिकाओं की भ्रूण हत्याएँ, प्रकृति तथा पर्यावरण का सांघातक विनाश, संसाधनों की मध्यवर्गीय लूट, राजनेताओं और नौकरशाहों का अकल्पनीय भ्रष्टाचार, कुपोषण-जन्य मौतों के गहरे स्तर तक पैठी हुई ग़रीबी, क़र्ज में डूबे हुए किसानों की आत्महत्याएँ, दिव्यता का गाँवों और ग़रीबों की झोपड़ियों से विस्थापित होकर कुरुचिपूर्ण मध्यवर्गीय पाण्डालों और मशरूम की तरह उगते चले जा रहे तथाकथित मन्दिरों के कनफोड़ घमासान के बीच नया बसेरा, सर्वव्यापी भूमण्डलीकृत बाज़ार के भीतर समूचे सामाजिक और निजी अवकाश का विलीन होते जाना, इन तमाम अमानवीयताओं, बर्बरताओं और फूहड़पन का राजनीति की लय बन जाना, और अन्ततः, इस राजनीति का तमाम तरह की जीवन-दृष्टियों को अधिग्रहीत कर उनको वैधीकृत करने वाली दृष्टि बन जाना – समकालीन भारत का यह खास परिदृश्य न तो उसकी परम्परा से मेल खाता है और न ही आधुनिकता से। वह दरसल दोनों से उसके एक साथ उन्मूलन को कुछ इस तरह दर्शाता है कि उसके सन्दर्भ में दोनों में से किसी भी पद का प्रयोग वदतोव्याघात में फलित होता है। इस स्थिति को प्रतिरोध दे सकने वाली शक्तियाँ, निश्चय ही, मौजूद और सक्रिय हैं, लेकिन इनमें से ज़्यादातर किसी न किसी स्तर पर इस स्थिति के संघटक तत्त्वों से स्वयं ही अनुप्राणित नहीं हैं, यह कह सकना मुश्किल है।

इस तथाकथित आधुनिक भारतीय वास्तविकता की संघटन-प्रक्रिया का यह किंचित लम्बा और पूर्वविदित बयान हमने इसलिए भी किया है क्योंकि इसके साथ उस चीज़ का बहुत गहरा और जटिल सम्बन्ध है जिसे आधुनिक हिन्दी साहित्य के नाम से जाना जाता है। दरअसल उसकी “आधुनिकता”, जिसकी शुरूआत बीसवीं सदी के आरम्भिक दशकों में होती है, स्वयं ही इस संघटन-प्रक्रिया का एक सह-उत्पाद है। यह सह-उत्पाद हिन्दी साहित्य के इतिहास की (उस “इतिहास” की जो स्वयं ही इस बायप्रॉडक्ट का एक यूनीक इफ़ेक्ट था ) उतनी ही असाधारण और क्रान्तिकारी घटना थी जितनी कि भारत के इतिहास के सन्दर्भ में स्वयं आधुनिकता थी, क्योंकि यह हिन्दी में अभिव्यक्ति के एक सर्वथा नये माध्यम – गद्य – और एक नये भाषा-रूप – खड़ी बोली -के आविर्भाव के रूप में घटित हुई। यह नया माध्यम आधुनिकता की सन्तान ही नहीं था, हिन्दी में उसका पहला अधिष्ठाता और प्रवर्तक भी था। उसने हिन्दी साहित्य को कहानी, उपन्यास, निबन्ध, आलोचना जैसी विधाओं से तो समृद्ध किया ही, हिन्दी कविता में भी वह आधुनिक संवेदना का, और गद्य की लय का प्रवेशद्वार बना।

