आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

बिआह की पढ़ाई (उपन्यास अंश): हरे प्रकाश उपाध्याय

1

एक समय होता है विचारणा का और एक समय होता है ठिठककर सोचने का
एक समय होता है उन्नत बनने का और एक समय पतन का भी
एक समय उन्नति का और एक अवनति का  (ताओ तेह् चिन)

हर साल की तरह इस साल भी रामदुलारो देवी मध्य विद्यालय, सेदहाँ की वार्षिक परीक्षा गाँव भर के लिए किसी उत्सव या विशेष अवसर की तरह से आई थी. खासकर जिनके बच्चे आठवीं में थे, उनके लिए तो यह मौका ‘करो या मरो’ की तर्ज पर था. यह एक ऐसा निर्णायक मोड़ था जहाँ से जीवन के रास्ते मुड़ते थे. जिसकी जैसी औकात. प्रतिभा तो क्या निर्णायक होती, आर्थिक हैसियत ही सबकुछ तय करने वाली थी. फिर भी जो बच्चे आठवीं में थे उनके बापों की आर्थिक और सामाजिक हैसियत चाहे जैसी हो पर उन्हें मिर्ची लगी हुई थी. बिना पढ़े या खेल-खाकर आठवीं पास का वह प्रमाण पत्र जो रामदुलारो देवी मध्य विद्यालय से लड़कों, खासकर लड़कियों को मिलने वाला था, उसका उनके व्यावहारिक जीवन में बड़ा मोल था. उस प्रमाण पत्र के बूते ही इस इलाके में लड़कियों को मनचाहे ‘घर-वर’ मिल सकते थे. जिस लड़की को वह प्रमाण पत्र नहीं मिलता था उसके बाप को इतनी जगह शर्मिंदगी और इतने तरह की आर्थिक और सामाजिक परेशानियां उठानी पड़ती थीं कि वह आत्महत्या जैसे अंतिम विकल्प पर भी एक बार विचार करने को बाध्य हो जाता था. आठवीं का प्रमाण पत्र सामाजिक हैसियत का पर्याय था, वह न हो तो संतान गाय, भैंस या घोड़े-गदहे के जने की तरह ही थी. यह अनायास नहीं था कि उस पूरे इलाके में रामदुलारो मध्य विद्यालय की पढ़ाई को विवाह पढ़ाई कहा जाता था. पढ़ेगा का, बिआह पढ़ रहा है.

जवार भर में यह लहर एक फैशन या पैशन की तरह बढ़ती चली जा रही थी कि बेटे या बेटी को अनपढ़ से नहीं ब्याहना है. जिसका दामाद या बहू अनपढ़ हो, अनपढ़ होने से मतलब जिसके पास कम से कम आठवीं पास का भी प्रमाण पत्र न हो उसे सब हिकारत से देखते और जिसे ‘क’ से ‘कबूतर’ नहीं आता हो वह भी उसकी हंसी उड़ाता था. दामाद को भले अपना नाम रमेसर लिखने में र म ए स र पर आठ बार अटकना पड़े पर सूट के ऊपरी जेब मे बिना कलम खोंसे अगर वह विवाह के मंडप में चला जाए तो गाँव भर की गारी गानेवाली औरतों के ओंठ टेढ़े हो जाने की पक्की गारंटी थी. …हमार पढ़ल-लिखल धीया के घसकटा अइले रे… और धीया रमेसर को रमेसर पढ़ दें तो पद्मश्री दे दो. शर्तिया वे रामइसर पढेंगी. पढ़ेंगी क्या बिना पढ़े बूझ जाएंगी, पर उस कलाई पर जिसका जोर हमेशा गोबर पाथने या घर लीपने या बर्तन मांजने जैसे कामों में लगाने के लिए इस्तेमाल हुआ होगा, बिना घड़ी बांधें ससुराल चली जाएं तो सास और ननद को काला ज्वर तत्काल पटक दे.

और घड़ी बांधने या सूट में कलम खोंसने की हैसियत देता था रामदुलारो मध्य विद्यालय सेदहाँ का आठवीं पास का प्रमाण पत्र.

***

वार्षिक परीक्षा का प्रोग्राम घोषित हो चुका है. मास्टर साब लोगों ने लड़कों को चेता दिया है कि इस बार चोरी नहीं होगी. स्कूल की बदनामी बहुत हो रही है. ऊपर से आदेश आया है. सब लड़कों को मेहनत से इम्तिहान देना होगा. पर लड़के जानते हैं, ‘‘हर बार मस्टरवा सब असही कहता है. देखना ईहे सब चोरियो करवाएगा.’’

