आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

डैन्यूब के पत्थर: वरूण

बात थोड़ी अजीब है और एक स्ट्रग्लिंग राइटर को तो ऐसा बिल्कुल नहीं कहना चाहिए लेकिन सच यही है कि मुझे नहीं पता कि ये कहानी कब की है. ना ही सही-सही लोकेशन मालूम है इस कहानी के घटनास्थल की. बस इतना पता है कि उस ज़माने में एशिया, यूरोप, अफ्रीका और शायद अमेरिका महाद्वीप भी आपस में जुड़े हुए थे. आपने ज़रूर वो पुराने नक्शे देखे होंगे जिनमें इस तरह की विस्मयकारी पॉसिब्लिटीज को रेखा-चित्रांकित किया गया है. यूरोप का बायाँ हिस्सा अफ्रीका के दाहिने में और आस्ट्रेलिया का ऊपरी पश्चिमी किनारा आज के तमिलनाडु के बगल में. मतलब कि यूएनओ जो सपना हमारे भविष्य के लिए देखता है, वो हमारे इतिहास में पहले ही पूरा हो चुका है.

लिंग्विस्ट्स का मानना है कि उस समय दुनिया में भाषा का विकास भी ठीक से नहीं हुआ था. अधविकसित मानव को भाषा की कॉम्प्लेक्स संरचनाओं और व्याकरण की गहरी समझ नहीं थी, और अलग-अलग कबीलों में बोली जाने वाली ज़्यादातर बोलियाँ एक दूसरे से काफी मिलती-जुलती थीं. तो अगर एक कबीला, मान लीजिए बाद का यूरोप, माँ को ‘माथिर’ बोलता तो दूसरा, मान लीजिए बाद का एशिया, उसे ‘मातृ’ कहता होगा. सिर्फ इतना ही नहीं, आजकल के भाषा-वैज्ञानिकों का मानना है कि दुनिया की सारी भाषाएँ केवल एक ही भाषा से जन्मी हैं और इसे प्रोटो-वर्ड कहा जाता है. खासे शोध के बाद, दुनिया भर में सहमति है कि भाषा हमारी अंदरूनी ज़रूरत भले ही हो – इसका तात्कालिक कारण, इसका ड्राईविंग फोर्स, हमेशा से बाह्य तत्वों, यानि कि प्रकृति से ही मिला है. मतलब कि, भाषा एक एक्शन नहीं, प्रकृति को देखकर दिया गया हमारा रिएक्शन मात्र है. सूरज को देखकर हर प्रजाति के मनुष्य के मुँह से ‘रा’ ही निकला. इसलिए मिस्र में भी सूर्य भगवान ‘रा’ हैं और सिंधु के इस पार भी सूर्यवंशी भगवान का नाम ‘राम’ है. (सूर्य का जाया हमेशा ‘राजा’ होता है.)

आप सोचेंगे कि ये कहानी शुरु भी होगी या सिर्फ भाषा पुराण के पन्ने ही फड़फड़ाते रहेंगे. लेकिन सच यही है कि भाषा इस कहानी का धरातल है, इस दूर-दूर तक बंजर दिखने वाले प्लॉट (सिनेमा की कहानी वाला) का इकलौता रोमांचक किरदार है, और इसलिए भाषा पर एक आखिरी बात और. बेबिलोनियन सभ्यता कि एक पौराणिक कथा, जो कि ओल्ड टेस्टामेंट में भी पाई जाती है, में कहा गया है कि एक ज़माना था जब पूरी दुनिया बाबिलू नाम के एक शहर में बसती थी और एक ही भाषा बोलती थी. इस शहर के लोगों ने एक बार एक बड़ी-सी मीनार बनाने की कोशिश की, इतनी ऊँची कि जिसपे चढ़ के इंसान भगवान के पास पहुँच जाए. भगवान को ये दाँव पसंद नहीं आया और उसने सबको शाप दिया कि “जाओ, आज से तुम सब लोग अलग-अलग भाषाएँ बोलोगे.” और तब से दुनिया में अराजकता, भाषावाद, और अविश्वास फैल गया. इस मीनार को ‘टावर ऑव बाबेल’ और बेमतलब बड़बड़ाने को (आज भी) बैब्लिंग कहते हैं.

