आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

राग सुहा (आत्मकथा-अंश): गंगूबाई हंगल

Art: Sunita

अनुवाद: मृत्युंजय

मुम्बई और एच.एम.वी. के मेरे संगीत-कार्यक्रमों ने मेरा तआर्रुफ़ आकाशवाणी (१३) से करवाया, जिसका दफ्तर तब बल्लार्ड पिएर में था. आकाशवाणी, मुम्बई के एक अफसर श्री ढोलेकर ने मुझे ‘स्वर-परीक्षा’ (१४) देने का सुझाव दिया. एच.एम.वी. के रूपजी ‘स्वर-परीक्षा’ में मुझे बैठाने के खिलाफ़ थे.

एक बार रूपजी ने मुम्बई के बाहरी इलाके गोरेगाँ व में संगीत महफ़िल का आयोजन किया. जमे-जमाये, विख्यात कलाकारों के साथ उभरती हुई गायिका के रूप में मुझे भी उस मंच से गाने का मौक़ा हासिल हुआ. मियाँ की मल्हार और जोगिया रागों की प्रस्तुति पर मुझे तारीफ़ मिली. हालांकि कार्यक्रम के अंत के थके-मांदे वक्त में मेनकाबाई शिरोडकर के बाद मुझे गाने को मिला, तब भी श्रोताओं ने आखिर तक टिककर मेरा गायन सुना और तारीफ़ की. रूपजी ने चिन्हित किया कि अब जबकि मैं एक सम्मानित संगीत-कार्यक्रम में शरीक रह चुकी, आकाशवाणी को मुझे ‘स्वर-परीक्षा’ की औपचारिकता से मुक्त कर देना चाहिए. यह यूँ हुआ कि श्रीमती हीराबाई बड़ोदकर को रेडियो पर गाना था. आखिरी वक्त में पता चला कि वे आने में असमर्थ हैं.

एवजी के रूप में मैंने रेडियो पर गुरूजी का सिखाया राग मियाँ का मल्हार गाया. १९३६  मेरे लिहाज से खासा महत्वपूर्ण साल था, क्योंकि तब तक मुझे यश मिलने लगा था, और इससे मेरी संगीत-वृत्ति में नया आवेग आया.

इस कार्यक्रम का रात ९.३० से ११.०० बजे तक ‘सीधा’ प्रसारण हुआ. ज्योंही कार्यक्रम खत्म हुआ, आकाशवाणी, मुम्बई में कईयों फोन आये. “ये नयी आवाज़ किसकी थी? कलाकार कौन था? श्रोता यह जानने के लिए बेचैन थे. राग मियाँ की मल्हार और इसे पेश करने का अंदाज़ किराना घराने की ख़ास निशानी है.

ग्रामोफोन कंपनी एच.एम.वी. से मेरे रिकार्ड दो नामों- गंगूबाई हुबलीकर (क्योंकि मैं हुबली की थी), और गंगूबाई हंगल, से आये. मेरे बड़े मौसा कृष्णप्पा ने ‘हुबलीकर’ उपनाम का विरोध करते हुए कहा कि चूंकि हमारे पुरखे ‘हंगल’ से आये थे, इसलिए मुझे इस उपनाम पर गर्व करना चाहिए. अगली बार रिकार्डिंग के लिए जब मैं मुम्बई गयी तो मैंने एच.एम.वी. वालों से कहा कि मेरा उपनाम हंगल ही रहे. उन्हें लगा कि चूंकि मेरे पहले रिकार्ड ‘हुबलीकर’ के नाम से बिक रहे थे, तो अब उपनाम बदल कर ‘हंगल’ कर लेने से रिकार्डों की बिक्री पर असर पड़ेगा. अगर उपनाम बदल कर ‘हंगल’ किया जा सकता था, तो क्यों न उसे बदलकर ‘गां धारी’ कर दिया जाए, जो कि मेरी जन्मपत्री के मुताबिक़ है? आकाशवाणी की उद्घोषणा में मैं गंगूबाई हंगल थी और यही मेरा स्थायी नाम बन गया. बाद के मेरे रिकार्ड इसी नाम से आये. यों मैंने ‘हंगल’ उपनाम धारण किया, मेरे पुरखे जहां के मूल बाशिंदे थे.

तब से मेरे कार्यक्रम आकाशवाणी, मुम्बई से लगातार प्रसारित होने लगे. इस के चलते मुझे और अधिक तैयारी व कठिन अभ्यास करना पड़ा. उन दिनों गायकों को तीन सत्रों में समुचित रागों के साथ कार्यक्रम प्रस्तुत करना होता था जो क्रमशः सुबह, दोपहर और शाम को प्रसारित हुआ करते थे. हमें आकाशवाणी में पच्चीस रागों की सूची देनी पड़ती थी, जिसमें से अंतिम चुनाव होता था. इस के पीछे दृष्टिकोण यह था कि अलग-अलग कलाकार रागों को जल्दी न दुहरायें. मुश्किल यह थी कि गुरूजी से सीखने की रफ़्तार- धीमी, व्यवस्थित और गहरी थी. आकाशवाणी की ऐसी मांग के लिहाज से वह अपर्याप्त थी. दत्तोपंत की थोड़ी मदद से मैं हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत पर श्री भातखंडे की किताब से राग चुन लिया करती थी. कहना न होगा कि इन रागों के बारे में मेरी जानकारी किताबी थी. मैंने यह छूट लेने का साहस अपने इस विश्वास के नाते किया था कि गुरूजी तो कुंडगोल में रहते हैं, वे मेरे रेडियो कार्यक्रम नहीं सुनते होंगे. एक खास मौके पर मुझे तुरत-फुरत की सूचना पर निर्धारित कार्यक्रम बदलते हुए रेडियो पर सुबह का राह बिभाश प्रस्तुत करना पड़ा. सौभाग्यवश जब मैं मुम्बई से लौट रही थी तो मेरी ही डिब्बे में गुरूजी भी यात्रा कर रहे थे. वे भी मुम्बई किसी संगीत-कार्यक्रम के सिलसिले में गये थे और उन्होंने रेडियो पर मेरा बिभास गायन सुना था. मुझे देखकर गुरूजी ने अपनी पास वाली सीट पर मुझे बैठाया. उन्होंने पूछा, “परसों रेडियो पर तुम कौन सा राग गा रही थी?” मैं डरी कि कहीं तो कुछ गडबड हुई है, डांट पड़ने वाली है. घबराते हुए मैंने कहा, “बिभास.”