गद्य को कवियों का निकष मानने की पारम्परिक दृष्टि (“गद्यं कविनाम्‌ निकषं वदन्ती”) और अपनी पूर्वज भाषा संस्कृत में गद्य की एक समृद्ध परम्परा के बावजूद हिन्दी साहित्य के नौ सौ सालों के इतिहास में जिस गद्य की कोई परम्परा विकसित नहीं हो सकी थी, वह गद्य इतिहास के इस मोड़ पर सहसा इतना प्रभावी रूप में प्रगट हो सका, तो स्पष्ट है कि यह कोई दूसरा ही गद्य था। यह उस गद्य का पुनराविष्कार नहीं था जिसकी कि एक परम्परा मौजूद थी, बल्कि यह वह गद्य था जिसमें, रमेश चन्द्र शाह के शब्दों में, “परम्परा-मुक्त होने की सुविधा स्वभावतः अधिक थी”; वह नहीं जिसे “कवियों का निकष” कहा गया था, बल्कि वह जिसका निकष आधुनिकता थी। इसका प्रादुर्भाव भी उपनिवेशवाद और तथाकथित “रेनेसाँ” के उसी युग में और, किंचित फ़र्क के साथ, प्रतिरोध और आभ्यन्तरीकरण के उन्हीं तर्कों से हुआ था जिनका जि़क्र मैंने भारतीय संस्कृति की “ओरिएण्टलिस्ट” छवि की निर्मिति के सन्दर्भ में किया है। “अनुवाद” यहाँ एक बार फिर एक उतने ही महत्त्वपूर्ण और समान कारक के रूप में उभरता है : अगर आधुनिक भारत की छवि को विषमता प्रदान करने वाली उसकी ओरिएण्टलिस्ट निर्मिति के प्रचार में ब्रितानी अध्येताओं और ईसाई धर्म-प्रचारकों द्वारा किये गये संस्कृत ग्रन्थों के अनुवादों की प्रमुख भूमिका थी, तो यहाँ आधुनिकता को एक कोरा कैनवस उपलब्ध कराते गद्य को उत्प्रेरित करने में इन्हीं ईसाई धर्म-प्रचारकों द्वारा भारत की देशी भाषाओं में किये गये उनके अपने धर्मग्रन्थों के उन अनुवादों की प्रमुख भूमिका थी जो उन्होंने अपने धर्म के प्रचार के लिए किये थे। प्रसंगवश यह विडम्बना भी यहाँ ध्यान देने योग्य है कि यह धर्म-प्रचार के माध्यम के रूप में आया गद्य था जो हिन्दी में सेक्यूलर साहित्य का सबसे पहला और सशक्त माध्यम बना। बहरहाल, अनुवाद की एक दूसरी महत्त्वपूर्ण भूमिका यहाँ इस बात में भी देखी जा सकती है कि जिस गद्य को शुरूआत में ईसाई मिशनरियों के धर्म-प्रचार को प्रतिरोध देने के लिए अपनाया गया था, हिन्दी लेखकों ने उस गद्य को थामे रखने तथा उसको आधुनिक संवेदना के अनुरूप ढालने के लिए आरम्भिक वर्षों में पर्याप्त मात्रा में अँग्रेज़ी गद्य साहित्य के हिन्दी अनुवाद भी किये थे।

इस तथ्य के बावजूद कि हिन्दी में खड़ी बोली और गद्य का यह आविष्कार एक महान घटना थी, इससे जुड़ी हुई हिन्दी साहित्य के आधुनिकीकरण की कुल परियोजना, उसके पीछे क्रियाशील मनोविज्ञान, तर्क-संरचना और फलश्रुतियों में, भारत के ज्ञानोदित बौद्धिकों द्वारा निष्पादित भारत के आधुनिकीकरण की परियोजना से भिन्न न थी। वह भी भारत के ओरिएण्टलिस्ट भाष्य से उतनी ही और उसी तरह अनुप्राणित थी। वहाँ भी “हा हा! भारत दुर्दशा देखी न जाई”, या “हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी”, या “बूढ़े भारत में भी आयी फिर से नयी जवानी थी, खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी” के रूप में, और जागने, उठने, बढ़ने के अन्तहीन आह्‌वानों के रूप में इस भाष्य की प्रति-ध्वनियाँ सुनी जा सकती हैं। वे प्रति-ध्वनियाँ इस “आधुनिक” काल के ठीक पहले, भारत की अपनी परम्परा के भीतर से जन्मे ‘सेक्यूलर’ कविता के सबसे बड़े आन्दोलन रीतिकाल के ईसाई नैतिकता से प्रेरित तिरस्कार में, और प्रसाद, प्रेमचन्द और हजारी प्रसाद द्विवेदी समेत अनेक महत्त्वपूर्ण लेखकों के परम्परा-विमर्श में भी सुनी जा सकती हैं। यह हिन्दी का अपना ओरिएण्टलिज़्म है – अवचेतन, प्रच्छन्न ओरिएण्टलिज़्म।

