आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

Mourning: Chandra Prakash Deval

Pages: 1 2

मीठी-सी पीड़ा

बेटा!
कमरे की उत्तर दिशा वाली खिड़की मत खोल
यह आऊवा की ओर खुलती है

तुझे नहीं पता
इस दिशा से एक मीठी-मीठी
अबोली-सी पीड़ा चली आती है
यह अपार दुख देने वाली नहीं
पर उससे क्या फ़र्क पड़ता है
एक बार यह खिड़की से होकर आना शुरू होती है
तो ठहरती ही नहीं
जैसे रात को मोखी के रास्ते की सीर आती है
और पूरी कोठरी जैसे ठंड से वैसे ही
अंधेरे से भर जाती है

यह कोमल छोटी-सी पीड़ा
एक स्मृति है पुरानी
जो सूकड़ी नदी की महीन रेत के साथ
कब की उड़ गई
व्योम में आज उस घटना के चिह्न ढूंढे नहीं मिलते

किन्तु घटना से विलग हुई
एक बारीक-सी पीड़ा
जिसे याद कर नहीं, जुगाली कर-कर
मैं एक गर्व के नशे से भर उठता हूं
पीड़ा की तासीर आनंद में बदल जाती है,
और समय मुस्कुराता-गुड़कता निकल जाता है
मैं इस नशे की आदत से बंधा नहीं
पर हुड़क का कोई क्या कर सकता है?
सिवाय
उत्तर दिशा वाली खिड़की बंद करने के

मन करता है
इस पीड़ा को नमक की पोटली में बांध कर
उनके पाथेय के साथ धर दूं
जो खारची जंक्शन से कमाई के देश जाती से
लटकने की हड़बड़ी में हैं

यदि यह न कर सकूं तो मन करता है
इस हल्की सुहाती पीड़ा को
कपड़-छान कर
किसी सुरमेदानी में मिला दूं
जिससे वह सुरमे के साथ अंज जाए मानुष आंख में
और वहां सबको दिखती रहे

यह छोटी-सी पीड़ा पर छोटी सी बात नहीं है
यह स्मृति जैसी विरल पीड़ा
राजाओ की आज्ञाओं तले पिस कर बनी
मनुष्य की साझी पीड़ा के इतिहास की रज है
एक कदीमी रज
जो वैसे किसी की आंख में रड़कती नहीं
पर मेरी आंख इस किरकिर से नम हो जाती है
इसलिए बेटा!
इस उत्तर दिशा वाली खिड़की को मत खोल
यह आऊवा की ओर खुलती है

विलाप

तुमने चुपचाप मरना स्वीकार किया
भले मनुष्यों!
कविता के लिए बिना बोले मरना
और मरने के लिए देना धरना?
मंगल हो जाती मृत्यु तुम्हारी
यदि कुछ कहते हुए मरते
तो तुम्हारे बोल सती के अन्तिम वचनों की तरह होते
ऐसे आसन्न मरण के समय सृजित कविता में
कोई नहीं ढूँढता अलंकार या वर्णमैत्री
खामखाँ संकोच किया

फ़िर लोकतंत्र भी तुम जानते उतना दूर कहाँ था
तुम्हें नज़र नहीं आया होगा
बीच में चार सदी मोटी दीवार जो थी
कविता के लिए समय की यह दूरी क्या मायने रखती है?

मैं अब तुम्हारे अनकहे शब्दों का विलाप कर रहा हूँ
बोलो!
बोलना हो तो यह मौका है
मेरे शब्दों में अपना मुँह खोलो
जागो!
आलस मरोड़ते हुए, आँखें मसलते हुए
मेरी कविता के इस प्रभात में
उठ बैठो
और देखो –
इन दिनों कविता का प्रांतर कितना विशद है

हम समकालीन नहीं हुए तो क्या
एक जैसी आग के दाझे तो हैं
मेरे आवाज़ देने पर
सभी चौंक कर इधर उधर क्या देख रहे हो?
देखो इस ओर
आज मैं काजलेश्वर मन्दिर के सामने वाली
नदी के तट पर खड़ा
तुम्हें पुकार रहा हूँ

जानता हूँ, एक परवाना जिसका जी लौ में बसता हो
उसका दीपक से दूर रह कर जीना
मरने से बदतर होता है
पर करता क्या?
उस दिन मैं तो पृथ्वी की पर्तों की तरह ठस्स
किसी दूसरी योनि के गर्भ में था
और आऊवा से बहुत दूर था!

तुम्हें नहीं पता
उस दिन जो आऊवा नहीं पहुँचे
वे तमाम उम्र
अपनी छोटी मृत्यु के उत्ताप में कुम्हलाते रहे
अच्छी तरह जीना उनसे सध न सका!

