आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

स्वर्ग के द्वार पर लाल चींटियाँ: अनिरुद्ध उमट

ani-full.jpg

अब बचे रह पाना असंभव था.

किसी का भी.

खुद मेरा भी और उसका भी जो मेरी घात में लगा रहता था. इतनी राहत मेरे आसपास थी कि मैंने पहली आधी रात को चांद को पृथ्वी के इतनी नजदीक देखा….लगभग छू लेने की दूरी तक. अगले दिन जब यह पता चला कि वाकई चांद उस रात पृथ्वी के बहुत ही नजदीक चला आया था, तो मैं रात की अपनी अनुभूति को याद करने लगा. और उस नजदीकी का अर्थ लगाने-निकालने लगा और हमेशा की तरह हिसाब-किताब में डूब कर बाहर निकलने को तड़पने लगा.

सच कहूं तो उस रात एकबारगी मुझे तो यह भी लगा था जैसे चांद की नजर मेरे कानों पर थी, और किसी भी क्षण उसके चेहरे पर दो होंट उभरने लग सकते थे. अब अफसोसहो रहा है कि मैंने किस कारण से रात और अधिक चांद के नीचे खड़े रहने की बजाय बिस्तर पर जाना ज्यादा उचित समझा था. उसके बाद से आज तक अब मुझे चांद निरन्तर दूर और दूर जाता महसूस होता है. मैं सबसे क्षीण चमक वाले तारे को देख सोचता हूं किसी दिन चांद ऐसा हो जाएगा. और उस हो जाने में समूची पृथ्वी पर एक अकेला गुनहगार मैं होऊंगा.

क्या यही मेरी नियति है कि हर बार किसी न किसी रूप में कोई क्षण मेरे इतनी नजदीक आता है कुछ कहना चाहता.

है फिर मेरी उदासीनता देख वह अपने अंधेरे में डूबने लगता है.

और मैं हर बार सही क्षण की पहचान के धुंधलके में खो जाता हूं. घिर जाता हूं.

तब मुझे उसका कहा याद आता है कि उस क्षण सोचो बिल्कुल नहीं, वैसा जैसा कि तुम सोचते हो, बल्कि वैसा सोचो जैसा वह सोचता है.

वह जो कुछ कहता है उसे कहने दो, खुद को भूल जाओ कि तुम सुन रहे हो, उसे भी भूल जाओ कि वह कुछ कह रहा है. बाद में चाहे तो डायरी में अपना अनुभव लिख लो- और तब भी यही महसूस करो कि तुम नहीं कोई और लिख रहा है, और जब लगे कि कोई और लिख रहा है तो महसूस करो कि वह कोई और नहीं तुम ही हो. यूं यदि वह बरी नहीं होगा तो तुम भी बरी नहीं होओगे. एक हथकड़ी में दोनों के हाथ होंगे- एक दूसरे को खींचते रहोगे.

मैंने उसके इस सुझाव को सुना और अगली ही रात जब छत पर गया तो वहां वह पहले से ही मौजूद था.

मुझे देख वह हंसने लगा. उस हंसी में तरल अंधेरे की ठंडी चमक थी.

मैं भी मुस्कुराया. मेरी मुस्कान में सिर्फ अंधेरा था जिसमें न तरलता थी न ठंडी चमक.

मैं अधिक देर तक वहां खड़ा नहीं रह सका. मैं बिस्तर की ओर मुड़ा तो वह उबासी लेता आंखों पर हथेलियां रगड़ता

खुद से ही कह रहा था, ‘मुझे भी नींद आ रही है.’

मैं एक झटके से उसकी ओर मुड़ा और उसे पीछे से धकेलता बिस्तर तक ले गया.

‘लो मरो.’

वह बिस्तर पर औंधा पड़ा था. उसक सिर पर मेरे दोनों हाथों का दबाव था. उसका चेहरा तकिये में धंसा जा रहा था. मैं अपनी पूरी ताकत लगाए जा रहा था. मेरी सांसें हांफने लगी- मेरी आवाज लड़खड़ाने लगी-मगर वह बिल्कुल निश्चेष्ट था. अविचल.

या तो वह नींदमें डूबा था या मर चुका था.

मैं दोनों ही बातों की परवाह किए बगैर कुर्सी पर बैठ गया और मेज पर सिर टिका दिया. शायद वह सो गया है.

यह सोच मैं भी सोने लगा. मेरी आंखों में नींद लहरा रही थी जिसमें वह दम तोड़ता दीख रहा था

****

प्रिय…

रात मैं सो न सका. इस वजह से मेरा बदन टूट रहा है. मगर तुम्हारा पत्र आए इतने दिन हो गए हैं

कि जवाब के इन्तजार में तुम आइन्दा मुझे पत्र न लिखने के लिए खुद को समझा रही, बटोर रही, कस रही होगी यही सोच किसी तरह थकान को भुला तुम्हें लिखने बैठ गया हूं.

मेरे सपनों को लेकर तुम इतनी परेशान हो, यह जान मुझे बहुत चिन्ता और दुख हो रहा है. इस बार के तुम्हारे पत्र में तो चिन्ता का स्थान आशंका ने ले लिया है. तुम्हारे पत्र की आशंका-भय से मैं खुद के बारे में अनुमान लगा रहा हूं.

तुमने लिखा कि जो कुछ मुझे लगता है वह मैं बगैर यह चिन्ता किए कि कोई इसे पढ़ रहा है या कि पढ़ेगा, बस लिखता चला जाऊं और तुम्हें भेज दूं, भेजता रहूँ.

मेरी जान, मैंने यह करने की बहुत कोशिश की. कई बार लिखने बैठा, मगर कुछ ही देर बाद लगने लगता जेसे यह वह नहीं जो मेरे भीतर चल रहा था. जो मैं सोच रहा था. यह तो मैं कुछ और ही लिखने लगा हूँ . बस्स. फिर वही मौन.

..रुकावट…थकान…निराशा…संशय…भय.

फिर तुमने यह सुझाया कि मैं यह बात ही दिमाग से निकाल दूं कि मैं तुम्हारे लिए लिख रहा हूँ . बस यही सोच लिखने बैठ जाऊं कि मैं तो वह बात पहले ही पढ़ चुकी हूँ , तुम चाहे लिखो या न लिखो. मगर इससे भी मुझे कोई राहत नहीं मिली.