खैर, हम जब की बात कर रहे हैं तब इतने एनालिसिस की ना तो दरकार थी और शायद ना ही स्कोप.

आज की डैन्यूब नदी की घाटी के पास बसने वाले उस पुरातन मानव का नाम शायद ‘क्वैं’ था. उसके दोस्त, प्रेमिकाएँ और रिश्तेदार उसे इसी नाम से बुलाते थे और वो भी अक्सर समझ जाता था कि ‘क्वैं’ उसी को संबोधित है. क्वैं की उम्र करीबन अठारह साल रही होगी; यानि कि वो नवकिशोर था, आज का टीनएजर. और जैसा इस उम्र में होता है, क्वैं दिनभर फालतू घूमता, नदी किनारे बैठा रहता, कभी-कभी किसी प्रेमिका से सहवास कर लेता, और शाम ढले अपने कबीले के आसपास पहुँच जाता. शिकार करना अनिवार्य था, लेकिन इस मामले मे क्वैं थोडा कमज़ोर था. उसे जंगली जानवरों से डर लगता था. (इस डर को भी वैज्ञानिकों ने एक नाम दिया है – एटाविस्टिक फिअर. और उनका मानना है कि आज भी, हमारे अंदर कुछ डर ऐसे हैं जो हमें हमारे पुरखों से मिले हैं – जैसे कि अंधेरे का डर, किसी परिजन की मृत्यु का डर) इसलिए वो अक्सर नदी किनारे से मछलियाँ पकड़ लाता और कबीले में अपनी इज़्ज़त बनाए रखने की कोशिश करता.

पर मछलियाँ पकड़ने से इज़्ज़त ना आज मिलती है (मुंबई के मूलवासी, कोलियों से पूछिए) और ना क्वैं के वक़्त में मिलती थी. क्वैं की पकड़ी मछलियाँ भी कई बार बहुत काँटेदार और बेस्वाद ही होती और उस दिन झगड़ा और बढ़ जाता. कबीले के बाकी नवकिशोर, ‘खू’, ‘बो’ और ‘नाह’, अच्छे लड़ाकू थे और उन्हें क्वैं की ये मुफ्तखोरी ज़रा भी पसंद नहीं थी. खू तो इसी बात को लेकर पहले भी एक कबीलेवाले को मार चुका था. उस बुड्ढे कबीलेवाले की लाई हुई मछली का काँटा खू के गले में फँस गया था और खू ने पास पड़ा पत्थर उठा कर उसके जबड़े पर दे मारा था. उसके बाद भैंसे की टाँग की नुकीली हड्डी से उसका सीना चीर दिया था और फिर रात भर रोया था. सुबह उगते सूरज के सामने निर्वस्त्र खड़े खू ने अपने ही हाथों मारे गए बुड्ढे को नदी के पास वाले दलदल में डाल दिया था और आसमान की तरफ मुँह उठाकर एक अजीब-सी आवाज़ निकाली थी, जिसके बाद वहाँ गिद्धों और कौओं की टोलियाँ मंडराने लगीं थीं.

मतलब कि, क्वैं सिर्फ मछलियाँ पकड़कर बहुत दिन चैन से नहीं रह सकता था. पर पिछले कुछ दिनों से उसे एक दूसरा ही खयाल आ रहा था. उसके अंदर, जाने कहाँ से, एक अजीब सा गुस्सा पनपने लगा था. ये गुस्सा किसी एक चीज़, व्यक्ति, या परिस्थिति के खिलाफ़ नहीं था पर किसके खिलाफ़ था, ये कहने में क्वैं एवोल्यूशनरीली असमर्थ था. शायद उसका अंतर इस गुस्से के लिए शब्द ढूँढ रहा था और शब्द ना मिलने से गुस्सा और बढ़ जाता था. इसका परिणाम ये हुआ कि क्वैं का सहवास भी बड़ा अजीब-सा हो गया – वो सहवास करते-करते अचानक ही अपनी प्रेमिका को मारने लगता या उसपे थूकता, और फिर उसे किनारे धकेल कर नदी में तैरने चले जाता. कबीले में भी झगड़े बढ़ने लगे, और क्वैं के मूक समर्थक यानि कि कबीले के बड़े लोग भी अब धीरे-धीरे उससे कटने लगे. वो रात को देर तक जागता, झाड़ियों की आवाज़ में नए-नए स्वर सुनता और उन्हें जोड़कर कुछ बनाने की कोशिश करता. पर झाड़ियों से आई एक आवाज़ दोबारा नहीं आती, हर बार नई तरह का स्वर निकलता और क्वैं उन्हें याद करते करते, जोड़ते-जोड़ते परेशान हो जाता. जिन दिनों बारिश होती, क्वैं की ये उलझन और बढ़ जाती. वो सर उठा कर आसमान को देखता और उसपर टपकती मोटी-मोटी बूँदों की आवाज़ को पीने की कोशिश करता – मन ही मन ‘टप-टप’ दोहराता और उस आवाज़ को अपनी लंबी, भूरी जटाओं में बाँधने को तड़पता.

