आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

A Preface to Mourning: Chandra Prakash Deval

Pages: 1 2

किस्सा कोताह यह कि: चंद्रप्रकाश देवल

इन कविताओं में कई बातों का जिक्र कई बार आया है. जैसे आऊवा गाँव, काजलेश्वर महादेव का मन्दिर, सूकड़ी नदी, गोविन्द बोगस, तागा, धागा, तेलिया, गोपालसिंह, चंपावत, चाढाऊ छंद, त्रिशूल, चारणों की गोत्रों के हवाले आदि. पाठक इन सन्दर्भों को जान लें तो इन कविताओं को पढने में कोई अड़चन नहीं आएगी. ….मेरे मन में यह संशय कतई नहीं है कि मेरी कविता पढ़ने वाले इन्हें अच्छी तरह नहीं समझ सकेंगे. मेरा कवि हमेशा से अपने पाठकों की समझ और संवेदना पर अधिक भरोसा करता रहा है. …. जब इन कविताओं को प्रस्तुत करने का समय आया तब कई आशंकाएं मन में आई.पहली आशंका यह उपजी कि इन कविताओं की पृष्ठभूमि में एक एतिहासिक घटना है, जो इन सारी कविताओं की उत्स-स्थली है, क्या कविता का पाठक उससे परिचित होगा? वह भी उस परिस्थिति में जबकि राजस्थान के सभी इतिहास उस घटना की विस्तृत स्मृति उपलब्ध नहीं कराते हैं. …सूर्यमल्ल मीसण ने अपने प्रसिद्द ग्रन्थ ‘वंश भास्कर’ में इस घटना का विस्तृत उल्लेख किया है. कविराजा श्यामलदास द्वारा लिखित ‘वीर विनोद’ नामक इतिहास के ग्रन्थ में भी इस घटना का जिक्र है. ‘मारवाड़ का इतिहास’ में पंडित विश्वेश्वरनाथ रेऊ ने भी आऊवा में हुए इस धरने की घटना को जगह दी है. मोहता नैणसी ने अपनी ख्यात ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ में इस धरने का कारण भी बताया है और इस धरने की पुष्टि की है. मोहता नैणसी ने उन तेबीस गाँवों की सूची भी दी है जो ज़ब्त किए गए थे. ये सारे चारणों के गाँव जोधपुर परगने के थे. इनके अतिरिक्त इस घटना पर तत्कालीन कवियों द्वारा रचित स्फुट काव्यों में भी सामग्री मिलती है. …..

…..इस धरने की बाबत एक विलक्षण बात यह है कि अपनी परम्परा के चलते आज के धरनों से सर्वथा अलग था. निश्चित ही धरना किसी सत्ता के असुविधाजनक और आपत्तिजनक आदेश के विरुद्ध ही दिया जाता है पर सामान्यतः उसमें ऐसी हठधर्मिता नहीं होती कि आदेश के विरुद्ध धरणार्थी जान ही दे दें. स्थितियां और भी विकट तब हो जाती हैं जब किसी धरने में सामूहिक रूप से प्राणों की आहुतियाँ दी जाएँ. यह आऊवा में हुआ. यहाँ ध्यान देने की एक बात और है, वह यह कि लोगों ने जान देने का जो तरीका चुना वह बड़ा वीभत्स था. स्वयं की कटारी से स्वयं को थोड़ा थोड़ा काटना. शरीर के प्रत्येक संधिस्थल पर कटारी का प्रहार करते हुए जान देना. ‘तेलिया’ की प्रक्रिया उपरोक्त ‘तागे’ की प्रक्रिया से एकदम अलग. उसमें धरणार्थी को स्वयं के शरीर पर घी अथवा तेल डाल कर जलना होता था. दूसरे प्रकार के ‘तेलिया’ में शरीर से मांस काटकर पास वाली उबलती कडाही में डालना. कल्पना मात्र से मन सिहर उठता है.