सच कहूं तो मैं पिछले लंबे अर्से से तुमसे छल करता रहा हूँ. किसी न किसी रूप में. कि हाँ, इस बार नई शक्ल में लिख रहा हूँ. हद तो तब हो गई जब इन दिनों मैंने महसूस किया कि यह मेरी आदत में तब्दील होता जा रहा है.

आशा है यह सब सुझाते तुम मुझे पागल या बीमार नहीं मान रही हो. यह बात और है कि पागल और बीमार के फर्क को इस वक्त मैं समझ नहीं पा रहा हूँ.

मैं इन दिनों सबस से झूठ बोलता हूँ. सब कुछ झूठ. मैं जो कुछ नहीं करता, नहीं देखता वही दिन में सबको बताता रहता हूँ और मुझे यह देख दुखद हैरानी होती है कि किसी को भी मेरी बात पर कोई शंका-संशय नहीं होता.

इस वक्त इसलिए तुम्हें पत्र लिखते वक्त मेरी आत्मा कांप रही है कि कहीं तुम मेरी बात को झूठ न मान लो.

कि मेरी बात को हूबहू तुम सच न मान लो.

मैं चाहता हूँ न तो तुम मुझे आकंठ झूठ में डूबा समझो न ही मेरी बात में पारदर्शी सच्चाई ढूंढो.

मैं तुमसे पीछा नहीं छुड़ाना चाहता मगर मैं यह भी नहीं कह सकता कि तुम्हारे पूरे अहसास के बगैर मै रह लूंगा.

शायद मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे साथ यूं रहो जैसे मैं खुद के साथ आधा-अधूरा रहता हूँ .

तुम यदि कुछ कर सकती हो मेरे लिए तो यही कि अपना विश्वास मुझसे टूटने न दो.

पता नहीं यह पत्र है या फिर किसी पलायन का खुलता मुंह. यदि यह पत्र तुम तक पहुंच जाए तो….खैर छोड़ो.

अभी यह पोस्ट कहां हुआ है?

अब मेरी पलकों पर नींद के भारी…गर्म….ठंडे पत्थर गिर रहे हैं.

****

मैं शायद सो गया था. नींद किसी चट्टान की तरह मेरी देह पर थी जिसके नीचे मैं दबा पड़ा था.

शाम को करीब छह बजे मेरी ऑंख खुली. और मुझे खुद को कस कर पकड़ाना पड़ा. अपने भीतर के इतने हल्केपन से मैं डर गया था. लगा यदि खुद को कस कर नहीं पकड़ा-जकड़ा तो उड़ जाऊंगा. कमरे में हर चीज या तो औंधी पड़ी थी या उड़ रही थी. मेज पर पानी का गिलास गिरा पड़ा था…. सारे कागज गीले हो चुके थे. अचानक मुझे पत्र का ख्याल आया. मैंने खुद को कसना छोड़ा और उड़ता सा मेज तक पहुंचा. कहीं वह पत्र न भीग गया हो, बड़ी मुश्किल से लिखा था. अगर इस बार पोस्ट न हुआ तो फिर लंबा अंतराल जम जाएगा.

मेज पर सारे सफेद कागज भीग चुके थे.

वह पत्र कहीं नहीं था.

मैं बहुत देर तक कुर्सी पर बैठा उसे ढूंढता रहा, हाथों में हरकत कम, नजरों में बेचैनी ज्यादा थी.

केवल सामने रैक में घड़ी के नीचे उसका अन्तर्देशीय दबाया पड़ा था. जिसे मैंने पिछले सप्ताह आने के बाद से खोला नहीं था. यही सोच कर कि उसके भीतर क्या लिखा है यह मैं जानता हूँ , यही सोच कर मैंने दिन में उसे पत्र लिखा था कि….मेरी आँख लग गयी.

अब वह पत्र उन गीले कागजों में कहीं नहीं दीख रहा था.

मैं कुर्सी पर पूरी तरह लुटा पिटा खुद को देख रहा था. खुद पर शर्म भी आ रही थी. मैंने जबकि कभी नहीं चाहा था कि कोई भी मुझे या खुद मैं भी खुद को यूं देखूं कि शर्म आने लगे. हिकारत होने लगे.

सामने घड़ी के नीचे तुम्हारे पत्र को देख मेरी रुलाई फूटने लगी.

****

मैं पूरी शाम आज कहीं नहीं गया. घर में ही रहा. घर में भी कुर्सी पर ही. कमरे में अन्धेरा बढ़ने लगा था. रह रह कर मेरी देह पर खुजली की सनसनाहट मुझे बेचैन कर रही थी.

आखिर मुझसे और रहा नहीं गया. तुम्हारा पत्र ले कर मैं छत पर आ गया. आज भी चॉंद उतना ही चमक रहा था. पास शायद उतना न था. देख भी आज कुछ अलग ही अन्दाज से रहा था. जैसे कुछ कहने के लिए उस पर होंट नहीं हिलने वाले बल्कि कुछ सुनने के लिए उस पर कान चौकन्ने होने वाले हैं…शायद दो अधखुली आंखें भी …जो कुछ पढ़ना चाहती हो.

यही सोच मैं तुम्हारा पत्र खोल रहा था.

****

प्रिय…

मैं तुम्हें मजबूर कभी नहीं करना चाहती. मगर यह बेचैनी तुम्हारी थी कि तुम मुझे कुछ बताना..कहना चाहते थे. मैं फिर कहती हूँ तुम मुझे भूल जाओ और मुझे बताओ. अब बस इतना ही कहने के लिए यह पत्र लिखा है. इस आशा में कि किसी दिन तुम, किसी भी दिन, तुम केवल मुझसे साझा करोगे. यदि तुम्हें मालूम हो कि वह क्या है जो तुम साझा करना चाहते हो तब भी…और तब भी जब कि तुम्हें मालूम न हो कि तुम मुझसे क्या साझा करना चाहते हो.

हर तरह से होना एक जादू है. जैसे कि हर तरह से होना जादू नहीं भी है. इसलिए प्रतीक्षा और नाउम्मीदी दोनों में ही मैं तुम्होरे साथ भी हूँ और नहीं भी.

****

मैं छत पर खड़ा सबसे धुंधला तारा ढूंढ रहा था.

****

धुंधलका मेरी प्रकृति के सबसे नजदीक की कोई अनिवार्य नियति थी … है.

