आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

किताबदार: नैयर मसूद

Art: Sunita

लिप्यान्तरण-नज़र अब्बास के साथ महेश वर्मा

किताबख़ाने में किताबों की ख़रीददारी नहीं होती थी लेकिन वहाँ पहले से बहोत किताबें मौजूद थीं. ये किताबें हर किस्म की थीं इसलिये कि जिन लोगों ने अतिये के तौर पर ये किताबें दी थीं उनमें हर मज़ाक के लोग थे. दरअस्ल किसी बड़े वक़्फ़ का किताबख़ाना था. वक़्फ़ की एक इमारत के पहलू से एक तंग ज़ीना उपर की मंजि़ल को जाता था. ज़ीना ख़त्म होने के बाद थोड़ी सी खुली हुर्इ जगह थी इसके बाद तीन दरों वाला एक दुहरा कमरा था. किताबखाना  उसी कमरे में था. कमरे में दीवारी आलमारियाँ बहोत थीं. इन सब आलमारियों में किताबें भरी हुर्इ थीं. किताबें साफ़ सुथरी और अच्छी हालत में थीं, इनमें बेशतर की जिल्दें मज़बूत थीं और हाल ही की बंधी हुर्इ मालूम होती थीं. इस कमरे के दो दरवाज़े हमेशा मुकफ़्फल रहते थे. आने जाने के लिये एक दरवाज़ा आधा खुला रहता था. खिड़कियाँ भी कर्इ थीं लेकिन ये भी मुस्तकिल बंद रहती थीं. सिर्फ मशरिकी दीवार की एक खिड़की खुलती थी. इसमें लोहे की जाली लगी हुर्इ थी और इसके पार बाहर का मंज़र दिखार्इ देता था. इस मंज़र में बस मकानों के पिछवाड़े और एक नानबार्इ की दुकान थी. दुकान की वजह से कुछ कुत्ते भी मौजूद रहते थे. खिड़की के पास दो तीन तख़्त पड़े हुए थे जो किताबख़ाने में आकर किताबें पढ़ने वालों के लिये थे. खिड़की की वजह से किताबखाने के उस गोशे में बाहर की रौशनी फैल जाती थी. खिड़की बंद होती तो बाहर से आने वाले को थोड़ी देर तक कुछ नज़र न आता अलबत्ता काग़ज़ों की खूशबू से पता चलता कि वो जिस जगह हैं वहां किताबें हैं. ज़रा देर के बाद उसे आलमारियाँ नज़र आतीं. जब उसकी आंखें रोशनी की कुछ कुछ और आदि हो जातीं तो उसे दाहिनी तरफ़ बैठा हुआ किताबदार नज़र आता.

किताबख़ाने में तैनाती के वक़्त वो जवान था. उस वक़्त किताबख़ाने की हालत अच्छी नहीं थी इसलिये कि वहां उस ज़माने में काफ़ी लोग किताबें पढ़ने के लिये आते थे उनकी वरकगरदानियों की वजह से किताबों की सूरत बिगड़ी हुर्इ थी.