छायावाद सम्भवतः अन्तिम पड़ाव है जहाँ तक आधुनिकता की दिशा में जारी इस यात्रा में दुविधा और संकोच के क्षण आते हैं, जहाँ साहित्य, सम्पूर्ण जागृति की अवस्था में पहुँचने से पहले अपनी स्वप्नावस्था में, गहरे अवचेतन में दफ्न अपनी परम्परा के स्पन्दनों को अनुभव करता है। अन्यथा, बहुत थोड़े से अपवादों को छोड़कर, बाद का ज़्यादातर साहित्य यह यात्रा या तो परम्परा की सम्पूर्ण विस्मृति की रोशनी में करता है, या इतिहास की उस मशाल की रोशनी में करता है जिसको जलाये रखने में परम्परा एक ईंधन का काम करती है। यहाँ हम अज्ञेय के शब्दों को याद कर सकते हैं: “हमारे साहित्य में न तो हमें अपनी अनास्था दीखती है, न अपनी चिन्ता दीखती है। उनकी चिन्ता, उनकी अनास्था, उनका त्रास हमको दीखता है। और उस आधार पर हम अपने को आधुनिक मानते हैं।…हमारी क्या चिन्ता होनी चाहिए, इसकी कोई चिन्ता हमको नहीं है।”

हिन्दी साहित्य की आधुनिकता को उसके उन मूलाधारों में आसानी से पहचाना जा सकता है जो बुनियादी तौर पर ईश्वर बनाम मनुष्य के विरोध पर खड़ी पश्चिमी आधुनिकता के मूलाधारों के अनुवाद या रूपान्तरण हैं। ये मूलाधार पारलौकिक/इहलौकिक, धर्म/साहित्य, सन्त/कवि, मिथकीय चेतना/ऐतिहासिक चेतना, तन्मयता/तद्विवेक, षाष्वत/समकालीन, गल्प/यथार्थ, कल्पना-दृष्टि/नैतिक दृष्टि, निर्वैयक्तिक/वैयक्तिक, सार्वजनिक/निजी, कॉमेडी/ट्रैजिडी जैसे विरोधपरक युग्मों से निर्मित हैं, जिनमें से हर युग्म के प्रथम पद को परम्परा के और द्वितीय पद को अपनी आधुनिकता के खातों में डाल रखा गया है – बिना इस बात को पहचाने कि भारत की परम्परा का पेगन रूप इस तरह के युग्मों के बीच अनिवार्य विरोध के लिए बमुश्किल ही कोई गुंजाइश देता है; कि उसके भीतर ऐसे अन्तहीन विरोध स्वतः सर्जित और विसर्जित होते रहते हैं; कि उनके सर्जन-विसर्जन की प्रक्रिया में होने वाले विकीरण में ही यह पेगनिज़्म आकार लेता है।

परम्परा की सम्पूर्ण विस्मृति का दूसरा महत्त्वपूर्ण साक्ष्य हिन्दी आलोचना में पाया जा सकता है जिसका भारतीय काव्यशास्त्र की लगभग दो हज़ार सालों में फैली समृद्धतम परम्परा से लगभग कोई नाता नहीं है। उसकी पदावली से इस काव्यशास्त्र के अर्थगर्भी पद ज़्यादातर ग़ायब हैं। जिन पदों का उसमें व्यापक तौर पर इस्तेमाल हो रहा है वे प्रायः पश्चिमी आलोचना में प्रयुक्त पदों के अँग्रेज़ी से किये गये अनुवाद हैं। हिन्दी आलोचना की इस स्थिति को उसके सृजनात्मक साहित्य की स्थिति से निरपेक्ष नहीं कहा जा सकता।