मैं उन्हें नहीं पुकार रहा
पुरानी पगडंडियों पर ठुमकते चलते
वे जहाँ पहुँचे
वहाँ जागीर, अधिकार और कविता
सभी अपना स्वाद खो कर बेस्वाद हो जाया करते हैं

जहाँ देह पर घाव रोते-बिसूरते हुए पड़ते हैं
और चान्दियाँ पड़ा हुआ आदमी आदमी की तरह नहीं लगता
न उसकी पहले वाली छवि रह पाती है
न इतिहास
न स्मृति
वह आदमी तो रहता है
पर बोदे कागजों से बने पेपरमेसी के बर्तन जैसा
पूरा खाली
चीज़ें भरने का एक पात्र भर
उसकी पुर्तों पर मंडी इबारत थोड़े दिनों में ही धुंधली हो
बांचने लायक नहीं रहती
उनका सत्य स्याही की नमी में घुल जाता है
और धीरे धीरे सूखकर
अंततः उसपे बनी चित्रकारी के नीचे दब जाता है

इस ज़माने का कवि मैं
तुमसे मुखातिब हूँ
जों मरते समय
अपने सांच की गर्माहट
अपनी हड्डियों में छिपा कर छोड़ गए
अरे, यह तो बताओ
तुम अपने बंद होठों में छिपाकर जो शब्द ले गए थे
वह शब्द कहीं ‘आजादी’ तो नहीं था!

लौटो!
लौटो कि धरना ख़त्म हो गया
इस आऊवा की सीमा में
अब तुम्हारे रक्त की थोड़ी-सी गंध भी शेष नहीं
मन्दिर के पास वाला वह बड भी काल के गाल में समां गया
आंधियाँ उड़ा ले गयी वह मिट्टी
जिस पर निश्चिंत बैठ कर तुमने पाँव के अंगूठे की संधि में
घोंपी थी पहली कतार
और फूटी थी जहाँ से दूध की धार
जिसे बाद वाली पीढी के बच्चों ने नहीं चूंघा

इसीलिए तुम्हारे बाद
अंधेरे में जी रहे जीवों को कौन बाँटता
उजास का प्रसाद
फ़िर अग्नि की चिंगारी भी कहाँ बची थी?
बाद वाले सभी जीवों की देह में
एक खिड़की थी
जिससे निर्बाध घुस आती बरसाती फुहारें
और उनकी पहचान की आरसी को धुंधला जाती
फ़िर उनकी नज़र में होते
ऋषि और सुनार एक जैसे
कवि और भड़भूंजे एक जैसे

उनकी आत्मा में चकमक चमक कहाँ से आती
वे उत्तरी हवा के झोंके से दक्षिण में झुकते
और दक्षिणी हवा की झपट में उत्तर की ओर
पर इससे वे टूटे नहीं साबुत रह गए
पगड़ियों के रेले में
वे पगड़ी की तरह नज़र आते
वे पगड़ी बंधाने को ही जीवित रहे
वे जानते ही नहीं रहे
कि उनके सर नहीं थे

वे सारी चीज़ें
जो अब आऊवा में नहीं नज़र आती
खोजने पर शायद मिल सकती है मेरे अंतस में
उन चांपावतों के घोडों की हिनहिनाहट
या फ़िर साझी चिता में जलते मांस की चरड़-चरड़ में
या फ़िर चाढाऊ छंदों के चोकडिया अनुप्रास
या कि गोविन्द नगरची के नगारे का डंका
या कि इतिहास में दिया हुआ नया नाम ‘मोटा राजा’
सभी चीज़ें मिल सकती है
पर वे अब तुम्हारे किस काम की?

इन्हें मेरे अंतस की राख में दबी रहने दो
कभी तो कोई राख में चिंगारी ढूँढने वाला जन्मेगा आगे
उसकी अँगुलियों की तलाश में
मेरी मुक्ति अक्षर!
तब तक स्मृतिजीवी मेरा कविमन
एक शब्द ‘धरने’ को सेने बैठा है
अन्डेविहीन इस समय को पकता
अंतहीन काल के मैदान में अकेला
हवा-धूप और जाड़े के संधि-स्थल पर

यह सोचता हुआ
कि कुरुक्षेत्र के घमासान के बाद भी
एक गज-घंट के नीचे बच रहे थे
टिटहरी के बच्चे
उसी तरह बचा रह जाए
यदि तुम्हारी याद को बिसूरता विलाप
तो यही सच्चा स्मारक होगा
इसी आस में
मैं स्मृति की शरण में
बैठा हूँ
चुपचाप – अबोला.

(यह हिन्दी अनुवाद कवि प्रकाशन, बीकानेर (२००८) से प्रकाशित है.)

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One comment
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  1. unusual echoing of contemporary Indian poetry being written in Rajasthani. -Malchand

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