जीव-विज्ञानी (और कवि भी) मान सकते हैं कि क्वैं एवोल्यूशन के उस दोराहे पर खड़ा था जहाँ इंसान की चेष्टा उसके दायरे से बाहर छलांग लगाने लगती है, जब उसे हर तरफ सवाल दिखने लगते हैं और उनका जवाब ढूँढने की इकलौती कोशिश पूरी मानव-जाति को फायदा (या नुकसान) पहुँचाती है. जी हाँ, क्वैं को अपनी नियमित शब्दावली अब परेशान करने लगी थी. उसे नए शोर, नई हड़कंप, नई झुनझुनाहट की तलाश थी. क्वैं ये खुद नहीं जानता था, लेकिन उसके अंदर की झुंझलाहट यही थी – उसे अब अपनी गिनी-चुनी आवाज़ों से दिक्कत होने लगी थी. इसलिए अब वो दिनभर आवाज़ें इकठ्ठी करता फिरता. जहाँ भी कोई नई ध्वनि सुनता, तुरंत उसे दोहराता. झाड़ियों को परे हटाने की आवाज़, पानी में तैरने की आवाज़, कच्चा फल चबाने की आवाज़, और जैसा कि बहुत-से महान अभिनेता करते हैं – पानी में अपनी ही झलक देखकर निकले खुशी के स्वर. और इन आवाज़ों को ‘स्टोर’ करने के लिए भी उसने एक बढ़िया माध्यम तलाश लिया था. ये माध्यम थे – डैन्यूब के पत्थर.

हुआ यूँ कि एक दिन तैरते-तैरते क्वैं के पाँव एक झाड़ी में उलझ गए और उसे चोटिल होकर किनारे पे आना पड़ा. पाँव घिसटते हुए वो किनारे पहुँचा ही था कि उसे बारिश की आवाज़ सुनायी दी – बिल्कुल वही टप-टप वाली आवाज़. चकराकर क्वैं ने ऊपर देखा पर आसमान एकदम साफ था – ना बरसात की बूँद और ना ही इंतज़ार करता हुआ किसी कवि का चातक. फिर? आवाज़ कैसे आई? और बिल्कुल वही आवाज़ जो क्वैं ने हूबहू रट रखी थी? पैर आगे घसीटा तो मामला साफ हो गया. नदी किनारे के दो काले गोल पत्थर थे – जो एक दूसरे से रगड़कर वही आवाज़ दे रहे थे. क्वैं बड़ी देर तक वहाँ बैठा उनको रगड़ता रहा – उसके सामने एक खज़ाना खुल गया था. पत्थरों में वो आवाज़ें कैद थीं जिन्हें वो दुनिया भर में ढूँढता फिरता था. वो जादूई आवाज़ें जिन्हें याद करने के लिए वो कितने दिन भूखा सोया था – कितने दिन सोया ही नहीं था. और अब ये पत्थर मिल गए थे – घाटी में फैले हज़ारों लाखों पत्थर जुड़ के वो हर तरह की आवाज़ निकाल सकते थे जो क्वैं ने कभी सुनी थी या आगे सुनने वाला था. तिथिवार देखा जाए तो इस क्लिशे का यह पहला प्रयोग होगा कि – क्वैं की खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं रहा था.

