Father, I Couldn’t Save You: Udayan Vajpeyi
आगमन
घर ऐसा जमा लो खुशहाली लगे. वह बोली या शायद मैने यह सुना. मैं बुखार में वह दिन भर की थकी थी. उसके माथे और बारिश पर अँधेरा छाया था. मेहमानों में ऐसा कोई न था जिसने हमे झगड़ता न देखा हो. घर ऐसा जमा लो खुशहाली लगे. वह बार-बार दोहराती थी. सिगड़ी पर बेवजह पानी उबलता था. रेल आने में अभी वक़्त था. सड़कों पर शराबी बुदबुदाते थे. शहर की गन्दी किनार पर जाकर सो गए थे भिखारी. मकडी स्याह नीम पर रात बुन रही थी. रसोई से उसकी आवाज़ आयी. देखो, देखो दीवार की मरी छिपकली जिंदा हो दौड़ने लगी है. उठो, उठो हमारी दीवारों पर अब भी जमा हैं धूल और जाले!!
प्रश्न
चौराहा पार कर मैं उस मकान में पहुँचा जहाँ रोशनी थी. रसोई के सामने के खाली बरामदे में एक विधवा कम से कम जगह में बैठी है. उसके दो घुटनों पर उसका सर रखा है. वह अपनी बहन के घर किसी ब्याह में आयी है. वह बूँद-बूँद आंखों से मुझे देखती है और मुझे बाहर जाने का इशारा करती है. क्या तुम उसे पहचान पा रहे हो. वह मेरी माँ है. न! न!! प्रश्न मत पूछो कि वह वहां वैसी क्यों है. वह सब सुन लेती है. अपने आप में वह अब इतनी अधिक सिमट चुकी है कि तुम्हारा एक प्रश्न भी, वह महज़ जिज्ञासा ही क्यों न हो, उसे वहां भी चैन से बैठने न देगा.
पिता
पिता देर रात दरवाज़े पर खड़े हैं. मैं नींद में चलता दरवाज़ा खोलता हूँ. पीछे कहीं माँ के होने की सरसराहट है. उसके भी पीछे बादलों की ओट में वह तितर-बितर धागों की तरह फ़ैली है. वे मेरे सिर पर वैसे ही हाथ फेरते हैं जैसे मरने से पहले फेरते थे. मैं उन्हें देख रो पड़ता हूँ. ‘काका मैं तुम्हें तब भी नहीं बचा पाया और अब अपनी इन ढेरों कविताओं में भी मैं उसी तरह विफल हो जाता हूँ.’
कहीं दूर से माँ की सरसराहट मेरे बहुत क़रीब आती है और मेरी आत्मा पर छाया की तरह फैलने लगती है.
सीता के आँसू
पिता को मेरा घर से अकेले दूर जाना पसंद नहीं है. वे मेरे लिए साइकल खरीदते हैं. पर मुझे उसे कहीं ले जाने से रोकते हैं. नानी का नौकर गाहे-बगाहे नाना के पैसे चुरा लेता. नाना इस चोरी को अनदेखा कर अपने बुढापे की नाव को खेने में लगे रहते. माँ बहुत थोड़े-से पैसों में घर चलाने की कोशिश करती. रास्ता काटने वह बार-बार मानस का पाठ करती.
फिर अचानक एक दिन अशोक वाटिका में सीता के टपकते आंसूओं में पिता का बीमार चेहरा उभरना शुरू हो जाता.
‘काका मैं तुम्हें तब भी नहीं बचा पाया और अब अपनी इन ढेरों कविताओं में भी मैं उसी तरह विफल हो जाता हूँ.’
कहीं दूर से माँ की सरसराहट मेरे बहुत क़रीब आती है और मेरी आत्मा पर छाया की तरह फैलने लगती है.
यह कविता दुःख के जिस महीन रेशे से बनी या बुनी है, उसे ठीक ठीक समझना मेरे लिए मुश्किल है लेकिन इसने मुझ पर अजब असर किया है और असर के रेशे को भी समझना मुश्किल है। यह मेरे लिए इतनी पर्सनल हो चुकी है जैसे पिता की पुरानी धोतियां या कुरते।