उनकी सिलार्इ ढीली हो जाती और बाज़ की जिल्दें अलग हो गर्इ थीं. एक बूढ़ा दफ़्तरी किताबखाने का मुलाजि़म था वो जिल्दों वगैरह को मामूली तौर पर दुरूस्त कर देता था. किताबदार ने काम संभालने के बाद सबसे पहले उसे जिल्दसाज़ी और किताबों की मरम्मत का मुनासिब सामान मंगाकर दिया और अपनी निगरानी में किताबों की मरम्मत शुरू करवा दी. दफ्तरी अपने काम में माहिर था. बातें बहोत करता था. उसकी एक बेटी बीमार रहती थी और ज़्यादातर उसी के बारे में बातें करता था लेकिन उसका हाथ नहीं रूकता था और उसने बड़ी तादाद में किताबों को दुरूस्त कर दिया. लेकिन एक दिन किताबदार को इत्तिला मिली कि वो बीमार हो गया है फिर मालूम हुआ कि उसकी हालत अच्छी नहीं है. किताबदार उसे देखने गया उस वक़्त दफ़तरी के हवास बिगड़ चुके थे लेकिन उस हाल में भी वो बेटी की दवा वगैरह को पूछ रहा था. तीसरे दिन दफ़तरी की ख़बर आ गर्इ. उसकी जगह उसके बेटे को रक्खा गया. वो बाप की तरह माहिर तो नहीं था फिर भी उसका काम गनीमत था. लेकिन एक महीने के अंदर उसे मोहकमा ए सेहत में कोर्इ मुलाजि़मत मिल गर्इ उसके बाद दफ़तरी की आसामी ख़ाली रही लेकिन किताबदार बूढ़े दफ़तरी का काम देखते-देखते खु़द काम सीख गया था इसलिये फ़ुर्सत के वक़्त वो ख़ुद ही किताबों की मरम्मत वगैरह कर लिया करता था. आखि़ार सब किताबें बिल्कुल दुरूस्त होकर आलमारियों  में  सज गर्इं किताबदार भी हर किताब को उसकी सूरत से पहचानने लगा. किताबों की तरतीब और फेहरिस्तसाजी़ का उसका अपना ही तरीका था और वो बहोत आसानी से हर किताब निकाल सकता था लेकिन दूसरों को उसमें मुशिकल पड़ती थी और वो अपनी मतलूबा किताब आसानी से तलाश नहीं कर सकते थे. उन्हें तलाश करने की ज़रूरत भी नहीं थी. किताबदार किताब का नाम सुनते ही बता देता कि वो किताब मौजूद है या नहीं, अगर मौजूद होती तो फ़ौरन निकालकर सामने रख देता.

उस वक्त किताबखाने में तरह तरह के लोग आते थे. तालिबे इल्म भी बहोत आते थे. किताबदार उनको एक नज़र देखते ही समझ लेता कि तालिबे इल्म है. इनके अलावा  भी वो अक्सर लोगों के बारे में अंदाज़ा रखता था कि उन्हें किस तरह की किताबें देखना है. लेकिन एक दिन एक ऐसा आदमी आ गया जिसका पढ़ने लिखने से ताल्लुक नही मालूम होता था. उसने एक पर्चा किताबदार के हाथ में रख दिया उस पर जिन किताबों के नाम लिखे हुए थे उनमें एक मज़हबी मौजूँ की मशहूर किताब थी एक उसी किताब का जवाब था. दो किताबें दस्तकारी से ताल्लुक रखती थीं और एक किसी रंगीन मिजाज़ शख़्स की आपबीती थी जो बेराह रवी की जि़दगी गुज़ारने के बाद लगातार कर्इ रातों तक एक ही ख़्वाब देखकर सुधर गया था. ये वो किताबें थीं जो किताबख़ाने में मौजूद थीं उनके अलावा भी कुछ किताबों के नाम थे. किताबदार कुछ देर तक फ़ेहरिस्त को देखता और उस आदमी के बारे में कयास आरार्इयाँ करता रहा फिर उसने मौजूद किताबों पर निशान लगाकर पर्चा उसे वापस कर दिया. उस आदमी ने पर्चे को सरसरी देख कर कहा- ”ये सब निकाल दीजिये”

किताबदार ने उसकी तरफ़ देखा और वो बोला-

”एक ही बार में निकाल दीजिये आपके चक्कर बच जायेंगे. ”

किताबदार ने सब किताबें निकालकर एक तख़्त पर रख दीं. उसने वापस जाते जाते देखा कि उस आदमी ने जल्दी जल्दी एक किताब के वरक पलटना शुरू कर दिये हैं. एक डेढ़ घंटे के अंदर उसने सब किताबें किताबदार के सामने लाकर रख दीं और उसका शुक्रिया अदा करके चला गया. दूसरे दिन एक और आदमी आया उसने भी वहीं किताबें निकलवार्इं और उसी तरह किताबों की वकर गरदानी करके वापस चला गया. उस वक़्त दो तालिबे इल्म भी किताबख़ाने में मौजूद थे उस आदमी के जाने के बाद एक बोला-

”मुअम्मे वाले यहाँ भी पहुँच गये”