पिता कहते थे कि कुछ भी कहो, लिखो तो पहले ही शब्द से नाकेबन्दी कर दो. कील ठोक दो. कोई है जो इस इलाज के अलावा किसी भी तरह काबू में नहीं आने वाला. वह दुश्मन है या सगा… इससे फर्क नहीं पड़ता. ऐसा कील ठोको कि वह बिलबिला उठे और अपने जख्म तक उसकी जबान न पहुंच सके. उसे अपने वश में कर लो. वशीकरण के बाकी सभी मंत्र यन्त्र व्यर्थ है.

मगर मेरा मानना कुछ और ही था, मानना भी क्या था बल्कि मेरे लिए कोई भी कील एक हीबार में सही जगह ठोक देना असंभव था. यहां तो पहली कील मैं खुद में ही उतरते महसूस करता था. मैं कील हाथ में लिए उस जगह तक अगर किसी तरह पहुंच भी जाता तो मन में यह ख्याल उठता कि कील ठोक देना आखिरी तरीका है. इसमें नया क्या है ? मुझमें औरों में फिर फर्क ही क्या है ? कील हाथ में हो सामने की जगह में उसकी सिहरन फूटने लगे यह कहीं ज्यादा बुनियादी सफलता है. इस बुनियादी सफलता के मौलिक सम्मोहन में यदाकदा झूमता-झूलता भी रहता.

मगर उधर मेरे खंड खंड व्यक्तित्व की एक व्यथा कथा और भी थी. जब में कुछ कह लेता तो अस्पष्ट स्वरों का कोहराम हैरान परेशान किए रहता कि जो मैं कहता हूँ वह मेरे जिए गए से सर्वथा भिन्न… विपरीत होता है. भयावह अन्तर का ऐसा पाट जिसे मैं किसी भी दलील से भर नहीं पाता था.

तब या तो यह डायरी मुझे अपने में पनाह देती या वे पत्र जो मैं लिखते न लिखते जीता रहता था, जिनकी अदृश्य निरंतरता से मेरा खंड खंड व्यक्तित्व किसी तरह निर्णायक टूटन से बचा रहता था.

मैं झूठ और अवास्तविक के बीच की थकी…लगभग निरुद्देश्य आवाजाही में जागता… ऊंघता रहता.

सबसे धुंधले … कंपकंपाते तारे की तरह.

****

कितनी डायरियां मैंने रख छोड़ी है. जिसे भी खोलता हूँ वह एक ही साथ में बिल्कुल अनछुई और नितान्त पुरानी. ..बासी लगने लगती है. हरेक के पहले ही पन्ने पर कील की जगह कील ठुक जारने की सिहरन होती है. पहले पन्ने की इबारत में यह आकांक्षा फन उठाए दीखती है कि उसका जहर किसी भी अमृत को नहीं बचे रहने देगा. सब कुछ पर उसका नीलापन…ठंडापन छा जाएगा. मगर दो-चार पन्नों के बाद ही वह जहर का तीर… वह लपलपाहट दम तोड़ती दीखती.

आगे सारे पन्नों पर चौंधियाती चमक का बंजर होता है.

कितने ही फरिश्तों, शैतानों की दी हुई डायरियां अपनी नियति की निरीहता में पहले क्षण में ही अंतिम सांसे गिनने को यहां विवश है.

दम तोड़ रही है, तोड़ नहीं पा रही है.

हर डायरी के पहले ही पन्ने पर इबारत लिखे जाने से पूर्व छल…छद्म की रेत उड़ने लगती है और डायरी का वह पन्ना किसी मरुस्थल की तरह तपने…तड़पने लगता है. कहीं कोई दिलासा की नमी नहीं, हर जगह .. हर क्षण मृग तृष्णा की चमक हर कुछ को लीलती रहती है.

****

प्रिय ..

मुझे समझ नहीं आता कि तुम हो क्या ? कभी तो तुम ठंडे-मीठे जल से लबालब कुंए से लगते हो जिसमें से यदि जल को नहीं खींचा गया तो वह उफन कर बाहर आ जाएगा और जब उसे खींचने के लिए पात्र भीतर उतारते हैं तो वह भीतर और भीतर उतरता जाता है.

तुम एक साथ भरे हुए…उफनते हुए और खाली…खोखले कैसे रह लेते हो ? तुम्हें हो क्या गया है ? एक बार क्यों नहीं अंतिम स्तर पर की गई कार्यवाही की तरह खुद को रोक लेते.

मैं अब और अधिक इंतजार नहीं कर सकती.

मुझे तत्काल अपने निर्णय से अवगत कराओ. वर्ना इसे मेरा अंतिम पत्र समझो. यह और बात है कि इसके साथ ही तुम्हारे अन्तहीन पत्रों का विलाप…जिरह शुरू हो जाएगी और तुम इससे भी भली भांति परिचित हो कि तुम्हारी उस तरह की किसी बात का मुझ पर असर नहीं होगा. और मेरे लिए यह बहुत दुखद होगा. क्या तुम यह चाहते हो कि मुझ पर तुम्हारी किसी बात का कोई असर न हो ?

कहीं तुम यही तो नहीं चाहते ?

****

आज तुम्हारा पत्र मिला. और मैं हमेशा की तरह उसका जवाब लिखने बैठ जाने की बजाय उससे बचने के रास्ते ढूंढ़ता इस डायरी के चौथे पन्ने पर आ गिरा हूँ . मगर यहां भी मैं किसी मुजरिम सा ही दीख रहा हूँ. कहीं मेरी हर डायरी, आधी-अधूरी सी… पत्र ही तो नहीं ! यह सोच और भी अजीब लगता है कि कहीं मेरा हर पत्र डायरी के आधे-अधूरे पन्ने तो नहीं !

क्या मेरे भीतर कभी कोई किस्सागो था. अगर था तो बिल्कुल गूंगा, आधा पागल रहा होगा. जिसे सुनाई सब कुछ ठीक ठाक देता रहा हो मगर जिसका कहा बोतल में बन्द मक्खी सा इधर-उधर टकराता, दम तोड़ता रहा है. मुझे बाहर निकलने में कितना वक्त लगेगा. कौन इस बोतल का ढक्कन खोलेगा. मुझे ही खुद को ढो कर, घसीट कर कहीं जाना होगा.

मगर मैं किसी भी तरह खुद को किस्सागो कहे जाने, माने जाने के सख्त खिलाफ हूँ . इसमें जितना पीड़, उपहास है उतनी तो गूंगे रह जाने में भी नहीं. मैं गूंगा रहूँ और वह सब कुछ सुन ले शायद मैं ठीक-ठीक यही चाहता हूँ .