अब क्वैं का दिन दो हिस्सों में बँट गया – आधा दिन आवाज़ें सुनने में जाता था और बाकी का आधा, डैन्यूब के पत्थरों से वही आवाज़ें रेप्लीकेट करने में. इसके बाद वो ‘आज की आवाज़’ वाले पत्थरों को अलग-अलग गुच्छों में बाँधता और उन्हें अपने कँधे पे लटका लेता. कई दिन तो ऐसा होता कि शाम को कबीले की ओर लौटते वक़्त उसके पास पत्थरों के पचास से ज़्यादा समूह होते. इन सारे गुच्छों को वो बड़े तरतीब से, कबीले के पीछे वाली ज़मीन में सजा देता और फिर देर रात तक उनसे अलग-अलग आवाज़ें बजाता, सुनता और खुश होता. कभी-कभी कबीले के छोटे बच्चे भी ये आवाज़ें सुन कर आ जाते, पर ज़्यादातर क्वैं को पागल ही मानते थे और उसके आसपास मंडराना सबको ही खतरनाक या फालतू लगता था. कुछ को तो डर था कि क्वैं किसी काले देवता (या रात) की आराधना करता है. सो ले-दे कर क्वैं और उसके पत्थर अकेले ही रहते थे. इस बीच एक नई चीज़ ये भी हुई कि क्वैं ने अपने कबीले वालों के साथ खाना बिल्कुल ही बंद कर दिया. अब वो कच्ची मछली और फलों पर ही ज़िंदा रहता था. तो फिर शाम को कबीले में लौट के ही क्यूँ आता था, ये सवाल भी वाजिब है. और इसका जवाब भी शायद उसकी किसी एटाविस्टिक ज़रूरत में छुपा होगा.

महीने बीतते गए और क्वैं का पत्थरों वाला खज़ाना बड़ा होता गया. खूँ और नाह कभी-कभी उसकी गैरमौजूदगी में आकर पत्थरों को छूकर देखते. खूँ बेढंग से उन्हें बजाता भी और अजीब-सी आवाज़ सुनकर खूब हँसता. कभी-कभी गुस्से में उठाकर एकाध पत्थर फेंक भी देता, और उस रात क्वैं उससे झगड़ता भी. ऐसे ही एक झगड़े में एक दिन क्वैं ने खूँ को मार डाला.

बात यहीं से शुरु हुई कि खूँ और एक छोटे लड़के ने दिन में क्वैं के पत्थरों को हाथ लगाया और उनकी जोड़ियां आपस में मिला दीं. शाम को जब क्वैं लौटा तो वो तुरंत समझ गया कि किसी कबीलेवाले ने छेड़छाड़ की है. गुस्से में आकर उसने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरु कर दिया. ये चिल्लाना एक तरह का ललकारना था और क्वैं एक बार को खुद भी अपनी आवाज़ सुन के डर गया – बहुत दिनों से वो पत्थरों की आवाज़ ही सुन रहा था. खूँ भी तेज़ी से उठा और क्वैं को ज़ोर से धकेला – इतनी ज़ोर से कि उसका सिर ज़मीन से टकराया और फट गया. क्वैं अभी वापस उठता, उससे पहले ही खूँ ने उसके पत्थरों को लात मारना शुरु कर दिया. खूँ के पाँव बहुत तेज़ चल रहे थे – पत्थर आपस में टकराते हुए, नई-नई आवाज़ें निकालते हुए, अंधेरे में ग़ुम हो रहे थे और क्वैं फटे सिर को पकड़कर ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था. उसका रोना बीच-बीच में रुकता, जब पत्थरों के कोई दो गुच्छे आपस में टकराते और कोई ऐसी आवाज़ निकालते जो उसने खुद आज तक नहीं सुनी थी.

