आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

मिसकीनों का एहाता: नैयर मसूद

Art: Sunita

लिप्यान्तरण-नज़र अब्बास के साथ महेश वर्मा

र छोड़ते वक्त मेरी उम्र 22-24 की रही होगी. घर छोड़ने का सबब मेरे बाप का रवैया था. उन्हें शिकायत थी कि मेरी आदतें बिगड़ गर्इ हैं. अब सोचता हूँ तो उनकी शिकायत सही मालूम होती है और वो अपने तौर पर जो मेरी मसरूफियतों का सुराग़ लगाते रहते थे वो भी सही मालूम होता है. लेकिन उस वक़्त मुझको ये सब उनकी बहुत ज़्यादती नज़र आती थी जिसकी मैं अपनी मां से शिकायत करता रहता था. मुझको सबसे बड़ी शिकायत ये थी कि बाप को जब भी मेरी किसी नाशाद हरकत का पता चलता तो वो अंजान बनकर मुझसे पूछगछ शुरू करते और चाहते थे मैं खु़द कुबूल कर लूँ कि मैंने क्या किया है उस पूछगछ में बाद मरतबा बहुत देर लगती थी इसलिये कि वो बहुत दूर से बात शुरू करते थे और बीच बीच में गै़रमुतल्लिक बाते भी पूछते रहते थे. मुझको शुरू ही में अंदाज़ा हो जाता कि उनको पूरी बात मालूम हो चुकी है लेकिन मैं भी उनके सवालों का दो टूक जवाब नहीं देता था और बीच बीच में गै़रमुतल्लिक बातें छेड़ देता था. उस पर वो बहुत उलझते थे.

आखिर उनकी जिरहों का सामना करते करते मेरे आसाब जवाब देने लगे. एकदिन वो किसी बात पर पहले ही से गुस्से में थे उसके साथ ही उनके पास एक गुमनाम ख़त आया जिसमें मेरी किसी ताज़ा हरकत का बहुत तफ़सील से जि़क्र था. उस दिन गर्मी भी बहुत पड़ रही थी. मैं बाहर से जला भुना घर में दाखि़ल हुआ. उन्होंने मुझको देखते ही जिरह शुरू कर दी. पानी पीने का भी मौका नहीं दिया. उस दिन मेरा सर घूम गया. मैंने उनसे बदतमीज़ी से बात की और यहां तक कह दिया-

”जब आपको मालूम है तो इस नाटक की ज़रूरत क्या है ?

नाटक के लफ़ज पर वो गुस्से में थरथराने लगे. मुझको बहुत कुछ कहा और आखि़र में कहा-

”मेरी हक़ हलाल की कमार्इ तेरी आवारगियों के लिये नहीं है इससे अच्छा था कि तू इस घर में पैदा ही न हुआ होता. ”

मेरा भी दिमाग़ खराब हो गया-

”अब तो पैदा हो गया हूँ” मैंने कहा ”लेकिन इस घर के लिये आज से मरा जाता हूँ”

”ठीक है वो बोले ”हमारे लिये आज से तू मर गया. ”

मेरी मां सीधी सादी औरत थीं मेरे बाप से डरती थी और मेरे जि़ददी मिज़ाज से भी वाकिफ़ थी. उनकी आंखों से आंसू बहने लगे लेकिन वो कुछ बोल न सकीं. मैंने अपने दो एक जोड़े एक थैले में रखे और उसी वक़्त घर से निकल गया.

डयोढ़ी में अंधी नानी हमेशा की तरह चटार्इ पर बैठी छालिया काट रही थीं. मेरी चाप सुनकर बोलीं-

”ऐ भर्इया अभी आये और अभी चले ?

मैंने कोर्इ जवाब नहीं दिया और डयोढ़ी से बाहर निकल आया.

सीधा मुराद मियाँ के अडडे पर पहुँचा. वो जुआ खिलाते थे और उनसे मेरा मिलना जुलना मेरे बाप को ख़ास तौर पर नागवार होता था. उनके बाप मेरे बाप के दोस्त थे. उनको जुए की लत थी जिसमें उन्होंने अपनी सारी दौलत उड़ा दी थी. फिर उन्होंने कर्ज़ लेकर जुआ खेलना शुरू कर दिया और जब कर्ज हद से बढ़ गया तो एक दिन अफयून खाकर खुदकुशी कर ली. वो मेरे बाप के भी मकरूज़ थे. बाप को उनके हराम मौत मरने का भी अफसोस था. अपनी रकम डूबने का भी और सबसे ज़्यादा अफसोस इसका था कि उनकी हलाल की कमार्इ जुए में उड़ा दी गर्इ उन्हें ये भी मालूम हो गया था कि मुराद मियाँ जुए का अडडा चलाते हैं. इसलिये वो उनसे बहुत चिढ़ते थे लेकिन मुराद मियाँ बड़े फक्र से कहते थे कि उनके अब्बा ने जो पैसा जुआ खेलकर गंवाया है वो अब उसे जुआ खिलाकर वापस ला रहे हैं. उन्होंने मेरे बाप का कर्ज़ भी अदा करना चाहा था लेकिन बाप ने जुए की कमार्इ का एक पैसा भी लेना गवारा न किया और मुराद मियाँ को उनके बाप से भी ज़्यादा बुरा समझने लगे थे.

