आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

तरल भौतिकी: समर्थ वशिष्ठ

दिल्ली

कैसा गज़ब है ये शहर
जहाँ कहीं से कहीं तक कोई बस नहीं जाती.

बसों से बसों तक चलती हैं बसें
सीटों से सीटों तक दौड़ते हैं धावक
दिन-रात.

पैदल पारपथ से बाहर निकलते ही
बारिश.

और सप्ताह में पहली बार
ख़ुशी.

अवसाद और तनाव में क्या है अंतर
दफ्तर में पूछता है कोई.

अवसाद में नहीं रह सकता कोई खुश
तनाव में रह भी सकता है
कुछ सोचकर कहता हूँ मैं.

समय बीतने से पहले
बीत जायेंगे हम

घड़ियाँ तकते-तकते
सुबहों में खिसकाते अलार्म.

अलस्सुबह
मोबाइल पर बात करता एक शहर

कहाँ हो रही हैं इतनी बातें
कौन कर रहा है इतनी बातें
मैं क्यूं नहीं हूँ इनके बीच

दिन बीतते बीतते
स्ट्रीटलाईट की रोशनी में
भली लगने लगती है दिल्ली

पीली आभा में चमकते
चेहरे लगते हैं
खुद से कुछ कम थके.

सर्दी की एक सुबह
बीच रास्ते स्कूटर बंद.

सालों के अपने इस दोस्त को
घसीटने से पस्त
और आधी छुट्टी कटने के भय से
मैं कर आया उसे
चांदीवाला अस्पताल के बाहर
टिनोपाल के नीचे बैठे
अलीम ओटो मैकेनिक के सुपुर्द

दिन भर उसका चेचक भरा चेहरा
रहा मेरे जेहन में छाया
दिन भर उसे सुनती होगी अचानक
स्कूटर से टिक-टिक की आवाज़

रमजान की एक दोपहर
ट्रैफिक जाम.

तिरझे, सड़क रोकते
इस अट्ठारह-पहिये वाले वाहन के उस ओर
झुके होंगे सैकडों सर

कोई दूर से चिल्लाता
जिबह!

प्रेतछाया

गुज़रता कुछ भी नहीं
पकता है भीतर
आइंस्टाइन के दुरूह सिद्धांत के बावजूद

तुम्हारी आँखों में रहती है
चौंधियाते उजाले से भरपूर एक रात
नासिका में बसीं
हजारों-हज़ार गंधों में एक खुशबू
नहीं जुड़ पाती किसी स्वाद के साथ

गाहे बगाहे
किसी दुःस्वप्न के कुटिल तर्क से भागते तुम
टूटती तंद्रा में पाते हो वे स्पर्श
जो होने न थे
न होने थे

एक प्रेम गीत

हम जानते हैं इक बादलों सा अहसास
         जो ओस की तरह आकाश से गिरकर
                  लदता जाता है हमारी पीठ पर

प्यार
         हमारी नाक पर बैठा
                  इतराए

प्यार
         फैला खुली हवा में
                  सूखता कपड़ों के मानिंद

एक स्त्री को तुम्हें
         तुम्हारे तिलों और मुहासों समेत
                  जानने का आनंद

तुम्हारा एक स्त्री को जानना
अपनी टांग की ढीठ दाद से बेहतर

प्यार
         घास में कुंद पत्ते
                  मसले जाते मखमली बागों में

प्यार
         दिन के वे उलझे क्षण
                  जब हम होते समझदारी से परे

या अलस्सुबह
         मदमाये कुत्तों के झुंड से भागती
                  अकेली मादा की दबी पूँछ

प्यार
         ऋतुस्राव का गणित
                  तरल भौतिकी

प्यार
         कुछ चीज़ें आ जाती हैं पास
                  यूंही, उम्मीद से पहले

या टेलीफोन पर घुंटी हमारी आवाज़ें
रात में फुसफुसाती

जब सोईं हो हमारी माएं
बिस्तरों में सीटियाँ बजातीं

ब्यौरे

हमेशा स्केच पर एक हल्की लकीर
ओह करता हूँ जिन्हें प्यार
तुम्हारी आँखों के दंतुल मशीनी पहिये
किसी जुलूस की हिलती पूँछ
नारों की पीले चेहरे
सड़क पर कोण काटता रिक्शेवाला
भौतिकी के नियमों में ऐसी आस्था
कर देती मेरा चेहरा सुर्ख़.

शाम की सैर के दौरान
मिलते हैं ब्रेख्त खड़े सड़क किनारे
भावशून्य से लेते नोट्स
अपने प्यार को अलविदा कहते लड़के पर.
कितना कुछ है जो वे दो चाहेंगे अपने बीच
और होगा नहीं कभी.
यंत्रों की यकसां हलचल में
उनके जीवन हो जायेंगे अलग.

आकाश में कौंध रही है बिजली
और खाली बादल तकता है उसे
मैं जानता हूँ.
या ये कि मेरी प्लेट में सजे फ्रेंच-फ्रायज़
लगते हैं किसी सोमालियाई बच्चे की उँगलियों से.
या ये कि जो कुछ भी जीवन बचा है हमारी मुट्ठियों में
अनपढ़े शोक-पत्रों में करता है प्रतीक्षा.
विशवास में, गिनता हूँ तुम्हारे होठों की तहें.
विश्वासघात, मेरी आँखों में रड़कते हो तुम.

ब्यौरे जो जानता हूँ
कहते हैं हजारों किस्से.
ब्यौरे जो चाहिए
कहते नहीं एक भी शब्द.
हाँफते विःसर्ग जमते हैं उस समय के बीच
जिसमें एक खड़्ग करती है किसी धड़ को अलग.
गठीले सवार उधेड़ते हैं अपने घोड़ों की पीठें
उनकी चीखें, सोने नहीं देती मुझे.
धूसरे सर्प रेंगते राजमार्गों पर दिन-रात
रेतांध, दंस्ते अविराम.

(नोट: डिजीटल घड़ियों में घंटे और मिनटों के बीच विःसर्ग होता है, जैसे 9:32 pm.)

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