जाति-अस्मिता, नायकत्व और बहुलतावाद: राजाराम भादू
भारतीय समाज-संरचना में जाति एक विशिष्ट परिघटना है. यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेणी है जिसका उद्भव हिन्दू धर्म की वर्ण-व्यवस्था से सम्बन्द्ध है. इस व्यवस्था के आधार पर हिन्दू समाज चार वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र – में विभाजित है. लेकिन जाति वर्ण की भी ऐसी उप-इकाई है जो अनेक शाखा-प्रशाखाओं के रूप में मौजूद है. जाति-व्यवस्था विषमता मूलक और सोपान-क्रमिक (Hierarchical) है. यह जन्म-आधारित और वंशानुगत है और अन्ततः एक सामंती अभिलक्षण है.
स्वतंत्रता के बाद उम्मीद की जाती थी कि समाज से जाति व्यवस्था का उन्मूलन हो जायेगा लेकिन इसकी विपरीत तसवीर सामने आयी. जाति पर आधारित पहचानें ही बरकरार नहीं रहीं बल्कि इनके आधार पर सामुदायिक गोलबंदी बढ़ी. नीची समझी जाने वाली जातियों को ‘दलित’ श्रेणी के अन्तर्गत संगठित करने का प्रयास किया गया. किन्तु इस समावेशी श्रेणी में भी निम्न जातियों की विभिन्नता बनी रही. मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद समाज का जातीय ध्रुवीकरण तीव्र हुआ. इसके बाद सवर्ण, पिछडे और दलितों के रूप में जाति आधारित राजनीति के नित नये समीकरण बनने-बिगडने लगे.
प्रख्यात समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास और दलित अध्येता गेल ओम्बेट ने भविष्य में जाति के तिरोहित होने की संभावना व्यक्त की थी. श्रीनिवास का कहना था कि सामाजिक गत्यात्मकता (सोशल मोबलाइजेशन) और संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के चलते जाति भेद शनैः-शनैः क्षरित होता चला जायेगा. गेल ओम्बेट ने भूमंडलीकरण, आर्थिक उदारवाद और बाजार के प्रभुत्व के दबाव में जाति-बंधनों के शिक्षित होकर समाप्त होने की संभावना जतायी थी लेकिन विगत एक दशक से स्थितियों को हम विपरीत दिशा में विकसित होते देख रहे है. सामाजिक गत्यात्मकता और संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के तीव्रतर होने के बावजूद जातियों की स्थिति और सुदृढ़ हुई है. इसी भांति भूमंडलीकरण, आर्थिक उदारवाद और बाजार केन्द्रित प्रवृत्तियों ने एक ओर जहां दलित, आदिवासी और वंचित समुदायों के हाशियाकरण की प्रक्रिया को एक व्यापक परिघटना में बदल दिया है, वहीं जाति समुदाय अपने ही घेरे में सुरक्षात्मक रूप से गोलबंद हुए हैं. जाति-आधारित संगठनों ने और अधिक राजीनतिक वैधता हासिल की है और सत्ता की राजनीति के लिए ये लगभग अपरिहार्य हो गये हैं. इस स्थिति का विश्लेषण कठिन किन्तु आवश्यक है और उसमें सरलीकरणों से बचने की जरूरत है.
प्रस्तुत लेख में जाति-संरचना में आये परिवर्तन और कुछ उभरती नयी प्रवृत्तियों को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है. इनका विश्लेषण करने की और भी संभावना है. यहां कुछ अनुभवजन्य प्रतिक्रियाएँ और प्रभाव (इम्प्रेशंस) प्रस्तुत किये गये हैं. यह उपक्रम मुख्यतः राजस्थान के घटना-प्रसंगों व प्रवृत्तियों तक सीमित है. किन्तु उत्तर भारत के कई प्रदेशों में इनसे मिलती-जुलती स्थितियां देखी जा सकती हैं.