आऊवा के धरने की यह इतिहास विश्रुत घटना विक्रमी संवत १६४३ (१५८६ ई.प.) के चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन हुई. असल में इस दिन तो विरोध का लावा फूटा लेकिन इसके कारण तो कई वर्ष पहले ही जन्म गए थे. मारवाड़ के राजा मालदेव की मृत्यु पर रिवाज़ के मुताबिक उसका पाटवी पुत्र चंद्रसेन गद्दी पर बैठा. समय की चाल को पहचानते हुए सभी चारण कवि उस नए राजा के यशोगान में संलग्न हो गए पर यह उठापटक का दौर था. थोड़े अरसे बाद चंद्रसेन का छोटा भाई उदयसिंह (मोटा राजा) बादशाह अकबर की सहायता से शाही सेना के बल पर मारवाड़ का नया शासक बन बैठा. उसने अपने से पूर्व राजा और बड़े भाई चंद्रसेन को मारवाड़ से बाहर खदेड़ दिया. इस समय भी चारण कवियों का हार्दिक समर्थन चंद्रसेन के पक्ष में ही रहा, यह देखकर नए राजा का नाराज़ होना लाजिमी ही था.

इस पर ‘कोढ़ में खाज’ की तरह एक नयी घटना और हो गयी. विक्रमी के इसी वर्ष में उदयसिंह ने गोविन्द बोगसा के ‘सांसण’ का गाँव ‘चारणवाड़ा’ ज़ब्त कर लिया. राजा की नाराज़गी के पीछे की कथा भी बड़ी रोचक है. राजा की माता जोधपुर से द्वारिका की तीर्थयात्रा पर रवाना हुई. बैलों द्वारा खींचे जाने वाले रथों से कारवाँ रवाना हुआ. दुर्योग से रानी माँ के रथ का एक बैल बाड़मेर के सिवान परगने के गाँव चारणवाड़ा की सीमा में मर गया. आसन्न ज़रूरत को देखते हुए रानी माँ के साथ वालों ने इसी गाँव के एक किसान के चलते हल से एक बैल खोला और उसे राजकीय रथ में ला जोता. वह किसान अपनी शिकायत ले कर उस गाँव के स्वामी गोविन्द बोगसा के पास पहुँचा और बलात् अपने बैल खोल ले जाने की घटना बयान की. किसान की शिकायत सुनते ही गोविन्द बोगसा घटना स्थल पर आया और किसान की निशानदेही पर रथ से ज़बरन बैल खोल लिया. नतीजतन रथ उलट गया और राजमाता के हाथ की हड्डी टूट गयी. यात्रा की समाप्ति पर रानी माँ ने अपने पुत्र से पूरे मामले की शिकायत की और कहा कि यह सब तेरे राज्य की सीमा में हुआ है. राजा ने तुंरत गोविन्द बोगसा का गाँव चारणवाड़ा ज़ब्त कर लिया. गोविन्द बोगसा का सोचना यह था कि क्योंकि उसका गाँव ‘सांसण’ श्रेणी का है, अतः राजा सहित किसी की दखल नहीं होनी चाहिए थी ज़बकि राजा के सेवकों ने ज़बरन बैल खोलने की गलती की है, जो उसकी स्वायत्तता का उल्लंघन था. इस पर दूसरे चारण/कवियों ने जब राजा को समझाने की कोशिश की तो राजा ने उन सभी की जागीर के गाँवों को ज़ब्त करने का आदेश दे दिया. चारण कवियों ने सामूहिक रूप से इस आचरण के विरोध में धरना देने का निश्चय किया पर राजा के विरोध में उसी राज्य में धरना देना उतना आसान नहीं था. …..ऐसे में चारणों ने मारवाड़ छोड़कर मेवाड़ जाने का निश्चय किया.

जब वे मारवाड़ की ओर चले तो मार्ग में पड़े आऊवा गाँव के जागीरदार गोपालदास चांपावत ने इस तरह सामूहिक पलायन कर रहे चारणों को देखकर पूछा कि ‘क्या बात हुई? इस प्रकार कहाँ जाने को निकले हैं?’ प्रत्युत्तर में चारणों ने पूरी घटना सुनकर कहा कि ‘हमारी इच्छा तो पलायन से पहले धरना देने की थी पर धरने की रक्षा करने वाला पूरे मारवाड़ में हमें कोई नहीं मिला.’ इस पर गोपालदास चांपावत ने कहा, ‘यदि यह बात है तो मैं तैयार हूँ. आप मेरे गाँव में धरना दीजिये. अपने आठ पुत्रों सहित मैं अपने प्राणों की बाज़ी लगाकर भी आपके धरने की रक्षा करूंगा.’