‘‘आरे देखना न पचमा मास्साब तो पइसा लेके नंबर दे देते हैं. उनसे जवन सेट कर लेगा, कौन रोकेगा उसको.’’

‘‘आ हेडवा के कम का जानते हैं. बिना उसको साइन किए तुम्हारे साटिकफिटिक का कौनो मतलब है? बात बतियाते हैं. असली जोगाड़ तो उसी से लगाना पड़ेगा. पढ़ाई होइबे नहीं किया तो चोरी कइसे रूकेगा रे…सब मामा लोग के नौटंकी है नौटंकी…’’

‘‘आरे देखना मैडमवा सीमवा के टप कराएगी एह साल. उसी के घर रह रही है तो कुछ तो करेगी ही देख लेना. हम कह रहे हैं. तुमको विस्वास न हो तो कतही लिखलो कि का कहे थे हम.’’

लड़के इम्तिहान होने के पहले अपनी तरह से रिजल्ट के समीकरण समझने-बूझने में लगे थे. उधर उनके अभिभावक अलग परेशान थे, ‘‘सार लोग साल भ त मउज कइबे किया तुम सब. अब सालाना इम्तिहान हो रहा है तो इ ना कि चूतर एक जगह टीका के दू अक्षर पढ़ लें तो कूदकड़ी हो रहा है.’’

‘‘अरे मैया चो जैसा करोगे वैसा भरोगे… का लोगे हमनी के? अभी पढ़े के उमिर है पढ़ि लो…नहीं तो जिनीगी भर नाक पकड़के रोना पड़ेगा.’’

‘‘शाम हो रही है. ससिया के पते नहीं, कहाँ गया है?’’ सिपाही अंकल उसके मां से हिसाब ले रहे हैं.

‘‘ऊ तो बारहे बजे से खेलने निकला है तो लौटा है अभी, उसका संगत खराब होते जा रहा है, बिगाड़ रहा है सब उसको?’’

‘‘आने दो आज हम उसका मनोकामना पूरे कर देंगे. तुम्हीं लोग उसका आदत बिगाड़ दी हो. लाड़-दुलार में रह गया सरवा…देखो पल्टूआ को…एह साल उहे टप करेगा….’’ अपने बेटे के आचरण से खिन्न भुनभुना रहे हैं सिपाही अंकल. तभी शशि सिपाही अंकल से नजर बचाते हुए घर में घुस रहा था कि वे देख लिए, ‘‘ऐ हीरो, इधर आओ…इधर आओ. कहाँ साहेबी हो रही है? पता है कब से इम्तिहान है?’’

‘‘हाँ, पता नहीं है.’’

एक कसकर देते हुए उन्होंने उससे फिर पूछा, ‘‘तो किताब-कापी का दरसन न करना चाहिए कि दिन भर जवार भर के दौरा करोगे तो हो जाओगे पास, आंय?’’

‘‘दौरा करने गए थे? कोटा में किरासन तेल का पता करने गए थे कि नहीं’’ चोट से तिलमिलाया शशि गुस्सा-सा गया.

‘‘तो कब गए थे? बारहे बजे का गए, पौने छह हो गया. का उहाँ मराने लगे थे?’’

शशि की मां ने हस्तक्षेप किया, ‘‘आप भी न लइकन से असही बोला जाता है? का हुआ बेटा? कब तक मिलेगा किरासन?’’

‘‘कब तक का मिलेगा, बेच दिया हीरा बबवा सब. कोई पूछने जइबे न करता है तो का करेगा? अउर पूछने प खिसिया भी रहा था.’’ शशि ने नमक-मिर्च लगाकर जनवितरण प्रणाली के ठेकेदार की शिकायत की.

‘‘आह रे रमवा…हरमिया गाँव में अन्हार कराएगा का? अबही पूरा महिना पड़ा है.’’ शशि की मां ने घबराते हुए कहा.

चिंता तो सिपाही अंकल को भी हो आई पर बाहर से बेफिक्री दिखाते हुए बोले, ‘‘ना अइसे-कइसे बेच देगा? ओकरे मजाल है, देखते न हैं कल जाकर.’’

