आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

January 4, 1960: Udayan Vajpeyi

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या तो फूल या तो…

मेरे देखते-देखते ही शाम एक अटपटे बर्तन के रूप में ढल चुकी थी. और यही नहीं इस बर्तन में अब लगातार रात भर रही थी. और यही नहीं इस रात में लगातार तारे भर रहे थे. और यही नहीं इन तारों में से कुछ टूट भी रहे थे.

तुम जब सोकर उठो, अपने बालों को ठीक से टटोलना, वहाँ शाम के उस अटपटे बर्तन से छिटक कर गिरा कोई तारा या तो फूल या फिर आँसू बनकर अटका होगा.

A Flower Or…

Before my eyes the evening turns into a strange vessel. This vessel is constantly being filled with night. This night is constantly being filled with stars. Some of these stars are falling.

When you wake up, run your hands through your hair, there you might find a falling star has caught and turned into a flower or into a tear.

कोई है ज़रूर

कोई है जो मेरे किसी स्वप्न की गुफा से हर रात बाहर निकलकर सुनसान सड़कों पर भटकता है चुपचाप. जो मेरे हर सुख को लावारिस वृक्ष के फल की तरह उठा लेता है और तेरे हर दुःख से अन्तरिक्ष की दीवारों को सजाता है. कोई है ज़रूर मेरे भीतर जो चुपचाप मेरा पढ़ा हुआ मुझसे छीन लेता है और मेरी ही आंखों के सामने मेरी पढ़ी हुई किताब के पन्नों को कोरा कर जाता है. शायद यह वही है जिसके होने की आहट हर उस दरवाज़े के पीछे से आती है जो खाली कमरों में खुलते हैं.

Someone, Certainly

There is someone who crawls out each night from the caves of my dreams and wanders silently upon the silent empty streets. Who plucks my happiness like fruit from an untended tree and decks the firmament with your sadness. Someone, certainly, inside me, who takes from me all that I know, who wipes out the words from the books I read. The same someone, maybe, whose footsteps I can hear from behind the doors to empty rooms.

सांत्वना

अपने एक दिन न रह जाने के ख्याल में इतनी सांत्वना थी की मैंने अपने एक दिन न रहने में ही रहना शुरू कर दिया. अब मेरे घर के सामने का पेड़ मेरी मृत्यु के बाद का पेड़ है जिस पर धूप पड़ रही है. अब मेरी हर यात्रा मेरी मृत्यु के बाद की यात्रा है. मेरा यह शरीर अपनी मृत्यु के बाद मेरी स्मृति में अटका रहा आया कोई तिनका है. अब अन्तरिक्ष के फैलाव में उलझी यह पृथ्वी मेरे जाने के बाद बची रही आयी पृथ्वी है जिस पर मेरे बेटे अपने ढेरों बल्लों से क्रिकट खेल रहे हैं और जिसकी एक छत पर बैठी तुम मेरे आने की प्रतीक्षा कर रही हो.

Consolation

The thought of no longer being, someday, so consoled me that I started being no longer. Now the tree before my house is a tree on which the sun shines after I die. Now every journey is a journey I make after I die. After I die my body is just something I seem to remember. The earth, caught in the universe’s spread, is the earth after I am gone, where my sons play cricket and where you sit on some terrace waiting for my return.

हल्का-सा कुछ

कविता और पीड़ा में एक समानता यह है कि उनमें रहते हुए तुम्हे संसार कुछ ज़्यादा ही बारीकी से सुनाई देने लगता है. मसलन शाम ढल जाने के बाद तुम न सिर्फ़ सड़कों पर आती-जाती गाड़ियों की तेज़ आवाजों को सुनते हो बल्कि इनके बीच और जैसे इनसे कहीं दूर और गहरे तक फैली झिन्गुरों की आवाज़ के महीन जाल को भी तुम चूकते नहीं और यही नहीं इस जाल में फँसी पड़ी किसी मेंढक की टर्र-टर्र भी तुम्हारे कानों में बिल्कुल साफ-साफ उतरती है जैसे किसी शानदार बग्घी से उतर कर कोई राजकुमारी अपने महल में प्रवेश कर रही हो. मेरे साथ यह होता रहा है कि कविता और पीड़ा में रहते हुए मुझे संसार कुछ ज़्यादा ही बारीकी से सुनाई देने लगता है. यह इसलिए है कि इस संसार को या तो कविता के धागों से बुना गया है या पीड़ा के. या दोनों के. या यह भी हो सकता है कि ये दो लगते ज़रूर हों, दरअसल हों एक ही और शायद एक भी न हो, बस हल्का-सा कुछ हो जैसे उस रात खिड़की से नीचे उतरती अंधेरे में ढंकी तुम्हारी फुसफुसाहट थी.