तुम बोलते बहुत हो.

बस किसी तरह तुम या कोई भी यह न कहे. कोई और चलो भले ही कह ले तुम न कहो. इतनी सी जमानत पर संभव है पुराने सारे पुल…सारे मार्ग ढह- बह जाएं.

मेरे सिर में दाहिने तरफ कील की तरह ऐसे में दर्द की देह खड़ी होने लगती है. अभी भी वह भीतर खिंच रहा है, ठुक रहा है…उसकी तीखी नोक के आगे मेरा क्या हो दबा जा रहा है…भागा जा रहा है. कहीं यह कील मेरे सिर के आरपार दाहिने से बाएं न निकल जाए. वह निकलती नहीं है केवल इसका भय दिखाती है. वह भय जानलेवा होता है. जैसे ठहरे पानी पर कोई हरी परत छा गयी हो. यह हिलती है तो भीतर गंध और ठंड भिनभिनाने लगती है. और मैं बदहवास सा दोनों हाथों से इस भिनभिनाहट को परे करने की कोशिश में थक कर चूर हो जाता हूँ. मेरे निढाल हो चूर होने में किसी टूटे आईने में दीखती धुंधली, अन्तहीन विभक्त छवियॉं बेचैन सी दिखती-मिटती सी कोई लुकाछिपी का खेल या षड़यंत्र-सा लगता है.

सब में एक चेहरा मगर कहीं भी वह एक चेहरा नहीं.

वह मृत सा लगता या मैं मृतप्राय खुद को दीखने लगता.

****

किसी भी ढहे दबे पुल या जर्जर विस्मृत मार्ग पर पिता की एक ही छवि दीखती है, दीखती थी. पिता में और पुलों में, मार्ग में कुछ फर्क नहीं रहा, न था. वे अनथक, आजीवन कहीं से आते कहीं को जाते रहते. वे लीला पुरुष थे या क्या थे इसे मैं आज तक समझ नहीं सका. अब जब भी चलते हुए अपनी छाया देखता हूँ तो वे झांकते-खीजते से लगते हैं जैसे वे महसूस कर रहे हों कि उनकी समाई मुझमें संभव नहीं है इसलिए उन्हें बाहर आ जाना पड़ा है… छाया की तरह.

उनकी देह का शायद ही कोई ऐसा हिस्सा रहा हो जो मेरे बचपन, मेरे होने के स्पर्श से वंचित या अछूता रहा हो. मगर इतनी सम्पृक्ति की चरमावस्था तक पहुंचने की अंतिम सीढ़ी पर वे हमेशा धक्का देते थे या खुद छलांग लगा लेते थे. वे सिर्फ बीच की सीढ़ियों में साथ रहना या रखना पसन्द करते थे. बीच की सीढ़ी भी क्या ? अपनी अत्यन्त क्रूर व्यस्तता में उनकी देह घर में समाती न थी और घर फटने लगता. दरकने लगता. उनकी देह में प्रतिक्षण व्यस्त रहने का भूचाल आया रहता और वे अपनी नियत जगह रखी चीजों को अनियत कर पुनः नियत पर स्थापित करते. वे इस नियत और अनियत के मध्य बेतहाशा भागते… उनके लिए पृथ्वी बहुत छोटी जगह थी आरैर पृथ्वी पर रहने वाले लोग अत्यन्त क्षुद्र. उनकी पूरी देह अपनी तांबई चमक में पृथ्वी को भींच डालती. जब वे ऐसा न कर पाते हो सीधे सूर्य से मुखातिब हो जाते और तब देखने वाले को सूर्य और उनके सिवाय कुछ दिखायी न देता. उनके होने की चकाचौंध होती, जिसमें देखने वाले का अस्तित्व विलीन हो जाता या भस्म हो जाता.

अपनी शान्त प्रचंडता में वे रामचरित मानस को गूंथते-मथते या अखबार को रौंदने लगते. मानस पर फिर भी उनका रहम हो आता मगर अखबार पूरे दिन उनकी देह के साए में छिन्न भिन्न होता रहता.

सुबह पहले पहल वे अपने गले से जूझते. मानो बीती रात का या दिन का कुछ अप्रिय शब्द या लगभग कह चुकने की देहरी पर आ ठिठका रह गया शब्द या इन दोनों से परे कोई भीतर भीतर ही भ्रूणावस्था में ही दम तोड़ चुका शब्द या. … या…वे इन सबे दबी छुपी जगहों, खन्दकों, दरारों में से निकाल देना चाहते थे. वे रात के अंतिम अंधेरे में उठते और पूरे घर में उनकी हलचल होने लगती. उन्हें शायद रात और दिन में यह समय सर्वाधिक अपना लगता. उनकी स्वायत्तता का निविड़. उस वक्त वे अपने होने को खुला छोड़ देते जैसे शेर को पिंजरे से कुछ देर के लिए बाहर विचरने को छोड़ दिया गया हो. उनका होना उनके आगे आगे कभी इतराता कभी सम्मोहित करता, खुद पर मुग्ध होता उन्हें विचित्र किस्म की ओजस्विता से, प्रखरता से, उनके आदिम होने की चरम सहजावस्था की अनुभूति कराता. उस वक्त वह उनसे भिड़ता- लिपटता, उनसे क्रीड़ा करता. वे उसके साथ जैसे किसी पूर्वाभ्यास में लीन रहते. हमारे कमरों में उनकी देह का भूचाल होता. पूरा घर कोई वाद्य होता जिसे सिर्फ वे ही बजा सकते थे. सब कुछ बहत बरसों का निर्धारित था, कहीं कोई उठापटक नहीं, तीव्रता नहीं, कोई फेरबदल कोई अव्यवस्थ कोई नियम विरुद्धता नहीं कोई असमंजस कोई संशय नहीं. शायद उनके जीवन का यह समय ही वह जगह होता जहां वे खुद को बिल्कुल वैसा और वहीं पाते जैसा वे सौ फीसदी चाहते रहे हों और दूसरी सब जगहों में संभव है कि कुछ उतार चढाव या रद्दोबदल हो गई हो मगर यहां… इस वक्त में कत्तई नहीं. यहां वे बरसों से योद्धा थे- अनथक, अविराम, अपराजेय, अविचल. उन पर कहीं कोई वार इन क्षणों में आज तक नहीं हुआ. सब कुछ उनके काबू में, सब कुछ उनकी इच्छानुसार सब कुछ पूर्व नियत. यहां इन क्षणों में रात और दिन भी अपनी संधीरेखा पर उनके होने की लय में ही ढलते मिलते थे. यहां वे नियंता होते थे, यहां वे होने की धुरी होते.