“तुम उसे बिभास कहती हो? हमारे घराने में तीव्र धैवत लगाते हैं, तुमने कोमल धैवत लगाया. तुम्हारा मेघ मल्हार भी गड़बड़ था. इन रागों को रेडियो पर गाने से पहले तुम मेरे पास क्यों नहीं आयी? सलाह क्यों नहीं ली? गंगू, कभी-कभार तुम अपने मन-मुताबिक़ गाती हो और तुम्हारा गुरु होने के नाते लोग मुझे दोष देते हैं”

बढ़िया! तो तालीम रेलगाड़ी में ही शुरू हो गयी. गुरूजी गा रहे थे और मैं पीछे-पीछे दोहरा रही थी. डब्बे के दूसरे यात्री घूर-घूर कर जिज्ञासा से हमें निहार रहे थे.

१९३७-३८ में मेरी संगीत की तालीम नियमित और व्यवस्थित हो गयी और एक बार फिर मुम्बई में गंडाबंधन संस्कार हुआ. इस बार मैंने गुरूजी को १००१ रूपये गुरुदक्षिणा अर्पित की. अब तक गुरूजी नाटक मंडली छोड़ चुके थे और कुंडगोल में डेरा जमा लिया था. उन्होंने कटु अनुभवों के साथ ‘मंच’ छोड़ा था. नाटक कंपनी के मालिक रहते उन्हें आर्थिक घाटा हुआ था.

मैं रामन्ना के साथ नियमित तौर पर कुंडगोल से हुबली आ-जा रही थी. कभी-कभार दत्तोपंत देसाई मेरा साथ देते. एक बार हम हुबली लौटने को थे और रेल कुछ घंटों की देरी से थी. हम इंतज़ार करते रहे और रेलगाड़ी के पहुँचाने तक मेरी संगीत-शिक्षा और गुरूजी के बारे में बतियाते रहे.

हलके नाश्ते के साथ अभ्यास का सत्र शुरू होता. यह लगभग भक्ति, समर्पण और प्रतिबद्धता के साथ तपस्या जैसा होता. गुरूजी मुझसे पूरिया धनाश्री के कुछ स्वर गाने और कुछेक घंटों तक उसको मेहनत से दोहराने का आदेश देते. ‘गा गा रे सा नि पा, नि नि धा पा मा पा, गा गा रि सा, नि धा पा, मा गा रे सा’. मुझे यह सुर तब तक लगातार गाना पड़ता, जब तक मैं थक कर चूर नहीं हो जाती थी. पर गुरूजी घर में दूसरे कामों में मुब्तिला रहते हुए भी मेरा गायन ध्यानपूर्वक सुनते. यह लगभग चिकने पत्थर पर लगातार चन्दन घिसने की तरह था- कोई गलत स्वर नहीं, स्वरों की शुद्धता और सुघराई- यह हमारे घराने का अनिवार्य-तत्त्व था. राग के आलाप में स्वरों की सही गति और उसके व्यवस्थित विलंबित विकास को पक्का किया जाता था. गुरूजी की सलाह थी कि, “स्वरों को किसी कृपण की तरह कम खर्च करो. श्रोताओं को अगले स्वर का अंदाजा लगाने दो, और जब तुम सुर बदलो तो उन्हें उस बदलाव के रोमांच से गुजरने दो.” धीरे-धीरे मैंने स्वर को खोलने का रहस्य और राग का सार-तत्त्व  समझा. इस अंदाज से प्रस्तुत करने पर कोई राग दर्शकों में एक विशिष्ट और सुखद अनुभूति जगाता है. यह गुरूजी के प्रशिक्षण की एक ‘युक्ति’ थी. जब कोई खास राग बरसों की रियाज से मंज जाता है तब जाकर अगले रागों के अध्ययन के लिए मजबूत बुनियाद पड़ती है.

गुरूजी के संरक्षण में मेरी तालीम पूरे पन्द्रह साल चली, हालांकि बीच-बीच में, जब-तब इसमें कुछ विघ्न-बाधाएं आती रही. तालीम का ठीक-ठीक समय लगभग पांच साल ही रहा होगा. यमन से शुरू करके मैंने तोड़ी, बिभास, मुल्तानी आदि दिन और रात के लिहाज से संगत कई राग मैंने सीखे.