इस गाँव की जन वितरण प्रणाली के दुकानदार हीरा बाबा भी कम दबंग नहीं हैं. कोशिश करते हैं कि जगदीशपुर ब्लॉक के गोदाम से माल लाने का झंझट कम से कम पड़े. सरकार चीनी, किरासन (मिट्टी का तेल), गेहूं, चावल सब सामान सस्ते दाम पर कोटे की दुकान से ग्रामीणों को उपलब्ध कराने की कोशिश कर रही है पर हीरा बाबा की माने तो बीडीओ पंचानन राम उनसे कहते हैं,  ‘‘बांटने लायक रहिएगा तब नू बांटिएगा. हर कदम पर स्पीडब्रेकर बना हुआ है और उहवां एगो देवता बैठा है. पहले उ सबको चढ़ावा चढ़ाइए तब नू गाड़ी चलेगी. आ पता चलता है कि गाँव तक आते-आते पूरी गाड़ी का माल त परसादी जैसा बंटा गया. अब आप लोग जान खाते हैं कि गेहूं नहीं आया तो किरासन नहीं आया तो चीनी पर यूनिट कम भेंटा रहा है. त हम क्या करें हमारा मांस खाइए आप लोग. उहो त नहीं खाते हैं. ऊपर में है कोई पूछवइया. सब लोग को हीरे राय लउकते हैं कमजोर…जादा करिएगा तो हम लइबे न करेंगे माल….’’

सिपाही अंकल घर से किरासन तेल का टीन लेकर आए थे और जिद पर अड़े थे ‘‘बिना लिए आज जाएंगे ही नहीं, लइकन के इम्तिहान है. एहू महीना में नहीं दीजिएगा तब गाँव में कोटा रहे चाहे तेलहाँडा में जाए, का फायदा है?’’

‘‘कहाँ से दे दे भाई अइबे नहीं किया तो? चीनी ले जाइए.’’

‘‘चीनी का करेंगे? हमारे यहाँ तो असही गुड़ पसीज रहा है. केहू पूछवइया नहीं है. देखिए आपको किरासन त देना ही पड़ेगा बाबा. नाहीं त इस बार बवाल कर देंगे. लइकन का इम्तिहान है.’’

‘‘लाइए दू लीटर दे देते हैं घर से. केहू के बताइएगा मत. नाहीं त रूप चौधरिया बवाल करवा देगा कि केहू के दे रहे हैं आ केहू के नहीं. अइसे बीडीओ सहेबवा उसका सुनता ही नहीं है, कहता है कि मंगनी में चंगनी बिलइया मांगे आधा. इसको बिल्ली बोलता है बिल्ली.’’

भागते भूत की लंगोटी भली. सिपाही अंकल लाचारीवश दो लीटर पर ही राजी हो गए पर उनको हीरा बाबा की बातें तनिक भी नहीं जंची. वे भी एक बोल छोड़ते गए, ‘‘देखना हीरा बाबा इहे बिल्ली एक दिन जाएगी दिल्ली. तब तुम आ तुम्हारा चूहा बीडीओ कैसे बील में घुस जाओगे.’’

हीरा बाबा धीमी आवाज में सिपाही अंकल की मां-बहन से रागात्मक संबंध जोड़ने लगे.

रास्ते में सिपाही अंकल को किरासन का टीन ले जाते कुछ लोगों ने देखा तो वे भी अपने राशन कार्ड और टीन के साथ हीरा बाबा की मड़ई पर जुटने लगे. हीरा बाबा इधर दुकान बंदकर पिछले दरवाजे से नौ-दो ग्यारह हो लिए. लोग उनके दरवाजे से गालियां भुनभुनाते हुए लौट आए. बाद में पता चला कि हमेशा की तरह जिनसे हीरा बाबा को डर था कि वे या तो ब्लॉक पर जाकर हंगामा कर सकते हैं या यहीं उनके दरवाजे पर ही हीरा बाबा की बांह मरोड़ सकते हैं, उनको कम-बेशी किरासन तेल मिल गया बाकि गरीब-लाचार लोग काम चलाने के लिए बाजार से खरीदने या अंधेरे में रहने को ही अभिशप्त रहे.

यहाँ चला-चली की बेला में जी रहे लकुड़ी सिंह से आजादी और लोकतंत्र के बारे में बात कीजिए तो वह कहेंगे, ‘‘लोकतंतर माने फोद. अंगरेजवने के राज अच्छा था बबुआ. एतना अनेत नहीं नू था. अब त सब लोग हाकीमे बन गया है. कमजोर आदमी के का मिला, ओकर खोपड़ी तो अभीओ सबके जूता खाइए न रही है.’’

लेकिन सरकार से सब शिकायत करने वाले लोगों से पूछिए कि गाँव अंधेरा में काहे जी रहा है तो मुस्का के चल देंगे.