क्वैं थोड़ी देर बेतहाशा रोता रहा लेकिन फिर अचानक से हिम्मत जुटा कर, दौड़ कर अपने पत्थरों पे लेट गया. खूँ का गुस्सा अभी भी हरा था और वो फिर से क्वैं पे ही झपट पड़ा. लेकिन इस बार क्वैं के हाथ में वो बारिश वाले पत्थर थे – काले गोल पत्थर जो ‘टप-टप’ करते थे. खूँ के नज़दीक आते ही ये पूरी ताकत से उसके माथे पर जा पड़े. शायद एक ही वार में खूँ अंधा हो गया. उसके बाद क्वैं ने नुकीले पत्थर उठा कर खूँ की एक-एक नस काट डाली. तीन कबीलेवाले बीच में आए लेकिन वो भी मारे गए. और पास पड़े एक पत्थर के भाले से क्वैं ने एक छोटे बच्चे को भी मार डाला. सुबह होते-होते पूरा कबीला खाली हो गया. लोग डर के भाग गए, कुछ घायलों के साथ और कुछ लाशों के. मान लिया गया कि क्वैं सचमुच रात की ही आराधना करता था – उसके अंदर कोई काली शक्ति आ गई जो पूरे कबीले को खाने पे आमादा थी.

इधर क्वैं सुबह होते ही आसपास बिखरे पत्थर जोड़ने लगा, उन्हें बजाने लगा, वापस वही गुच्छे बनाने लगा जो उसे उसके पसंदीदा स्वर देते थे. जिन पत्थरों पे खून लग गया था, उन्हें वो डैन्यूब में धो लाया. कबीले में अब अजीब-सी शांति थी, सिर्फ क्वैं और उसके पत्थर ही बोलते थे. पर उसे ऐसे ही अच्छा लगता था.

भरतवाक्य (एपीलॉग)

भाषा वैज्ञानिकों की एक काफ़ी बड़ी जमात का मानना है कि आधुनिक भाषा किसी एक सभ्यता या काल में नहीं बनी है, और इसमें जितना योगदान हमारे कांशस आब्जर्वेशन/लर्निंग का है, उतना ही हमारे स्नायु-तंत्र के विकसित होने का भी. यानि कि आज के जानवरों की तरह, ऐसे बहुत सारे साउन्ड वेरिएशन्स थे जो हम कभी निकाल ही नहीं सकते थे. और शायद ऐसे वक़्त में क्वैं के पत्थरों का खज़ाना किसी को मिला हो. ये खज़ाना उसके बाद कहाँ-कहाँ गया, कितनों ने उसे समझा, कितनों ने उसमें और जोड़ा और कितनों ने उसे मामूली पत्थर समझकर फेंक दिया, ये कहना मुश्किल है. लेकिन सच यही है कि उसमें से कुछ पत्थर डैन्यूब से बहकर, हम सबके हिस्से आए हैं. और कुछ शायद अभी भी वहीं पड़े हैं –  डैन्यूब के किनारे.

6 comments
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  1. न तो मैं लेखक हूँ न ही लेखों की गुणवता की समझ है मुझमें, कुछ पड़ता भी नहीं ……….. बस एक ही बात कह सकता हूँ ईस लघु कहानी को पड़कर अच्छा लगा, आश्चर्य हुआ आपकी अन्थ्रोपोलोजी के नालेज को देख कर; सबसे अच्छी बात ये की ये कथा एक बहुत ही महत्वपूर्ण शंदेश बहुत ही शाश्क्त रूप से पाठकों तक पहुंचा रही है

    बहुत बहुत शुभकामनाएँ आपके पहले प्रकाशन पर, कामना करता हूँ आप और लिखें और लिखते ही जाएं ……..

  2. bahut sunder kahani hai, aaj se lagbhag das din pahale yah kahaani padhi thi tab man me sochaa thaa kya yah vahi varun hai jisaka jikra kai bar mihir ke muh se sunaa tha! yah pakka abhi-abhi huaa jab mihir ki website par ek jikra is babat padha. kahani padhte huye mujhe laga ki ise trainings me emergence of language par kaam karane ke liye kaam me liyaa jaa sakata hai. jo kaam theoryies se sambhav nahi vo yah kahani sahaj me kar deti hai. isase samajh aataa hai ki bhashaa kaa hamare liye maane kyaa hai.

  3. sunder khani. likhte rahiya.
    Shubh kamna sahit
    praveen

  4. It is nice to read the story about language acquisition by early men.
    I really amazed. But Only the clearification needed about the facts mentioned.
    KRSharma
    Udaipur.

  5. “shayad” ye shabd kahin jagah hota to shayad ki baat shayad aur substancial hoti…

  6. main aapka likha hua aur kuch bhi padhna chahoonga!

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