पिछले कुछ वर्षो में, उत्तर भारत में विभिन्न जातियों के नायकों का उदय हुआ था जो या तो अतीत के किंवदन्ती पुरूष-लोकनायक या अतिरंजना से ओतप्रोत ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं या हाल के गुजरे अतीत के ऐसे व्यक्ति है जिन्हें गरिमा मंडित कर नाकयत्व प्रदान किया गया है. इन जातियों ने अपने अस्मिता बोध के चलते इतिहास से अपने नायकों की खोज की है और उनका नयी तरह से छवि-निर्माण किया है. उन्होंने इन नायकों को एक मिथकीय चरित्र प्रदान किया है और उनके धीरोदात्त कृतित्व के इर्द-गिर्द किंवदन्तियों का एक जाल बुन दिया गया है. इतिहास से ऐसे नायकों का चयन किया गया है जो उनकी जाति को एक गौरवपूर्ण पहचान दे सकें. कुछ जातियों ने एक से अधिक नायकों को स्थापित किया है.
राजस्थान की जाटव जातियां (बलाई, रैगर, बैरवा आदि) बाबा रामदेव को अपना आराध्य मानती थीं. बाबा रामदेव एक धार्मिक संत थे, उन्हें लेकर कई चमत्कारिक किंवदन्तियां प्रचलित रही हैं. यही समुदाय कवि रैदास को भी संत रविदास के नायक रूप में बदल चुका है. अब इस समुदाय ने बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर को अपना राष्ट्रीय नायक मान लिया है.
इसी तरह प्रदेश में गुर्जर जाति देवनारायण बाबा को मानती रही है. कुछ वर्षो से गुर्जर समुदाय ने स्वतंत्रता सेनानी विजयसिंह पथिक को प्रोजेक्ट करना शुरू किया. इस बीच ये समुदाय सरदार वल्लभभाई पटेल को अपना राष्ट्रीय नायक मानने लगा है.
पश्चिमी राजस्थान के जाटों के आराध्य वीर तेजाजी रहे है. शेखावटी के जाट आर्य समाज प्रवृत्त समाज सुधारक, किसान आन्दोलन के अगुवा स्वतंत्रता सेनानी स्वामी केशवानन्द को अपना नायक मानते रहे है. जबकि पूर्वी राजस्थान व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र के जाटों में महाराजा सूरजमल को नायक के रूप में स्थापित किया जा रहा है. इस काम में अखिल भारतीय जाट महासभा के लोग बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं. राजपूत तो काफी पहले से महाराणा प्रताप को नायक की तरह पेश करते रहे हैं. इस मामले में इन्हें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद और शिव सेना जैसे संगठनों का समर्थन प्राप्त है. इधर प्रताप फाउन्डेशन के नाम से एक जाति आधारित संस्थान सक्रिय हुआ है.
ब्राह्मणों ने पुराण-पुरूष परशुराम को भगवान के रूप में पुनवतरित किया है और उन्हें ‘सहस्त्र बाहु’ के विश्लेषण से विभूषित किया है. वैश्य समाजों ने महाराजा अग्रसेन का पूरा इतिहास ही रच डाला है. माली जाति महात्मा ज्योतिबा फुले को अपने जाति नायक की तरह प्रस्तुत कर रही है. लोध जाति ने महारानी अवन्तिबाई की जयन्तियां मनाकर उनके मंदिर स्थापित करना शुरू कर दिया है. अन्य अल्पसंख्यक जातियां भी अपने नायकों की खोज और उनकी पुनर्स्थापना में पीछे नहीं है.
