सुग्राह्यता: शैलेन्द्र दुबे
यह एक गुण है, वस्तु का नहीं, ध्यान की एक प्रक्रिया का, किरण का, ध्वनि का, उन शब्दों का जो उच्चारित नहीं हो पाते, बुदबुदाते हुए, वे शब्द ग्राह्य होने के पहले अपने को समेटते हैं फिर वे तैयार करते हैं अपना होना।
यह समय बहुत नहीं बीत रहा है, कुछ दोस्त अपनी ऊब के साथ बीतने का बहाना खोजते हटने का प्रयास करेंगे। मुझे इसी आकुलता से किसी प्रकार का भ्रम बनाये रखना ज़रूरी हो गया है।
उनके पास कुछ खोने के लिये बच जाता है, वे विलीन करने का प्रयास करेंगे। ‘मैं’ एक पेड़ है, और वह लगातार अपनी जड़ें जमाये रखने के लिये हवा में से कुछ खींच रहा है।
कुछ जानवरों का झुण्ड खिड़की के पास आकृति के रूप में टहल रहा है, सारी घास दुमंजिले तक आने के लिये उखड़-उखड़ कर चरागाह बनने का प्रयास करते हुए झाँक रही है। मेरी आँखें जहाँ उसे देखती है, वह शर्माती सी दब कर स्प्रिंगनुमा होकर उछल रही है। यह एक खेल है, मेरे, घास और चरागाह बनने के बीच।
आकृतियों की भूख में पेट अदृश्य हैं। वे चाहती हैं अदृश्य भोजन जो कि उनकी स्मृति में कहीं न कहीं है। मैं कुछ पूर्ण करने के हिसाब से बेहिसाब विचारों का ज़खीरा तैयार कर रहा हूँ।
उसने मुझे कहा कि तुम अपने इस अदृश्य जीवन में ज़्यादा मत जाओ, वहाँ तुम्हें लाठी लिये एक गड़रिया लिए जाएगा जो किसी माइथालॉजी का पात्र होगा।
उसी श्रृँखला का हिस्सा – कुछ नग्न, सुन्दर स्त्रियों, बूढ़ों-बच्चों से भरा है, क्या वे सब आपस में किसी रिश्ते से बँधे हैं।
मुझे अब याद नहीं कि क्या होने वाला है। मैं अनुमानों से काम चलाने की कोशिश करूँगा जो कि इस सारे अदृश्य को समेटने का प्रयास होगा।
कुछ चिट्ठियाँ अजीब काली टेकरियों (छोटे-छोटे टीले की तरह की) पर रात की आधी रोशनी में काँटों में फँसी पड़ी हैं, नहीं वे शायद कुछ बेकार से कागज़ और गुब्बारे हैं। किसी झाड़ी में उड़नतश्तरी जैसी आकृति भी हो सकती है, यह एक कोरी कल्पना है।
वह अब पूरी तरह तैयार है, सम्भोग के एक चीत्कार में उसने अपनी टाँगे फेर ली हैं, नहीं वह नतीजतन उसे जानना चाहती है जो अदृश्य है। वह रात्रि का एक विराट शून्य रच सकती है, और अपनी कोख में एक अदृश्य स्मृति के साथ दृश्य में जाना चाहेगी।
मेरे पास दो क़लम बचे हैं, खाली, उनका जो भी अदृश्यपन था वह कागज़ों में निकालने का ढोंग पूरा हो गया है।
यदि आप परेशान हैं तो वह जो अदृश्य से भागना चाहती है उसके पीछे हो लें, वहां एक अलोचनात्मक देश आपकी प्रतीक्षा में होगा।
क्या आप यह बता सकेंगे कि ये बिखरी हरी झाडियाँ और काँटों में अटके जंगली फल ‘वह’ के साथ क्यों नहीं जाएँगे?
मैं शायद कुछ हवा बनाने की कोशिश करूँगा।
आप देखें कितना बचा है उस मटके में पानी जो एक कौए ने पुरानी कहानी में से निकलकर पिया था।
एक यात्रा की लम्बी रेलगाड़ी चन्द्राकार में मुड़ रही है, और वह जो दृश्य में जाना चाहती है अँधेरी सुरंग के भीतर घुप्प से लोप होने के साथ अब चमक रही है।
‘क्या’ कोई जगह नहीं है, अदृश्य के साथ वह कब तक जी सकेगी, उसका प्रेम इतना पारदर्शी और झीना है कि उसे पकड़ने में वह थक-थक कर असहाय सी ‘मैं’ को देख रही है।
मैं एक खेल का नाम है और ‘मैं’ भी।
आज शाम नहीं होगी क्योंकि वह अदृश्य होना चाहती है। आज दिन पूरा खड़ा रहेगा ताकि वह रात में बदलने से बच जाए और ‘वे’ रात में देख सकें कि ‘मैं’ किस अदृश्य से ‘वह’ के अदृश्य में आता है।
आप कोई नहीं हैं, न दर्शक, न प्रतीक, न ही कोई अनायास आ गया हुआ आँख का बाल।
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मेरी आवाज़ उस तक पहुँच रही है, वह रोज एक बार मेरा चेहरा देखकर अपने प्रेम का अनुमान लगाती है, उसे भरोसा है कुछ पिघलेगा मेरे अन्दर, जो उसे जड़ लग रहा है, वह ईश्वर की रचना में अपने को दोष देना चाहती है।
उसने एक बार मुझे गौर से देखने के साथ ही ऐसा किया होगा, मैं लड़खड़ाता हुआ सम्भलने की कोशिश कर रहा हूँ। मेरा चेहरा उसके मन के अन्दर है वह एक दर्पण रोज उठते ही तैयार करती है और यह कि वह कभी सोयी ही नहीं थी।
