कोंपलों की उदास आँखों में: गुलज़ार
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अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार ही बुझे हैं.
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है.
यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है
यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगूला बनकर
यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को लेकर
कहीं तो अंजाम-ओ-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!
जितनी सीधी सच्ची और मासूम बाते हैं, उतनी ही बेबाकी से रंगों का इस्तेमाल किया गया है। पांचों पेंटिंग्स कमाल।
चांद-तारे हमेशा ही रोमांचित करते हुए कल्पना में ले जाते हैं।
देखता हूं कि आपने तो यहां इंद्रजाल ही बुन दिया है….सफेद और
बैंगनी रंगों का तिलिस्म ….इसकी व्याख्या करने में समर्थ नहीं हूं मगर
रंगों और रेखाओं का प्रयोग पुरअसर है । गुलजार अपने मखमली अल्फाज़ में जिस
घुप अंधेरे की बात कह रहे हैं उसका एहसास आपके बैंगनी रंग
बखूबी करा रहे हैं। अंधेरा यूं भी अभिव्यक्त होता है !
भई वाह ! काश आपकी प्रतिभा का शतांश भी मुझमें होता ….
ek hi satah per,ek hi asar ke saath – rang bhi baras rahey hain/ shabd bhii… dono adhbhut
sunderta or presentation ka jvab nahee hai, beymesal hai.
regards
रँगोँ से शब्द अभिव्यक्त करने की कला एक सच्चा कलाकार ही अपने सीने मेँ सँजोता है जो आज इन चित्रोँ से पाठकोँ के लिये ज़ाहिर हुआ है ..और गुलज़ार सा’ब तो किसी भी व्याख्या से परे की बात कहनेवालोँ मेँ से हैँ ..बहुरत खूब जी !
– लावण्या
Ravindra Vyas ji ko badhaayi…bahut shaandaar abstracts hain!
आपके आलेखन से आप की चित्रात्मक भाषा से परिचय हुआ था आज चित्रकार रूप से भी परिचय हुआ बहुत अच्छा लगा। साधुवाद
पेंटिंग्स से नज़दीकी कभी बनाने का मौका नहीं मिला है तो भी इतना यकीनन कह सकता हूँ कि पेंटिंग्स देखकर वही भाव पैदा हो रहे हैं जो नज़्मों को पढ़ने से हो रहे हैं।
sapne aakhon me roshni ki tarah kabhi kabhi chubhte hain. aapke shabadon me anubhaw jite hain, sakar hote hain. kya hi kamal ka likhte hain…personal se sawal karte hain.
kaushlendra prapanna
kaushv.blogspot.com