इस गाँव में करीब दस साल पहले बिजली के खंबे गड़े तो लोग खुश हुए कि अब समय बदलेगा. खंभे पर तार बीछे. बिजली आई. खेतों में पंपिंग सेट हरहराने लगे पर जब बिजली का बिल आया तो बाबू लोग महटिया गए. बिजली का बिल आता रहा लोग महटिआए रहे. एक दिन कनेक्शन कट गया तो लोगों को उत्पात सूझा और धीरे -धीरे बीजली के पोलों पर लगे तार से लोगों ने आंगन में अलगनी टांग दी. बिजली के लकड़ी वाले खंभों पर दालान छा लिया. अब अंधेरे का बहाना बनाकर बच्चे पढ़ने से मना कर रहे हैं. सिंचाई के अभाव में खेत में जब फसल सूखने लगती है तो लोग सरकार की मइया चोदने की बात कर संतोष कर लेते हैं.

***

रामदुलारो देवी मध्य विद्यालय की परीक्षा बड़े जोशो-खरोश के साथ हुई. परीक्षा के पहले ही संगीता मैडम ने सारे प्रश्न पत्र निकालकर सीमा को  सारे प्रश्नों के उत्तर रटा डाले थे. पचमा मास्साब ने प्रश्न पत्रों का फटा बंडल देखा तो भीतर से तो बहुत गरमाए पर समझ गए कि मैडमवा का ही काम है, इसलिए कुछ बोले नहीं मुस्काकर संगीता मैडम को कनखी मार दिए. मन ही मन सोचा उन्होंने, कर लो मेरी जान, तुम भी कर लो खेल. एक दिन तो धरेंगे ही हम तुम पर हाथ.

हेड सर को इस बात से कोई लेना-देना नहीं था कि कहाँ गया प्रश्न पत्र और कहाँ गई उत्तर पुस्तिका. उनका तो अपना फंडा था, बिना सौ का पत्ता लिए एस एल सी देबे नहीं करेंगे. और जिसको बिना स्कूल का दर्शन किए ही एस एल सी चाहिए, ऊ इहाँ रख जाए पनसौआ (पांच सौ).

‘‘माट्साब पांच सौ जादा हो रहा है.’’

‘‘जादा हो रहा है तो मत दीजिए. हम आपको बुलाने गए थे क्या? बच्चा को स्कूल का दर्शन कराए बिना ही एस एल सी ले रहे हैं. जानते हैं एस एल सी का मतलब? ई स्कूल छोड़ने का प्रमाण पत्र है. बच्चा स्कूल अइबे नहीं किया तो छोड़ कइसे दिया भाई? इसी जादू का लग रहा है पांच सौ तो आपको जादा बूझा रहा है.’’

‘‘माट्साब समझ रहे हैं पर लइकी जात है. स्कूल आके का करती? ई तो नया जमाना चल गया कि बिना साटिकफिटिक देखे अब बियाहे नहीं कर रहा है कोई. नहीं तो का जरूरत था? अब लइकी का कुछ उद्धार हो, देखिए अढ़ाई सौ ले लीजिए.’’

‘‘ए महाराज बनिया का दुकान समझ लिए हैं का? नामो-गाँव लिखना जानती है आपकी लइकी? नहीं नू? हम इहाँ अठवां पास के सार्टिफिकेट दे रहे हैं. के फसेगा जी, कुछ हो गया तो? आप त भाग न चलिएगा, जवाब तो हमीं न देगे.’’

‘‘माट्साब जवन लइका पढ़ने आ रहे हैं सब, ऊ कवन पढ़ के मार अंगरेज हो गये? बात बतियाते हैं, हम जानते नहीं हैं आप लोग जवन पढ़ाई पढ़ा रहे हैं? देखे ना का इम्तिहनवा में. सब तो किताब से देखिए-देखी लिख रहा था. कवन अपना मन से लिख रहा था. आदमी जातो-बेरादरी का तनी खेयाल रखता है.’’

‘‘जाते-बेरादरी हैं तभीए एतना बोलिओ ले रहे हैं नहीं तो हमको ज्यादा बात करने नहीं आता. बहस कर रहे हैं. जाइए महाराज.’’

‘‘कहाँ जाएं जी साटिकफीटीक लेने आए हैं तो लेइए के जाएंगे? आपो लोग आदमी चिन्हते हैं, बरियारा होता तो जवन देता चुपचाप रख लेते बगली में.’’

‘‘आरे आप समझ नहीं रहे हैं न सहजा भाई. इसमें बड़ा मेहनत है. पुरनका रजिस्टर में दूसरे क्लास से नाम लिख के आठवां तक लाना पड़ेगा. नहीं तो कोई इंस्पेक्शन हो गया तो आपका भी काम बिगड़ेगा और हम भी फसेंगे. समझ रहे हैं न? ’’

पचमा मास्साब की नजरें भी हेड सर की कमाई पर अंटकी रहती है पर उनके चुप रह जाने के दो कारण हैं.

