आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

लंगडी कुर्सी: कृष्ण बलदेव वैद

लंगड़ी कुरसी

मैं एक मुरझाए हुए लान में एक लंगड़ी कुरसी में मुचड़ा हुआ सा पड़ा बीत रहा था कि मैंने सुना, लो वह हरामी बूढ़ा फिर आ बैठा वहीं । गाली मुझे गोली की तरह लगी लेकिन मैं चुप मार कर बैठा रहा क्योंकि उसके जवाब में मैं जो भी कहता या करता वह ग़लत और ख़तरनाक होता। मैंने आँख उठा कर देखा तक नहीं। देखने से वे लड़के और भड़क उठते। मुझे मालूम हो गया था कि मुझ से कुछ ही दूर सड़क पर कुछ लड़के खड़े मुझे घूर रहे थे। मैं इंतज़ार कर रहा था कि वे मुझ पर एक और गाली दाग़ कर वहाँ से चल देंगें और फिर शायद मैं उनकी तरफ़ देख सकूंगा। मुझे उन लड़कों के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था। वह लान भी मेरे अपने घर का नहीं था। मेरा घर उस इलाक़े में नहीं था। मैं नहीं जानता था कि मैं उस इलाक़े में क्या कर रहा था। शायद वह गाली खाने के लिए ही मैं वहाँ जा बैठा था। गाली की चोट अभी चुप भी नहीं हुई थी कि कोई चीज़ मेरे माथे पर ऐसे लगी जैसे किसी ने निशाना बान्ध कर उसे मारा हो। मैंने माथे को छुआ, एक ख़राश उभर आयी थी। शायद कुछ खून भी फूट पड़ा था। ख़राश पर नमकीन सी खुजली होनी शुरू हो गयी थी। कुछ दूरी पर मुझे एक गेंद नज़र आया। उसे उठाने के लिए मैं उठा तो लंगड़ी कुरसी लुढ़क गयी, गेंद उठा कर मैंने लड़कों के उस झुन्ड की तरफ़ देखा तो मुझे दान्तों का एक झुन्ड नज़र आया। वे सब हँस रहे थे। उनकी हँसी बेआवाज़ थी। मैंने गेंद उनकी तरफ फेंकने के लिए हाथ उठाया तो उस झुन्ड में से एक लड़का भाग निकला। मुझे लंगड़ी कुरसी को सीधा कर उस पर फिर बैठ जाना चाहिए था लेकिन मैं उन लड़कों की तरफ बढ़ गया। वे सब इधर उधर बिख़रने लगे तो मैं खुश हुआ। अन्दर से मैं अब भी कांप रहा था। मुझे कुछ मालूम नहीं था कि उनके पास पहुँच कर मैं क्या करूंगा, क्या कहूंगा, मैं अब सर झुकाए उनकी तरफ़ बढ़ रहा था। उनके पास पहुँच जब मैंने सर उठाया तो उन बिख़रते हुए लड़कों के बजाए मुझे चार पाँच ख़ुशपोश और बिफरे हुए आदमी नज़र आए। मुझे लगा जैसे वे लड़के ही उन आदमियों में बदल गये हों। मैंने बोलना शुरू कर दिया : उन लड़कों ने मुझे हरामी बूढ़ा कहा, मुझे गेंद मारा, जो मेरे माथे पर एक पत्थर की तरह लगा, उनकी गाली मुझे गोली सी लगी, एक लम्हे के लिए मेरी सांस रूक गयी थी, मैं बूढ़ा आदमी उस पीले लान में उस लंगड़ी कुरसी पर बैठा उनका क्या बिगाड़ रहा था, मुझे उनकी बदतमीज़ी पर हैरानी हो रही है, यह कैसा ज़माना आ गया है, उम्र का कुछ तो लिहाज़ होना ही चाहिए, मेरी आँखें फूट जाती तो मैं क्या करता, यह ख़राश पता नहीं कब ठीक हो गयी, और वह दूसरी जो मेरे अन्दर खिंच गयी है वह!