और पूरा घर उनके गले में से निकलती मरोड़ में कसमसाता, उनकी पूरी देह उनके गले के होने में सिमट आती.

गला कोई कुंआ होता जिनमें उनका हाथ हर उस चीज को निकालने उतरता जिसे वे निकालना चाहते थे. एक व्यक्ति तब दूर से अपनी पूरी देह में अंधेरे में कुंआ सरीखा बन गूंजने लगता. जिसमें वे तांबे के लोटे से पानी उंडेलते और गड़गड़ाने लगते. पानी और अंधेरा उनके गले में एकमेक हो डूबने उतरने उफनने लगते, जब वे अपना होना भूल जाते यानी पानी, पानी न रहता और अंधेरा, अंधेरा न रहता तब वे एक भरपूर झटके-गर्जन से उस मंथन को भरपूर सांस से थूक देते. गले की दीवारें इस मंथन क्रिया से तपने लगती, हिलने लगती, उसकी नसें किसी प्रकाश से तपने लगती.

सामने अंधेरे में पानी और पानी में अंधेरा दम तोड़ रहा होता दूसरी तरफ वे पूरी हथेली गले में डाल जीभ की अंतिम ढलान तक अंगुलियों को ले जाते और उन्हें चिमटी बना कुछ पकड़ने की कोशिश करते. तब उनकी पुतलियॉं सफेद दीखने लगती और आंखों से पानी बहने लगता. अंगुलियॉं अंधेरे में बेचैन होने लगती और उनके ऐन आगे कुछ चमकता-सिहरताण्सा होता जो और पीछे-पीछे खिसकता फिसलता जाता… तब कोई एक क्षण ऐसा होता जब घर में सन्नाटा सा छा जाता. लगता जैसे वे थक कर सो गए होंगे. पता नहीं तब हम भी क्यों ऐसे करवट बदल सांस लेने लगते जैसे वह इसी क्षण के लिए रोकी गई थी, रुकी, अटकी थी … तभी भयावह गड़गड़ाहट के साथ उनके गले से आवाज बाहर आने को अकुलाती. कोई कहता इसे छोड़ दो… मर जाएगा … इसे बाहर जाने दो … और वे रहम करते से उसे उसकी ऐन अंतिम सांस से पहले छोड़ देते. आंखों में आंसू होते और चेहरे पर ललाट पर गरदन पर पसीना. एक पूरा लोटा वे अपने चेहरे पर डाल लेते.

****

मैं एक विस्मृत सड़क पर चला गया था. अकेली और अपनी उदासी में तपती बिखरती सड़क. जिस पर चलते चलते एक सीमा बाद अहसास होता कि मैं सड़क पर नहीं बल्कि खुले मैदान में चल रहा हूं. वह सड़क और मैदान एक दूसरे में खोए थे. मैं उनमें खोता फिर बाहर आ गिरता तब खुद पर झुके मुझ को सड़क सूनी आंखों से देखने लगती. इसी सड़क पर कभी मैं अपने पिता के साथ दातुन करता साथ चलता था… वे सुबह की सैर के नाम सैर तो न्यूनतम करते बल्कि उनके पैरों में किसी परेड की सी झलक अधिक दिखायी देती थी. चाहते रहे थे कि सैर के वक्त मैं उन्हें देखूं और सीखूं कि कैसे पैर से पैर मिला कर अनुशासित पदचाप के साथ एकाग्र हो चला जाता है. कैसे इससे हमारा भटकता मन, ध्यान नियंत्रण में रहता है. इसी एकाग्रता से, नियंत्रण से तब हम सही अर्थो में दातुन कर पाते हैं. हमें बीच में अधिक समय नहीं रहना चाहिए बल्कि दांतों को दातुन के हवाले या दातुन को दांतों के हवाले कर देना चाहिए. फिर हमें देखना चाहिए कि वे किस कर्मठता, संलग्नता, निष्ठा से एक दूसरे के प्रति अपना धर्म निबाहते हैं.

उस सड़क पर मैं था.

लगा जैसे पिता अपनी परेडनुमा सैर में मगन कहीं बहुत दूर निकल गए हैं और यह भूल गए हैं कि उनके साथ मैं भी था. पहले ऐसा होने पर मैं अपनी चहलकदमी को दौड़ने में तब्दील कर उन तक पहुंच जाता था और पास आते ही यूं चलने लगता जैसे यूं ही चलता आ रहा हूं, पीछे से ही.

वे पीछे नहीं देखते थे.

मैं बहुत देर तक आगे देख कर नही ंचल सकता था. मुझे थोड़ी-थोड़ी देर बाद पीछे देखने की तड़प उठती कि देखें कितनी दूर आ गए हैं… कितना पीछे छूट गया है.

तब भी मैं पीछे छूट गए और आगे बचे का सही सही अनुमान नहीं लगा पाता था… आज तो बिल्कुल ही नहीं.

आज तो….

जहां खड़ा हूं वहां से न आगे बढ़ पा रहा हूं न पीछे जा पा रहा हूं. शाम का ठिठका अंधेरा अब जम चुका है.

मैं उस जमने में कहीं धंस गया हूं. सड़क और मैदान की जगह अंधेरे का पसारा दीखता है.

दूर से यह दृश्य कैसा दीखता होगा ?

यदि पिता कहीं छिप कर देख रहे होंगे (जब कि उन्हें छिप कर देखने की आदत बिल्कुल न थी और मुझ में तब से अब तक कुछ भी स्पष्टतः खुल कर देखने की हिम्मत नहीं है) तो उन्हें मैं अंधेरे में डूबे सड़क और मैदान के गाढ़े तरल में किसी ढीठ ठूंठ सा खड़ा दीख रहा होऊंगा.

मैं ठूंठ सा खड़ा था और मेरे सिर पर चन्द्रमा किसी नन्हीं चिड़िया सा फुदकता आ बैठा था. पहले तो कुछ देर मैंने यह सोच कर सांस भी रोके रखी कि कहीं सांस की हलचल से आवागमन से यह उड़ न जाए … इसकी सांसें हड़बड़ा अपना मार्ग न भटक जाए…. फिर धीमे धीमे सांसों के काफिले को आगे-पीछे जाने की इजाजत किसी कुशल यातायात नियंत्रक की तरह देने लगा.