फिर वो दोनों आपस में बातें करने लगे. उनकी आवाजें बहुत धीमीं थीं इसलिये कि किताब खाने के अंदर ज़ोर-ज़ोर से बोलना मना था. मना तो नहीं था लेकिन वहां आकर लोग ख़ुद ही धीमी आवाज़ में बात करते थे. किताबदार को तालिब इल्मों की बातों से मालूम हुआ कि कोर्इ बहुत मशहूर मुअम्मा है जिसके सब इशारे मतबूआ किताबों से अख़्त किये जाते हैं. मुअम्मा हल करने वालों की तरफ़ से बकायदा सुराग़ लगाया जाता कि इस मुअम्मे के दफ़तर में कौन कौन सी किताबें पढ़ी जा रही हैं. फिर वो इन किताबों को देखते थे कि शायद इनमें से कोर्इ जुमला मुअम्मे में इस्तेमाल हुआ हो इसी सिलसिले में वो दोनों आदमी यहाँ आये थे. इन्हें किताबों के मौजू़ वगैरह से कोर्इ सरोकार नहीं था. और अब जुमलों के मतलब से भी गरज़ नहीं थी वो सिर्फ़ इसका मकतूबा लफ्ज वाला जुमला तलाश करते थे.

किताबदार देर तक सोचता रहा फिर उसने एक बड़े से काग़ज पर नबी हर्फों में लिखना शुरू किया: ”बराहेकरम मुअम्मेवाले हज़रात… फिर उसका कलम रूक गया. कलम हाथ में लिये वो बहुत देर तक सोचता रहा. यहां तक कि किताबख़ाने में एक और शख़्स दाखिल हुआ. किताबदार उसको पहचानता था वो बहोत दिनों से आ रहा थ और हमेशा एक ही किताब से कुछ नक्ल करता था. वो बहोत जख़ीम और भारी किताब थी और अब किताबदार उसके जाने के बाद किताब को आलमारी में वापस रखने की बजाये वहीं तख़्त पर रक्खी रहने देता था. आज जब वो शख़्स आया तो किताबदार ने अपने हाथ का काग़ज एक तरफ रक्खा और उसकी तरफ मतवज्जो हो गया. वो सीधा तख़्त की तरफ़ गया, किताब उठार्इ और लिखने बैठ गया कुछ देर तक सर उठाया और थके थके लहजे में बोला’

”अभी बहोत बाकी है और फिर लिखने लगा.

दूसरे दिन वो नहीं आया. तीसरे दिन भी नहीं आया आखिर किताबदार ने किताब उठार्इ और आलमारी में रख दी.

कुछ लोग किताबख़ाने में ऐसे भी आते थे जिनका किताबदार को इंतज़ार रहता था. उसमें एक मनजू़ब सा आदमी भी था. उसकी आवाज़ बहोत दूर से सुनार्इ देने लगती थी. ज़्यादार वो अपने आपसे बातें करता था या कुत्तों को समझाता था कि उसपर न भूकें. मगर किताबख़ाने में आकर उसकी आवाज़ धीमी हो जाती. वो बहोत मुहज्ज़ब अंदाज़ में किताबदार से साहब सलामत करता. उसका मिज़ाज़ पूछता और सीधा उस आलमारी की तरफ चला जाता जिसमें रूहानियत की किताबें रहती थीं. वो कोर्इ किताब निकलवाता और ख़ामोशी के साथ उसे पढ़ता रहता. कभी कभी एक काग़ज़ पर कुछ लिखता और कभी पढ़ते पढ़ते उस पर जोश सा तारी हो जाता  लेकिन उस वक्त भी मुट्ठियाँ  भींचकर को खुद पर काबू पा लेता और ज़्यादा से ज़्यादा ये करता कि उठकर किताबदार के पास आ जाता. अगर किताबदार किसी काम में मसरूफ हो न होता तो मनजू़ब की तरफ़ देखकर मुस्कुराता और मजनू़ब रूह की माहियत के बारे में अपना ज़ाती नज़रिया मुख़्तसरन बयान करके वापस जा बैठता. उसके जाने के बाद किताबदार वो काग़ज़ उठाता जिस पर उसने कुछ लिखा होता और उसे रददी में डाल देता. नामी साहब ने किताबदार को बताया था कि रूहानियत का मुतालिया करते-करते उसका दिमाग़ चल गया था और अब वो इलाज के तौर पर भी रूहानियत ही का मुतालिया कर रहा था. कभी नामी साहब उसी मौजूदगी में आ पहुँचे तो सीधे उसके पास जाते और दोनों देर तक चुपके-चुपके बातें करते रहते फिर मजनू़ब किताबख़ाने में आना छोड़ दिया. नामी साहब ने बताया कि उसे उसके रिश्तेदार किसी दूसरे शहर ले गये हैं.