इन प्रसंगों में, जिन्हें नायक बनाया जा रहा है उनमें कुछ चरित्र पुराणों या लोक स्मृतियों से हैं जिनकी ऐतिहासिकता संदिग्ध है, कुछ इतिहास से हैं लेकिन उनके संदर्भ अतिरंजित हैं. इनके अलावा लोक देवता (तीर तेजाजी, बाबा रामदेव, गोगावीर, जाहरवीर) संत (रैदास, हरीराम) और निकट अतीत के समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी हैं. निश्चय ही इन नायकों में सम्मिलित संत, समाज सुधारकों और स्वतंत्रता सेनानियों का तो विशिष्ट ऐतिहासिक अवदान है. लेकिन यहां वे सामूहिक इतिहास की धारा से काट दिये गये है और उन्हे सिर्फ जाति के दायरे में प्रतिष्ठित किया गया है. मसलन स्वामी सहजान्द या विजयसिंह पथिक को स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में अलग कर दिया गया है. दूसरे स्तर पर यही स्थिति महात्मा ज्योतिबा फुले, डॉ. भीमराव अम्बेडकर और सरदार पटेल के साथ है. इसी भांति वीर तेजाजी, बाबा रामदेव और संत रविदास के वैज्ञानिक पुनर्संधान का प्रयास नहीं किया गया है. उनके स्टीरियो टाइप चरित्र गढ़ लिये गये हैं. परशुराम जैसे मिथकीय चरित्रों के साथ तो और भी सुविधा है. महाराजा अग्रसेन, महाराणा प्रताप और महाराजा सूरजमल को आधुनिक ऐतिहासिक अनुसंधानों से परे काल्पनिक प्रभा मंडल में देखा जा रहा है. यहीं नहीं इतिहास से नायक के चयन में भी पुनरुत्थान की खास दृष्टि काम कर रही है. राजस्थान राजपूत समाज में शायद ही कोई परिवार अपनी बेटी का नाम मीरा रखता हो, जबकि एक संत कवि के रूप में मीरा का योगदान अप्रतिम है. मीरा को लेकर साम्प्रतिक महत्वपूर्ण शोधों से भी राजपूत समुदाय सामान्यतः अनभिज्ञ ही है.
जातियों द्वारा नायकों की पुनर्स्थापना में अस्मिता प्रसंग के तहत् उनका जो छवि-निर्माण किया जा रहा है, वह सामान्यतः अनैतिहासिक है. इन नायकों के इर्द-गिर्द अतिरंजनाओं और दंत कथाओं का प्रभामंडल रच कर इन्हें लगभग ‘देवत्व’ प्रदान करने की कोशिश की जा रही है.
विगत दशक में विभिन्न जातियां संगठनबद्ध हुई हैं, उनमें अनेक जातिगत संस्थाएं सक्रिय हो गयी है. नायकों की जयन्तियां आयोजित की जाती हैं. बड़ी धूमधाम से इनकी शोभायात्रा निकाली जाती हैं. इनमें नायकों की बड़ी-बड़ी तसवीरें और पोस्टर प्रदर्शित किये जाते हैं. इन जुलूस और सभाओं में सम्बन्धित जाति के धनाट्य लोग, अफसर और राजनेता हिस्सेदारी करते हैं. ये लोग इन समूचे उपक्रम को सामाजिक मान्यता ही प्रदान नहीं करते बल्कि अपने नायकों का महिमामंडन भी करते हैं. जाति संगठनों ने विभिन्न जगह अपने नायकों की मूर्तियां स्थापित की हैं. कई भवनों के नाम नायकों के नाम पर रखे जा रहे हैं. जाति आधारित संगठन अपने पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित कर रहे हैं. नायकों से सम्बन्धित साहित्य प्रकाशित व वितरित किया जा रहा है. जाति की सभाओं और संगठनों के अतिरिक्त अनेक संस्थाएं जाति के आधार पर काम करने लगी हैं. बेशक ये सामूहिक विवाहों, नशा-उन्मूलन तथा प्रतिभा-सम्मान जैसे कुछेक अच्छे कार्य भी करती हैं. किन्तु इनका अधिकांश कार्य जातिवादी धारणाओं को ही मजबूती प्रदान करता है. जाति के नये नेता इसी संकीर्ण प्रवृत्ति से उभर रहे हैं. जाति एक ठोस वोट बैंक का रूप ले चुकी है. इसलिए विभिन्न राजनीतिक दल जाति पर पकड़ रखने वाले नेता को अपने साथ मिलाने के लिए प्रयासरत रहते हैं. जातियों में उत्तराधिकार का स्वीकार भी बढ़ता जा रहा है.