उन आदमियों के चेहरे कोरे थे। मेरी फ़रयाद उन्होंने सुनी ही नहीं थी।

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मोर्चे

जब मैं पार्क में पहुँचता हूँ तो वे लोग कहीं और पहुँच चुके होते हैं – कभी आँखे मून्दे और सर झुकाए यूं खड़े होते हैं जैसे ईश्वर से अमरता का वरदान मांग रहे हों कभी ओम के आवाहन से आकाश को अपनी तरफ खींच रहे होते हैं; कभी खुद आकाश की तरफ उड़ जाने की बेहूदा कोशिश कर रहे होते हैं; कभी पैरों की अंगुलियां को हाथों की अंगुलियों से छू लेने के लिये छटपटा रहे होते हैं; कभी अपनी बेलोच गरदनों को घुमाने और आगे पीछे झुकाने में जुटे हुए होते हैं और कभी अपने हाथों के तोते बना कर उन्हें उड़ाने में खोये हुए; कभी एक सामूहिक रूदन या क़हक़हे से अपने फेफड़ों और मनों को साफ और हल्का कर रहे होते हैं और कभी राष्ट्रगान से अपने सामूहिक व्यायाम का समापन।

पार्क में पहुंचने का मेरा वक्त इधर-उधर होता रहता है, इसलिए वे कभी कुछ करते दिखायी देते है, कभी कुछ। उनका पूरा व्यायाम मैंने कभी नहीं देखा, देखना चाहता हूँ , कई बार सोचा है कि किसी दिन कहीं खड़े हो शुरू से आखिर तक देखूँ । लेकिन फिर ख़याल आ जाता हैं कि उन्हें बुरा लगेगा। वे पार्क पर इस तरह छाए से होते हैं जैसे वही उसके मालिक हों, इसलिए भी मैं उनके ध्यान में कोई गुस्ताख़ ख़लल डालने से घबराता हूँ, मुझे अन्देशा लगा रहता हैं कि उन्हें उनके बारे में मेरी छिपीलुकी जिज्ञासा भी नागवार गुज़रती होगी। अगर मैं भी उन सब की तरह बूढ़ा न होता तो शायद खुल कर उनकी हरकतों का जायज़ा ले सकता, खुल कर उन पर हँस सकता, उनके बुढ़ापे और उसके खिलाफ उनके मोर्च का मखौल उड़ा सकता। तब शायद मुझे यह चिन्ता न होती कि वे मुझे अपनी तरफ घूरता देख क्या सोचेंगें। तब शायद मैं कल्पना भी न कर सकता कि मुझे देखकर या वैसे भी उनके मनों में क्या-क्या ख़याल उठते होंगें। बूढ़ों के ख़यालों और खौफ़ों की कल्पना बूढ़े ही कर सकते हैं, और या फिर किसी हद तक बच्चे। सो मैं उन्हें दूर से ही और दबी आँखों से ही देखता हूँ, जम कर या नज़र जमा कर नहीं। कोशिश करता हूँ कि वे यही समझें कि मैं अपनी सुस्त सैर में ही मस्त रहता हूँ ।

इस एहतिहयात के बावजूद यह ख़तरा मेरे मन में अटका रहता है कि किसी सुबह उनका सरदार मुझे अपने पास बुलाकर बुरी तरह कोसेगा। उनका सरदार उम्र और आबोताब में उन सब से बड़ा नज़र आता है, एक टीले पर खड़ा हो उन्हें आदेश देता है, मैंने उसे साइमन का नाम दे रखा है क्योंकि जो वह कहता है वही वे करते हैं, जो वह उन्हें करने के लिए करता हैं वही पहले वह उन्हें कर के दिखाता हैं। साइमन की तरफ़ भी मैं सीधा और ज्यादा देर तक नहीं देखता। उससे मुझे डर लगता है , और यह डर भी लगा रहता है कि किसी दिन वह उन सब के सामने पार्क में ही दम तोड़ देगा।