नामी साहब किताबख़ाने के मुस्तकिल आने वालों में थे. और किताबदार की तैनाती के पहले से आ रहे थे. वो हर आलमारी की हर किताब पढ़ने का इरादा रखते थे और कर्इ आलमारियाँ पढ़ चुके थे. शहर के हर हल्क़े में उनका उठना बैठना था. वो बहोत खुशबाश आदमी थे और उनके आने से नीम तारीक़ किताबख़ाने में रौशनी सी फैल आती थी. पढ़ते-पढ़ते जब वो थक जाते तो किताबदार के पास आ बैठते और कहते.

”और सुनार्इये क्या हालचाल है.

इसके बाद वो खुद ही अपना और शहर का हाल बताना शुरू कर देते फिर उठकर अपनी किताब के पास चले जाते और पढ़ते रहते. यहाँ तक कि उनका एक दोस्त उन्हें ले जाने के लिये आ जाता. किताबदार को नामी साहब और उनके दोस्त दोनों का इंतेज़ार रहता था. वो सिर्फ नामी साहब से बेतकल्लुफ़ था या यूँ कहना चाहिये कि सिर्फ नामी साहब उससे बेतकल्लुफ़ थे और उससे खू़ब बातें करते थे. नामी साहब ही ने उसे किताबदार कहना शुरू किया था वरना मुलाजि़मत के काग़ज़ात में उसे निगराने कुतुब लिखा जाता था. किताबदार के ठीक-ठीक माने उसे नहीं मालूम थे लेकिन ये नाम उसे अच्छा लगता था और ये नाम देने की वजह से नामी साहब भी अच्छे लगते थे.

एक लड़का भी किताबख़ाने में पाबंदी से आता था. वो कोर्इ भी किताब निकलवा लेता और देर तक पढ़ता रहता था. वो दस ग्यारह साल की उम्र से किताबख़ाने में आ रहा था. कमज़ोर सा लड़का था और उसका चेहरा हर वक़्त तमतमाया रहता था. नामी साहब उस लड़के से भी सलामत रखते थे. वो ग़ालिबन उसके किसी बुजु़र्ग के दोस्त थे. वो पंद्रह सोलह साल की उम्र तक किताबख़ाने में आता रहा  उसके बाद किताबखाना आम लोगों के लिये बंद कर दिया गया.

किताबदार को सिर्फ इतना मालूम हुआ कि वक़्फ से मुताल्लिक  कुछ झगड़े उठ खड़े हुए हैं लेकिन उसकी मुलाजि़मत बहाल रही. उसे बताया गया कि अब सिर्फ़ वो लोग किताबखाने में आ सकते हैं जिनको वक़्फ के जि़म्मेदारों की तरफ़ से खुसूसी इजाज़तनामा दिया गया हो. लेकिन किताबदार ने इजाज़तनामें की शक्ल नहीं देखी. इसलिये कि इस शर्त के बाद से लोगों का किताबख़ाने में आना एकदम बंद हो गया.

इस अरसे मं किताबदार की जिंदगी में भी कर्इ तब्दीलियाँ आ गर्इ थीं. उसकी बीबी और दोनों बेटियाँ यके-बाद-दीगरे ख़त्म हो गर्इं. बीवी तो हमेशा की बीमार थी लेकिन बेटियाँ तन्दुरूस्त थीं. छोटी बेटी को वो बहोत चाहता था. वो इसका ख़याल भी बहोत रखती थी. उसके मरने के बाद से वो घर में कम टिकता था ज़्यादातर किताबखाने में रहता था उसका काम अब सिर्फ़ किताबों की देखभाल रह गया था. किताबखाना सीलन से महफूज़ था. दीमक भी वहां नहीं पहुँची थी अलबत्ता छोटे छोटे कीड़े किताबों में छेदकर देते थे और वो उन्हीं किताबों की मरम्मत किया करता था.