मैं उस वक्त मुराद मियाँ ही से मिलकर घर पहुँचा था. इतनी जल्दी मेरा फिर उनके पास जाना उनके समझने के लिये काफी था कि कोर्इ बात हो गर्इ है. उनको मेरे घर के हालात मालूम थे. इसलिये फौरन पूछा-

”बाप से लड़ बैठे हो ?”

मैंने जल्दी जल्दी सारी रूदाद सुना दी. ये भी बता दिया कि मैंने घर छोड़ दिया है. किसी दूसरे शहर जा रहा हूँ और कभी वापस नहीं आऊँगा.

”कभी नहीं ? मुराद मियाँ ने ताज्जुब से पूछा- ”और जाओगे कहाँ ? ”

”कहीं भी” मैंने कहा

”खाओगे कहां से ? ”

”कोर्इ भी काम कर लूंगा”

”भीक भी नहीं मिलेगी उन्होंने ने कहा ”काम मिलना कोर्इ आसान नहीं है और तुम्हें आता क्या है ? ”

”कुछ नहीं तो मज़दूरी करूंगा

”मज़दूरी ? मुराद मियाँ बोले ”तीन दिन में बोल जाओगे”

मुझे भी ख़याल आया कि मज़दूरी करना भीक मांगने से ज़्यादा मुशिकल है. आखि़र मैंने कहा- ”मुराद मियाँ आप ही कुछ बतार्इये”

”अच्छा पहले कुछ खा पी लो उन्होंने कहा. ”मुझको एक गिलास पानी पिलवाया. होटल से कुछ खाने को मंगवाया. देर के बाद जब मैं पंखे की हवा में सुस्ता रहा था वो मेरे पास आकर बैठे. दो एक इधर उधर की बातें की फिर बोले-

”हमारी राय ये है मियाँ कि अपने घर जाओ, आज नहीं तो दो दिन बाद सही. बाप को नाराज़ करके फल नहीं पाओगे.”

”वो मुझे पैदा करके पछता रहे हैं, कभी मुझसे सीधे मूँ बात नहीं की है, जो भी करता हूँ उनकी मर्जी के खिलाफ़ होता है, उन्होंने आज से मुझे मरा हुआ समझ लिया है. ”

”गुस्सा है उतर जायेगा. ”

”नहीं उतरेगा मैंने कहा ”और मेरा भी गुस्सा नहीं उतरेगा. ”

”अच्छा तो दो तीन दिन हमारे यहाँ रहो उसके बाद..

”मुराद मियाँ अब मैं इस शहर में नहीं रहूँगा”

”अरे मियाँ न रहना लेकिन हमें भी तो कुछ वक़्त चाहिये इतने में तुम्हारे लिये कोर्इ तरकीब निकाल लेंगे. ”

तीन चार दिन तक मैं अडडे के पिछले कमरे में रहा. दूसरे दिन मेरे मुहल्ले के कुछ आदमी मेरा अता पता पूछते मुराद मियाँ के पास पहुँचे. मेरा ख़याल था कि उन्हें मेरे बाप ने या मां ने भेजा होगा लेकिन वो मेरे निकल जाने की ख़बर सुनकर खु़द ही मुझे ढ़ूंढ़ने निकले थे और ये ख़बर भी उनको अंधी नानी से मिली थी. नानी हमारी कोर्इ नहीं थीं लेकिन घर के मामिलात में बहोत दख़ल देती थीं. ये सुनकर कि नानी ने मेरे चले जाने की ख़बर मोहल्ले में मशहूर कर दी है मुझे और भी गुस्सा आया.

मैं उन लोगों के सामने नहीं आया और मुराद मियाँ ने मेरे बारे में लाइल्मी ज़ाहिर करके उन्हें टाल दिया. चौथे रोज़ वो दिनभर गायब रहे अडडे के लड़कों ने मेरे लिये खाने वगैरह का इंतेज़ाम किया. रात होते वक़्त मुराद मियाँ कहीं से थके हारे वापस आये. आते ही बोले-

”तुम्हारा इंतेज़ाम कर दिया है, अभी कुछ दिन यहीं रहो फिर दूसरे शहर चले जाना.”

”आपके यहाँ रहूँगां तो छुप कहाँ सकूंगा ? मैंने कहा ”सब मुझे पूछते हुए आप ही के यहां आएंगे. ”

”अरे भार्इ हम अपने यहां रहने को कब कह रहे हैं, दूसरी जगह का इंतेज़ाम किया है”

”और खाऊँगा कहां से ? ”

मुझे ख़याल है कि ये सवाल तो मुराद मियाँ ने मुझसे किया था और मैंने उन्हीं से उसका जवाब मांगा था- मुराद मियाँ ने जवाब दिया-

”खाने का भी इंतेज़ाम हो गया है.

”मैं मुफ़्तखोरी नहीं करूँगा.

”जी हां, मुझे मालूम है, आजभर और मेरी हराम की कमार्इ खा लीजीये और रवाना हो जार्इये.”