उनके सामूहिक व्यक्तित्व की तसवीर तो नहीं, एक मोटी सी तफ़सील मैंने अपने मन में यूँ बना रखी है : वे सब सत्तर से ऊपर के हैं; साहिबेज़ायदाद हैं; सम्पन्न हैं; कुछ विधुर और विधवाएँ भी हैं; रक्तचाप, मधुमेह, गंठियाँ, वग़ैरह बीमारियों से किसी न किसी हद तक परेशान हैं; दान्त नक़ली होने के कारण नर्म ग़जा खाते हैं; ऊँचा सुनते और कम देखते हैं; एक दूसरे से ईर्ष्या और अपने बच्चों की शिकायतें करते हैं; अख़बारबीनी और सयासतदारी के शौक़ीन हैं; धार्मिक और देशभक्त हैं; कमोबेश बेईमान हैं और अपने कियेजिये पर मुग्ध । ये सारे गुण मुझ में भी हैं, एक को छोड़ कर – मैं समझता हूँ कि मैं अपने कियेजिये पर मुग्ध नहीं, इसलिए शायद मैं अभी तक उनमें शामिल नहीं हो सका। वैसे मेरा ख़याल हैं कि उनका सरदार मुझे मंज़ूरी नहीं देगा, एक ही निगाह से भांप लेगा कि मुझे व्यायाम में आस्था नहीं ।

उनसे कुछ ही दूरी पर एक छोटी सी टोली और भी अक्सर व्यायाम कर रही होती है। उसमें सिर्फ तीन लोग होते हैं- एक औरत, दो मर्द। जब भी मैं पार्क में पहुँचता हूँ तो उन में से कभी एक उनके अड्डे पर बैठा बाकी दो का इंतज़ार कर रहा होता है, कभी दो तीसरे का, और कभी कभी उन तीनों में से एक भी वहाँ नहीं होता – तब मैं उनके इंतज़ार में इधर-उधर डोलता रहता हूँ । उनका व्यायाम बहुत अव्यवस्थित होता है। उनका कोई सरदार नहीं; तीनों मनमानी करते दिखायी देते हैं। कभी कभी तो साफ लगता है कि वे बड़ी टोली वालों की हरकतों की नक़ल उतार रहे हैं । शायद वे तीनों भी पहले उस बड़ी टोली में ही रहे हों और अपनी बेक़ायदा हरकतों के कारण ही वहाँ से निकाल दिये गये हों, और तब से अपनी अलग टुकड़ी बना कर बड़ी टोली की नक़ल उतार रहे हों। वे तीनों बड़ी टोली वालों की अपेक्षा कम सम्पन्न, कम आत्ममुग्ध, कम बेईमान, कम दुनियादार, कम बीमार नज़र आते हैं। बड़ी टोली वाले जब उछल रहे होते हैं तो ये रेंगना शुरू कर देते हैं, जब वे रो रहे होते हैं तो ये गाने लगते हैं, जब वे झूठा सामूहिक क़हक़हा लगा रहे होते हैं तो उन्हे सचमुच की हँसी आ जाती है, जब वे राष्ट्रगान में मस्त होते हैं तो ये कोई फिल्मी गाना छेड़ देते हैं।

मैं सोचता हूँ कि किसी दिन किसी कमज़ोरी के तहत मुझे अपनी अकेली सुस्त सैर छोड़ किसी टोली में शामिल होना पड़ा तो मैं छोटी टोली को ही चुनूंगा। वैसे मुझे ख़तरा है कि कुछ ही दिन बाद मैं उसमें से भी निकाल दिया जाऊंगा – कारण यह दिया जाएगा कि मुझे उनकी पेरोडी में आस्था नहीं तब अगर मुझ में हिम्मत हुई तो मैं उन दोनों टोलियों से अलग एक छोटे से टीले पर अपना अलग अड्डा बना लूंगा, और फिर एक दिन दोनों टोलियों वाले मिलकर मुझ पर पिल पड़ेगें और पार्क से बाहर धकेल देंगे।

