आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

मृत्युरोग: मार्ग्रीत द्यूरास

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उस रात तक तुम्हें अहसास नहीं था कि जिसे आँखें देख सकती हैं, हाथ और जिस्म छू सकते हैं, उसमें कोई किस क़दर अनजान रह सकता है। अब तुम्हें पता चलता है।
तुम कहते हो: मैं कुछ नहीं देख सकता।
वह कोई जवाब नहीं देती।
वह सो रही है।
तुम उसे जगाते हो। उससे पूछते हो क्या वह वेश्या है। वह न में सिर हिलाती है।
तुम पूछते हो उसने यह सौदा क्यों स्वीकार किया और पैसों की रातें।
वह अभी तक उनींदी, लगभग न सुनी जा सकने वाली आवाज़ में जवाब देती है: क्योंकि जैसे ही तुमने मुझसे बात की मैंनेदेखा कि तुम मृत्युरोग से पीड़ित हो। पहले कुछ दिन तो मैं इसे नाम नहीं दे पा रही थी। फिर दे पायी।
तुम कहते हो कि वह फिर से उसी शब्द को बोले। वह कहती है। दोहराती है:
मृत्युरोग।
तुम पूछते हो उसे कैसे मालूम है। वहकहती है बस मालूम है। कहती है बिना जाने कि कैसे मालूम रहता है: मालूम रहता है।
तुम पूछते हो: मृत्युरोग जानलेवा क्यों है? वह कहती है: क्योंकि जिसे यह रोग रहता है उसे मालूम नहीं होता वह इसका वाहक है, मृत्यु का। और इसलिए भी क्योंकि वह मरने को हुआ रहता है बिना ऐसे जीवन के जिसमें वह जा सकता है, और उसे मालूमनहीं रहता वह यही कर रहा है।
उसकी आँखें अभी तक बन्द हैं। यों जैसे वह किसी अनादि थकान से विश्राम पा रही हों। जब वह सो रही होती है आप उसकी आँखों का रङ्ग भूल जाते हैं, जैसे उस नाम को जिससे आपने उसे पहली शाम पुकारा था। फिर तुम्हें अहसास होता है कि उसके और तुम्हारे बीच की अलंघ्य बाधा उसकी आँखों का रङ्ग नहीं तुम्हें मालूम है वह हरे और स्लेटी के बीच कहीं होगा। नहीं रङ्ग नहीं। वह निगाह।
निगाह।
तुम्हें अहसास होता है वह तुम्हें देख रही है।
तुम कराहते हो। वह दीवार की ओर हो लेती है।
कहती है: ख़त्म हो जाएगा यह, फ़िक्र न करो।

(Translation by Teji Grover, via English.)

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