Something Slight

Living poetry and living pain, one starts to hear the world too keenly. For instance, in the evening, not only the blare of traffic but, spread far and wide like a delicate web, the sound of cicadas, and caught in that web somewhere, a frog’s croak that enters your ear like a princess stepping out of her carriage and entering her palace. I have always felt, living poetry and living pain, I hear the world too keenly. Maybe that is because the world is woven with threads of poetry, or pain, or both. Or maybe, though they appear two, they are one. Or maybe it’s not that either, just something slight like your whispers that night from the window descending, cloaked in darkness.

चार जनवरी उन्नीस सौ साठ

एक समय था जब चार जनवरी उन्नीस सौ साठ बिल्कुल पास में थी. मैं जब चाहता हाथ बढ़ाकर उसे छू सकता था. कई बार मैदान में खेलते हुए या कक्षा में ब्लैक बोर्ड को देखते हुए या रात में बिस्तर पर दुबके हुए मुझे उसके पास ही कहीं होने कि थरथराहट महसूस होती. एकाध बार तो यह तक हुआ की वह तारीख इतनी करीब जान पड़ी कि एकबारगी लगा कि अगर चाहूँ तो दोबारा उसमें प्रवेश कर सकता हूँ, कि अगर थोड़ी मेहनत करूं तो उसे अपने पीछे से उठा कर अपने आगे रख सकता हूँ. फिर एक समय आया जब वह तारीख बेआवाज़ पीछे सरकने लगी और यही नहीं, उसके और मेरे बीच कई जीवन और कई मौतें आकर खड़ी हो गयीं. वह इतनी ओझल हो गई कि जैसे कभी थी ही नहीं. और ठीक उसी क्षण मुझे महसूस हुआ कि मैं किसी ख़ास तारीख को पैदा नहीं हुआ था. मैं हमेशा से ही ब्रह्माण्ड के इस कोने में मौजूद था, कि पंचतत्वों ने मुझे नहीं, उस तारीख को गढ़ा था जो कितने सारे दिनों तक मुझसे चिपकी रही और तब जाकर फूल में, हवा में, आग, पानी और आकाश की नीलाई में विलीन हुई है.

January 4, 1960

There was a time when the fourth of January nineteen sixty was very near. If I wanted to, I could reach out and touch it. At play in the park, or staring at the blackboard in class, or curled up in bed at night, I could feel it throbbing somewhere near. Once or twice, it felt so close I could go back to it if I wanted, if I tried, I could pick it up from behind me and place it in front. Then came a time when that date started silently retreating, and the distance between us was filled with many lives and many deaths. Then it disappeared completely, as if it had never existed. At that moment I realized I wasn’t born on any particular date. I had always existed in this corner of the universe. The five elements made, not me, but that date which clung to me for so long before dissolving into flowers, into air, into fire, water, sky.

(हिन्दी में यह कवितायें पहली बार बहुवचन १, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, संपादक: अशोक वाजपेयी एवं पीयूष दईया में प्रकाशित हुई थी.) (The original Hindi poems were first published in Bahuvachan 1, eds. Ashok Vajpeyi and Piyush Daiya, Mahatma Gandhi Antarashtriya Hindi Vishwavidyalaya, New Delhi/Wardha).

6 comments
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  1. poems are good.

  2. उदयन वाजपई की गद्य कवितायें, अदभुत हैं. बस इतना ही

  3. poems seems to penetrate through the reflections of the world.

  4. As Waves come with water and flames with fire so the universal waves with us

    The mystery is unfolding in you keep it , hold it, dissiminate it
    love

  5. वाजपयी जी की कविताए बहुत ही ख़ूबसूरत है, और राहुल जी का TRANSLATION बहुत ही खूब|

  6. Udayan Vajpeyi ji adbhut likhte hain.

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