‘‘एक तो बेचारा स्कूल में रहो न रहो, टोकता नहीं है. हाजिरी बना के निकल लो. सब सम्हाल लेता है जवान. दूसरे इम्तिहान के बाद हस्तकला दिखाने के नाम पर लड़के जो झाड़ू, रूमाल, आईना, कंघी, फूल, खिलौने लाते हैं, उसे हाथ नहीं लगाता. खूब हुआ तो दू ठो झाड़ू ले लिया आ एक ठो कंघी. शौखिन बहुत है जवान. जेब में हरदम एक ठो कंघी रखता है. आ मैडमवा के तो इ सबसे मतलबे न रहता है. ओठ बिचकाती है ई सब देख के. ’’ पचमा मास्साब कुछ रखकर कुछ बेंच देते हैं. हजार-बारह सौ का हो ही जाता है.

परीक्षा संपन्न हो जाने पर सारा तनाव जाता रहा. लड़के भी बम-बम. स्कूल भी बम-बम. गाँव भी बम-बम. नीचे के क्लास में तो एकाध फेल भी हुए पर आठवीं में चौबीस छात्र थे, इतने ही पास नहीं हुए. गाँव की कुछ और लड़कियां भी पास हो गईं. जो यह तक न जानती थी कि पास कैसे हुआ जाता है और फेल कैसे? वे यह भी नहीं जानती थी कि किताब को किस तरफ से पढ़ा जाता है.

आठवीं में चौबीस छात्रों में जो कुल आठ लड़कियां थी उनमें से भी पांच ने पढ़ाई छोड़ दी. एक अपने चाचा के पास जाकर आरा शहर में रहने लगी. वहाँ उसके मामा नौकरी करते हैं. कंपाउंडर हैं अस्पताल में. कहा गया वहीं रहकर पढ़ेगी. गाँव ने समझ लिया, वहाँ रहकर बरतन मांजेगी और तब तक मांजेगी, जब तक विवाह नहीं हो जाता. सोलह लड़कों में से भी छह ने पढ़ाई छोड़ दी. सुदामा और धीरू दोनों के बाप ने पीरो शहर में घर बना लिया था. उन दोनों का परिवार पीरो में शिफ्ट कर गया और उनका वहीं रामस्वारथ साहू हाई स्कूल पीरो में नाम लिखा दिया गया.

उस स्कूल के बाकी लड़कों और साक्षी तथा सीमा का नाम पौने चार किलोमीटर दूर हसन बाजार कस्बे के हाई स्कूल में लिखाया गया. वह उस इलाके का बड़ा माना हुआ हाई स्कूल था. लोग कहते उसका हेड मास्टर हाथी पर बैठकर आता है. वैसे स्कूल में किसी ने हाथी बंधा देखा नहीं था पर चूंकी हेडमास्टर के संयुक्त परिवार में एक हाथी था तो लड़के उसे हाथी वाला मास्टर भी कहते थे. उसकी दबंगई के तमाम किस्से थे. उस स्कूल में आस-पास के गाँवों की लड़कियां और दूर-दराज तक के गाँवों के लड़के साइकिल पर बैठ कर पढ़ने आती थीं. एकाध लड़कियां भी यहाँ साइकिल से पढ़ने आती थीं, जिनका जिक्र कर इस स्कूल के अधिकांश लड़के बड़ा रस लेते थे. वे स्कूल में एडवांस मानी जाती थीं. बाकी थोड़े पास की लड़कियां पैदल चलकर और थोड़ी दूर की लड़कियां अपने भाइयों की साइकिल पर पीछे बैठकर और कोई एकाध अपनी चाचाओं की मोटर साइकिल पर पीछे बैठकर.

***

जिन लड़के-लड़कियों का आगे नाम नहीं लिखाया, वे घर-गृहस्थी में जुट गए. वैसे भी सेदहाँ का रेकार्ड पढ़ाई-लिखाई के मामले में अपनी तरह से अलग ही रहा है. दो-ढाई सौ घरों में मुश्किल से पांच लोग एमए पास हैं, अठारह लोग बीए. नौकरी करने वाले कुल बीस लोग हैं जिसमें अधिकांश या तो सिपाही हैं या मास्टर. अपने बैच के सबसे तेज छात्र समझे जानेवाले कृष्णकांत ने इंटर करने के बाद एक प्राइवेट स्कूल खोल लिया है जिसमें गाँव के कुछ नौजवान और कुछ प्रौढ़ बेरोजगार पढ़ाने लगे हैं. सात सौ रुपये महीने पर, अगर उन्हें भी नौकरी पेशा मान लें तो गाँव में नौकरी करने वालों की संख्या कुछ और बढ़ जाएगी.