कल से अपनी कमार्इ खार्इयेगा, पैसे ज़्यादा नहीं मिलेंगे बस दाल रोटी का खर्च चल जायेगा. ”

”मुराद मियाँ कुछ और बतार्इये, कहां रहना है ? क्या करना है ? ”

”अब इसको क्या पूछते हो ? घर छोड़ के निकले हो

फिर उन्होंने अडडे के एक लड़के को बुलाया उसको अलग ले जाकर देर तक कुछ समझाते रहे- फिर लड़का बाहर गया और ज़रा देर में वापस आकर बोला

”चलिये इक्का खड़ा है”

मुराद मियाँ ने मुझे गले से लगाया कहने लगे

”जाओ खु़दा हाफि़ज़, तुम्हारी ख़बर रक्खूंगा लेकिन मुलाकात नहीं हो सकेगी. ”

मैं कपड़ों का थैला लिये हुए बाहर निकला. एक मरियल घोड़े और ख़स्ताहाल कोचवान वाला इक्का जिस पर मोटा चदरा बंधा हुआ था दरवाज़े पर खड़ा था. बगैर पायदान के इक्के पर चढ़ने में लड़के ने मेरी मदद की फिर पर्दा हर तरफ़ से बराबर किया और कोचवान से बोला-”बचपन की मुहब्बत के पास पहुँचा देना अगर….

”जानता हूँ मुराद मियाँ ने समझा दिया है” फिर उसने घोड़े को दो तीन चाबुक मारे और इक्का एक झटका खाकर आगे बढ़ा.

मैं कुछ दूर तक बचपन की मुहब्बत के बारे में सोचता रहा. अजब नाम था. क्या वो कोर्इ औरत थी ? मुराद मियाँ की कोर्इ पुरानी माशूका ? अब वो कैसी होगी ? कहां रहती है, मुझे उसके पास क्यूँ भेजा जा रहा है, मेरा दिमाग़ उलझने लगा. लेकिन फिर इक्के के झटकों और घोड़े के गले की घंटियों की मुसलसल आवाज़ से मुझे नींद सी आने लगी कभी कभी कोचवान बीड़ी सुलगाता तो मेरी नाक में गंधक की लपट और बीड़ी के धुंएँ की तल्ख़ बू आती और मैं चौंक पड़ता मैं परदे के बाहर झांकना चाहता था लेकिन इस ख़याल से रूक जाता कि कहीं कोर्इ मुझे पहचान न ले हालांकि शहर में बहुत कम लोग मुझे पहचाने थे. मैंने पर्दे के अंदर ही से अंदाज़ा करने की कोशिश की कि मैं शहर के किन हिस्सों से गुज़र रहा हूँ लेकिन मुझें सिम्तों का अंदाज़ा नहीं हो रहा था. मैं जिस सिम्त का ख़याल करता इक्का उसी सिम्त जाता महसूस होता. कभी कभी ऐसा मालूम होता कि इक्का मेरे घर की सिम्त मुड़ रहा है फिर मुझे नींद आने लगी. इक्का अब जिस रास्ते पर जा रहा था उस पर बड़े बड़े खांचे थे. पै दर पै झटकों से मेरा बदन दुखने लगा लेकिन आखि़र वो रास्ता ख़त्म हुआ. इक्के वाले से एक पतली आवाज़ ने कहा-”बस रोक लो”

इक्का रूका उसी आवाज़ ने पर्दा उठाकर मुझसे कहा-

”उतर आओ”

मैं उतरा. इक्के पर सफ़र की आदत नहीं थी. बदन के कर्इ हिस्से सुन्न हो गये थे. उतरते ही लड़खड़ा गया. इक्के वाले ने मुझे संभाला. रात अच्छी ख़ासी आ गर्इ थी और हर तरफ़ अंधेरा-अंधेरा था. मैंने बोलने वाले पर नज़र डाली उसकी सूरत शक्त का पता नहीं चलता था लेकिन इतना मालूम होता था कि वो छोटे कद का कोर्इ मर्द था लेकिन उसकी आवाज़ औरतों की सी, बलके  बच्चों की सी थी. मैंने उसको सलाम किया जिसका जवाब उसने बड़े तपाक से दिया. मेरे पास कुछ पैसे पड़े थे मैंने जेब में हाथ डालते हुए इक्केवाले से पूछा-

”कितने ?

”किराया मुराद मियाँ ने दे दिया है” इक्केवाला परदे का चदरा खोल कर तह करते हुए बोला.

”आओ उस आदमी ने कहा और एक तरफ चल दिया. मैं भी उसके पीछे चला. इक्केवाले ने अवाज़ दी- ”ये लेते जाइये”

मैं मुड़ा वो तह किया हुआ चादर मेरी तरफ़ बढ़ा रहा था. मैंने कहा-

”ये मेरा नहीं है”

”मुराद मियाँ ने कहा था आप ही को दे दूँ”

मैंने अपने कपड़ों में ओढ़ने की कोर्इ चीज़ नहीं रक्खी थी. चदरा मुझे गनीमत मालूम हुआ. उस आदमी ने भी कहा-

”रख लो सबेरा होते ठंडक बढ़ जाती है”

उसके बाद वो एक दरवाज़े में दाखि़ल हो गया. कुछ देर बाद उसकी आवाज़ आर्इ-”आ जाओ”