इन सब खतरों में ख़्वाहिश का अनुपात कितना है, मैं नहीं जानता।

बुझाव

उस आदमी का चेहरा मुझे जिस चेहरे की याद दिला रहा है वह मेरी विस्मृति के अन्धेरे में खोया हुआ है। मैं उसकी आवाज़ को पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ लेकिन उसकी आवाज़ मुझे किसी आवाज़ की याद नहीं दिलाती । अगर किसी तरह मुझे उसका नाम मालूम हो गया होता तो भी शायद ही मैं उसे पहचान पाता, उसके साथ अपने खोये हुए सम्बन्ध तक पहुँच पाता। वह घूर मुझे रहा हैं, बात उस बुझी हुई औरत से कर रहा है जिसकी मूक शिकायतों का निशाना मैं हूँ । मैं उस औरत को नहीं जानता लेकिन उसकी आँखों का दावा है कि मैंने उसे धोख़ा दिया है, उसे इधर से भी तोड़ दिया है, उधर से भी और अब उसे न जानने का ढोंग रच कर अपने जुर्म से इनकार कर रहा हूँ । यह सब उसके मुँह से नहीं, उसकी आँखों से फूट रहा है, जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूँ । अब अगर मैं उसकी आँखों की ज़ुबान समझता हूँ तो मैं उसे जानता भी होऊँगा, या कभी न कभी मैनें उसे ज़रूर और खूब जाना होगा। हो सकता है मैंने उसे धोखा दिया हो, उसे इधर और उधर से तोड़ दिया हो, और अब उसे न जानने के बहाने उसकी मार से बचने की कोशिश कर रहा होऊँ। मेरी आँखे उससे पूछती है वह बताती क्यों नहीं मैंने उसे क्या धोख़ा दिया है और किस आलम में और कब, कि इधर और उधर से उसकी मुराद क्या है, कि वह मुझसे चाहती क्या है, कि वह मेरी है कौन, कि वह आदमी कौन है, कि आख़िर सारा बखेड़ा है क्या। उसके चेहरे से मुझे पता चल जाता है कि उसे मेरी आँखों की ज़ुबान नहीं आती, जिससे मुझ पर साबित हो जाता है कि वह मुझ नहीं जानती, कि वह सिर्फ उस आदमी को जानती है जो घूर मुझे रहा है, बात उसके साथ कर रहा है । उसकी बात अब मुझे सुनायी देने लगी है, अभी तक सिर्फ दिखायी दे रही थी, क्योंकि मेरा सारा ध्यान उस बुझी हुई औरत की आँखों में डूबा हुआ था। मैं सुन रहा हूँ कि वह आदमी उस औरत को समझा रहा है कि उसकी शिकायतें बेकार हैं, कि मुझ पर उनका कोई असर नहीं होगा, कि मैं उसे बिलकुल भूल चुका हुआ हूँ, इसलिए उससे पूरी तरह आज़ाद हो गया हूँ, कि उसे मेरा भरोसा छोड़ देना होगा, कि उसे उसका (उस आदमी का) दामन पकड़ना होगा, कि वही उसे इधर और उधर से फिर जोड़ सकेगा, मेरे दिये हुए धोखे के घाव को भर सकेगा, उस औरत को फिर से जिला सकेगा। ये आश्वासन उस आदमी की आँखों से नहीं उसके मुँह से फूट रहे हैं। उसकी आँखों से सिर्फ हिक़ारत फूट रही है जिसका निशाना मैं हूँ। उस औरत की आँखें कह रही हैं कि मैं अगर अब भी स्वीकार कर लूँ कि मैंने उसे धोख़ा दिया है तो वह मुझे मुआफ़ और उस आदमी को रद्द कर देगी। एक क्षण की डगमगाहट के बाद मैं उसकी पेशकश को ठुकरा देता हूँ । मैं बहुत थक गया हूँ, फिर से किसी बन्धन में नहीं पड़ना चाहता।