गाँव में एक नया-नया डेयरी फार्म खुला है. ललू राय के प्रयास से. वे ही कत्र्र्ता-धर्ता हैं. सुबह-शाम उनके दरवाजे पर मजमा लग जाता है. गाँव भर का दूध वहाँ इकट्ठा होता है और पीरो से ट्रक आता है डेयरी फार्म का. उसमें सब केन लदा के चला जाता है. सुमेसर तिवारी का मन पिनपिनाता है तो कहते हैं, ‘‘गाँव के लोग के पोलियो के शिकार बनाकर छोड़ेगा ललूआ. अब जे एको जवान के पाव भर भी दूध भेंटा जाए तो कहिए. लोगों के दरवाजे पर चार-चार ठो लगहर बन्हा गई लेकिन दूध से दरसन दुरलभ हो गया. नौजवानन के राह चलते झांई मार रहा है. एकरा मइया चो का होगा पइसा रे…है कोई पूछवइया? ’’

पर डेयरी फार्म खुलने से बहुत लोग खुश हैं. जिसके घर कोई नोकरिहा आदमी नहीं है, उसके घर भी आने लगी मंथली इनकम. हर महीने के पहली को दूध का हिसाब होता है. किसी को दो हजार-किसी को चार हजार, सबको कुछ न कुछ. ललू राय गाय खरीदने के लिए ब्लॉक से लोन भी दिलवा रहे हैं. हर आदमी ने बांध लिया है दरवाजे पर लगहर. ललू राय को भी रूतबा मिला है. अब हर आदमी थोड़ी तमीज़ से पेश आता है उनसे.

हर आदमी होड़ में लगा है कि कौन कितना अधिक से अधिक दूध डेयरी को दे दे. पहले स्कूल छोड़ने वाले नौछटिहे खेती के काम में सीधे लगने से कुनमुनाते थे पर दूध से सीधे हाथ में कैश आ रहा है तो गाय-भैंस की चरवाही करने से किसी को परहेज नहीं. बाबाजी हो चाहे बाबू साहेब चाहे रविदासी, सबके लड़के बारह बजते न बजते खा-पीकर गाय-भैंस के साथ सोन की ओर प्रस्थान कर जाते हैं, तो सात बजे से पहले नहीं लौटते हैं. उधर सालों भर चरी का इंतजाम रहता है. वहीं मवेशी चरते रहते हैं और लड़के रेडियो पर गाना सुनते रहते हैं. जब मधुबाला गाती है तो लंबू जी लंगटे नाचने लगते हैं. कुछ लड़कों की ताश जमती है. कुछ जुआ-उआ भी खेल लेते हैं.

जैसे गाँव के समाज में ऊंच-नीच है, वैसे चरवाही में भी है. चरवाही के नेता हैं रमेश काका. सब नौछटिया चरवाहों में वे ही उम्रदराज हैं. लड़के रोज उनको घेर लेते हैं, ‘‘काका सुनाइए तनी, का हुआ सुहाग रात के दिन? ’’

‘‘अरे दूर, तोहनियो सब न रोज एके बतिया करता है.’’

‘‘ काका बतिया तो एके नू है, रतिया के बतिया कि दू ठो है, तो दूनो सुनाइए.’’

‘‘ पैर दबाएगा न रे तेलिया? ’’

‘‘आरे काका शुरू न करिये, तेली रामा रोज दबाते हैं, आज कोई नया है? ’’

‘‘ जानते हो गए न तो तुम्हारी ककिया तो समझो नखड़ा करने लगी लेकिन उघार के… ’’

एक लड़का मस्तराम की किताब लाया था. काका को चुप कराकर उसका पाठ करने लगा.

एक लड़का चुप कराकर उससे पूछने लगा, ‘‘आरे सरवा गरमा जाते होगे तो बंड राम का करते होगे? ’’

एक तीसरा बोला, ‘‘अपना भइसीए के… ’’

मवेशियों को धोने का समय हो रहा था. कुछ लड़के अपने जानवरों के साथ सोन में उतर लिए. रमेश काका ने मुस्कराकर पूछा, ‘‘ कौन डूब के पानी पी रहा है? ’’

एक की भैंस नहर से बाहर भागने लगी. उसका चरवाहा अपनी भैंस को बेतहासा पीटने लगा.