अंदर मिटटी के तेल का चिराग़ जल रहा था जिसके एक तरफ़ कच्ची दफ़्ती और रंगीन कागजों का ढेर था. उसके करीब र्इंटों का चूल्हा था. चिराग़ की रौशनी में चेहरा देखकर मैंने उसे पहचान लिया. शहर के बाज़ारों में कर्इ बार मैंने उसे खुली हुर्इ सवारी पर कच्ची दफ़्ती और काग़ज़ों के अंबार कभी बांस की तीलियों के गडडे, कपड़े की पोटलियां और पारचे लादे देखा था. वो पुख़्ता उम्र का था लेकिन उसकी दाढ़ी मूछें नहीं निकली थीं बलिक भवों के बाल भी नहीं थे इसीलिये उसकी सूरत मुझे याद रह गर्इ थी. इसीलिये बचपन की मोहब्बत कहा जाता था. उसने बड़ी फुर्ती के साथ कच्चे फर्श पर कोर्इ चीज़ बिछार्इ उसके उपर मेरा बलके मुराद मियाँ का चदरा डाल दिया. सिरहाने मेरे कपड़ों का थैला रख दिया. फिर बोला-

”कल परसों तक चारपार्इ आ जायेगी”

”चारपार्इ की ज़रूरत नहीं, फर्श ही पर सोऊँगा. ”

”अच्छा मैं खाना लाता हूँ”

”खाना मुराद मियाँ के साथ खा लिया है”

वो कुछ देर तक अपने ठिकाने के बारे में बताता रहा. मैंने उसकी बातों को तवज्जो से नहीं सुना. मेरे दिमाग़ में आर्इंदा के ख़याल घूम रहे थे आखि़र वो उठ खड़ा हुआ-

”थक गये होंगे आराम कर लो, कल सबेरे काम मिल जायेगा”

क्या मुराद मियाँ मेरे बारे में सब कुछ बता चुके हैं. उसके जाने के बाद मैंने सोचा लेकिन जल्द ही मेरी आंखें नींद से बोझल होने लगीं. कुछ देर तक अजब बे सर पैर  की बातें जे़हन में आती रहीं और उसी में किसी वक़्त मुझे नींद आ गर्इ.

दूसरे दिन बहुत सवेरे मेरी आंख खुली. बचपन की मोहब्बत को देखा कि चूल्हे पर एक बड़े बर्तन में कुछ पका रहे हैं इतने सवेरे नाश्ता ? मैंने सोचा और फिर मैंने उसे पास से देखा उसकी उम्र मेरे अंदाज़ से ज़्यादा कोर्इ पचास पचपन साल की मालूम हुर्इ. फिर भी उसके चेहरे पर बचपन था.

”खू़ब सोए ? उसने कहा और कमरे के दूसरे दरवाज़े की तरफ़ इशारा किया.

”जाओ हाथ मूँ धो लो, कुछ खा पी लो फिर काम शुरू होगा.”

दरवाज़े के बाहर सेहन था. मैं उसके साथ सेहन में आया एक तरफ कुआँ था. उसके करीब गुसलख़ाना. बाद में मुझे मालूम हुआ कि इसे मिसकीनों का एहाता कहा जाता है. मेरे शहर में एहातों के  नाम पर बहुत से मुहल्ले थे और मैं करीब करीब सबसे वाकिफ़ था लेकिन मिसकीनों का एहाता मैंने नहीं सुना था इस एहाते में कर्इ दरख़्त थे एक दरख़्त नीम का भी था. मालूम नहीं कितना पुराना था. शाखों को देखकर मालूम होता था कि इसे कर्इ बार छांटा जा चुका है लेकिन अब भी वो एहाते का सबसे बड़ा दरख़्त था. नीम का दरख़्त मेरे मकाने में भी लगा था और मैं ही उसकी छंटार्इ करता था. एहाते के इस दरख़्त को देखकर मुझे घर याद आया. मैंने उसकी एक टहनी तोड़कर दातून बनार्इ और उससे दांत साफ करने लगा. बचपन की मोहब्बत मेरे करीब ही खड़ा था. कहने लगा-

”तुमको जो चीज़ मंगाना हुआ करे मुझको बता देना. मैं रोज़ बाज़ार जाता हूँ. ”

मैं घर से सिर्फ चंद कपड़े और कुछ नकदी लेकर निकला था. अब दिल ही दिल में अपनी ज़रूरत की चीजों की फेहरिस्त बना रहा था कि एहाते के एक मकान से आवाज़ आर्इ-

”बचपन चाय बन गर्इ, उन्हें भी लेते आओ”

”अभी आए बड़ी बेग़म”

हम उस मकाने के अक़बी दरवाज़े में दाखिल हुए. बड़ी बेग़म साठ से उपर की औरत थीं. रंग साफ़ और चेहरे पर एक शान थी. लेकिन अफ़लास उनपर और उनके यहां की हर चीज़ पर बरस रहा था. मैंने उन्हें सलाम किया और उन्होंने बहुत सी दुआएँ दे डालीं. मुझे एक फि़क़रा आजतक याद है इसलिये उसके बाद जब भी मैंने उनको सलाम किया उन्होंने ये फि़करा ज़रूर कहा-”अल्लाह इकबाल  बुलंद करे”

उन्होंने बगैर तश्तरी की दो प्यालियों में हमें चाय दी और बचपन की मुहब्बत से बातें करने लगीं. वो इसे सिर्फ बचपन ही कह रही थीं. एहाते के बेशतर लोगों में इसका यही नाम था. कोर्इ कोर्इ उसे मोहब्बत के नाम से पुकारता था. बचपन की मोहब्बत उसका नाम ज़रूर पड़ गया था लेकिन ये पूरा नाम बहुत कम सुनने में आता था. हम चाय पी चुके तो बचपन उठकर बाहर जाने लगा और बोला-

”अच्छा हम सामान लाते हैं, बड़ी बेग़म इन्हें काम समझा देना. ”

कुछ देर में उसने दफ़्ती और काग़ज़ो का अंबार बड़ी बेग़म के यहां पहुँचा दिया. फिर वो बड़ा बर्तन संभाल कर लाया जो मैंने उसके यहां चूल्हे पर देखा था.