कुछ समय के लिए भीमसेन जोशी मेरे सहपाठी हुए. गुरूजी के अन्य वरिष्ठ शिष्यों में नीलकंठबुआ गाडगोली, वेंकटराव रामदुर्ग, और फिरोज दस्तूर शामिल थे. फिरोज दस्तूर मुम्बई के एक धनी-मानी पारसी परिवार से थे सो गुरूजी उनको सिखाने उनके घर जाया करते थे. एक बार फिरोज दस्तूर अनजाने में गडबड़ कर बैठे. वे मंच पर गुरूजी की बगल में बैठ गए. बाद के बरसों में वे उस घटना को याद किया करते थे. हममें गुरूजी के प्रति डर और एक सम्मान का भाव था. गुरुर्ब्रह्मा- गुरुजी हमारे लिए देवता थे. अलग-अलग स्वरों और उनके विस्तार को समझाते हुए जब वे कोई नया राग सिखाते, तब मारे संकोच के उनसे राग का नाम पूछने की हिम्मत भी नहीं होती थी.

एक बार मैं एक नया राग सीख रही थी. मैंने कुछ समय तक रियाज किया और राग के ढाँचे पर अपनी पकड़ बना ली. तभी मुझे आकाशवाणी से एक अनुबंध मिला. मैं इस नए राग की प्रस्तुति के लिए उत्सुक थी पर मुझे इसका नाम ही पता नहीं था. गुरूजी से मैं राग का नाम पूछने से डर रही थी, सो मैंने रामन्ना को लहकाया. रामन्ना ने हँसी-खुशी अपनी जेब से आकाशवाणी के अनुबंध के साथ कुछ और पुर्जे निकाले.

गुरूजी ने पूछा, “क्या पुर्जे हैं ये?”

रामन्ना ने जवाब दिया, “गंगू को आकाशवाणी से एक अनुबंध मिला है और वह चाहती है कि जो नया राग आपने सिखाया है, उसे गाये.”

“इतनी हड़बड़ी क्यों?” गुरूजी ने पूछा. पर उन्होंने तानपूरा उठाया और वही राग गाने लगे.

आखिरकार, रामन्ना ने पूछ ही लिया “ये राग कौन सा है?”

गुरूजी ने नाराज होते हुए जवाब दिया, “सुहा, सुहा, सुहा.” तानपूरा जमीन पर टिकाया, उठे, और चले गए.  इधर उनका रक्तचाप काफी बढ़ा हुआ था. कभी-कभी वे जल्दी ही परेशान हो जा रहे थे. खैर, मैंने अनुबंध-पत्र में भर दिया- राग सुहा.

धीरे-धीरे मैं तोड़ी, मुलतानी, पूरिया, पूरिया धनाश्री, दरबारी, अदाना आदि की विभिन्न “राग-रागिनियों” से सुपरिचित हो गयी. पर अभी भी मुझमें जनता के बीच संगीत-कार्यक्रम देने का विश्वास नहीं आया था. इस मुश्किल को हल करने में थोड़ा वक्त लगा. ऐसे में माँ की मुझे बेहद याद आती. मुझे डर लगता था कि श्रोताओं में कहीं गुरूजी न बैठें हों. हमारे ही घराने के फकीरप्पा कुंडगोल एक संगीत-विद्यालय चलाते थे, उसी विद्यालय के सालाना जलसे में दत्तोपंत देसाई ने गुरूजी को गायन के लिए मना लिया. कार्यक्रम का आरम्भ शिष्यों के गायन से होना था और मैं उनमें सबसे पहली थी. लोगों के बीच मंच पर गुरूजी के साथ प्रस्तुति देने को लेकर मैं इतनी घबराई हुई थी कि मैं तानपूरे के साथ बैठी ही रह गयी, गाना मेरे मुंह से फूटा नहीं. पसीने से सराबोर मैं मंच से भाग आयी. गुरूजी अक्सरहां इस घटना को याद करके मुझे चिढाते थे.

एक बार मैंने फैयाज़ खां को मुम्बई के एक कार्यक्रम में सुना और गुरूजी से कहा कि मुझे उनकी प्रस्तुति अच्छी नहीं लगी. गुरूजी ने कारण पूछा. असल में तब मैं इतनी परिपक्व नहीं हुई थी कि उतने बड़े संगीतज्ञ के गायन को समझ सकूं और उसकी तारीफ़ कर सकूं. दूसरे यह कि मैं मैं गुरूजी को यह कैसे बताती कि गाते हुए खां साहब सिगरेट पी रहे थे? तो मैंने जवाब दिया कि, “बस मुझे पसंद नहीं आया.” गुरूजी भड़क उठे, “तुम्हें पसंद नहीं, इसका क्या मतलब? माने तुम समझ नहीं पाई. इतने बड़े संगीतज्ञ को तुम्हें बार-बार सुनना चाहिए. तब जाकर तुम उस संगीत को समझने और उसकी तारीफ़ करने के लायक बन पाओगी.”

गुरूजी के शब्द सही थे. मैंने महसूस किया कि दूसरे घरानों के उस्तादों के गायन को हमें बारम्बार सुनना चाहिए ताकि हम उनकी गायन-शैली के उम्दा नुक्ते और नाजुक बारीकियां समझ सकें.  जब भी मैं हीराबाई को किसी कार्यक्रम में सुनती, उनकी तरह गाने को प्रेरित होती. वे मुझसे दस साल बड़ी थीं. पूना में उनके साथ बिताये गए कुछ दिन मुझे अभी भी याद हैं.

मुम्बई की गणेश पूजा में प्रस्तुति देने के लिए अब मुझे बुलाया जाने लगा था. मुझे अपनी हुबली-धारवाड़ की प्रस्तुति से पचास रूपये मिले और मुम्बई की अपनी पहली प्रस्तुति से डेढ़ सौ. मेरे लिए यह बहुत बड़ी रकम तो थी ही, साथ ही साथ बड़े पैपाने पर मेरे गाने के लिए प्रोत्साहन भी था.