अन्तिम छोर

मेरा हाथ उसके हाथ के कब्ज़े में था और वह मुझे उस अन्धेरे के अन्दर खींच रही थी, कुछ इस तरह से कि मुझे लगा मानो वह मुझे अपने अन्दर खींच रही हो, कि वह अन्धेरा वह ख़ुद हो।

उसका हाथ अन्धेरे की तरह कोमल न होता तो शायद मैंने अपना हाथा छुड़ा लिया होता।

वह अन्धेरा इतना घना न होता तो शायद उसे मुझे खींचने की जरूरत न पड़ती।

खिंचता हुआ मैं महसूस कर रहा था जैसे वह मुझे निगल जाना चाह रही हो।

उस रात से पहले मैंने कभी उसकी तुलना अन्धेरे से नहीं की थी।

उस रात से पहले उसने कभी किसी अन्धेरे में मुझे उतने अनुनय से नही खींचा था।

उस रात से पहले मैंने कभी उसके हाथ की कोमलता की तुलना अन्धेरे से नहीं की थी।

उस रात वह शायद मुझे दिखाना चाहती थी कि असली अन्धेरा कितना कोमल हो सकता है, कि असली कोमलता कितनी कठिन हो सकती है।

अन्धेरा इतना घना था कि मेरी आँखे बन्द हो गयी थीं और होंठ थोड़े से खुल गये थे, उसी तरह जैसे अन्धे भिखारियों या गायकों के हर वक़्त खुले रहते हैं।

मुझे यह ख़तरा नहीं था कि अन्धेरे में मैं गिर पडूंगा, घायल हो जाऊँगा, बल्कि यह कि अन्धेरे के आखिरी छोर तक ले जा कर वह मेरा साथ छोड़ देगी।

उस रात से पहले वह मुझे उजाले के जाल में ही फंसाए रखने की कोशिश करती रही थी।

मन हो रहा था कि उन्मुक्त हो उसके साथ हो लूँ और देखूँ वह कहाँ तक मेरा साथ देती है। लेकिन तनाव के अन्त से अन्धेरे में इकहरापन आ जाएगा और मैं यह नहीं चाहता था।

जिस अन्धेरे में वह मुझे घसीट रही थी मैं उसे इकहरा होते नहीं देखना चाहता था।

जिस उजाले के जाल में उस रात से पहले उसने मुझे फंसाए रखना चाहा था वह इकहरा था, उसमें फंसा हुआ भी मैं उससे आज़ाद था, आज़ाद महसूस करता था।

जिस अन्धेरे में वह उस रात मुझे घसीट रही थी उस से मैं खूब डरना चाहता था क्योंकि मुझे लग रहा था कि जितना डरूंगा उतना ही उसमें फंस कर रह जाऊँगा, इसीलिए मैं उसे इकहरा होते नहीं देखना चाहता था, इसीलिए मैं चाहता था कि वह मुझे घसीटती हुई उसके अन्तिम छोर तक ले जाए जहाँ से मैं कभी लौट न सकूँ, इसीलिए मैं पूरी ताकत से उसके खिलाफ़ डरा हुआ था।

मैं चाह रहा था कि वह कहे तुम कैसे मर्द हो कि तुम्हारी औरत तुम्हारे साथ है और तुम अन्धेरे से डर रहे हो।

अगर उसने यह कहा होता तो मुझे उसकी क्रूरता पर ग़ुस्सा आ जाता ।

मैं चाह रहा था कि वह कुछ कहे ताकि मैं उससे कह सकूँ तुम्हे अन्धेरे में ख़ामोश रहना भी नहीं आता।

नहीं मैं नहीं जानता मैं उस वक्त क्या चाह रहा था, क्या सोच रहा था, क्या कहना चाह रहा था, क्या सोचना चाह रहा था।