ऐसा आश्वासन पाने के बाद चारण-कवियों ने आऊवा गाँव में सूकड़ी नदी के तट पर बने काजलेश्वर महादेव के मन्दिर के आगे की जगह धरने के लिए चुनी. चैत्र शुक्ला त्रयोदशी से पूर्णिमा तक दो दिन उन्होंने निराहार रह कर धरना दिया पर तीसरे रोज़ प्रातः काल से उन्होंने प्राणों का उत्सर्ग करने हेतु अपनी अपनी कटारियों से ‘तागा’ अथवा ‘धागा’ करना आरम्भ किया. ‘धागा’ करते समय वे अपनी कटारी के वार अपनी दोनों बगलों में करते, वहीं ‘तागा’ करते समय वे अपनी कटारी से अपने पाँव के अंगूठे के प्रथम संधिस्थल पर प्रहार करते. उसके बाद क्रमशः अपनी देह के दूसरे संधिस्थलों को काटते चले जाते जब तक कि गले में प्रहार करने से उनकी जान नहीं निकल जाए. इसी प्रकार ‘तेलिया’ करने को वे अपने कपडों पर घी डालकर आग लगा लेते. प्राणोत्सर्ग को उद्यत चारण-कवियों के धरने की ख़बर जब जोधपुर पहुँची तो अपयश से डर कर राजा ने अपने विश्वासपात्र चारण कवि अखा बारहठ को आऊवा धरना सुलझाने भेजा. अखा बारहठ के साथ राजा का नगारची गोविन्द भी आऊवा आया.

दोनों के आऊवा पहुँचने पर अखा बारहठ को धरणार्थियों को समझाने की ज़रूरत ही नहीं पडी क्योंकि धरणार्थियों ने उससे पूछा, ‘आप किसकी तरफ़ हैं? राजा के साथ हैं कि हमारे साथ? आपका कर्तव्य तो हमारा साथ देना होना चाहिए. नहीं?’ ऐसे सवालों के प्रत्युत्तर में अखा बारहठ ने स्वयं को धरने में सम्मिलित करना उचित समझा. …..यही हाल गोविन्द नगारची का रहा. उसे धरणार्थियों ने यह काम सौंपा कि वह ऊंचे मचान पर बैठ कर सूर्य की प्रथम किरण के फूटने की सूचनानगाड़ा बजा कर देगा, जिससे वे अपना तागा आरम्भ करेंगे. गोविन्द सभी के आग्रह से मचान पर चढ़ तो गया पर यह सोचकर कि मेरे इस प्रकार सूचना करते ही इतने लोग प्राण देंगे. मैं बड़े पाप का भागी बनूँगा. लिहाज़ा उसने नगाड़ा बजाने की जगह स्वयं कटारी से घाव खाया ओर अपनी इहलीला समाप्त की.

इनके अतिरिक्त भी आऊवा के धरने की कई अन्तर-कथाएँ हैं जैसे प्रसिद्द कवि दुरसा आढा का कटारी खाना, सांखड़ावास के एक सद्यविवाहित दूल्हे का दो-दो कटारियों से घाव खाना आदि. ….

…..मेरा मानना है कि घटना के इन संकेतों से पाठक अब उन सन्दर्भों को अच्छी तरह आत्मसात कर सकेंगे जो कविताओं में बार-बार आए हैं. कविताओं के बारे में मुझे कुछ नहीं कहना.

(यह हिन्दी अनुवाद कवि प्रकाशन, बीकानेर (२००८) से प्रकाशित है.)

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2 comments
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  1. nice article . enhanced my knowledge.

  2. auwa will presented here…
    visuals excellent…..
    The other things of auwa are missing.

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