उनकी आवाजाही से जब मेरी देह सध गयी तो मैंने उसी सधाव की लय में उस चन्द्रमा ( या चिड़िया ) को अपनी हथेली में ले लिया. वह कोई ऐसा आईना था या चांदी का चमकता कोई ऐसा थाल जिसमें कभी तो चन्द्रमा रह जाता कभी केवल चिड़िया ….

और…. कभी चन्द्रमा की छाती में अपनी उड़ान में स्थिर चिड़िया…. मैंने इसी दृश्य को अपने भीतर उतारा और बाहर आ उसी सधाव से लय से पुनः चन्द्रमा को मेरे सिर के ऊपर थोड़ा सा ऊपर रख दिया… यूं कि झटका न लगे. यूं जैसे कोई दोना… कोई कागज की नाव धारा को सौंप दी जाए और धारा पहले तो कुछ संकोच कुछ व्यस्तता से परेशान दीखे फिर सहज रूप से समर्पण को स्वीकार ले और आगे बढ़ जाए.

****

प्रिय….

आज रात जब मैं नींद की खोज से सर्वथा बाहर कहीं किसी कोने में उकड़ू बैठा-धंसा था तब रात अपनी सारी काली कम्बलें झाड़-झाड़ कर मुझ पर नींद बरसाने की कोशिश कर रही थी या यह बता रही थी कि देखो मेरे पास तुम्हारी नींद नहीं है. ये रही मेरी खाली कम्बलें.

मैंने कहा कृपया इन कम्बलों को मुझ पर इतनी निर्ममता से न झाड़ो. बल्कि इन्हें यहां बिछा दो. और रात ने वे कम्बलें वहां बिछा दी. जिन पर मैं किसी ठूंठ सा सीधा गिरा. मुझ पर नींद की एक भी हरी भरी शाख नहीं थी कि जिसके पत्ते शोर करते.

रात ने कहा तुम इन काली कम्बलों पर दूर से स्वर्ग के द्वार के एक स्तम्भ की तरह चमक रहे हो.

मैं रात का चेहरा देखने लगा.

उसके चेहरे पर कोई मुस्कान थी.

मैंने कहा जरा यह देख कर मुझे बताओ इस स्तम्भ पर यदि यह चन्द्रमा भी रख दिया जाए जिसके बीचो बीच वह सफेद चिड़िया अपनी उड़ान में स्थिर हो गई है, तो कैसा लगेगा….।

तब रात ने कहा इसके लिए मैं उसे तुम्हारे घर का पता दूं ताकी वह वहां जा कर यह दृश्य देख सके, सो मैंने उसे तुम्हारे घर का पता दे दिया है.

वह कभी भी आ सकती है, दस्तक दे सकती है, शायद दस्तक न भी दे…. सीधी ही भीतर आ जाए. और तब वह दृश्य उसे दीखेगा. तुम उससे पूछना कि वह दृश्य कैसा लगता है.

वह रवाना हो चुकी है…।

****

प्रिय…

कल ही तुम्हारा पत्र मिला. शुक्र है तब तक रात ने कोई दस्तक मेरे दरवाजे पर नहीं दी. अब मैं उसका इंतजार कर रही हूं. तुमने मेरे घर का पता तो सही ही दिया ना उसे ? कहीं कोई दूसरा पता तो नहीं दे दिया. तुम ऐसा करोगे नहीं करते नहीं हो मगर कभी कभी हम से ऐसा हो जाता है.

मैं उसकी राह देख रही हूं. निश्चय ही उसके आने की भी आहट होगी… राह कुछ धुंधली ठंडी हो जाएगी. तभी मैं उसकी ओर लपक पड़ूंगी. मैं चन्द्रमा की छाती पर किसी मुस्कान सी स्थिर उड़ान में लीन उस सफेद चिड़िया को देखना….सहलाना चाहूंगी.

मैं तुम्हें यह भी बता दूं जेसे पेड़े की शाखें एक समय बाद अपने पुष्प…पत्ते… झाड़ने-त्यागने लगती है वैसे ही कुछ चीजें छोड़ देना चाहती हूं … जिनमें सबसे पहले सबसे प्रिय चीज ही छोड़ी जाती है. जबकि मैं तुमसे कहा करती थी कि स्वर्ग से भी सुन्दर होता है पत्र मिलने का सुख…। एक दोपहर जिसके आगे पीछे रात कोई सहारा न था मैंने अपनी सबसे प्रिय चीज तय करनी शुरू की… ( या तुम्हारी प्रिय चीज ) तब मुझे एक ही बार में पत्रों की याद आई. इससे पहले मुझे पता नहीं था

कि ये मेरी इतनी प्रिय चीज है. इनके त्यागने का ख्याल आने पर जो अजीब सी अनुभूति हुई वह कतई उदासी या दुख जैसी या विछोड जैसी नहीं थी. है न कुछ अजीब ! ( कुछ ही )

सो यह अच्छा ही है इस बार तुमने पत्र नहीं बल्कि कुछ ऐसा भेजा है जो हमारे पत्रों की दुनिया का अपनी धवल मुस्कान में कोई विदा का चिन्ह होगा. मुझे उसका इन्तजार है….।

****

प्रिय….

तुम्हारा पत्र मिला. मगर पत्र कम लग रहा था और विदा का चिन्ह अधिक. अभी तब मैंने चन्द्रमा को देखा तो सच उसमें उस सफेद चिड़िया की जगह खाली थी… जैसे वह उसका धंसाव ही उसकी जगह हो और अब वह जगह ही… खाली जगह मेरे लिए उड़ती चिड़िया होगी. चन्द्रमा ने अपना चेहरा मेरी ओर बढ़ा कर मुझे यकीन दिलाया कि वह चिड़िया तुम तक पहुंच चुकी है.

और रही पत्रों की बात … यह तुम कर सकती हो. मुझे अपने बारे में मालूम नहीं. यह कह कर जब मैं चन्द्रमा के चेहरे पर उस उड़ान की खाली जगह को देखता हूं तो मुझे वहां उदासी में डूबी, धंसी चिड़िया की थकी-पस्त उड़ान की कांपती स्मृति दिखायी देती है.