एक की भैंस पानी में बैठी हुई थी और उसका चरवाहा उसके पीछे मौज मना रहा था.

2

काट रहे हैं घोर अंधेरा छोटे-छोटे लोग
तपता सूरज लंबा रस्ता छोटे-छोटे लोग .       
— (शोभनाथ फैजाबादी)

खेतों में कटनी शुरू हो चुकी थी. इस साल रबी की अच्छी फसल हुई थी. पूरे गांव वाले खेतों में खड़ी संपत्ति को देखकर पगलाए हुए थे. चैता अभी शुरू नहीं हुआ था गांव-जवार में लेकिन रात में लोग सोते तो सपने में चैता गाते हुए ही रात कट जाती. एक दम भोर होते ही लोग हशिया लेकर खेतों में निकल पड़ते. वही नहर के किनारे दिसा-मैदान करते और जब दो-चार कट्ठा हर आदमी काट चुका होता तब पूरब में ललकी किरण दिखती. बारह बजते-बजते तो खेतों में आग लगने लगती, किसकी मजाल जो टीके. हे प्रभु, इस साल कितनी गरमी पड़ेगी? जितनी फसल हुई है, उतना ही रंगा दिखा रहे हैं सूरज देव भी. अभी तो चैत शुरू ही हो रही है और ये हाल है.

उधर महुआ भी इस साल खूब चू रहा है. आमों पर मोजर भी खूब आए हैं. लगता है ईश्वर इस बार गांव पर दिल खोलकर मेहरबान है. खेतों में कटाई का काम मरदों के जिम्मे और महुआ बीनने का काम औरतों और बच्चों के जिम्मे. पर रेज टोल की औरतें महुआ बीनने लगें तो साल भर रोटी कैसे खाएं? और महुआ के पेड़ के मालिक भी तो बड़ टोल के लोग ही हैं. भाड़े पर महुआ बीनो तो चौथाई मिलता है. इससे अच्छा तो कटनी ही है. सोलह बोझा काटो तो एक बोझा अपना हो जाता है. वैसे लड़ाई चल रही है कि चौदह बोझे पर ही एक बोझा मिलना चाहिए पर मालिक लोग मान नहीं रहे हैं. जिनके दस-बारह बीघे खेत हैं और वे सवंगगर हैं तो अपना खेत खुद ही काट रहे हैं. मजूर नहीं लगा रहे हैं. उनका मानना है कि लूट मची है लूट. कटनीहार मजूर खेत वाले का बोझा छोटा बनाते हैं और अपना बोझा चलने भर का बांध लेते हैं बल्कि वे उसे दो बार में ढोते हैं.

गेहूं की कटनी ही लोग मजूरों से करा रहे हैं बाकी दलहन और तेलहन की फसलों की कटनी तो खुद ही कर रहे हैं. ये नगदी फसलें हैं. इनको किसी और के हवाले नहीं किया जा सकता. गरीब लोग क्या जानें दाल भी क्या चीज होती है. यह तो भला हो कुछ दयानतदार मालिकों का कि वे अपने आदमियों को भी काम के दिनों में कभी-कभार दाल खिला देते हैं. सरसो का तेल भी रड़ टोली में आकाश कुसुम है. जब महुआ के नशे में आता है भूअर दुसाध तो तो तेल और दाल की मां-बहन एक कर डालता है.

रेज टोल की तरफ ही महुआ के सारे पेड़ हैं. उस टोले की औरतें और बच्चे महुआ के दिन में चौकन्ने सोते हैं बल्कि सोचते हैं कि इस समय सोए तो समझो कि भाग्य सोया. वे जागते रहते हैं कि कब गांव सोए और वे महुआ के पेड़ों की ओर निकल लें. बरसात में महुआ को गुड़ के साथ भूनकर खाने का अलग ही मजा है. गरीब आदमी का मेवा. वे इससे दारू भी बना लेते हैं और मलिकार लोगों को पिलाकर अपने वश में कर लेते हैं. रेज टोल में जो एक-दो घर आधे-अधूरे सीमेंट-ईंट के बने दिख रहे हैं, लोग झूठ कहते हैं कि वे इंदिरा आवास योजना से बने हैं. सब इसी महुआ के दारू के जादू से बने हैं. बाबू लोगों को जब महुआ का दारू और दूसरे की मेहरारू दिखती है तो सब वैर भाव भुलाकर ‘परमात्मा’ बन जाते हैं. क्या गैर क्या अपना. लगता है कि सही ही कहा गया है, ‘वसुधैव कुटुंबकम्’. पूरी धरती ही घर है, परिवार है. गांव में महुआ के दारू की डिमांड हरदम बनी ही रहती है. रेज टोल के लोगों के लिए नगद आमदनी का वह एक बढ़िया तरीका है.