हमारे घराने की एक वरिष्ठ महिला और मेरी तथाकथित शुभेच्क्षु ने एक बार मुझे मशविरा दिया कि, “अब मुम्बई में बस जाओ तो तुम्हें ढेरों न्योते मिला करेंगें. मेरे एक शिष्य को एक कार्यक्रम का न्योता मिला था जिसमें उसे एक सौ पच्चीस रूपये मिलाने वाले थे पर उसने मना कर दिया. इस तरह के सारे मौके तुम स्वीकार कर सकती हो.” उन देवी जी की इस तरह की टिप्पणी और दबा देने वाली जुबान से मुझे ठेस लगी. मैंने उनका शुक्रिया अदा किया और उनसे पल्ला छुडा लिया.

आप लोगों से अपनी पारिवारिक जिंदगी के बारे में कुछ बांटूं. जैसा पहले मैंने बताया, सोलह की उम्र में मेरी शादी गुरुराव कावलागी से हो गयी थी. संगीत सुनने के वे भारी रसिक थे. हालांकि वे थोड़ा अपने में रहने वाले इंसान थे, पर थे बेहद प्यारे इंसान. हमारे घर से थोड़ी ही दूर वे अपने माँ-पिता के साथ दूसरे घर पर रहते थे और प्रायः दिन का खाना हमारे साथ ही खाते थे.

खुले दिल से उन्होंने मेरी संगीत साधना को प्रोत्साहित किया. मेरे संगीत-कार्यक्रमों की राह में उन्होंने कभी अडंगा नहीं लगाया. यहाँ तक कि जब वे बीमार होकर अस्पताल में बिस्तर पर थे, उनका जोर यही था कि मैं अपने कार्यक्रम न छोडूं.

वे मुम्बई विश्वविद्यालय से विधि स्नातक थे. वे एक काबिल वकील थे पर कभी वकालत का पेशा नहीं किया. उन्होंने कई व्यवसायों में हाथ आजमाया और पैसा गंवाया. १९४३ में उन्होंने १२,००० रूपये में हुबली के देशपांडे नगर इलाके में एक घर खरीदा जिसकी छांह में मेरे परिवार का डेरा बना. जब हमने उस घर में रहना शुरू किया तो शुरुआती छः सालों तक हमें बिना बिजली-पानी के काम चलाना पड़ा.

इस घर को खरीदने के लिए उन्होंने एक बैंक से लोन लिया था, जिसे किश्तों पर चुकाया जाना था. घर-मालिक होने की खुशी के ऊपर यह बोझ लदा रहता था. आप सब पाठकों के साथ बिना किसी हिचक के मैं इस घर के बारे में साझा करना चाहती हूँ.

मेरे पति ने घर-खरीद का क़र्ज़ चुकाने के लिए घर को बंधक रख दिया था. एक बार क़र्ज़ की किस्त चुकाने में देरी हुई. हमें इस मकान को बंधक रखने वाले मालिक की तरफ से सूचना मिली और घर की नीलामी होने की नौबत आ गयी. हमारे वाकिफकार उडुपी के श्री उपेन्द्र नायक ने घर की बोली लगाकर उसे खरीद लिया. मेरा इस घर से भावनात्मक जुड़ाव था. दया करके उपेन्द्र नायक ने घर में रहने की इजाजत दे दी. आगे उन्होंने यह भी भरोसा दिलाया कि अपनी सुविधा मुताबिक़ हम घर की खरीदी-कीमत उन्हें चुका कर घर वापस पा सकते हैं. वक्त लगा पर आगे मैंने ऐसा किया भी. तो यों हमारे सर पर छत सलामत रही. ऐसे हितैषी की मदद को मैं कभी भुला नहीं पाऊंगी.

मेरे पति की पहली शादी के बच्चे मुझसे नेह करते थे और मुझे चिक्कम्मा (छोटी माँ) बुलाते थे. आज भी जब मैं मुम्बई दौरे पर जाती हूँ, वे सब आकर मिलते हैं. उन्होंने अपनी माँ, जो मेरी बड़ी बहन जैसी थीं, और मुझमें कभी कोई अंतर नहीं माना. इस प्यार और स्नेह को मैं कैसे भूल सकती हूँ?

खैर, परिवार बढ़ा जा रहा था और मेरी कम आमदनी में सब कुछ संभालना काफी मुश्किल हो रहा था. मेरे छोटे मामा रामन्ना और उनका परिवार भी मेरे साथ ही रह रहा था. मेरे पतिदेव ने कभी भी इसका विरोध नहीं किया.

मेरी आर्थिक हालात कुछ अच्छी न थी पर मैंने मामा को सहारा देना जारी रखा. रामन्ना के साथ ही मैं अपने सुख-दुःख बांटती थी. अलावा इसके जब भी दूर-दराज की जगहों पर मैं कार्यक्रमों में जाती, वे हमेशा मेरे साथ होते. उनकी मौजूदगी मुझे ताकत और ढांढस देती थी.

कुछ समय बाद और रामन्ना ने उसी अहाते में अपना घर बनवा लिया. उन्होंने एक आटा-चक्की और जलावन की लकड़ी का गोदाम भी खोल लिया.