इससे आगे क्या कहा जाए. यह पत्र भी संभवतः उन अनगिनत पत्रों में जा मिलेगा जो कभी पोस्ट नहीं हुए… न होंगे. वे मगर होंगे.

****

उसी जगह सो गया हूं. या सोया खुद को दीख रहा हूं. सोने को देखते हुए महसूस हुआ जेसे मुझे कोई सपना आ रहा है, मैं खुद को सपना देखते देखने लगा. सपने में मेरा चेहरा रजाई के भीतर है जिसमें किसी गर्म सलांख सी सपने की कोई देह उठने लगती है और अलसाई सी चलने लगतीहै…ऊपर और ऊपर. वह इस तरह आती जा रही है कि यदि उसे थाम नल लिया गया तो वह मेरे शरीर में कहीं से भी फूट पड़ेगी…मैं उस जगह का अनुमान लगाने लगा… उसके फूट पड़ने से पहले की आहट या निशान ढूंढ़ने लगा… वह मुझे मेरे दाहिने कान के भीतर से पुकारती लगी. मैंने अपनी अपनी ठंडी अंगुलियां वहां उसकी खोज में रवाना कर दी. वे दोनों उस अन्जान आगत की अगुवानी को बेचैन भी थी और परेशान भी कि वह पहचानेंगी कैसे.

मगर यह संकट टल गया.

वह खुद ही आ कर उन अंगुलियों से लिपट गई. अब मैं अंगुलियों को बाहर लाने लगा तो वह लहराती गर्म देह भी उनके साथ कान के रास्ते बाहर आने लगी… आती गयी… तब मुझे दोनों हाथों की मदद लेनी पड़ी और मैं उसे दोनों हाथों से खींचने लगा. मैं खींचने में मगन होने लगा और भूल गया कि क्या खींच रहा हूं- बस इस खींचने में डूब गया… तभी मुझे झटका सा लगा जब मैंने देखा मेरे हाथ खींचते खींचते एकदम से एक झटके से हल्के हो गए हैं और हवा में झूल रहे हैं … खाली. तब पता चला कि जो खींचना था वह खींचा जा चुका था. वह मेरे सामने बिखरा था, उलझा था…गर्म धुंआ छोड़ रहा था.

‘तुमने तो मुझे पूरा ही खींच लिया ? यह देखो मेरा अंतिम सिरा यह मेरी पूंछ नहीं बल्कि मेरा मुंह है जो हर वक्त तुम्हारी रीढ़ के नीचे स्थित अमृतघट से अमृतपान करता रहता है… अब यह बाहर मुरझा जाएगा.’

यह सुन मेरे होश उड़ गए. मैं कांप रहा था. पथरा भी रहा था- तप रहा था और ठिठुर भी रहा था.

‘तो अब मैं क्या करूं ?’

‘तुम क्या कह रहे हो मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा … अमृतघट से बाहर मेरे होने का कोई अर्थ नहीं… तुम्हारी कोई पुकार मुझ तक नहीं पहुंच सकती.’

मैं बदहवास, लुटापिटा सा दोनों हाथों से उस बिखराव को फिर से कान में धंसाने लगा… मगर वह जरा भी भीतर नहीं जा पा रहा था… जैसे रूठ गया हो… आनाकानी कर रहा हो।

मैं कान में अंगुली डाल सुराख बड़ा करने की कोशिश करने लगा. मगर अंगुंलियों में अब वह पहले सी लपक-बिजली -बेचैनी नहीं थी उन्हें भीतर वह अंधेरा मार्ग दीख रहा था जिसे देख वे उलटे पांव पीछे आ रही थी.

तभी मुझे पिता की आवाज सुनायी दी दूर से गूंजती…सूनी सूनी- ÷कहां पीछे रह गए हो… जरा तेज कदम बढ़ाओ.

…घर नहीं चलना है ?’

मैं उनकी आवाज पर ( एक आवाज पर ) इस तरह कभी नहीं लपका. जिस तरह इस बार.

****

इस बार डायरी की ओर लपका नहीं हूं न ही ये मुझ पर झपटी है. इस बार मैं बिल्कुल खाली हूं. पहली बार मैंने इस तरह के खालीपन को महसूस किया है. यह खालीपन जब व्यापता है तब हर चीज में इसकी छाया मंडराती-पसरती जाती है. जब हम किसी भी चीज केपास जाते हैं तो वह पहले से ही इतनी हल्की हो चुकी होती है कि हमारा हल्कापन बाहर खड़ा इन्तजार नहीं करता रहता. सब कुछ का हल्कापन इस खालीपन को किसी हूक या टीस से बहुत दूर कर देता है. वहां तब सब कुछ हीएक ही क्रिया होती है… कैसे जो कुछ भी भारी-भारी सा ठहरा-अटका है उसे मुक्ति दिलायी जाए.

आज मैंने सफेद गुलदाऊदी का पौधा अपनी बालकनी में रखा.

फिर चांदी की गिलास में पानी जो मैंने कल चांदनी रात में छत पर रखा था उसे मेज पर रखा.

कुछ देर कमरे में अंधेरा किए रहा.

आंगन पर दरी बिछा बैठ गया और लंबी लंबी सांसे लेने लगा. छोड़ने लगा. कुछ देर बाद यह क्रिया करना भूल गया और मेरी पलकें भारी होने लगीं. मैं हथेलियों को रगड़ कर पलकों पर चेहरे पर फिराने लगा. उठ कर पहले ट्यूबलाइट ऑन की, मगर उसके तीखे प्रकाश में मैं असहज महसूस करने लगा तो उसे ऑफ कर बल्ब ऑन कर लिया. उसका पीला ठंडा पुराना सा प्रकाश बहुत आत्मीय राहत भरा लगा. तभी मेरी नजर इस डायरी पर गयी. बल्ब के पीले प्रकाश में इसकी देह उनींदी लग रही थी… जैसे कोई मित्र बहुत दिनों अपनी विस्मृति में रहने के बाद अनमना सा उठे और जाने क्या सोच फिर से लेट जाए. मैंने इसे खोला तो इसकी देह न मुझे देख रही थी न मैं इसे.

इसी डायरी में मैंने पिता की फटी तस्वीर का एक टुकड़ा रख छोड़ा था.

सो, सबसे पहले खोलते ही ये मुझे वही टुकड़ा सौंपने लगती है जैसे मैं इसी वजह से इस तक आया हूं.

उस टुकड़े को देखने की मेरी बिल्कुल भी इच्छा न थी न उस टुकड़े में अब तक न देखे जाने की कोई शिकायत या उदासी.