लेकिन आधुनिकता के साथ हिन्दी साहित्य के एक सदी से भी ज़्यादा समय के तादात्म्य के बावजूद क्या वह वाकई इस साहित्य का संस्कार बन सकी? या वह उसका महज़ एक परिधान बनकर रह गयी है? उसका महज़ एक अनुवाद? क्या वह उसके मूल्यों को आत्मसात कर सकी है, या उनके साथ उसका वैसा ही रिश्ता है जैसा वह आधुनिक संस्थाओं के साथ भारतीय समाज का है? जिस तद्विवेक के लिए वह आधुनिकता की पाठशाला में दाखिल हुआ था, स्वयं आधुनिकता के सन्दर्भ में उस तद्विवेक की क्या भूमिका है? आधुनिकता के साथ उसका यह रिश्ता उसकी उत्तर-आधुनिक जागृति की सम्भावना को कैसा रूप देता है? अगर वह अपने जीन्स में आधुनिकता के उन्हीं तत्त्वों को समाहित किये हुए है, जिन्होंने समकालीन भारत की उस खास वास्तविकता को गढ़ा है, जिसका जि़क्र मैंने ऊपर किया है, तब वह किस तरह उस वास्तविकता को सार्थक प्रतिरोध देने, उसका काउण्टर-प्वाइण्ट बनने, या उसका आलोचनात्मक निरूपण करने की गुंजाइश अपने भीतर पैदा कर सकता है? और अन्ततः यह कि अगर वह स्वयं इन सवालों से प्रतिश्रुत नहीं है, तो फिर किसी योरोपीय पाठक के लिए उसके अनुवाद की क्या सार्थकता रह जाती है, सिवा इसके कि वह, ज़्यादा से ज़्यादा किन्हीं विचित्र परिधानों को धारण किये, उस भाषा के साहित्य के एक दयनीय ग़रीब बिरादर के रूप में उस पाठक के समक्ष उपस्थित हो?

मेरा खयाल है कि आधुनिक हिन्दी साहित्य की किसी कृति को अनुवाद के लिए चुनते हुए एक योरोपीय अनुवादक को उस कृति में इन सवालों की प्रतिश्रुति को अपने चयन का आधार बना सकना चाहिए। क्योंकि ये सवाल सिर्फ़ स्रोत संस्कृति और उससे जुड़े पाठ को ही उत्तरदायी नहीं बनाते, बल्कि लक्ष्य संस्कृति और अनूदित पाठ को, और अन्ततः उस अनुवाद की प्रक्रिया को भी उतना ही उत्तरदायी बनाते हैं, जो प्रस्तुत प्रसंग में, महज़ साहित्य की एक विधा से कहीं ज़्यादा एक ऐसे शक्ति से अनुप्राणित क्षेत्र के रूप में उभरता है जिसके चुम्बकीय बल ने स्रोत और लक्ष्य, या “मूल” और “अनूदित” दोनों की ही पहचानों को नष्ट किया है।