”दीवाली करीब है उसने कहा ”डिब्बों की मांग बढ़ी हुर्इ है, हम दोनों मिलकर बना लेंगे”

बड़ी बेग़म ने कहा-

”लेर्इ कम तो नहीं पड़ेगी ? बचपन ने बरतन की तरफ़ र्इशारा किया.

”नहीं हो जायेगी”

”सब अधसेरे बनेंगे” बचपन ने कहा और बाहर चला गया. बड़ी बेग़म देर तक मुझे काम सिखाती रहीं, दफ़्ती को काटना, काग़ज़ काटना, उसे दफ़्ती पर चिपकाना, उन्होंने मुझे अच्छी तरह बता दिया और हमने डिब्बे बनाना शुरू कर दिये. बड़ी बेग़म के काम की रफ़्तार मुझसे बहुत तेज़ थी लेकिन मैंने भी बड़ी तादाद में डिब्बे बना लिये.

”तो मुझे ये काम मिला है ? मैंने सोचा और मुझको मुराद मियाँ का कहना याद आया कि तुमको आता क्या है. अब मुझे कम से कम मिठार्इ के डिब्बे बनाना आता था. मैंने इस तरह के डिब्बे हलवार्इयों की दुकानों पर देखे थे और उनमें मिठार्इ भी लाया था लेकिन ये कभी नहीं सोचा था कि एक दिन मैं भी ये डिब्बे बनाऊँगा. मैं शाम तक काम करता रहा बड़ी बेग़म बीच में एक बार उठीं और खाना पकाकर वापस आ गर्इं. दोबारा उठीं और मेरे सामने खाना लाकर रख दिया. मुझे झिझकते देखकर बोलीं.

”बचपन भी हमारे यहां खाता है, खाने का और काम का हिसाब वही रखता है तुम्हारे पैसे भी उसी के पास जमा होते रहेंगे.जब जी चाहे मांग लेना. अच्छा? ”

लेकिन उन्होंने ये नहीं बताया न मैंने पूछा कि डिब्बों की बनवार्इ की उजरत क्या होगी. मुझे इसका इतमिनान था कि अब मैं कम अज़ कम अपने ख़र्च भर का कमा लिया करूँगा और मेरा खर्च खाने के सिवा था ही कितना.

कुछ दिन में हर चीज़ का ढब बैठ गया और मैं दिन भर में  बड़ी बेग़म से ज़्यादा डिब्बे बनाने लगा. बचपन हमें दफ़्ती और काग़ज़ ला देता, लेर्इ पकाता और हम दिनभर काम में लगे रहते. मुझको एहाते से बाहर जाने की ज़रूरत न पड़ती थी इसलिये कि बचपन मेरी ज़रूरत की मामूली चीजे़ं ला दिया करता था.

मेरी वो तमाम सरगर्मियाँ जो मेरे बाप को नापसंद थीं खत्म हो चुकी थीं. लेकिन मैंने यकीन कर लिया कि अब भी वो मुझे चैन से नहीं बैठने देंगे. मैं अब भी अपने घर में चोरो की तरह दाखि़ल हुआ करूँगा. अगर वो कहीं गए हुए होंगे तो भी इस ख़याल से खलजान में मुबतिला रहूँगा कि मालूम नहीं कि कब से वापस आ जायें और मालूम नहीं किस बात पर जवाब तलबी और जिरह शुरू कर दें. इसलिये अगर कभी मेरे दिल में घर जाने का ख़याल आता भी तो मैं उसे दूर कर देता और उस वक़्त एहाते वाले नीम का दरख़्त भी मुझे बुरा मालूम होने लगा था.

सबसे अलग थलग रहने के बावजूद बड़ी बेग़म की बदौलत मुझे ऐहाते के रहने वालों के बारे में बहुत कुछ मालूम हो गया था. ये ज़्यादारत दस्तकार थे या दूसरे छोटे मोटे काम करते थे. उनमें औरतें ज़्यादा थीं. सिलार्इ, कढ़ार्इ का काम करने वाली सबसे ज़्यादा थीं. एक छोटे से ख़ानदान की औरतें और लड़कियाँ काग़ज़ के फूलों की बेलें बनातीं थीं. एक ख़ानदान के पास तीलियाँ आती थीं और वो लोग उनको छीलकर पतंगों के काप ढडडे बनाते थे. छालियाँ करतने वाली भी कर्इ थीं उनके सरौते चलने की आवाज़ मुझे अपनी डयोढ़ी वाली अंधी नानी की याद दिलाती थी. इन सबको बचपन की मोहब्बत काम लाकर देता और उनका तैयार किया हुआ माल बाज़ार पहुँचाता था. रोज़ दिन में कर्इ कर्इ बार वो सामान से लदा फदा एहाते में आता और सामान से लदा फदा बाहर जाता था. अपना मेहनताना वो दुकानदारों से वसूल करता था. ऐहाते के मकीनों की रोज़ी का बंदोबस्त करना तनहा उसी का काम था और वो ऐहाते की सबसे अहम शखि़सयत था. दूसरी अहम शखि़सयत बड़ी बेग़म की थी. मेरा ज़्यादा वक़्त उन्हीं के साथ गुज़रता था. ऐहाते वालों के ख़ानगी मामलात में उन्हें बहोत दख़्ल था उनके मामूली दवा इलाज, तकरीबों की देखभाल वगैरह भी वही सबसे बढ़ चढ़ के करती थीं ये सब उन्हें बड़ी बेग़म ख़ाला कहती थीं लेकिन मुझको ये नहीं मालूम हो सका कि वो किसकी बेग़म थीं.