कृष्णा, बाबू और नारायण (नानी)- मेरे तीनों बच्चे बड़े हो रहे थे. जब तक ये सभी बड़े नहीं हो गये, मैं इनमें से किसी न किसी को लेकर यात्रा में जाती और बच्चा गोद में लिए हुए गाती थी. जब मैं कोई राग गा रही होती, गोदी में पड़ा शैतान अपना ‘राग’ छेड़ देता. खासकर कृष्णा, जिसे उसकी खराब तबीयत के नाते मैं अक्सरहां साथ लिवा जाया करती थी. अब हमेशा ही कृष्णा मेरे कार्यक्रमों में मेरी गीत-संगत करता है. ममेरा भाई शेषम्मा (शेषगिरी हंगल- छोटे मामा का लड़का) तबले पर मेरे साथ होता है.

मेरा लंबे-चौड़े फैले हुए संयुक्त परिवार ने मुझे साझापने और सुरक्षा का भाव दिया. मैं थोड़ी चिंता करने वाली इंसान हूँ. छोटे-छोटे रोग-व्याधि भी मुझे बेचैन कर देते हैं.  किसी बच्चे को सर्दी-खांसी हुई कि मैं परेशान, कि कहीं टायफायड या निमोनिया तो नहीं हुआ? मैं हमेशा सोचती हूँ कि हालात बदतर हो सकते हैं. ये मेरी मानसिक कमजोरी है. कारण यह कि शायद मैंने अपनी पूरी जिंदगी में बहुत दुःख-कष्ट झेले हैं. क्योंकि मैं हर तरह के दुःख और कठिनाईयों से गुज़री हूँ, मैं अपने को आशावादी नहीं कह सकती. अब मैं आपको अपनी जिंदगी की सबसे दुखद घटना सुनाती हूँ:

मेरे पति भीषण पेट-दर्द से गुजर रहे थे. डॉक्टर जी. वी. जोशी ने उनका परीक्षण किया और कैंसर का संदेह व्यक्त किया. वे कर्नाटक इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल साईंसेज (के. आई. एम. एस.) में भर्ती कराये गये. मैं उस वक्त हुबली में नहीं थी, एक कार्यक्रम के सिलसिले में मुम्बई गयी हुई थी. हुबली लौटने पर मुझे यह खबर मिली. मेरा सारा साहस जाता रहा और लगभग हिम्मत हार बैठी. डॉक्टर जोशी मेरे प्रशंसकों में से एक थे और मेरा बहुत सम्मान करते थे. किनारे ले जाकर उन्होंने मुझे उनकी गंभीर हालत के बारे में समझाया. उन्होंने सलाह दी कि मैं अपने पति से कुछ कागजों पर दस्तखत करा लूं. मुझे लगा कि धरती मेरे पैरों के नीचे से गायब हो गयी है.

मेरे पति के पास एक ट्रक था जोकि उनके व्यवसाय में काम आता था. श्री नरवेकर ने एक पेट्रोल पम्प खोला था, जिसे मेरा बेटा बाबू चलाता था. उन दिनों किसी धंधे के लिए साख बढ़ाना जरूरी था, कुछ ही लोग नकद देकर व्यवसाय चलाते थे. किसी आदमी को व्यवसाय की खातिर बारह हजार की साख जुटानी पड़ती थी. चूंकि मेरे पति यह रकम चुका नहीं सकते थे तो उन्होंने इस रकम के बदले बाबू को ट्रक दे दिया. ट्रक के मालिकाने के तबादले के लिए कुछ कागजात पर मेरे पति के दस्तखत जरूरी थे. अगर उनसे इन कागजों पर दस्खत करने को कहा जाता तो उनको अपनी बीमारी की नाजुक हालत का पता चल जाता. मैं घर आई, बड़े बेटे बाबू से बताया कि उसके पिता के कैंसर से जूझते हुए मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं. मैं रो रही थी.

जब मैं अपने पति को देखने नर्सिंग होम पहुंचीं, मुझसे आँसू संभल नहीं रहे थे. इस सब के बीच दुर्भाग्य यह कि मुझे मुम्बई में एक कार्यक्रम में गाने जाना था ! मैंने उनसे बता दिया कि मुम्बई न जाने का फैसला कर लिया है.

पर उन्होंने जवाब दिया, “जरूर जाओ. मेरी तबियत ऐसी भी खराब नहीं है.” उन्हें कैसे अंदाजा हो सकता कि उनका आख़िरी वक्त बहुत दूर नहीं है?

मैंने कहा, “आप बात भी नहीं कर पा रहे हैं. मैं जा कैसे सकती हूं?”

उन्होंने जोर देकर कहा कि, “मेरा बात करने का मन नहीं हो रहा. पर तुम जाओ.”

मैंने दोपहर के २.३० पर रेल पकड़ी, कृष्णा मेरे साथ थे. ज्यों ही मुम्बई में कार्यक्रम खतम हुआ, मैं वापस हो ली और अगले दिन सुबह पाँच बजे हुबली पहुँची. स्टेशन पर बाबू नहीं मिला, जो कि हमेशा ही मुझे लिवाने आया करता था. मेरा दिल डूबने लगा. असल में मेरे मुम्बई छोड़ने से पहले ही श्रीमती विजया मुले (15) को इस दुखद खबर का तार मिल गया था. रास्ते भर मैं दुःख से बची रहूँ, यह सोचकर उन्होंने मुझे यह खबर नहीं बताई थी. १९६६ के मार्च की यह छठी तारीख थी. मैं अनाथ हो गयी. मेरा जीवन-संगी खो गया. अब आगे क्या…?

