प्रतिरोध और साहित्य: मदन सोनी
कोई चीज़ है प्रतिरोध के संवेग में, कोई बहुत बुनियादी किस्म का अंतर्विरोध या विरोधाभास, जो उसे अन्दर से विदीर्ण करती हुई धारणा में बदलता है; जो उसे एक ओर एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और अपरिहार्य मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित करता लगता है, तो दूसरी ओर, उसी क्षण में, उसका अवमूल्यन करता है; जो उसे उसी की प्रतिलोम छवि से प्रश्नांकित करता है; जो इस पर बल देता है कि प्रतिरोध अगर एक मूल्यवान संवेग बने रहना चाहता है, तो वह ख़ुद को अपने लक्ष्य पर रखे बिना ऐसा नहीं कर सकता; ख़ुद को प्रतिरोध देकर ही प्रतिरोध एक मूल्यवान अवधारणा के रूप में ख़ुद को थामें रख सकता है. संभवतः यही वह चीज़ है जो प्रतिरोध को एक सम्मोहक अवधारणा में बदलती है. और संभवतः यही वह चीज़ भी है जिसके बल पर वह साहित्य को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है.
एक ओर, प्रतिरोध की अवधारणा, एक गहरे अर्थ में, मनुष्य के साथ जन्मी, और मनुष्य की अवधारणा से अविनाभाव जुड़ी हुई प्रतीत होती है. मनुष्य जैसे अपनी परिभाषा में ही एक प्रतिरोधक प्राणी प्रतीत होता है. अगर हम उसके द्वारा गढ़ी गयी सभ्यता और संस्कृति का इस ख़ास दृष्टि से पुनरावलोकन करें, तो उसकी इस रचनात्मकता के समूचे इतिहास को प्रतिरोध के इतिहास के रूप में भी देखा जा सकता है. अपनी जिस अनंत रूप से परावर्तनशील, प्रत्यावर्तनशील आत्मचेतना के गुण से मनुष्य परिभाषित है, जो उसको शेष जड़ प्रकृति और अन्य प्राणियों से अलगाती है, वह आत्मचेतना अपनी बनावट में ही प्रतिरोधधर्मी है. वह चरितार्थ ही होती है इस शेष प्रकृति को – मनुष्य के इस विराट अन्य को – प्रतिरोध देने में; उसे जस-का-तस स्वीकार न करने, उसका संशोधन करने, अन्यथाकरण करने, इसकी सहज लय-गति में अवरोध देने में; उसे होने से रोकने, उस पर प्रत्याक्रमण करने, उसका संवरण करने आदि उन सारे अर्थों में जो प्रतिरोध की अवधारणा में निहित है. और क्योंकि उससे इतर यह प्रकृति सिर्फ़ उससे बाहर ही नहीं, बल्कि उसके भीतर, उसके स्वत्व के अंग के रूप में, भी व्याप्त है, उसके प्रतिरोध की दिशाएँ भी उभयनिष्ठ है : वह उससे बाहर के वस्तुजगत में ही घटित नहीं होता, अंतर्जगत में भी घटित है – आत्मनिग्रह, आत्मनियंत्रण, आत्मसंयम आदि विभिन्न रूपों में. उसका विस्तार, चीजों को उनकी प्रतीति में स्वीकार करने से इनकार करने में, उन पर संदेह करने, सवाल उठाने में, उनके अंतरतम मर्म को जानने का प्रयत्न करने में भी है और अंततः स्वयं इस ज्ञान तथा इस ज्ञान की प्रविधियों को अस्वीकार, संदेह, पृच्छा, और ज्ञान की उतनी ही कठोर प्रक्रियाओं के अधीन करने में भी है. उसका विस्तार देश में भी है और काल में भी है. इस प्रतिरोध के लक्ष्य पर पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल, अन्तरिक्ष का शून्य, जल और वायु का वेग आदि तो है ही, एक दूसरी पराकाष्ठा पर यह समूचा जागतिक प्रपंच, यहाँ तक कि मृत्यु भी मानवीय प्रतिरोध की महत्त्वाकांक्षा के विषय रहे हैं, जिसे हम औपनिषदिक चिंतन तथा शंकर और नागार्जुन के अस्तित्व-विमर्श में देख देख सकते हैं. इस दृष्टि से मनुष्य द्वारा खोजे गये प्रकृति के नियम, इन नियमों का प्रविधि के रूप में रूपांतरण, विभिन्न साभ्यतिक सरंचनाएं, परिवार, राज्य, नैतिक नियम, आचार-पद्धतियां,धर्म, विचारनीतियां, इतिहास, भाषा, कुल मिलाकर समूची सभ्यता और संस्कृति, मनुष्य की इस प्रतिरोधक आत्मचेतना के विक्षेप कहे जा सकते हैं.