दलित-स्थिति के संदर्भ में राजस्थान से कुछ उदाहरण लेकर इसकी जटिलता को समझने का प्रयास करें. राजस्थान में जाटव नामक जाति श्रेणी की करीब दर्जन भर उप-जातियां हैं, जैसे रैगर, बलाई और बैरवा. इन सभी जातियों की अपनी पंचायतें, संस्थाएं एवं संगठन हैं और ये अपनी-अपनी जाति के लिए अधिक टिकिट पाने का हर चुनाव में प्रयास करती हैं. देश भर में मीडिया में जिस चकवाडा कांड की गूंज उठी थी, उस चकवाडा गांव के तालाब में नहाने वाला युवक बैरवा जाति का था. वहां तनाव सवर्ण जाट व दलित बैरवा जाति के बीच था. बलाई जो खुद दलित जाति है, इस क्षेत्र में जाटों (सवर्ण) के साथ थी. इसका कारण यह था कि बैरवा जो यहां बहुसंख्यक और सम्पन्न है, बलाइयों को अपने से हेय समझते हैं और उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं. ऐसी स्थिति में ‘दलित’ को एक सामाजिक आर्थिक श्रेणी मानना समस्यामूलक हो जाता है जबकि जातिगत अन्तर्भेद बहुत तीखे और कटुतापूर्ण हों. यही स्थिति आदिवासी समुदायों के मध्य विद्यमान है.
अब सामाजिक गत्यात्मकता का सवाल, जयपुर नगर निगम ने पता नहीं क्या सोचकर यह प्रयास किया कि नगर निगम में सफाई कर्मियों की नौकरियां सभी जातियों के लिए खोल दी जायें. इसका सफाई कर्मचारी संघ सहित सभी वाल्मिकि संगठनों ने प्रबल विरोध किया और इन नौकरियों पर अपने आरक्षण का दावा किया. अन्ततः नगर निगम ने यह कदम वापस ले लिया. यह सही है कि अगर यह भर्ती सब के लिए खोल दी जाती है तो वाल्मिकि समुदाय के समक्ष बेकारी का भयावह संकट खड़ा हो जाता क्योंकि इस समुदाय में अभी और नौकरियां पा सकने की शैक्षिक योग्यता अत्यल्प है. तथापि इन्हे समाज की मुख्यधारा में तब तक कैसे लाया जा सकता है जब तक कि यह समुदाय एक ऐसे पेशे में संलग्न है जिसे सभी समुदाय अत्यंत हेय मानते है. यदि कथित उच्च जातियां इस पेशे में आतीं तो वाल्मीकि समुदाय को सबसे निचले पायदान पर मानने वालों को एक झटका लगता.
जातियों के मध्य अपने गौरव को लेकर एक अंधतापूर्ण दृष्टिकोण और विवेक विरोधी प्रवृत्ति भी पनप रही है. राजस्थान विश्वविद्यालय में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराने वाला एक केन्द्र है. इसके प्रभावी प्रोफेसर ने प्रशिक्षुओं को महाराजा सूरजमल के बारे में कुछ ऐसे ऐतिहासिक तथ्य बताये जो उनकी प्रचलित छवि से मेल नहीं खाते थे. इस पर जाट छात्रों ने इस ब्राह्मण प्रोफेसर की पिटाई कर दी. ऐसी ही घटना एक दूसरे संदर्भ में सामने आयी. अनुसूचित जाति की श्रेणी में आने वाली एक जाति ने राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की पाठ्यपुस्तक का भारी विरोध किया और इसकी प्रतियां जलायीं. इस जाति के प्रतिनिधियों का कहना था कि उनकी जाति के इतिहास को ठीक से चित्रित नहीं किया गया है. अतीत के प्रति वस्तुपरक नजरिये का निषेध और ऐतिहासिकता के प्रति आक्रामक रवैया जाति समुदायों में बढ़ता जा रहा है.