आकाशवाणी से मुझे बुलावा आया कि मैं १२ अप्रैल को संगीत के ‘राष्ट्रीय कार्यक्रम’ में भागीदारी करूं. मैं क्या कर सकती थी? मन में ताजे घाव की टीस लिए मैं गा कैसे सकती थी? मैं सिर्फ रो सकती थी. मैंने परिवार के लोगों को बता दिया कि मैं दिल्ली नहीं जा रही हूँ. पर हर किसी की राय यही थी कि इस राष्ट्रीय कार्यक्रम के प्रस्ताव को ठुकराना नहीं चाहिए. श्री एन. एस. हर्दीकर (16) हमारे घर आये और कहा कि, “देखो, अगर तुमने आगे से तानपूरा न उठाने का फैसला कर लिया है तो मत जाओ पर मेरी तो राय है कि राष्ट्रीय कार्यक्रम में गाने के ख़ास मौके को छोड़ना नहीं चाहिए. हिम्मत जुटाओ. यह तुम्हारे भविष्य का रास्ता हो सकता है.” तो मैं दिल्ली गयी और उस राष्ट्रीय कार्यक्रम में अपनी प्रस्तुति दी.

पीछे भी एक बार ठीक ऐसा ही हुआ था. मेरे गुरूजी सवाई गन्धर्व १२ सितम्बर १९५२ को गोलोकवासी हुए. इसके कुछ ही दिनों बाद मुझे पहली बार किसी राष्ट्रीय कार्यक्रम में संगीत प्रस्तुत करने का बुलावा मिला. गुरूजी के निधन से अभी मैं उबर नहीं पायी थी. मैं दुविधा में थी क़ि क्या करूं? जाऊं क़ि न जाऊं? गुरूजी के दामाद नानासाहब देशपांडे ने मुझे समझाया क़ि मैं दिल्ली जाकर उस राष्ट्रीय संगीत कार्यक्रम में गाऊँ, जिसका प्रसारण पूरे देश में होना था. उस दिन की मेरी प्रस्तुति मेरे स्वर्गवासी गुरूजी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि थी.

मेरे पति और गुरूजी, दोनों ने हमेशा मेरा उत्साह बढ़ाया. जब कभी आकाशवाणी, मुम्बई से मेरे गायन का प्रसारण होता, गुरूजी आमतौर पर अपने कार्यक्रमों या फ़िरोज़ दस्तूर को तालीम देने के सिलसिले में मुम्बई में होते. पर उन्होंने कभी भी मेरे कार्यक्रमों पर अपनी राय जाहिर नहीं की. कहते, “गंगू, चलो, एक कप मसाला दूध पिया जाय.” और विक्टोरिया (17) बग्घी के चालक को आदेश देते कि कालबादेवी (सेन्ट्रल मुम्बई में एक बाज़ार) चलो. मतलब इसका यह होता था कि गुरूजी आज बढ़िया मूड में हैं और कार्यक्रम उन्हें पसंद आया है. कालबादेवी की एक दुकान का बादाम, ईलाइची और केसर डला मसाला दूध उनका पसंदीदा पेय था. अगर उनको मेरी प्रस्तुति पसंद नहीं आती थी तो वहीं के वहीं आलोचना करने की बजाय बाद में कभी मेरे गायकी की गड़बड़ियों पर अंगुली रखते थे.

गुरुजी की प्रतिभा और गहन ज्ञान के बारे में मैं क्या बताऊँ? आज़ादी मिलने के पाँच साल बाद ही वे गोलोकवासी हो गए. अगर वे कुछेक साल और जीते रहते, न जाने कितने मान-सम्मान उन्हें मिलते. उन्हें जाने कितनी ही उपाधियाँ प्रदान की जातीं और जाने कितने ही मौकों पर उनका सम्मान किया जाता. मैं तो उनकी प्रतिभा का बहुत छोटा हिस्सा आत्मसात कर पाई, बावजूद इसके मुझे इतने अधिक पुरस्कार मिले. उनकी गायकी की शैली और सिखाने की तकनीक एकदम विशिष्ट थी.

जीविका चलाने के लिए गुरुजी मराठी नाटकों में अभिनय किया करते थे. उनके गुरु खान साहब (उस्ताद अब्दुल करीम) को यह पसंद बिलकुल न था कि किराना घराने का इतना श्रेष्ठ गायक स्त्री भूमिकाओं में रंगमंच पर गीत गाये. एक बार ठीक वहीं खान साहब का संगीत-कार्यक्रम आयोजित होना तय हुआ, जहां सवाई गंधर्व की नाटक मंडली डेरा डाले हुए थी. जब उन्होने नाटक में अपने शिष्य के गाने की बढ़िया रपट सुनी तो एक दिन वे नाटक देखने गए. सवाई गंधर्व को इस बात की भनक तक नहीं थी. उस दिन वे नाटक में सुभद्रा की भूमिका में थे. साड़ी में लिपटे सवाई गंधर्व मंच पर आए और दर्शकों की पहली पंक्ति में खान साहब को देख हक्के-बक्के रह गए. किसी तरह वे इस झटके से उबरे और अभिनय जारी रखा. खैर, उन्हें उस दिन नाट्यगीत गाते हुए तनिक असहज और गड़बड़ाहट महसूस हुई, मानो कोई उनका गला भींचे दे रहा हो.