मैं नहीं जानता कि अगर उसने आचानक मेरा हाथ छोड़ दिया होता तो मैं क्या करता।

मैं नहीं जानता कि अगर उसने अचानक मेरा साथ छोड़ दिया होता तो मैं क्या करता ।

मैं अभी तक उसी अन्धेरे में हूँ ।

मेरा हाथ अभी तक उसके हाथ में है।

वह अभी तक मुझे उस अन्धेरे के अन्तिम छोर तक नहीं ले जा सकी ।

मैंने सोचना शुरू कर दिया है कि उस अन्धेरे का कोई अन्तिम छोर नहीं ।

नहीं मैं नहीं जानता कि मैंने क्या सोचना शुरू कर दिया है।

असल में

मैं उन्हीं का सा था और उनसे अलग भी था। मैं उन्हें देख रहा था और सोच रहा था वे शायद ही मुझे देख रहे हों । वे अपनी हरकतों में खोये हुए थे। मैं अपने आपको भूला हुआ था इसीलिए उन्हें देख पा रहा था, इतनी सफ़ाई और गहराई से देख पा रहा था। अगर मैं उन्हें इतनी सफ़ाई और गहराई से देख न पा रहा होता तो अपने आपको भूला हुआ न होता, इतनी देर तक भूल न पाता। अगर वे मुझे देख रहे होते तो वैसी हरकतें न कर पाते। उनकी हरकतें अजीब थीं लेकिन मेरी समझ में आ रही थीं, समझ में अब भी आ रही हैं लेकिन बयान में नहीं। अगर मैं उन्हें बयान करने से बाज़ न आया तो वे मेरी समझ से भी बाहर भाग जाएंगी। मैं उन्हें या उनमें से एक को बयान करने से बाज़ नही आ पा रहा । शायद मैं चाहता हूँ वह मेरी समझ से बाहर भाग जाए। वह हरकत यूँ थी, वे बार बार अपनी आँखों पर कोई कांटेदार चीज़ चिपकाने की कोशिश कर रहे थे और उस कोशिश में नाकाम हो रहे थे और उससे बाज़ नहीं आ रहे थे। वह चीज़ बार बार उनके हाथों या उनकी आँखों से फिसल कर नीचे गिर जाती थी। वे बार बार उसे उठा कर आँखों पर चिपकाना शुरू कर देते थे। मैं हैरान हो रहा था कि उन्हें वे कांटे चुभ क्यों नहीं रहे? शायद वे कांटे असली नहीं। शायद वह चीज़ असली नहीं। शायद वे सब असली नहीं। अगर वे असली नहीं तो मैं भी असली नहीं। अगर मैं असली नहीं तो मेरा देखना और सोचना भी असली नहीं। मैं यही सब सोचता और देखता रहा। वे वही करते रहे जो कर रहे थे। अब याद आ रहा है कि मैंने यह भी सोचा था कि वह चीज़ एक प्रकार का चश्मा होगा जिसे वे आँखो पर चिपका या शायद टिका रहे थे और टिका नहीं पा रहे थे। अब याद आ रहा है कि मैंने चाहा था कि मैं भी उस चीज़ या चश्मे को अपनी आँखों पर चिपका या टिका लूँ या उसे चिपकाने या टिकाने की कोशिश शुरू कर दूँ और उनका सा हो जाऊँ। अब यह याद नहीं आ रहा कि वे ग़ायब कैसे हुए, मैं ग़ायब क्यों नहीं हुआ, उन कांटों के बारे में मैंने कोई अनुमान क्यों नहीं लगाया।

अन्धेरे का कुआँ

अन्धेरे को टोहता टटोलता हुआ मैं आगे बढ़ रहा था और सोच रहा था कोई साथ होता तो मैं उस से कह रहा होता, सारी दुनिया का मौसम गड़बड़ा गया है, अब अन्धेरे को ही देखो, कभी किसी ने मई के महीने में इतना अन्धेरा देखा था!