मुझको एहाते वालों के मामलात में दिलचस्पी नहीं थी अलबत्ता कभी कभी मैं सोचता था कि इसका नाम मिसकीनों का एहाता क्यों पड़ गया वहां कोर्इ मिसकीन नहीं था सब अपनी मेहनत की कमार्इ खाते थे.

एक दिन सबरे सबेरे बचपन ने मुझसे कहा-”आज काम नहीं होगा”

फिर बताया ”बड़ी बेग़म को डाक्टर के यहाँ ले जाना है. ”

”क्यूँ, उन्हें क्या हुआ है ? ”

”हमें कुछ भी नहीं हुआ है एहाते से बड़ी बेग़म की आवाज़ आर्इ यही बचपन पागल बनाए हुए है. ”

”पागल ? बचपन ने कमरे के अंदर से कहा,

”कबसे सीने के दर्द को पाल रही हो, कल रात भी हाय हाय कर रही थीं, आज डाक्टर के यहाँ चलना पड़ेगा.

”तो चल तो रहे हैं और वो बुरका ओढ़े हुए कमरे में दाखि़ल हो गर्इं. मैंने उठकर उन्हें सलाम किया.

”जीते रहो, खुश रहो उन्होंने कहा और फिर वहीं फिकरा दुहराया ”अल्लाह इकबाल बुलंद करे मैंने फिर उन्हें नहीं देखा, वो डाक्टर के यहाँ से सीधी अस्पताल में दाखि़ल कर ली गर्इं और दो तीन दिन के अंदर ख़त्म हेा गर्इं, अस्पताल से उनकी मैययत गुस्लखाने ले जार्इ गर्इ और गुस्लखाने ही से क़बि्रस्तान पहुँचा दी गर्इं. एहाते के बेशतर मर्द उनके दक़्म में शरीक हुए और औरतें उनके मकान में जमा हो गर्इं थीं लेकिन मैं अपने कमरे ही में बंद रहा.

बड़ी बेग़म नहीं रहीं तो मुझे एहसास होने लगा कि मिसकीनों के एहाते में अभी तक मैं करीब करीब अजनबी हूँ. बड़ी बेगम के होते हुए मुझे किसी ओैर से मिलने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. वो मुझसे ख़ूब बातें करती थीं, एहाते के ज़्यादातर हालात भी मुझे उन्हीं से मालूम होते थे. उनको ख़ासगी और तसरूफी खानों की बेशुमार तरकीब मालूम थीं. मैं उनसे अक्सर मुख्तलिफ़ पकवानों के बारे में पूछा करता था. ख़ासतौर पर खाना खाते वक़्त हम यही बातें करते थे. बड़ी बेग़म इस तरह हर पकवान और उसकी तैयारी का जि़क्र करती थीं. कि मुझको अपने मुंह में उसका ज़ायका महसूस होने लगता था फिर उनका मुहब्बत आमेज़ लहजा था जिसे याद करके मैं बेचैन हो जाता था.

बचपन अब भी मेरे लिये काम लाता था लेकिन अब एहाते मे मेरा दिल नहीं लग रहा था. एक दिन सोते वक़्त मैंने बचपन से कहा-

”मुराद मियाँ ने तो पलट कर मुझे पूछा ही नहीं

”बहुत दिन बाद याद किया ? उसने जवाब दिया- ”नहीं मुझसे पूछते रहते थे जब से जेल गए हैं. ”

”जेल ? मैंने पूछा ”मुराद मियाँ को जेल हो गर्इ ? ”

”हुर्इ थी मगर जल्दी ही छूट गए, इसके बाद कहीं बाहर चले गए हैं या शायद आ गए हों, मैं भी कब से उनकी तरफ़ नहीं गया हूँ. फुर्सत ही नहीं मिली

”मुझको उनसे मिलना है, जबसे यहाँ आया हूँ… ”

”तुमने भी तो कमाल कर दिया सोलह बरसातें हो गर्इं एहाते से बाहर ही नहीं निकले”

”सोलह बरस ? ” तो मैंने एहाते ही में सोलह बरस गुज़ार दिये हैं ? मैंने सोचा.

मुझे यकीन नहीं आ रहा था, लेकिन अब मुझे ख़याल आया कि एहाते के कर्इ लड़के जो शुरू में अपनी फटी पतंगें जोड़ने के लिये बड़ी बेगम से लेर्इ मांगने आते थे अब उनकी शादियाँ हो गर्इ हैं, बलके  उनमें से बाज़ के बच्चे भी हो चुके हैं.