समय बीतते-बीतते सवाई गंधर्व का गला मुश्किल पैदा करने लगा. नतीजतन संगीत-कार्यक्रमों वा मंच पर कई बार वे अपनी आवाज पर नियंत्रण खोने लगे. एक बार बेल्लारी में मराठी नाटक ‘मानापमान’ में वे धैर्यधर की भूमिका निभा रहे थे. नाटक के सभी गीत बेहद लोकप्रिय थे. एक खास गाना ‘चंद्रिका हीजानु थेविया’ गाते हुए वे  तार-सप्तक तक नहीं पहुँच पाये. जब वे इस गीत की पंक्ति ‘शोभा घन विपुलते’ पर पहुंचे, आवाज़ उठा नहीं पाये और बारंबार ‘शोभा, शोभा, शोभा’ की आवृत्ति करने लगे. दर्शक इस दुहराव से थक गए और चिल्लाने लगे, “बहुत हुई तुम्हारी शोभा.” बहुत देर बाद उनकी आवाज तार-सप्तक में पहुंची और तब जाकर गीत सुनने में प्रीतिकर लगा.

इसी तरह की मुश्किल उनके संगीत-कार्यक्रमों के दौरान पैदा हुई. वे एक ही राग को विभिन्न नए तरीकों से गाया करते थे, पर अब कभी-कभी उनकी आवाज उनका साथ छोड़ दे रही थी. मुंबई के एक कार्यक्रम में उन्हें  लगभग एक घंटे तक अपनी आवाज के साथ संघर्ष करना पड़ा था. धीरे-धीरे श्रोता उठने लगे. इसे चुनौती की तरह  स्वीकारते हुए, अंतःस्रोत से प्रेरणा लेते हुए और संगीत-देवी का आह्वान करते हुए उन्होने अपनी आवाज पर नियंत्रण हासिल किया. फिर जबर्दस्त तरीके से गाने लगे. श्रोता लौट आए, तल्लीन भाव से उन्हें सुना और कार्यक्रम के आखिर में खड़े होकर तालियों की जबर्दस्त गड़गड़ाहट से उनका अभिवादन किया. उन्होने अपनी अदम्य स्वभाव और इच्छाशक्ति से यह हासिल किया था.

मुझे भी अपने गले में थोड़ी मुश्किल मालूम हो रही थी. हमारे पारिवारिक चिकित्सक डॉ. जी. वी. जोशी ने परीक्षण के बाद पाया कि मुझे टॉन्सिलाइटिस है. शुरू में तो मैंने बहुत ध्यान नहीं दिया पर दूसरी जगहों की यात्रा के दौरान मुझे गले में परेशानी महसूस होती थी. शायद मौसम या पानी बदलने के नाते. एक बार किसी कार्यक्रम के बीच में ही गले में दिक्कत होने लगी. मैंने गायन के बीच में थोड़ा अवकाश लिया, गरम पानी से गरारा किया और फिर गाने गयी. मैंने डॉ. जोशी से सलाह ली. उन्होने बताया कि हालांकि ऑपरेशन छोटा-सा ही होगा पर संभवतः इसका असर मेरी आवाज पर स्थाई किस्म का हो सकता है. जब यह मुश्किल फिर से आन पड़ी, तब डॉक्टर ने बिजली का झटके से गले में बढ़े हुए इस खराब मांस को निकाल दिया. इस ऑपरेशन के बाद हालांकि  मुझे फिर कभी भी टॉन्सिलाइटिस की शिकायत नहीं हुई पर मेरी आवाज में भारीपन आ गया. बहुत से लोग, जो मुझे गाते हुए सुनते हैं, उन्हें लगता है कि यह किसी पुरुष गायक की आवाज है.

एकबार किसी आकाशवाणी कार्यक्रम के सिलसिले में मैं दिल्ली में थी. मैंने अपने मेजबान की बेटी से साढ़े आठ बजे सुबह रेडियो सुनने के लिए कहा. जब मैं कार्यक्रम से घर लौटी, मैंने उस लड़की से पूछा कि क्या तुमने गाना सुना? उसने जवाब दिया, “नहीं आंटी, जब तक मैंने रेडियो खोला, कार्यक्रम की उद्घोषणा बीत चुकी थी और कोई पुरुष गायक गा रहे थे.” जब मैंने उसे बताया कि वह मैं ही गा रही थी, तो हम दोनों ठहाके लगाने लगे.

गुरुजी के सामने किसी संगीत-सभा में गाने का आत्मविश्वास हासिल करने में मुझे कई साल लगे. गुरुजी  को विश्वास नहीं हो रहा था कि संगीत-सभा में मैंने बढ़िया गाया. तब रामन्ना ने कहा कि मैंने सचमुच बहुत बढ़िया गाया. गुरुजी ने पूछा, “मतलब क्या है तुम्हारा?” उन्हें कार्यक्रम में मेरी प्रस्तुति कि पूरी रपट चाहिए थी कि क्यों मेरा गाना सही मायने में बढ़िया रहा. एक बार बड़े गुलाम आली खान साहब लाहौर से मुंबई आए, एक संगीत सम्मेलन में शिरकत करने. गुरुजी ने मुझसे खान साहब की प्रस्तुति के बारे में पूछा तो मैंने कहा, बढ़िया थी. तो उन्होने मुझसे तर्क के साथ विस्तृत रपट बताने के लिए कहा कि मुझे क्योकर प्रस्तुति अच्छी लगी. तब भी, जब वे शारीरिक रूप से किसी कार्यक्रम में जाने के लिए अक्षम हो गए थे, उनकी इच्छा यही रहती थी कि वे कम से कम कार्यक्रम में मानसिक तौर पर हाजिर रहें और उन्हें कार्यक्रम की प्रामाणिक और पूरी रपट मिले.