फिर भी मैंने उसे देखा. उसमें उनका चेहरा बहुत कम था. केवल कान और गलप दीख रहा था. उसके नीचे टुकड़ा सही सलामत था. नीचे उनकी मिलिट्री की दूकान से खरीदी हरी स्वेटर में ढकी छाती थी. वहां नजर जाते ही स्वेटर और उनकी छाती की गंध-गर्मास उठने लगी.

दिन में वे चाहे कितने ही कपड़े पहनते हों मगर रात सोते समय उनका स्पष्ट मानना था कि देह पर अधिक कपड़े नहीं होने चाहिए. नींद के लिए देह का ढीली होना जरूरी है. बंधी देह में नींद कसमसाती सी आती है… आधी-अधूरी.

सपनों की तो कौन कहे… बेचारे बाहर के बाहर रह जाते हैं और अपना झोला खोले बगैर ही लौट जाते हैं.

मां जब बिस्तर पर लेटते ही खर्राटे लेने लगती तब पिता कहते यह सोने की मुर्दावस्था है, इसमें किसी चीज की कोई सहजगति नहीं हो सकती, ऐसे लोगों की एक झटके से नींद टूट जाती है. तब सपनों की कौन कहे.

उनके लिए आप हैं न !

मां करवट बदलते उनकी बात को दूर ही रखते कहती.

अपनी उघड़ी छाती के बालों पर हल्के हल्के हाथ फिराते वे पहले बिस्तर की एक एक सिलवट को हटाते. तकिए को बिल्कुल बीच में रखते फिर रजाई को खोल बिस्तर पर यूं पसार देते जैसे उसके नीचे कोई सो रहा हो.

तब वे चोरों दिशाओं में नमस्कार करते बल्ब ऑफ करते और अनुमान से सीधे रजाई में प्रवेश करते. इस प्रवेश की पूरी लय में कभी कोई व्यवधान नहीं आ सकता था.

वे सीधे लेटते.

‘सो गयीं क्या ?’ कुछ देर बाद जब उनकी देह रजाई में खुद को फैला देती तब वे मॉं से पूछते…÷इतनी जल्दी तुम्हें नींद कैसे आ जाती है ?’

माँ और कोई बात चाहे सुने न सुने उसे उसकी नींद से संबंधित हर बात सुनायी दे जाती और वह तत्काल प्रतिकार करती…’अब किसी को आ जाती है तो क्या करें और किसी को नहीं आती तो हमारी इसमें क्या गलती.’

पिता तब कुछ नहीं बोलते.

माँ भी कुछ नहीं कहती.

दोनों की चुप्पी में रात का अन्धेरा नीचे उतरने लगता.

उसके दाब के नीचे पिता की धीमी सी आवाज आती मानो काफी हद तक तो खुद को ही कह रहे हों कुछ मात्रा में किसी अन्य को सना रहे हों. सुने तो ठीक न सुने तब भी ठीक. मगर सुन ले तो अधिक ठीक.

अन्धेरे में उनकी आवाज धीमे से यूं आजी मानो उसने अपने ऊपर के कपड़े धीमे धीमे हटाने शुरू किए हैं, अनुमान से उसे बिना किसी से टकराए आगे बढ़ना है… टहलना है. कोई सुने तो ठीक न सुने तो अपने सपने में या सपना रहित नींद में पड़ा रहे. यह ऐसा होता जैसे आज गायन के लिए कल के गायन को याद किया जा रहा हो… उसे ही रियाज माना जा रहा हो. जहां यह कल के गायन का स्मरण खत्म होगा वहीं से आज के गायन का सुर लग जाएगा.

कल की रात आज की रात के कानों में बता जाएगी कि बात कल कहां तक कही गयी थी.

कहां छूटी थी.

पिता की आवाज अन्धेरे में उठ रही थी, जगह बना रही थी वे इतनी धीमी आवाज में कह रहे थे कि उनके कान सुन सके और इस बीच यदि दूसरा सपना आ रहा हो तो उसकी आहट सुनते ही कल के सपने को झटपट डिबिया में बन्द कर दिया जाए.

पिता की आवाज में सपने का स्मरण

कल पहले तो काफी देर तक नींद ही नहीं आई. मैंने सोचा करवट बदलने से आ जाएगी, तकिया झाड़ने में आ जाएगी फिर देखा कहीं भूल से रजाई उलटी तो नहीं ओढ़ ली है…कहीं पांवों वाला हिस्सा ऊपर तो नहीं आ गया

मगर ऐसा तो कुछ भी नहीं था.

फिर याद आया कि अरे कल जो छत पर चांदी की गिलास में पानी रखा था वह तो भूल ही गया. किसी तरह अन्धेरे में ही उठा और उस गिलास तक पहुंचा. उसका चांदीपन उसकी ठंडी देह से महसूस हो रहा था जिसमें ठंडा पानी था. मैं घूंट-घूंट पी रहा था. फिर ठंडी गिलास की देह अपनी पलकों पर छुआने लगा.

तब सोया तो बड़ी शान्ति महसूस हुई.

और पता ही नहीं चला उस ठंडेपन में कब नींद ने सिर उठाया और देखा मैं ही हूं कोई अन्य नहीं, तो अपनी मुट्ठी में रखा आज की रात का सपना मेरी पलकों के आगे रख दिया.

पूरी पृथ्वी मुझे दीख रही थी जिस पर केवल हरे पीले खेतों का विस्तार था पसारा था और कोई वस्तु नहीं, कोई अन्य हलचल नहीं. मैंने ऐसी पृथ्वी पहले कभी देखी नहीं थी. तब मैं हवा में उड़ने लगा. ऊपर से पृथ्वी पर कुछ भी ऐसा न था जो इससे भिन्न हो. मैं इस विस्तार इस हरियाली को भरपूर दूर तक अंतिम सिरे तक देखना चाहता था

One comment
Leave a comment »

  1. anirudh umat,my friend,my collegue and a writer,in this story he talks about three things,prayasi,pita and the sunapan or akalapan of a man’s life,chand or nind se unki bahas,jadojahad kamal ke hai,pita ka sone ka tarika,pita ke sath pedal ghoomna,prayasi ke yad or us tak na pahunch pane ke ghootan,kamal ka likha hai,shayad esko acchi tarah se samajhane ke liyae mujhae gahrai se phir padhna padaga.i like it.

Leave Comment