‘१८५७ – सामान की तलाश’ की एक पढ़त: राजेश कुमार शर्मा
‘१८५७ – सामान की तलाश’ की एक पढ़त: राजेश कुमार शर्मा
असद जैदी की विचलित करने वाली, प्रभावशाली कविता की शुरुआत एक जटिल दूरबीनी से होती हैः 1857 लौट आया है, और ऐसी आपात्तता के साथ जो उसमें 1857 में नहीं थी।
लड़ाईयां जो बहुत बहुत दूर की जान पड़ती थी, वो ऐन सामने है। दस्तक देती हुई।
तब, लड़ाईयां मुल्तवी की जा सकती थीं। अब नहीं। तब, शायद, कहा जा सकता था – “आजादी की चिंता करना हमारा नहीं, उनका काम है।” अब उसकी चिंता करना तुम्हारा काम है।
तब, दिल्ली बहुत, बहुत दूर थी। अब वो हर कहीं है।
शायद दो दिल्लियाँ हैं- एक वह दिल्ली जो आजादी का प्रतीक है, जिसे हासिल करना था और दूसरी दिल्ली वह जो उस तरह की सत्ता का प्रतीक है जो आज़ादी के लिए खतरा है.
अपराधबोध और सब कुछ ग़लत हो जाने का अहसास. क्या जो सब कुछ ग़लत हुआ है, हम उसकी जिम्मेवारी लेने के बोझ को झटक सकते हैं? लेकिन सब कुछ की जिम्मेवारी लेने का सामान्य बोध रूग्णता को ढक भी सकता है.
आख्याता का स्वर अनिश्चयात्मक है: ‘हम’ में कौन शामिल है – लोग या लेखक या दोनों?
कविता की स्वरभूमि भी, ऐसा लगता है, अनिश्चयात्मक है। लेकिन यह, वास्तविकता में एक तीखे, उबलते हुए संघर्ष की शक्ल ले लेती है। क्योंकि वास्तविकता में दो भारत हैं – एक यहां के लोगों का भदेस, उत्सवी, शोरगुल से भरा भारत और दूसरा, दलालों, प्रचारकों और राजनीतिक अवसरवादियों का फुसफुसाता भारत।
लेकिन संघर्ष की आशंकाएं, सिर्फ़ वहम भी हो सकती हैं – हमारी पॉपुलर कल्चर का उत्पाद। शायद समकालीन भारत की वास्तविकता गल्प और व्यवसायिक सिनेमा का ही उत्पाद है। एक अवास्तविक वास्तविकता।
ऐसा आशंकाओं का एक अर्थ अपनी रूग्ण वास्तविकता का दोष गल्प और व्यवसायिक सिनेमा पर मढना भी हो सकता है। पश्चाताप-प्रेरित अबोध। हमारे पॉपुलर सांस्कृतिक प्रतिबिम्बनों ने संभवतः उस वास्तविकता को बहुत करीब से सामने रक्खा है जिसे हमने स्वयं निर्मित किया है लेकिन जो ऐसी रूग्ण, भूतहा वास्तविकता है कि हम इसके होने को नकारते हैं और इसको निर्मित करने में हमारी संलग्न जिम्मेवारी को भी। बेहतर है: जो कुछ गलत हुआ है उसका दोष पॉपुलर कल्चर पर मढ दिया जाय।
शोर का रूपक फिर बदलता है (फौरन खारिज़ कर दिये जाने से पहले) – और पूंजी की खनखनाहट बन जाता है। कविता निशाना साधती है – और एक प्रधानमंत्री की धौंसभरी निर्लज्जता पर गोली दागती है। यहीं से दूरबीनी लौटती हैः आजादी सुविधाजनक गुलामी का नाम हो गई है। कहने की जरूरत नहीं कि यह उपनिवेशवाद के उस नवउदारवादी अवतार पर सीधा निशाना है जो अपने को एक ऐसी आजादी के मुखौटे के पीछे छुपाये रखता है जो उस अमुक तारीख को हासिल की गई और इस लिये ‘एक निर्विवाद निरपेक्ष तथ्य’ हो गयी है।