तनख़्वाह उसको पाबंदी से नहीं मिलती थी लेकिन अब उसका खर्च खाने के सिवा कुछ नहीं था और खाना भी अक्सर नागा कर दिया करता था. भूख ही नहीं लगती थी.

इसी जमाने में एक मरतबा जब वो खाना खाने के लिये निकला तो उसे एक सुशलिबास आदमी किताबख़ाने की तरफ़ आता दिखार्इ दिया. उसने किताबदार को सलाम किया और उसके करीब आकर रूक गया.

”आपने मुझे पहचाना नहीं ? मैं किताबख़ाने में बहोत आता था

किताबदार ने उसे ज़रा वक़्त के साथ पहचान लिया. अब वो किसी अच्छी जगह काम करता था. ”मैंने यहाँ बहोत पढ़ा है. उसने बताया: ”बहुत दिन बाद इधर आया तो सोचा आपको सलाम करता चलूँ. ”

उसके बाद वो अपनी मुलाजिमत की तफ़सील बताता रहा. किताबदार से हाथ मिलाकर रूख़सत हो गया.

किताबें अब तेजी़ से ख़राब हो रही थीं. इस बात को किताबदार भी महसूस कर रहा था. कीड़ों के किये हुए छेद उसे आसानी से नज़र नहीं आते थे और वो किताबों की हालत का अंदाजा करने के लिये उन्हें खिड़की के करीब लाकर देखता था और वहां भी उसे किताब को आँखों के बिलकुल करीब लाकर देखना पड़ता था, उसने वक़्फ को लिखा कि किताबख़ाने के लिये कोर्इ नया बन्दा  मुकर्रर किया जाये. फिर कर्इ बार दहानी भी करार्इ लेकिन वक़्फ की तरफ़ से कोर्इ कर्रवार्इ नहीं हुर्इ.

अब उसे दूर की चीजे़ साफ़ नज़र नहीं आती थीं और वो किताबख़ाने की छत के परनालों को भी नहीं देख सकता था जिनसे होकर बरसात का पानी बाहर निकल जाता था. ये परनाले छत से कुछ आगे को निकलते हुए थे जिसकी वजह से पानी किताबख़ानों की दीवारों से दूर हटकर गिरता था. अब उनमें से एक परनाला टूट फूट गया था और उस तरफ़ का पानी कुछ परनाले में से होकर और कुछ दीवार से मिला मिला बहता था.

बरसात के मौसम में एक दिन वो खिड़की की रौशनी में एक किताब देखकर उसे वापस रखने के लिये आलमारियों की तरफ़ जा रहा था तो उसे दूर की एक आलमारी के पास नामी साहब खड़े दिखार्इ दिये. वो बड़ी गर्मजोशी से उनकी तरफ़ बढ़ा. नामी साहब भी तेज़ी से उसके करीब आने लगे लेकिन दो तीन कदम चलकर लड़खड़ा से गये और फिर खु़द को संभलकर खड़े हो गये. किताबदार भी रूक गया. किताब उसके हाथ से फिसलती हुर्इ फर्श पर गिर पड़ी. नामी साहब ने किताब को गिरते देख उसे संभालने के लिये बढ़े लेकिन फिर लड़खड़ा गये. उसके बाद दोनों खामोश खड़े एक दूसरे को देखते रहे. यहां तक की एक और आलमारी के पास आहट हुर्इ और नामी साहब का दोस्त बढ़कर करीब आ गया. उस वक्त बाहर सूरज पर शायद बादल  का कोर्इ दबीज़ टुकड़ा आ गया और कुछ देर के लिये किताबख़ाने में अंधेरा छा गया. जब वो टुकड़ा हटा तो किताख़ाने में सिर्फ़ किताबदार था बल्कि वो भी नहीं था.

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