मैंने बचपन की मोहब्बत को गौर से देखा, उसका चेहरा अब भी बच्चों का सा था लेकिन अब वो निगाह कमज़ोर हो जाने की शिकायत करने लगा था. वो भी मुझको गौर से देख रहा था. आखि़र उसने पूछा-

”एहाते से दिल भर गया ? ”

”हां बड़ी बेग़म के बाद… दो तीन दिन में चला जाऊँगा. ”

वो कुछ उदास होकर चुपचाप लेटा रहा फिर करवट बदलकर सो गया. मैं देर तक जागता रहा. बार बार मुझे अपने घर का ख़याल आ रहा था लेकिन अब मुझे वहां की कोर्इ चीज़ याद नहीं थी. घर में टिकता ही नहीं था. मां इतनी बेज़बान थी कि उनका होना न होना बराबर था. बाप का चेहरा जब भी ख़याल में आता उनकी त्योरियाँ चढ़ी हुर्इ नजर आती और अब सोलह बरस बाद भी मुझे घर से बेज़ारी महसूस हो रही थी. नीम का दरख़्त अलबत्ता मुझको अच्छी तरह याद था और अब भी मुझे उससे उन्स महसूस होता था. मुझ याद आया कि मैं बचपन में इस पर बहुत चढ़ा करता था और कर्इ बार इसपर से गिरा भी था. कभी कभी मैं इसकी घनी शाख़ों में छुपकर बैठा रहता था और मेरे बाप जो उस वक़्त मुझसे बहुत मुहब्बत करते थे मुझको तलाश करते फिरते थे.

सबेरे उठकर मैंने बचपन की मुहब्बत को बता दिया:

”परसों मैं चला जाऊँगा”

”कहाँ घर ? ” उसने पूछा

शायद मैंने जवाब दिया ”लेकिन पहले मुराद मियाँ का पता लगाऊँगा. ”

वो किसी सोच में पड़ गया फिर बोला: ”अच्छा ठीक है मैं सवारी ले आऊँगा अपना सामाना इकटठा कर लेना

”सामान क्या है, बस बिस्तर है बाकी चीजे़ं एक थैले में आ जाएंगी.

दूसरे दिन बचपन ने मुझे अपने पास बिठाया और एक रकम जो मेरी तवक्को से बहुत ज़्यादा थी मुझे देकर बोला:

”ये तुम्हारी कमार्इ है, इसमें से जो ख़र्च तुम पर हुआ है वो मिन्हा कर लिया है मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ. चुपचाप रकम रख ली. सुबह सुबह उसने मुझे जगा दिया. सवारी तैयारी थी मुझे किसी से रूख़सत नहीं होना था सामान उठाकर बाहर निकल आया बचपन ख़ामोश खड़ा था. मैंने उससे कहा: ”बड़ी बेगम और तुम बहुत याद आओगे. ”

वो फिर भी ख़ामोश खड़ा रहा. मैंने कहा: ”तुमसे मिलने आया करूँगा. ”

अब भी वो कुछ नहीं बोला और मैं वहां से रूख़सत हुआ. इस बार मैं परदे के अंदर नहीं बैठा था लेनि वो इलाका मेरा देखा हुआ नहीं था. बहुत देर तक अजनबी रास्तों पर चलने के बाद मेरी पहचानी हुर्इ सड़कें मिलना शुरू हुर्इं और आखि़र मैं मुराद मियाँ के मुहल्ले में पहुँच गया.

उनके अडडे का कहीं पता न था लेकिन आसपास के रहने वालों ने मुझे पहचान लिया उनमें से एक ने कहा: ”बहुत दिन बाद आये ? ”

”सोलह बरस के बाद मैंने कहा ”मुराद मियाँ कहाँ मिलेंगे ? उसने पास खड़ हुए एक लड़के से कहा- ”इनको हाजी मुराद के यहाँ पहुँचा दो” फिर मुझसे कहा-

”पास ही मकान बनवाया है”, दो तीन मकान छोड़कर मुराद मियाँ का मकान था. अच्छा बना हुआ था. मुराद मियाँ बाहर ही के कमरे में बैठे हुए थे. अब उनके चेहरे पर दाढ़ी थी लेकिन उम्र में बहोत फर्क नहीं मालूम होता था. मुझे देखते ही कमरे से बाहर निकल आये. बड़ी खुशी से गले मिल मुझे कमरे के अंदर ले गए और बोले-”अरे मियाँ तुम तो एहाते ही के होकर रह गये, हमको भी पलटकर नहीं पूछा, कब आये ? ”

”अभी आ रहा हूँ” उन्होंने किसी को आवाज़ देकर नाश्ता मंगवाया, अपना हाल बताया कि जेल जाने के बाद उन्होंने अडडा ख़त्म कर दिया और हज कर आये. फिर एक और हज किया, फिर एक और. अब अपना कारोबार कर रहे हैं. मुझको पूछा कि क्या करते रहे. मेरे पास एक ही जवाब था-

”डिब्बे बनाता रहा”

मैंने उनसे अपने घर का हाल नहीं पूछा. लेकिन बातों से मुझे अंदाज़ा हो गया कि मेरे मां बाप मर चुके हैं. फिर उन्हें बताया कि एहाते की सुकूनत तर्क करके आ रहा हूँ. उन्होंने पूछा- ”अब क्या इरादा है ?”

”जो आप कहें मैंने कहा ”मेरे पास सोलह बरस की कमार्इ है कोर्इ छोटा मोटा कारोबार करा दीजिये”

”कितने पैसे हैं ?