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मुझमें ना लिखने की ताकत है न पढ़ने की, वह आख़िरी क्षण तक प्रतीक्षारत रहेगी, ऐसा उसने कहा नहीं है।
एक गीत उसके खून में लगातार दौड़ रहा है, वह उस गीत के एक शब्द को मुँह में लाते ही रोने जैसी हो जाती है, कई ध्वनियाँ लगातार चीखे जा रही हैं, दोनों के कान किसी अप्रत्याशित घटना के लिए लगातार आहटों के पास टिके हैं।
वह अब कुछ खोलना चाहती है, उसके भीतर बिलकुल भी मवाद नहीं है, उसे पता लग गया है, मैं किस तरह से आचरण कर रहा हूँ, वह अदृश्य आवाज़ें पकड़ने में माहिर हो रही है।
और प्रेम जो कि मरीना की एक लाइन है सचमुच उसके और मेरे बीच के दरिया में तरंगित होता तैर रहा है।
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आज वह एक कॉलम पढ़ेगी, और विचारों की श्रृंखला तैयार मिलेगी, उसने सोचा मैं किसी गहरे मज़ाक को उससे खेलना चाहता हूँ।
वह मेरे भविष्य के उपन्यास की केन्द्रीय पात्र होना चाहती है, शायद खालीपन भरने का मनुष्य का यह तरीका वह नहीं जानती। वह भोली है, वह प्रेम के उस दर्शन से परे है जो अस्तित्ववादी सूरमाओं ने अपने एकान्त के लिये और स्वार्थसिद्धि के लिए तय किया हुआ है।
मैं एक अव्यक्त बन्धन के सींखचे को लिये उसके पीछे खड़ा हूँ, अपराधियों की तरह, उसे वह मान्य नहीं, अब फैसला समय के हाथ में है और मैं तरंगों मैं तैरता उससे लगातार गले मिल रहा हूँ, आँसू बहाता।
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मैं उनके मौन में खेल रहा हूँ, वे दम साधे एक अजीब चुप्पी से देख रहे हैं और आवाज़ों का साथ उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है।
मैं उतनी ही आवाज़ करना चाहता हूँ जिससे कि बस मैं सुन सकूँ, वे किसी भी आवाज़ से अब विचलित न होने के लिये दृढ़ हैं।
खिड़की में रखे दो दिये एक बराबर और खास दूरी पर रखे हैं या वे अपने आप उस दूरी पर अपनी सहज मुस्कान से ठहरे हैं, वे उनके बीच की दूरी भी कभी-कभी देखते हैं, उनके भीतर कुछ है जो उस दूरी को कभी यह चाहते हुए कि यह बिना आहट बदल जाएगी, और चुप्पी बनी रहेगी।
कमरा मेरे बार-बार, अन्दर-बाहर को दर्ज करना चाहता है और पैरों की आहट मैं खुद सुनता हूँ कि वे कितने गहरे पड़े हैं ‘ज़मीन पर’।
रात में वाक्यात खुलते हैं और जैसे कि बिखरना चाहते हैं मैदान में, मैं उनको बरबस रोकने के लिये एक जगह बनाता हूँ पेड़ पर, पेड़ जो कि शान्त रात का बिम्ब है।
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प्रेम उसके लिए समय में होकर गुज़रने की एक पगडंडी है, वे सारे काँटे जो आस-पास छितराये हैं उसके लिए रुक कर देखना उतना ज़रूरी नहीं है, वह समय के किस मुहाने पहुँचाने चाहती है, एक अभिमान भरी मंज़िल जो कहीं मूढ़-हृदय में रखी है, उसे सिर पर टोकरी की तरह लाद रखा है उसने।
ध्वनियाँ जो अब स्मृति बन गयी हैं, उसके साथ चलने से इन्कार करती हैं क्योंकि हृदय कभी-कभी सच के एक आत्मनिरीक्षण वाले पलड़े पर चला जाता है।
उसका मकसद भी वह नहीं जानती है।
उसकी प्रतीक्षा सिर्फ़ समय में से गुज़र रही है और अन्ततः वह एक ऐसे समय की प्रतीक्षा और दुख पाले रहेगी जो कि उसके लिए छूटा हुआ लगता है।
अगर मैं भूल नहीं कर रहा हूँ तो यह जो तरंग उसने बना रखी है, कुछ पा जाने की, वह शायद कुछ क्षण में एक बार चमक कर नष्ट हो सकती है।
उसका स्मृतिकोष उससे खाली होना चाहता है, नया कुछ भी स्वीकार्य नहीं हो पा रहा है, उसका नया कितना व्यवहारिक तौर पर लाज़िमी है, यह वह जानती है।
उसके अन्तिम पड़ाव क्या होंगे और उसे किस जगह कितना रुकना है वह बिलकुल अनभिज्ञ है।
वर्तमान उसकी गोद में आ बैठा है, जो शायद उसके वृद्ध होने तक शिशु बनाये रखेगा उसे, और यौवन जो काल की गति में नियतांक की तरह जम गया है, वह नहीं बीतेगा।
अब यह अन्तिम रात्रि का एक अन्तिम विचार नहीं हो सकता।
यह अब ठहरा-ठहरा कालक्षण है, अनन्त में विस्तृत होता हुआ।