पीपुल्स यूनियन फोर सिविज लिबर्टीज (पी. यू. सी. एल.) राजस्थान की पिछली फाइलें पलटने से यह तथ्य सामने आया कि गत वर्षो में प्रदेश में साम्प्रदायिक तनाव अथवा संघर्षो की जो घटनाएं सामने आयी है उनमें अधिकांश पिछड़ी जातियों ने नेतृत्व किया है और दलित व आदिवासी भी इनमें शामिल रहे हैं. राजस्थान में पिछड़ी जातियों व आदिवासियों के हिन्दूकरण की प्रवृत्ति में बढ़ोत्तरी हुई. विधानसभा परिणामों में इसका ठोस नतीजा सामने आ चुका है. आसींद कस्बे (भीलवाड़ा) में स्थित गुर्जरों ने सवाई भोज मंदिर में स्थित ५०० वर्ष पुरानी ऐतिहासिक मजार को ध्वस्त कर दिया. अकलेरा (झालावाड़) में मुस्लिम समुदाय के सात गांवों पर जिन जातियों ने आक्रमण किया, उनमें नेतृत्व भील मीणा जाति के लोगों का था और दलित (मेघवाल) भी इसमें शामिल थे. चुनाव से पूर्व प्रत्याशियों द्वारा चुनाव आयोग को प्रस्तुत शपथ-पत्र में वर्णित आपराधिक रिकार्ड की जांच करने पर पाया गया कि जिन तीन प्रत्याशियों पर साम्प्रदायिक घटनाओं में लिप्त होने के सबसे ज्यादा मामले थे उनमें एक आदिवासी व दूसरा दलित था. तीसरा सवर्ण चुनाव हार गया जबकि बाकी दोनों चुनाव जीत गये और मौजूदा सरकार में केबीनेट मंत्री हैं. यह संस्कृतिकरण का दूसरा पहलू है जिसकी परिणति साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण में हो रही है. यहां तक सबसे निचले पायदान पर स्थित वाल्मीकि समुदाय का रूझान भाजपा और संघ की तरफ हो रहा है.
आधुनिक समाज-विज्ञान के अनुसार धर्म व जाति सामन्तवाद की विशिष्ट अभिलाक्षणिकताएं हैं. वस्तुतः ये कबीलाई प्रवृत्तियों का विकास है. अपने आप में ये पूर्व-आधुनिक स्थिति है. आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में यह माना गया था कि मनुष्य व्यक्ति के रूप में पहचाना जायेगा और उसकी धार्मिक, जातिगत या नस्लीय एवं लैंगिक पहचान से मुक्ति हो जायेगी. लेकिन हम देखते हैं कि जाति के बंधन कुछ दशक शिथिल रहने के बाद फिर से कठोर हो गये हैं. सबसे विडम्बनाजनक स्थिति यह है कि जातिवाद किसी अन्य जाति या जातियों से प्रतिस्पर्धा में पनपता है (यहीं धार्मिक सम्प्रदायवाद की प्रवृत्ति है), इसलिए इनके परस्पर द्वन्द्व व टकराहट की संभावनाएं बनी रहती हैं. दूसरे, इसकी प्रवृत्ति जनतांत्रिक न होकर सामंती है अर्थात जाति-संगठन के उच्च पदों पर सदैव बड़े घरानों, धनाढ्यों, अफसरों यानी वर्चस्वशालियों का कब्जा रहेगा. वस्तुतः जातियों का पुनः उभार नव सामंतवाद की स्थापना का सूचक है.
भारत में आजादी के पांच दशक गुजर जाने के बाद भी न तो जनतांत्रिक मूल्य के रूप मे धर्म, जाति और लिंग निरपेक्ष व्यक्ति की स्वतंत्र सत्ता स्थापित हो पायीं और न ही सक्रिय नागरिकता (एक्टिव सिटीजनशिप). यह कार्य शिक्षा के लोकव्यापीकरण, कमजोर तबकों के सशक्तीकरण और राजनीतिक दलों के जनशिक्षण द्वारा वांछित था. वर्गीय राजनीति की दिशा में आधे-अधूरे प्रयत्न भी यहां निष्फल रहे हैं. ऐसी स्थिति में धर्म और जाति जैसी सामंती प्रवृत्तियां शक्ति संजोती रही और उन्होने शक्ति संघर्ष में अपनी जगह बनाना शुरू कर दिया. निश्चय ही इन्हे पनपाने में कई संगठनों की प्रत्यक्ष भूमिका रही है.