महीना मई का नहीं था, मुझे मालूम नहीं था कौन सा था, मई का ख़याल यूँ ही मेरी सोच में आ गया था, जैसे यह सोच मेरे दिमाग में।

आगे बढ़ने की बात भी मुझे ठीक नहीं लगती। अन्धेरा इतना गहरा था कि उसमें आगे पीछे का हिसाब गुम हो जाना चाहिए, इसलिए ऐन मुमकिन है कि मैं आगे बढ़ रहा था न पीछे हट रहा था, एक छोटे से चक्कर में ही घूम रहा था, उस गहरे अन्धेरे में, उसी तरह जैसे उकताए हुए कुत्ते घूमते हैं, अपनी ही दुम को चाटते या काटते हुए। हाँ, अपने ज़ोम में मैं उस वक़्त आगे ही बढ़ रहा था, क़दम क़दम, इंच इंच, इस सम्भावना पर सिहरता हुआ कि आगे कहीं कोई कुआँ होगा जिसमें मैं गिर जाऊँगा, गिरने के दौरान मेरे मुँह से जो चीख़ निकलेगी वह किसी को सुनायी नहीं देगी, गिर जाने पर पानी में से जो छपसड़प की आवाज़ निकलेगी वह किसी को सुनायी नहीं देगी, गिर जाने के बाद मैं डूबना शुरू कर दूँगा, डूबते वक़्त अपनी सारी ज़िंदगी के जो दर्दनाक दृश्य मुझे दिखायी देंगे, वे सब मेरे साथ ही डूब जाएँगे।

शायद मैं किसी कुएँ की तलाश या आशा में ही उस अन्धेरे को टोह टटोल रहा था। शायद किसी ने मुझे बता दिया हो कि उस अन्धेरे में कोई कुआँ है। शायद किसी स्वप्न में मैंने उस कुएँ को उस अन्धेरे में देखा हो, शायद मैं अचानक अन्धा हो गया था और अन्धापे से मुक्त होने के लिए ही उस अन्धेरे में किसी कुएँ की कल्पना कर रहा था, उस कल्पना के कुएँ में डूबने की कल्पना कर रहा था।

अन्धेरे और अनिश्चय के बावजूद मैं बौखलाया हुआ नहीं था, मेरी हरकतों में हेजान नहीं था। मैं अन्धेरे को टोह टटोल ही रहा था – जैसे वह कोई काली कोमल औरत हो – उसे रौंद या पीट नहीं रहा था, जैसे वह मेरा कोई दुश्मन हो। मुझे महसूस हो रहा था जैसे मैं उसमें पैठ रहा हूँ और उसमें पूरी तरह पैठ जाने के बाद मैं कुछ पा लूंगा, कुछ ऐसा जिसे पा लेने के बाद कुछ और पा लेने की अभिलाषा नहीं रहेगी।

शायद अभिलाषा का अन्त करने के लिए ही मैं उस अन्धेरे की टोह टटोल रहा था ताकि उसमें गिर जाने का कोई रास्ता मिले।

अन्त

दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनायी देती है। उस आवाज़ में आदत और ऊब की कराह सुनायी देती है। मेरे कान खिल उठते हैं। अब मैं दरवाज़े से आने वाली हवा और ख़ुश्बू की प्रतीक्षा में हूँ । दरवाज़ा दिखायी नहीं दे रहा। ऐसा मुमकिन है कि दरवाज़ा हो ही नहीं। आदत और ऊब की कराह में ही मैंने दरवाज़ा खुलने की आवाज सुन ली हो। अब आदत और ऊब की मौत की प्रतीक्षा में हूँ। और उस हवा और ख़ुश्बू की प्रतीक्षा में भी जो आदत और ऊब की मौत के बाद आएँगी – मेरी अनुपस्थिति में, मेरी अनुपस्थिति पर झूमती हुई, मेरी प्रतीक्षा के अन्त के बाद, मेरे अन्त के बाद।

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  1. इन कहानियों के अंत में मुझे
    एक ज़रूरी आरंभ नज़र आता है.
    आदत और ऊब की कराह में खुलते
    दरवाज़े की सुनी गई आवाज़ बेअसर नहीं रहेगी.
    ===================================
    इन्हें यहाँ प्रस्तुत करने के लिए आभार.
    डा.चंद्रकुमार जैन

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