लेकिन दूसरी ओर, मनुष्य का इतिहास, हम जानते हैं कि, सिर्फ़ उसकी इस विराट रचनात्मकता का इतिहास नहीं है, वह उतना ही ध्वंस और अतिचार का भी इतिहास है, जिसके लक्ष्य पर सिर्फ़ वह जड़-चेतन प्रकृति ही नहीं रही, जिसे उसने अपने, चरम रूप से विषम, अन्य के रूप में देखा; इस ध्वंस और अतिचार के लक्ष्य पर उसका समरूप मनुष्य (Homo Sapien) भी उतना ही रहा है. वह अंतहीन युद्धों का, और धार्मिक आस्थाओं, विचारधाराओं, प्रजाति, रंग, लिंग, वर्ण आदि के नाम पर किए गये नरसंहारों, बर्बरताओं, शोषण, उपनिवेशिकरण का भी इतिहास रहा है. वह सिर्फ़ भौतिक और मानसिक पदार्थों के मर्म को जान लेने और इस ज्ञान को मनुष्य का कल्याण करने वाली अपरिमेय ऊर्जाओं में बदल देने का इतिहास नहीं रहा है; वह इन ऊर्जाओं को, समूची जड़-चेतन प्रकृति को निगल जाने वाली अग्नियों में बदल देने का इतिहास भी रहा है.
इसके बावजूद कि ये दो तरह के इतिहास एक दूसरे के सर्वथा विपरीत जान पड़ते हैं, क्या इन दोनों का वाकई आपस में कोई रिश्ता नहीं है? क्या इन दोनों के गोत्र एक दूसरे से अलग हैं? वस्तुतः ये दोनों तरह के इतिहास एक दूसरे से कुछ इस तरह अविनाभाव जुड़े हुए हैं कि यह न मानने का कोई कारण नहीं है कि दोनों का स्रोत एक ही है, कि दोनो एक दूसरे का सहउत्पाद (By-product) हैं। पर्यावरण का विनाश, स्त्रियों, दलितों पर अत्याचार, हिंसा के स्तर पर व्याप्त आस्थापरक असहिष्णुता, राजसत्ता, पूँजी और बाज़ार की तानाशाही आदि जिन किन्ही भी चीजों के सन्दर्भ में आज हम प्रतिरोध की बात करते हैं, हम अक्सर न सिर्फ़ इस दूसरी तरह के इतिहास को ही लक्ष्य कर रहे होते हैं, बल्कि उसे अपने में स्वतन्त्र, स्वायत्त मानकर चल रहे होते हैं। लेकिन अगर हम इनमें से किसी भी चीज़ के मूल की तलाश करते हुए इनके पुरातत्व में जाएँ, तो हम पाएँगे कि वहाँ प्रतिरोध का वही संवेग कुण्डली मारे बैठा हुआ है – अपने अंतर्विरोध, विरोधाभास या द्वैध को इन दो तरह के इतिहासों में प्रक्षिप्त करता हुआ। वहाँ हम उन तत्वों को आसानी से पा सकते हैं जो उक्त दोनो तरह के इतिहासों में साझा करते हैं : भेद-बुद्धि, या न्याय-बुद्धि, तर्क-बुद्धि, ज्ञान, ज्ञान को ताक़त में बदलने वाली प्राविधि, अहंकार…। प्रजाति, रंग, वर्ण, लिंग आदि को चिह्नित करने वाली, इनके आधार पर मनुष्यों के बीच भेद करने वाली, इस भेद के आधार पर एक के मुक़ाबले दूसरे को अशुभ, बर्बर, असभ्य, अशुचितापूर्ण, हीन मानने वाली, और इस सोपानक्रम के आधार पर एक को दूसरे पर शासन करने के लिए औचित्य और ताक़त जुटाने वाली बुद्धि बुनियादी तौर पर उस बुद्धि से अलग नहीं है जो मनुष्य को प्रकृति से भिन्न और श्रेष्ठ मानती है, जिसने उसके भीतर प्रकृति को काबू करने, उस पर शासन करने का आत्मविश्वास जगाया, उसे परिवार, समाज, सभ्यता, की अद्वितीय सरंचनाएं खड़ी करने में समर्थ बनाया. फ्रांसीसी चिन्तक ज्यां बॉद्रिला के शब्दों में :