अपने गुरुजी की नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के बारे में मुझे जरूर ही कुछ कहना चाहिए. उन्होने किराना घराने के उस्ताद अपने गुरु, अब्दुल करीम खान से संगीत की तालीम पायी. पर वे यहीं नहीं रुके. दूसरे घरानों, मसलन ग्वालियर, आगरा, जयपुर आदि की गायकी को वे जिज्ञासापूर्वक सुना करते. श्री भास्करबुआ बाखले, जो धारवाड़ में आठ साल रहे, इन तीनों घरानों की गायकी में दक्ष थे. किराना घराने के शिष्य होने के बावजूद गुरुजी ने इन तीनों घरानों की खासियतों, बारीकियों और विशिष्टताओं को अपने गायन में आत्मसात किया और घुलाया. फ़ैयाज़ खान, अल्लादिया खान और नत्थन खान (मैसूर के दरबार में गायक) जैसे दूसरे घराने के गायकों को वे हमेशा सुना करते. वे भजन सहित भक्ति-संगीत के दूसरे प्रकार भी गाया करते थे. बृहस्पतिवार के दिन कुंडगोल के दत्तात्रेय मंदिर में वे कबीर भजन और अन्य भक्ति-गीत गाया करते थे.

गुरुजी को कन्नड बढ़िया से आती थी, पर उन्होने पुरंदरदास, विजयदस, कनकदास जैसे हरिदासों के कहे कन्नड भक्ति-गीत नहीं गाये. वे मराठी माहौल में पले-बढ़े थे. उनकी ज़्यादातर प्रस्तुतियाँ पूना, मुंबई और उत्तर भारत में होती थीं. इन जगहों के श्रोता हिन्दी या मराठी बन्दिशें सुनना पसंद करते थे. हालांकि वे आमतौर पर अपनी पत्नी और शिष्यों से कन्नड में बातचीत करते पर अपनी बेटी से हमेशा ही मराठी में बतियाते.

एक दिन मैं अल्हइया बिलावल का रियाज़ कर रही थी. मुझे लगा कि मुझसे भूल हो रही है. गुरुजी पाखाने जा रहे थे. सुनकर लौट पड़े. उन्होने मुझे गाने का ठीक-ठीक रास्ता बताया और यह रियाज़ लगभग दो घंटे से ऊपर ही चला.

किसी भी संगीत-कार्यक्रम से लौटने के बाद गुरुजी मुझसे और रामन्ना से प्रस्तुति और श्रोताओं की प्रतिक्रिया के बारे में पूछा करते थे. एक बार रामन्ना ने कहा कि लोग मारू बिहाग सुनना चाहते थे, पर इसने वह गाया नहीं. गुरुजी ने मुझसे कारण पूछा. रामन्ना ने जवाब दिया कि चूंकि इसने इस राग को पूरा नहीं सीखा है इसलिए नहीं गाया. गुरुजी ने तत्काल तानपूरा मंगवाया और मुझे राग मारू बिहाग सिखाने लगे. अगले पूरे दो दिन वे मुझे रागों और आलापों के बारे में समझाते रहे. इसके अगले दिन मैं तानपूरे के साथ बैठी और रियाज़ शुरू किया. मैं उम्मीद कर रही थी कि गुरुजी आएंगे और मेरी बगल में बैठेंगे. कुछ देर बाद गुरुमाता भीतर गयीं और उनसे कहा, “गंगू इतनी देर से इंतजार कर रही है. जाकर उसको रियाज़ क्यों नहीं करवाते?”

गुरुजी ने कहा, “उसका गाना सुन रहा हूँ. अब उसने मारू बिहाग पर पूरी तरह से पकड़ बना ली है. अब इसमें आगे कुछ नहीं जो मैं उसे सिखाऊँ.” यह सुन मैं बहुत खुश हुई.

गुरुजी ज्यादा बतियाते नहीं थे. वे प्रकृति से बेहद गंभीर थे. अपने शिष्यों के साथ तो और भी. वहाँ जो भी बातें होती, संगीत तक महदूद होतीं. एक बार जब वे बहुत बढ़िया मूड में थे, उन्होंने यह पूछा कि, “दत्तोपंत का तुम्हारे रियाज़ और प्रगति के बारे में क्या कहना है?”

एक बार उन्होंने अपने एक शिष्य नीलकंठबुआ गडगोली को वापस अपने घर गदग जाने को कह दिया. नीलकंठबुआ बहुत दुखी हुए. उस शाम नीलकंठ रियाज़ में डूबे हुए थे. गुरुजी कहीं बाहर गए हुए थे, घर लौटे. घर के बाहर रुककर उन्होने ध्यान से आधे घंटे से ज्यादा नीलकंठ का गायन सुना. तब वे घर के भीतर ऐसे आए, मानो अभी ही आ रहे हों. कोट और टोपी उतारकर वे अपने शिष्य की बगल में बैठ गए और कहा, “नीलकंठ, गदग वापस जाने की जरूरत नहीं. यहीं रहो.” आभार की भावना से नीलकंठ की आँखें भर आयीं.

गुरुजी जिस नाटक मंडली को चलाते थे, उसके बंद होने के साथ ही उनके जीवन का भी एक अध्याय समाप्त हुआ और दूसरा नया अध्याय शुरू हुआ. हुबली लौटने के बेर गुरुजी दत्तोपंत देसाई के यहाँ रुके और मेरी संगीत-शिक्षा फिर से शुरू हुई. यह बात कोई 1940 के पहले की होगी. मुझे गुरुजी के रियाज के सत्रों के दौरान मौजूद होने का सौभाग्य हासिल हुआ.

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