असल में जाति सदियों पुरानी मान्य धारणा और मनोग्रन्थि रही है. दो व्यक्तियों के मध्य समान जाति का होना उन्हें एक सामान्य स्पेस (कॉमन स्पेस) प्रदान करता है जहां वे आत्मीय रूप से संवाद और अन्तःक्रिया कर सकते हैं. एक जाति के लोगों में हम (We) का बोध लगभग एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है और इसके चलते दूसरी जातियां उनके लिए अन्य (other) बन जाती है. यह ‘अस्मिता और अन्यता बोध’ जाति इकाई की शायद चालक शक्ति है. आदिवासी समुदायों में खास समुदाय के बीच सामूहिकता (हम) का बोध मिलता गया था. लेकिन उनकी हिन्दूकरण की प्रक्रिया ने उन्हें भी जाति-सरंचना में एक हद तक शामिल कर दिया है. उनके समुदाय यथा कोर्कू, भील-आदि उनकी जाति जैसे होकर रह गये है. यद्यपि यह प्रक्रिया अभी तक परवान नहीं चढ़ी है.
यदि समाज की संरचना को वर्गीय दृष्टि से देखा जाता तो उसके नतीजे कुछ भिन्न होते. तब ऐसी सामाजिक अभियांत्रिकी (सोशल इंजीनिरिंग) संभव ही नहीं थी जहां आर्थिक व राजनीतिक मुद्दे गौण हो जाते हैं. वर्गीय राजनीति में नेतृत्व के साथ एक विशेष प्रकार की प्रतिबद्धता, जवाबदेही और पारदर्शिता अनिवार्य रूप से सम्बद्ध होती है जबकि जाति या समुदाय की राजनीति में इनसे सम्बद्ध वर्चस्वशाली तबका संरक्षणशील नेतृत्व (हाई प्रोफाइल) के रूप में उभरा है जो कमोबेश सामंती संरचना का ही संस्करण है. वर्गीय अथवा सैद्धान्तिक राजनीति के साथ जन-शिक्षण का कार्यभार एक चुनौती की तरह जुड़ा है जबकि जाति-समुदायों की राजनीति सुविधा की राजनीति है जहां थोक वोटों का कॉन्ट्रेक्ट और सब कॉन्ट्रेक्ट एक सौदेबाजी से ज्यादा नहीं हैं. इस सौदेबाजी का सर्वाधिक लाभ जाति के मुखियाओं को मिलता है. प्रसंगतः यह भी कहना जरूरी है कि हमारे प्रबुद्ध विश्लेषकों ने जाति प्रवृत्त राजनीति से जनतंत्र को होने वाले भयावह खतरों को सामने लाने के दायित्व का ठीक तरह से निर्वाह नहीं किया है. वहां भी बौद्धिक तबका ‘पॉलिटिकली करैक्ट’ रहने के प्रति अधिक चिन्तित दिखा है. ‘दलित-विमर्श’ के संदर्भ में पुरूषोत्तम अग्रवाल ने अपने कई लेखों में चिन्तन के इस एकांगीपन अथवा अतिरंजना को उजागर किया है.
जाति की स्थिति जितनी सुदृढ़ होगी, वह जाति समुदाय उतना ही बंद समुदाय (closed community) हो जायेगा. हम वर्षो से देखते आये हैं कि मुस्लिम, सिख या जैन धर्म-समुदाय के आन्तरिक मामलों में न्यायालय भले ही प्रतिक्रिया करें, हिन्दू धर्म समुदाय हस्तक्षेपकारी प्रतिक्रिया नहीं करते. ये धर्म समुदाय भी हिन्दुओं के मामले में ऐसा ही रवैया रखते हैं. इसका कारण यह है कि ये बंद समुदाय है, धर्म के आग्रह ने इनके खुलेपन को बाधित किया है. यही स्थिति जाति समुदायों की होती जा रही है. यदि किसी जाति-विशेष के आन्तरिक कहे जाने वाले मामले में अन्य लोग सक्रिय हस्तक्षेप नहीं करते, तो जनतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं है. इससे सूक्ष्म स्तरीय फासीवाद (माइक्रोफासीज्म) को बढ़ावा मिलेगा.