मैंने बचपन की मोहब्बत की दी हुर्इ रकम बता दी- बोले- ”कम है लेकिन अच्छा अभी दो चार दिन हमारे साथ रहो फिर चले जाना”

मैं दो चार दिन उनके साथ रहा. आखिरी दिन वो मेरे पास आकर बैठे और कहने लगे: ”तुम्हारे अब्बा  से मेरे अब्बा ने जो रकमें कर्ज़ ली थीं उनका पूरा हिसाब मेरे पास है, मैंने हज से आकर तुम्हारे अब्बा से कहा भी कि अब मेरे पास हराम कमार्इ का एक पैसा भी नहीं और मैं उनका हिसाब चुकाना चाहता हूँ मगर उन्होंने एक न सुनी और मुझे और मेरे अब्बा को बुरा भला कहने लगे.

वो इस तरह ख़ामोश हो गये जैसे कुछ याद करके कुढ़ रहे हों. मुझे भी अंदाज़ा हो गया कि मेरे बाप ने उनसे किस तरह बात की होगी इसलिये मैं ख़ामोश रहा. कुछ देर बाद वो बोले-

”वो पैसे मेरे सीने पर बोझ हैं अब तुमको देता हूँ तुम्ही उनके वारिस हो

रकम बहुत बड़ी थी. अपने बाप का गुस्सा जो उन्हें मुराद मियाँ के बाप पर बार बार आता था अब मेरी समझ में आने लगा. फिर मुराद मियाँ ने कहा-

”अब तुम घर जाओ, उसकी हालत दुरूस्त करो फिर मैं कोर्इ काम बताऊँगा

मेरा घर जाने को दिल नहीं चाह रहा था लेकिन अपना सामान उठाया और रवाना हो गया. मकान के सामने वाली गली वैसी ही थी जैसी सोलह बरस पहले थी. मैं अपनी डयोढ़ी के करीब पहुँच रूका. डयोढ़ी से छालिया काटने की आवाज़ आ रही थी जो मैं बचपन से सुनता आ रहा था.

”अंधी नानी” मैंने सोचा. फिर मुझे ख़याल आया कि मेरे कान बज रहे हैं और मैं डयोढ़ी में दाखि़ल हो गया. अंधी नानी वाकर्इ बैठी छालिया काट रही थीं. चटार्इ भी वही सी थी. मुझे हैरत हुर्इ और उससे ज़्यादा हैरत इस बात पर हुर्इ कि उन्होंने मेरे पैरों की चाप फ़ौरन पहचान ली. और डयोढ़ी के अंदरूनी दरवाज़े की तरफ मूँ करके अवाज़ लगार्इ. ”बहू, भर्इया आ गए, उनके लिये जो सुर्इटर वुर्इटर तुमने बनाए हैं निकालो, उनकी पसंद के खाने पकाओ, ” मैं हैरान खड़ा था. आखि़र मैंने पूछा-

”अम्माँ जि़न्दा हैं ?

अंधी नानी मुझसे भी हैरान होकर बोली ”ऐ भर्इया इतने दिन में बैन करना भी भूल गये ? ”

मैंने कभी बैन नहीं किये थे लेकिन मुझे याद आया कि मैंने बहुत सी औरतों के बैन सुने हैं जिनमें मरे हुओं को इस तरह खि़ताब किया जाता था जैसे वो जि़न्दा हों. अंधी नानी कुछ देर तक बैन करती रहीं. आखि़र मैंने कहा- ”मैं अंदर जाता हूँ”

अंदरूनी दरवाज़े में कुफ्ल पड़ा हुआ था. मैं नानी की तरफ पलटा. वो इतनी देर में अपने कमरबंद से चाबी खोल चुकी थीं बोली-

”भर्इया चाभी तो ले लो”

मैंने कुफ्ल खोला और घर के अंदर दाखि़ल हो गया. सबकुछ उलट पलट था. नीम का दरख़्त अलबत्ता वैसा का वैसा ही था बलिक पहले से घना हो गया था. दरख़्त के सिवा मुझे घर की किसी चीज़ को देखकर कुछ याद नहीं आया. देर तक नीम के नीचे खड़ा रहा. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. दिल भी नहीं धड़क रहा था. माँ की कमी ज़रूर महसूस हुर्इ लेकिन वो भी ज़्यादा देर तक नहीं. मैं उस दिन मकान की दुरूस्ती में लग गया.

अब मैं अपना कारोबार करता हूँ जो मुराद मियाँ की मदद से बढ़ चला है शादी भी कर ली है. कर्इ बार मिसकीनों के एहाते जाने का इरादा भी कर चुका हूँ लेकिन मुझे नहीं मालूम कि वो कहाँ है. किसी से पूछते शर्म आती है.

बचपन की मोहब्बत को अब भी बाजा़रों में देखता हूँ कि किसी खुली हुर्इ सवारी पर सामान लादे लिये जा रहा है. सामान वही होता था जो वो हमेशा लाता ले जाता रहा है अलबत्ता दफ़्ती और काग़ज़ इसमें नहीं होते. उसकी निगाह शायद बहुत कमज़ोर हो गर्इ है फिर भी मैं हाथ उठाकर उसका हालचाल दरयाफ़्त कर लेता हूँ जिसका ज़ाहिर है मुझे कोर्इ जवाब नहीं मिलता.

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