1857 के विद्रोही-नगाड़ों की गड़गड़ाहट – शोरगुल – दिल पर दस्तक देती है और उन स्मृतियों को जगाती है जिन्हें राष्ट्रपरक प्रतिमानी लेखन ने लम्बे समय तक चुप्पी में बंद रखा (सुभद्रा कुमारी चौहान को छोड़कर जिन्हें 1857 को याद रखना याद रहा)। प्रतिमान बनने वाले लेखक शायद ठीक ठीक एक अधिक सुविधाजनक गुलामी के तमन्नाई नहीं थे लेकिन उन्होंने आजादी को बिना उहापोह जिस तरह प्रदत मान लिया, वह उन्हें तर्कतः आजादी के अन्यथाकरण में प्रतिभागी बनाता है।
आजादी कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे आप एक बार डाउनलोड कर लें और हमेशा के लिये भूल जायें। उसे निरंतर अपडेट करना पड़ता है और सुरक्षित रखना होता है।
आजादी होने की एक अवस्था है.
1857 सिर्फ़ उन लोगों का मसला नहीं है जो उठ खड़े हुए, चल पड़े, लड़े और मारे गये। यह उनका भी मसला था जो उनके बाद आये। और यह हमारा भी मसला है।
1857 को ‘अन्य’ किया ही नहीं जा सकता, इसे ‘उनका’ मसला भर नहीं बनाया जा सकता। इसे ‘अपना’ बनाने से बचा नहीं जा सकता।
गड़गड़ाहट उस इतिहास का स्मरण-पत्र है जो 1857 में समाप्त नहीं हुआ (और न 1947 में ही) और जो एक सौ पचास साल बाद किसानों, बुनकरों की आत्महत्याओं में स्वयं को दोहरा रहा है। वर्तमान की/के रूप में इतिहास की सबसे खराब विडंबना यह है कि वह इन लोगों को वो गरिमा भी नहीं दे सकता जो उन्हें मिल जाती है जिन्हें बलवई या प्रदर्शनकारी कहा जा सके। अपनी जमीन से बेदखल, खुद को एक गुमनाम, सामूहिक मौत की तरफ धकेलते और राष्ट्रीय विकास और भूख के आंकड़ों की खुराक बनते ये लोग, छाया-मनुष्यों की तरह हैं जिन्हें सेजों ने लील लिया है।
हां, हम आगे बढ आये हैं। इतिहास ने खुद को पहले से अधिक दोहरा दिया है। मैला-कुचैलापन, 1857 में, शायद नियति था। आज वह भयंकर अपराध है। नियति को माफ़ किया जा सकता है। अपराध को नहीं।
लेकिन इतिहास के खुद को दोहराने के कई तरीके होते हैं। अधूरी लड़ाईयां दशकों, शताब्दियों के बाद फिर शुरू की जा सकती हैं। मृतक खुद उठ खड़े होते हैं, फिर से लड़ने के लिये, हालांकि पुराने, लुप्त हथियारों से ही। जब जीवित मृतकों से ज्यादा मृत हों तो उनके पास और विकल्प ही क्या है?
मृतक चाहे मृत हों, और सोये हुए जान पड़ते हों, लेकिन कविता के रचे संसार में उन्होंने सबक सीख लिया है। वे जानते हैं कि उनके नेता हमेशा उनके या उनकी आजादी के लिये नहीं, अपनी जागीरों के लिये लड़ते रहे थे। ऐसी खतरनाक समझ से लैस, वे आज के ‘पुर्नजाग्रत’ जीवितों से पूछते हैं क्या वे इसलिये नहीं लड़ते कि लड़ने को कुछ है ही नहीं, कि “क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय?”
(अंग्रेजी से अनुवादः गिरिराज किराड़ू)