जनतंत्र में किसी सामाजिक या सांस्कृतिक समुदाय की वैधता का एक सबसे बड़ा संकेतक (इन्डीकेटर) यह है कि उस समुदाय में व्यक्ति को समुदाय के मूल्य-मान्यताएं या विधि-विधान नहीं मानने की कितनी छूट है. दूसरे शब्दों में यदि वह चाहे तो अपने जाति या धर्म समुदाय को छोड़ सकता हो और सम्बन्धित समुदाय इसकी स्वीकृति देता हो और इसे सहज मानता हो. आप अपने इर्द-गिर्द के जाति समुदाय पर नजर डालकर देखें कि क्या वह इसे सहजता से ले सकता है ?
लोकतंत्र से जाति का स्वाभाविक अन्तर्विरोध है क्योंकि लोकतंत्र जन्म- आधारित भेद मूलक पहचानों का निषेध करता है. लोकतांत्रिक दर्शन समता पर आधारित है और जाति,नस्ल/वंश, लिंग, क्षेत्र और भाषा के आधार पर व्यक्तियों में भेद नहीं करता है. भारतीय संविधान लोकतांत्रिक सिद्धान्तों पर निर्मित है और यह नीची कही जाने वाली जातियों के प्रति अस्पृश्यता जैसे भेदों के विरूद्ध विधिक उपायों का प्रावधान करता है. सदियों से वर्ण-व्यवस्था के चलते निचली जाति और आदिवासी समुदाय विकास की मुख्य धारा से कटे रहे हैं. इनकी सामाजिक प्रगति को प्रोत्साहित करने के लिए संविधान के अन्तर्गत सकारात्मक अन्तर (positive discrimination) के रूप में आरक्षण की व्यवस्था की गयी है.
जाति और राजनीति की दुरुभि-संधि लोकतंत्र के भविष्य के लिए गंभीर खतरा है. जाति-समूहों ने दबाव-समूह (pressure group) और वोट बैंक का रूप अख्तियार कर लिया है. राजनेता इन पर येन केन प्रकारेण कब्जा जमाने की कोशिश करते हैं. जाति-अस्मिता आधारित समुदाय लोकतंत्र की प्रकृति के अनुकूल नहीं होते क्योंकि यह व्यक्ति को जन्मना पहचान ‘अन्य’ से भेदमूलक और एकायामी है. सम्प्रदाय की तरह जाति भी एक फासीवाद प्रवृति में बदल सकती है यदि यह अन्य के प्रति वैरभाव और आक्रामकता रखती है. यह जाति अस्मिता आधारित संगठन की अंतिम परिणति होती है.
लोकतंत्र व्यक्ति अस्मिता को मान्यता देता है. व्यक्ति की पहचान बहुआयामी (Multiple) हो सकती है. उदाहरण के लिए एक व्यक्ति किसी शहर का निवासी, शिक्षित, पेशे से डॉक्टर,तमिल भाषी और खिलाडी एक साथ हो सकता है. यदि हम व्यक्ति की बहुआयामी अस्मिता को मान्यता देते हैं तो उसकी गरिमा को भी सम्मान देते हैं. इससे लोकतांत्रिक मूल्यों-स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व-को प्रोत्साहन मिलता है. इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति की मानवीय पहचार्नो-विचार, क्षमता, व्यवसाय और गुणों-पर आधारित समुदाय संगठनों को महत्ता दी जाये. राजनीतिक संगठन भी लोकतांत्रिक विचारों के आधार पर कार्य करें. सांस्कृतिक बहुलवाद (multi culturalism) वैयक्तिक और सामुदायिक सांस्कृतिक अस्मिताओं के लिए लोकतांत्रिक जगह (space) उपलब्ध कराता है.
jati ki bhyawata our pahachan samaj main aaj bhi kayam hai.
rajniti ki ka sidha asar jati par dekha jasakta hai
RAJA RAM BHADU ka lekh ek nayi socha deta hai
bahut bahut badhaiiiii