हिन्दी का अधिकांश समकालीन लेखन अब इतना आगे निकल चुका है, और अपनी समकालीनता में इतना व्यस्त है कि उससे उसकी ‘जेनेटिक्स’ की परवाह की उम्मीद करना शायद व्यर्थ है। लेकिन तब भी ऐसा पर्याप्त लेखन हिन्दी में मौजूद है, जो मेरे इस सामान्यीकरण के भीतर अँटने से साफ़ इनकार करता है, जिसमें इन सवालों की चेतना, इनका सामना करने या इनके समक्ष अपने को थामे रखने की सामर्थ्य है। यह सामर्थ्य कविता में गद्य की विधाओं के मुकाबले ज़्यादा है, और ज़्यादा बाद तक रही है, शायद इसलिए भी कि आधुनिकता के प्रभाव में आने के बावजूद उसके पास उसकी अपनी परम्परा की प्रतिरोधक शक्ति मौजूद थी। गद्य का प्रकरण, जैसा कि हम जानते हैं, आधुनिकता के प्रभाव का नहीं, संस्कारतः आधुनिक होने का है। इसलिए उसको वह चेतना और सामर्थ्य खुद ही पैदा करनी पड़ी है। ऐसे लेखन के जो अनेक उदाहरण हो सकते हैं, उनमें से एक, निर्मल वर्मा के कथा-साहित्य, का संक्षेप में जि़क्र करते हुए मैं इस लेख का समापन करूँगा। इस जि़क्र का उद्देश्य सिर्फ़ यह दर्शाना है कि एक लेखक उपनिवेशवाद के सर्वथा अस्वीकार्य किन्तु उतने ही अपरिहार्य इस दाय से किस तरह निपटता है, इस प्रदत्त के साथ जो उसके लिए एक साथ एक अभिशाप भी है, और एक उपहार भी है, जो उसकी चेतना का विषय बनने से पहले ही इस चेतना का एक प्रमुख संघटक तत्त्व है, जो उसकी भाषा में कुछ तरह इस रचा-बसा है कि वह न सिर्फ़ अन्य के साथ बल्कि स्वयं उसके आत्म के साथ उसके संवाद में हर वक़्त एक अदृष्य दुभाषिये की तरह मौजूद होता है, जिसमें उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम कुछ इस तरह ढला हुआ है कि वह उसके हर अनुभव को अनुकूलित कर लेता है।

निर्मल वर्मा का उदाहरण चुनते हुए मैं उन ग़लतफ़हमियों को कतई लेखे में नहीं लेना चाह रहा हूँ जो योरोप के साथ उनके लेखन के सम्बन्ध का आधार उनके बहुत से गल्प की अवस्थिति या पात्रों के योरोपीय होने को बनाये जाने के कारण पैदा होती हैं, जिनके चलते हिन्दी की प्रगतिशील बिरादरी उनको अक्सर “बाहर” के लेखक की तरह देखती रही है। निर्मल वर्मा के गल्प के इस योरोप को, जो मेरी निगाह में मुख्यतः उनके बारम्बार के योरोप-प्रवास से ताल्लुक रखता है, मेरे उदाहरण के सन्दर्भ में, ज़्यादा से ज़्यादा एक विमोहक रिक्त सन्दर्भ के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। निर्मल वर्मा के गल्प का सन्दर्भ योरोप नहीं है – राजनैतिक या सांस्कृतिक, प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी रूप में। वह न तो उनके लिए “घर” है न “बाहर” है। वह किन्हीं ऐसी दो संस्कृतियों के बीच संघर्ष का लेखन नहीं है, जिनकी पहचानें सुपरिभाषित हैं, परिरेखाएँ स्पष्ट हैं, और जिनके बीच चुनाव का, वह चाहे कितना ही यातनादायी क्यों न हो, विकल्प खुला हुआ है। संघर्ष या हादसे का स्थल वह नहीं है, पर संघर्ष या हादसा एक अदृश्य पृष्ठभूमि के रूप में हमेशा वहाँ विद्यमान है। वह कभी गम्भीर रूप में घटित हो चुका है, इसका पता हमें निर्मल वर्मा के चरित्रों की उस अस्तित्वपरक अवस्थिति से चलता है जिसमें इस हादसे के निशान रूपान्तरित हो चुके हैं, जो मानो, मीर के शब्दों में, यह अनुभव करते प्रतीत होते हैं कि “दिल की आबादी की इस हद है खराबी कि न पूछ, जाना जाता है कि इस राह से लश्कर निकला।” अवश्य ही द्वैत का अनुभव वहाँ है, लेकिन अब वह एक सन्दर्भ-रहित द्वैत है, मानों एक द्वैत-इन-इटसेल्फ, जो अब हर रिश्ते के भीतर, हर मानवीय स्थिति के भीतर दो बिन्दुओं के रूप में अपना सन्दर्भ रचता हुआ संक्रमित है – एक ऐसे अनुभव के रूप में चरितार्थ होता हुआ जो न तो पूरी तरह इस बिन्दु पर होने का अनुभव है, न उस बिन्दु पर, जो मसलन, न पूरी तरह से घर में होने का अनुभव है, और न पूरी तरह से बाहर होने का। ये दोनों बिन्दु उसे अपनी ओर खीचते हैं, मिर्ज़ा ग़ालिब के उस स्वत्व की भाँति, जो अनुभव करता है कि “ईमाँ मुझे रोके है, तो खेंचे है मुझे कुफ्र, काबा मिरे पीछे है, कलीसा मिरे आगे।” और यह तनाव उसको हर समय एक ऐसे अन्तराल में निलम्बित रखता है, जिसकी गढ़न में “ईमान” और “कुफ्र” कुछ इस तरह अन्तर्गुम्फित हैं कि दोनों के बीच फ़र्क कर पाना असम्भव है। इस अन्तराल को निर्मल वर्मा ने अपने गल्प में अनेक सशक्त अभिप्रायों, रूपकों, स्थितिपरक व्यंजनाओं आदि के माध्यम से रचा है। पर इस रचाव को सबसे ज़्यादा विश्वसनीय बनाने वाली चीज़ है उनका सम्मोहक गद्य, जो इस अनुभव का महज़ निरूपण करने की बजाय, उस अनुभव में साझा करते हुए उसे निष्पादित करता है, और इस तरह एक औपनिवेशिक दाय होने की अपनी नियति को भी साथ-साथ सम्बोधित करता चलता है।

