आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

कविता ऊषा के पहले: शुन्तारो तानीकावा

चीथड़े

कविता
ऊषा के पहले
आयी

फटेहाल शब्दों
को
पहने हुए

मेरे पास
उसे देने कुछ नहीं
बल्कि मैं खुद दे दिया गया हूँ

फटे-चिथे कपड़ों के बीच से
उसका नग्न शरीर
दिखायी देता है

एक और बार
मैं उसके चीथड़े
सीता हूँ

कमरा

चौथाई स्वर
कमरे में परियों की तरह
उड़ रहे हैं

संगीत
अपना रहस्य
कभी नहीं खोलता

शब्द
फिजूल ही
संगीत को रिझाते हैं

आज
मौन के हाथों
मर जाता है

नकार

पहाड़
कविता को
नकारता नहीं;

न बादल
न पानी
न नक्षत्र

हमेशा
लोग ही
उसे नकारते हैं

भय से,
घृणा से
और वाचालता से

हाथ-पैर

एक और
परित्यक्त दिन
पर मेरे हाथ हैं,

पैर
कन्धे
और एक चेहरा भी

शब्द छोड़ रहा हूँ
और ले रहा हूँ
अपने सीने में

मैं किसी के साथ हँसता हूँ
एक ऐसी तश्तरी के आमने-सामने बैठकर
जिसे हम खाकर खाली कर चुके हैं

बैठक

मैं सोफ़े पर बैठा हूँ
इस लगभग बादल घिरी दोपहर में
बन्द सीपी की तरह

मुझे कई चीज़ें करना है
पर चमत्कृत
मैं कुछ नहीं कर रहा

सुन्दर चीज़ें सुन्दर हैं
असुन्दर चीज़ों में भी
कुछ सुन्दरता है

सिर्फ़ यहाँ रहना
अद्भुत है
और मैं खुद होना बन्द कर देता हूँ

मैं उठता हूँ
और थोड़ा पानी पीता हूँ
पानी भी अद्भुत है

छाया

नदी आहिस्ता बह रही है
और पेड़ विदाई में
झुक रहे हैं…….

छाया बन चुकने के बाद
मैं भूरी-लाल दीवार के साथ-साथ
शहर जा रहा हूँ

उन चीज़ों में को हवा में
घुलाना चाहता हुआ
जिनके पास रूप है,

उन चीज़ों में को मौन में
लौटाना चाहता हुआ
जिनके पास शब्द हैं

सन्ध्या-समय बिस्तर में
मैं नींद आने का
इंतज़ार करता हूँ

और

गर्मियाँ आने पर
रईयाँ
दोबारा गाती हैं

आतिशबाज़ी

मेरी स्मृति में
जम जाती है

दूर के देश धुँधले हैं
पर ब्रह्माण्ड
ऐन तुम्हारी नाक के सामने

क्या वरदान है
कि लोग
मर सकते हैं

अपने पीछे
केवल समुच्चय बोधक
‘और’ छोड़कर

पानी

वह हृदय जिसने सीखने योग्य वस्तुएँ खो दी हैं
असाध्य वस्तुओं से
लबालब भरा है

आँखों के लिए, फूलों की छायाएँ
नाक के लिए
मछली की आँतों की गन्ध

शब्दों का
मटमैला प्रवाह
कानों में प्रवेश करता है

बूढ़ी जीभ,
खुजलाती त्वचा
डगमग शरीर…

पानी से भरा
मुँह
अब भी सूखा है

पत्थर

समय
मुझे
निस्तेज कर देता है

पत्थर की नोकों को
रोज़मर्रा के स्पन्दन
घिसकर चिकना कर देते हैं

उसकी गहरी नीली
त्वचा पर
आकाश की छाया गिरती है

बच्चे की
हथेली पर
खुशनुमा

वह लुढ़कता है
निर्लज्जता की ओर
…कुछ नहीं की ओर

खुली धूप में

एक साँप
झरे पत्तों पर
छटपटा रहा है

एक भँवरा
वृक्ष की खोखल में
सो रहा है

एक आदमी
खुली धूप में
चलना शुरू करता है

चमक से
चौंधियाया,
उसका हृदय खाली है

उसके माथे पर निशान है
गाल पर पपड़ी
गुदना उसके हाथ पर

और जो कभी
प्रेम था
उसकी पीठ पर…

मूल जापानी में

(click to enlarge)

(यह कवितायें “मिनिमल” से)

4 comments
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  1. Congratulation for Award ( Kalidasa akademi, ujjain- shreshtha kriti award)

    shailendra

  2. Wonderful poetry thanks for bringing it in HINDi

  3. able to catch the intensity and feel of the poems

  4. sundar kavittay sunder anuvad

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