यदि हम मनुष्य प्रजाति की श्रेष्ठता पर विचार करें, उसके मस्तिष्क के आकार पर, उसकी सोचने की शक्तियों पर, भाषा और संगठन- क्षमता पर, तो हम यह कह सकते हैं : अगर इस बात की ज़रा भी सम्भावना होती कि पृथ्वी पर या कहीं अन्यत्र, कोई दूसरी प्रतिद्वन्द्वी या श्रेष्ठ प्रजाति प्रगट हो सकती है, तो मनुष्य ने उसे नष्ट करने के हर सम्भव तरीके को अपनाया होता। मनुष्य किसी भी दूसरी प्रजाति को बर्दाश्त ही नहीं कर सकते — किसी अतिमानवीय प्रजाति को भी नहीं. वे ख़ुद को सांसारिक उद्यम के उत्कर्ष और पराकाष्ठा के रूप में देखते हैं, और ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया में किसी भी नये अनाहूत आगमन पर जबरदस्त निगरानी रखते हैं। (xxxx) सिर्फ़ मनुष्य ही है जो एक ऐसे सोपानक्रम को गढ़ता है जिसका कि वह मूल आधार है और जिसके विरुद्ध कोई अपील सम्भव नहीं है । यह एक किस्म की सेकेण्ड पावर तक उठी हुई क्रूरता है, एक विनाकारी दम्भ।
एक प्रजाति के रूप में मनुष्य की यह क्रूरता उस मानववाद की क्रूरता में प्रतिबिम्बित होती है जहाँ वह एक विचार- शैली का रूप लेता है : सार्वभौमिक उत्कर्ष का उसका दावा और अपने से अन्य किस्म के विचार के प्रति उसकी असहिष्णुता अपने आप में एक उच्चतर नस्लवाद का निदर्श है।
(Cool Memories, मूल फ्रांसीसी से क्रिस टर्नर द्वारा अनूदित , हिन्दी अनुवाद मेरा)
इस प्रस्तुति से यह बात सम्भवतः स्पष्ट होगी कि इसका उद्देश्य प्रतिरोध की आज ज़रूरत से इंकार करना या, कम से सामाजिक-राजनैतिक स्तर पर, उसके आचरण को असम्भव मानना नहीं है। आग्रह सिर्फ़ यह है कि इस अवधारणा को इसके इतिहास की रोशनी में देखा जाना ज़रूरी है, ताकि इसे एक मौलिक रूप से समस्याग्रस्त अवधारणा के रूप में समझा जा सके, जैसी कि वह है; ताकि प्रतिरोध हमारा कर्म इस तथ्य के प्रति संवेदनील बना रह सके कि जो चीज़ें आज हमारे प्रतिरोध का विषय हैं वे, एक व्यापक अर्थ में, प्रतिरोध की हमारी मूलभूत मानवीय प्रवृत्ति की ही देन हैं; ताकि प्रतिरोध का हमारा कर्म अभियोग का नहीं, बल्कि आत्माभियोग का कर्म बन सके; ताकि हम उसे एक ‘प्रगतिशील’ कर्म मानने की विडम्बना से बच सकें, और अपने रास्ते को पीछे मुड़कर देखने को एक रेडिकल, साहसिक गति की तरह स्वीकार कर सकें; ताकि हम खुले मन से इस विडम्बना को स्वीकार कर सकें कि प्रतिरोध का हमारा आज का कर्म, बेहद अनिवार्य होने के बावजूद, एक प्रहसन है : समाज, सभ्यता, संस्कृति नामक हमारे महानाट्य के भीतर, और उसका अंग होते हुए, इस महानाट्य को उपलक्षित करता हुआ करता हुआ प्रहसन।
क्या प्रतिरोध की इस अवधारणा के साथ साहित्य की कोई संगति बैठती है? बल्कि सिर्फ़ संगति ही क्यों, सवाल असल में क्या यह नहीं होना चाहिए कि इस संगति का सार्थक रूप क्या हो सकता है? क्या उसकी सार्थकता प्रतिरोध को एक मूल्य मानकर साहित्य को उससे विभेदीकृत करने में, और इस तरह ‘प्रतिरोध का साहित्य’ जैसी कोटि गढ़ने में होगी, जैसा कि प्रायः किया गया है? या वह मनुष्य की विडम्बना को प्रतिबिम्बित करती प्रतिरोध की उपर्युक्त अवधारणा को ‘साहित्य का प्रतिरोध’ जैसी किसी अवधारणा के बरअक्स रखकर देखने में होगी? जहाँ तक संगति का प्रश्न है, इसका जवाब, एक स्तर पर, सर्वथा नकारात्मक हो सकता है : प्रतिरोध , जैसा कि हमने ऊपर संकेत किया है, एक निषेध का कर्म है; अस्वीकार, अवरोध, विरोध, प्रत्याक्रमण, संवरण का कर्म। और अगर हम साहित्य की व्यापक अवधारणा को दृष्टि में रखें तो इस दुनिया में शायद ही कुछ ऐसा हो जिसे स्वीकार करने में साहित्य संकोच करता हो, जिसे सम्भव होने देने में वह बाधा डालता हो, कोई भी ऐसा लोभ जिसका वह संवरण करता हो, कोई भी ऐसा आघात जिसे वह सहज मानकर न स्वीकार कर लेता हो। इस अर्थ में साहित्य स्वभावतः और अद्वितीय रूप से एक स्वीकृति और समवेशापरक कर्म है।