योरोपीय भाषाओं में अनुवाद के लिए हिन्दी का इस तरह का अनुभव, इस तरह का गल्प, इस तरह का गद्य, मुझे अनिवार्य प्रतीत होता है। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि उसके माध्यम से आधुनिक भारत अधिक प्रामाणिक रूप में अनूदित होता है, बल्कि इसलिए भी कि उसके माध्यम से, शायद, स्वयं योरोप के लिए उसका उपनिवेशवादी अतीत अधिक प्रामाणिक रूप में अनूदित हो सकता है।

Notes

1. “मूल” पद का इस्तेमाल मैंने अनुवाद-पूर्व सामग्री की और संकेत करने की दृष्टि से अवतरण चिह्नों के साथ किया है, और मैं इस प्रत्यय को लेकर उठाये गए सवालों के प्रति पर्याप्त सचेत हूँ; हालाँकि मैं यहाँ यह जोड़ देना जरूरी समझता हूँ कि भारतीय पाठ-परम्परा में इस प्रत्यय की न केवल ऐसी कोई विशिष्ट हैसियत नहीं रही कि बाद में इस पर सवाल उठाने की ज़रूरत पड़ती बल्कि लगभग हर पाठ अपने को किसी अन्य पाठ की टीका के रूप में ही घोषित करता रहा है – किसी तरह की विनम्रता के आग्रह से नहीं बल्कि इस पेगन प्रज्ञा (जो कि उत्तर-सरंचनावादी प्रतीत हो सकती है) के चलते कि ‘मूल’ या उद्गम किसी एक देशकाल से बंधा हुआ नहीं है, बल्कि वह अंतहीन (तैंतीस करोड़, जैसा परम्परा कहेगी) देश-कालों में बँटा हुआ है, और हर समय क्रीडा की अवस्था में है. वस्तुतः, इस परम्परा ने अगर कभी ‘ट्रांसलेशन’ की अवधारणा पर सोचा होता तो, शायद वह इसे टीका कहकर ही पुकारती. और अगर इसको ‘अनुवाद’ कहना ही जरूरी होता, तो वह ‘अफ़वाह’ को इसके अर्थों में ज़रूर शामिल करती.

2. लूज़ान यूनिवर्सिटी, स्विटजरलैंड द्वारा आयोजित ‘इन्टरनेशनल सिम्पोज़ियम’ ट्रांसलेटिंग इंडिया: कंस्ट्रक्शन ऑव कल्चरल इंडिया थ्रू ट्रांसलेटिंग हिन्दी लिटरेचर (यह आलेख इसी सिम्पोज़ियम में प्रस्तुत किया गया था).

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