इस जवाब का सबसे गहरा अहसास शायद उन लोगों को है जो साहित्य से सबसे ज़्यादा प्रतिरोध की माँग करते हैं। जब साहित्य से प्रतिरोध की भूमिका निभाने का आग्रह या माँग की जाती है, तो इसके पीछे यही धारणा निहित होती है कि साहित्य स्वाभाविक रूप से, अपने होने मात्र में, ऐसी भूमिका नहीं निभाता। अकारण नहीं कि हमें उससे न केवल बहुत ज़्यादा उम्मीद न करने की सलाह जब-तब दी गयी है, बल्कि उसकी ‘प्रतिक्रियावादी’, ‘प्रतिगामी’, ‘ ‘यथास्थितिवादी’ आदि भूमिकाओं की तरफ़ ध्यान दिलाया गया है। साहित्य की यह फ़ितरती तौर पर निराशाजनक और गुमराह होने की सम्भावनाओं से युक्त छवि ही उसके प्रति उस चौकसी की ओर ले जाती है जिसके चलते उसे ‘प्रतिरोध ‘ की ‘भूमिका’ निभाने की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है- मानो ‘भूमिका’ शब्द के नाट्यपरक अर्थ में। इसमें एक नैतिक समादेश निहित है, और वह यह है कि चूँकि समाज में अन्याय व्याप्त है, अन्य लोगों की तरह साहित्यकार का भी यह नैतिक दायित्व है कि वह इस अन्याय को प्रतिरोध दे। पर प्रतिरोध क्योंकि अन्ततः समाज की भूमि पर घटित होता है और मूलतः एक सामाजिक-राजनैतिक कर्म की माँग करता है, जो कि साहित्य अपने आप में नहीं है, लेखक से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने कर्म को इस सामाजिक-राजनैतिक कर्म से अनुप्राणित करे। इस चौकसी, समादेश और अपेक्षा का स्रोत प्रत्यक्ष तौर पर कहीं बाहर हो यह ज़रूरी नहीं है, बल्कि अक्सर वह स्वयं लेखक के भीतर ही स्थित होता है — उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता से जन्मा हुआ।
बहरहाल, वह इस समादेश और अपेक्षा से प्रतिश्रुत होता है और अपने लेखन में प्रतिरोध के सामाजिक-राजनैतिक कर्म का नाटक रचता है — आख्यान, दृष्टान्त, विमर्श आदि रूपों में। इसे ही आमतौर से ‘प्रतिरोध का साहित्य’ के नाम से पहचाना, पुकारा जाता है। ये आख्यान आदि अक्सर, कम से कम हिन्दी लेखन में तो, सरलीकृत ही होते हैं, लेकिन महत्वपूर्ण यह नहीं है; लेखक की यथार्थ की समझ, और रचना-कौशल प्रतिरोध के संघर्ष को उसकी वास्तविक जटिलता और मार्मिकता में भी उभार सकते हैं; महत्वपूर्ण यह है कि इस तरह की पूर्वयोजना लेखन को न्याय-अन्याय, शुभ-अशुभ, अच्छाई-बुराई आदि के लेखन -बाह्य नैतिक विवेक के एक निरे प्रतिरोधहीन उपनिवेश में बदल देती है। ऐसे लेखन में लेखक का कुछ भी दाँव पर नहीं लगा होता : बिना कुछ भी खोये – ऐसा कुछ भी जो उसे प्रतिरोध के वास्तविक, सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्र में खोना पड़ सकता था –वह न्याय, शुभ और अच्छाई के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। जो चीज़ यहाँ दाँव पर लगी होती है, वह साहित्य होता है; क्योंकि लेखक द्वारा आभ्यन्तरीकृत नैतिक विवेक को उसकी पूरी प्रांजलता और उत्कटता में सामने लाने के लिए लेखन को नख-दंत-विहीन बनाते हुए उससे वे सारी शक्तियां छीन ली जाती हैं जिससे इस विवेक के धुंधलाने य कमज़ोर पड़ने का खतरा हो सकता है — वे सारी शक्तियां जिनके बल पर वह अपने को साहित्य में बदल सकता है। इस तरह का लेखन साहित्य से तो वंचित होता ही है, वह प्रतिरोध की अवधारणा को भी सरलीकृत करता है, क्योंकि उसमें इस अवधारणा में निहित बुनियादी अंतर्विरोध की विस्मृति होती है।
और अन्ततः साहित्य को प्रतिरोध से विभेदीकृत करने का अन्त क्या साहित्य में भी वैसे ही भेद और सोपानक्रम पैदा करने में नहीं होता जैसे भेद और सोपानक्रम समाज में हमारे प्रतिरोध का विषय हैं? तब क्या हमारा अन्त तुलसी को कबीर से, प्रसाद को निराला से, अज्ञेय को मुक्तिबोध से, छायावाद को प्रगतिवाद से, और, अन्ततः, मसलन, ‘जुही की कली’ को ‘कुकरमुत्ता’ से कम मूल्यवान मानने की दयनीय साहित्यिक समझ में नहीं होता? ‘प्रतिरोध का साहित्य’ और ‘प्रतिरोध के प्रति उदासीन साहित्य’, प्रगतिशील’ और ‘प्रतिक्रियावादी’ साहित्य, ‘नारीवादी’ और ‘मर्दवादी’ साहित्य, ‘दलित’ और ‘सवर्ण’ साहित्य जैसी कोटियाँ गढ़कर क्या हम अपनी प्रजातिमूलक, प्रजातिसजग मनुष्यता में साहित्य का सकल अनुकूलन या दुर्विनियोजन नहीं करते?साहित्य का प्रतिरोध के मनुष्य के उस बुनियादी संवेग को अपना विषय बनाने में चरितार्थ होता है, जिसने मनुष्य को, समस्त अ-मानवीय सृष्टि के सन्दर्भ में, सबसे क्रूर नस्लवादी प्रजाति के रूप में पेश किया है; वह संवेग जिसके चलते वह इस समूची अ-मानवीय सृष्टि के स्त्रीत्व के सन्दर्भ में पौरुष के अहंकार से भरे सबसे भीमकाय, बलात्कारी मर्द के रूप में उभरता है; वह उसके उस ‘मानववादी’ मुखौटे को अपना विषय बनाता है जिसके परम पवित्र और एकछत्र ईश्वरत्व की रोशनी में वह, एक ओर, इस अ-मानवीय सृष्टि को अंधकारग्रस्त, सैवेज, अपवित्र, मूढ़, काफ़िर की तरह देखता है, और, दूसरी ओर, मनुष्यों के बीच शुचिता-अशुचिता , ऊँच-नीच, नर-मादा के भेद-भाव का प्रतिकार करना चाहता है। साहित्य मनुष्य की तर्कबुद्धि, न्याय-बुद्धि को, उसकी हाइपर कांससनेस को, उसके अहं को, उसके ज्ञान और शक्ति को अपना विषय बनाता है — उसकी भौतिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक समृद्धि और शक्ति के चरम क्षणों में उसकी दरिद्रता, निरीहता और पराजय को उजागर करता हुआ।
और यह सब वह ‘प्रतिरोध का साहित्य’ हुए बिना, अपने होने मात्र से करता है। वह निश्चय ही मनुष्य की कृति है, लेकिन उस मनुष्य की नहीं जो अपने प्रतिरोध के कर्म में, अपनी बनायी सभ्यता और संस्कृति में, अपनी सम्पूर्णता में प्रतिबिम्बित होता है, उनमें पूरी तरह से निशे:ष हो जाता है। वह मनुष्य के उस अंश की कृति है, जो इन निर्मितियों के बाहर छूट जाता है — अपने ही प्रतिरोध के विषय के रूप में। उसका प्रतिरोध न्याय-अन्याय, नैतिक-अनैतिक, दैवीय और दानवीय, पवित्र-अपवित्र आदि में विभाजित मनुष्य की दुनिया के प्रतिरोधों के आख्यान की पोथी होने में नहीं, बल्कि इस दुनिया के बरक्स एक ऐसी सृष्टि में होने में है जहाँ ये न्याय-अन्याय, नैतिक-अनैतिक आदि एक दूसरे को उपसृष्ट, आविष्ट, अन्तर्व्याप्त करते हैं। वह ‘रेशनल’ नहीं, विक्षिप्त प्रतिरोध है जो किसी एक के पक्ष और दूसरे के विपक्ष में खड़े होने में नहीं, बल्कि हर पक्ष के साथ असमंजस होने, अनिर्णय और अनिश्चय की स्थिति में होने के तथ्य को सामंजस्य, निर्णय और निश्चय के बरक्स रखने में उभरता है। साहित्य का प्रतिरोध अचेतन, अर्ध-चेतन, जड़ और तर्कहीन प्रकृति के गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध चेतना की उड़ान में नहीं , इस गुरुत्वाकर्षण को चेतना के नृत्य से साधने में, उसके साथ लीलारत होने में, उसे विमोहित करने में चरितार्थ होता है। मनुष्य के अहं और उसकी ताक़त को उभारने या रेखांकित करने में नहीं उसका विलयन करने में होता है।
तब भी, जैसा कि हमने अभी कहा था, साहित्य निषेध या अपवर्जन का नहीं, समावेश और स्वीकार का कर्म है। और इसीलिए उसमें इसी समावेश के तर्क से प्रतिरोध के हमारे सामाजिक-राजनैतिक कर्म के लिए भी गुंजाइश हो सकती है, होती है। लेकिन तब उसमें प्रतिरोध के ये आख्यान या दृष्टान्त उस तरह इकहरे नहीं होते; वे कहीं अधिक जटिल रूप में प्रगट होते हैं क्योंकि जब वह इस अर्थ में प्रतिरोध बरत रहा होता है तो उसके लक्ष्य पर स्वयं प्रतिरोध का उसका यह संवेग भी होता है। वह उसी क्षण में अपने प्रतिरोध को भी प्रतिरोध दे रहा होता है। तब वह ऐसी मानवीय स्थितियों की रचना करता है जहाँ मनुष्य के सामाजिक-राजनैतिक निर्णय उसकी नियति के वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में उजागर होते हैं। इस अर्थ में वह इस संवेग के उसी बुनियादी अंतर्विरोध को अपने भीतर समाहित कर ख़ुद को वध्य बनाता है। वह अन्याय का प्रतिकार इस अन्याय के कर्त्तृत्व को अन्य में उपलक्षित करके नहीं , उसे अपने भीतर लोकेट करके करता है । बिना किसी हताशा के, और बिना किसी शहादत के भाव के।
अगर हम मानववादी चिन्तन और उसे समाविष्ट करते समाजशास्त्रीय, राजनैतिक, नृतात्विक, मनोवैज्ञानिक आदि विभिन्न मानविकीय और वैज्ञानिक विमर्शों की दुनिया में साहित्य की हैसियत का आकलन करें, तो हमें यह समझने में मुश्किल नहीं होगी कि इस दुनिया में उसकी हैसियत हमारे समाज में स्त्रियों, दलितों, बच्चों से बहुत अलग नहीं है। ऐसे में क्या यह ज़रूरी नहीं कि हम अपने प्रतिरोध के विषयों में साहित्य का अवमूल्यन करने वाली इन बौद्धिक शक्तियों को भी शामिल करें? – साहित्य के बचाव के किसी तथाकथित ‘कलावादी’ तर्क से नहीं , बल्कि इसलिए कि यह साहित्यिक प्रज्ञा ही है जो प्रतिरोध को सम्यक बना सकती है। ‘प्रतिरोध का साहित्य’ इस बेहद ज़रूरी सवाल से न सिर्फ़ बेख़बर प्रतीत होता है, बल्कि जाने-अनजाने वह साहित्य को इन शक्तियों का गुलाम बनाने की कोशिश करता है। यह अलग बात है कि उसे इस तरह की गुलामी का शिकार बनाया नहीं जा सकता; वह अपना बचाव ख़ुद करता है – दुर्विनियोजन के ऐसे किसी भी स्थल से अपने को गायब करके या अपनी अनुपस्थिति से उसे त्रस्त करते हुए ।
साहित्य मनुष्य का सबसे अदम्य प्रतिरोध है ।