भूअर दुसाध की बनाई महुआ की दारू इस गांव में ही नहीं बल्कि पूरे जवार में नामी है. बाबू साहेब या बाबा जी लोग किसी के यहाँ अब कोई मेहमान आए तो बिना दारू पीए नहीं लौटता बल्कि मन करे तो कह सकते हैं कि सेदहाँ में कोई मेहमान महुआ की दारू पीने ही तो आता है.

भूअर दुसाध का बड़ा छोटा परिवार है. वे हैं और उनकी जोरू लछमीनिया है और बेटी परवतीया. परवतीया जवान हो गई है. सोलह साल की. उसकी जवानी का एहसास भूअर को उनकी दारू की मांग में एकाएक आई उछाल से भी हो रहा है. गांव के नौछटियों के दारू की तलब इधर कुछ ज्यादा ही जोर मार रही है. रात-बिरात कोई जवान उनके दरवाजे की किवाड़ थपथपाने लगता है, ‘भूअर, भूअर, आरे भूअरा, दारू है का?’

भूअर इस चैत में दारू कहाँ से बनाएं?  इस मौसम में वे और उनकी लछमीनिया मिलकर रबी की कटनी कर रहे हैं. अनाज घर में आए तभी तो पेट चलेगा. सिर्फ दारू बेचने से क्या होता है? वह भी मालिक लोग कभी पैसा देते हैं, कभी डांट देते हैं, ‘सरवा, हमी लोग के महुअवा बीन के हमी लोग से पैसा मांगता है, पगला गया है का रे? ’

भूअर बहुत विनम्रता से मना करते हैं, ‘मलिकार, ई तो ताड़ी का मौसम है.’ जब जवान विदा होने लगता है तो उसकी पीठ पर अपनी घृणा पूरी ताकत से फेंकते हैं भूअर. वे सब समझते हैं पर किसी से पंगा नहीं लेते. पंगा लें तो गांव छोड़ें पर गांव छोड़कर कहाँ जाएंगे वे? गरीब का निबाह कहाँ है?

भूअर कटनी में परवतीया को भी ले जाते थे पर पिछले साल वाले कांड की वजह से अब नहीं ले जाते. पिछले साल यहीं चैत की कटनी हो रही थी. भूअर को ठंड के साथ बुखार आ रहा था. काम पर जा नहीं सके थे. नहीं तो वे या लछमीनिया में से कोई एक परवतीया के साथ ही रहते थे.  पर उस दिन लछमीनिया ललन बाबा के खेत में कटनी कर रही थी और परवतीया दूसरे बधार में रमेश काका के खेत में गई थी. लहालह दोपहरिया थी. मजूर अब अपने घर लौटने लगे थे. परवतीया भी अपना काम खत्म कर चुकी थी. रमेश काका परवतीया से प्यार से बोले, ‘‘पारवत, ए पारवत, थक गई हो रे, आकर थोड़ा बैठ लो बगीचा में. आओ थोड़ा पानी पी लो, थोड़ा सुस्ता लो, तब जाना बेटा.’’

प्यास तो लगी ही थी परवतीया को. रमेश काका के मीठे बोल ने उसे भावुक भी बना दिया. वह चली गई बागीचा में. रमेश काका ने बागीचे में एक कुआं भी खुदा रखा था. उसका पानी बधार में पीने के काम भी आता था और उससे खेतों की सिंचाई भी होती थी. गरमी में उसका पानी मीठा और खूब ठंडा हो जाता था. परवतीया का कंठ ललचा गया. रमेश काका गांव में रसिक तो गीने जाते थे पर परवतीया को इस बात का दूर-दूर तक अंदेशा नहीं था कि उसके बाप की उम्र के बराबर के रमेश काका की रुचि उसमें भी हो सकती है. पर रमेश काका बूढ़ी औरतों में रस लेकर तो रसिक के रूम में ख्यात नहीं ही हुए थे, पर परवतीया को इसका इल्म नहीं था.

रमेश काका जमीन पर बैठे थे. उनके पास एक डोर से बंधी बाल्टी रखी थी और एक लोटा. खेत में जहाँ आग लगाने वाली गरमी पड़ रही थी, वहीं इसके विपरीत बागीचे में सुहानी हवा चल रही थी. रमेश काका के पास से बाल्टी लेकर कुंए से एक बाल्टी पानी निकाल लाई परवतीया. पानी उनके पास रखकर सोचने लगी बाल्टी से पानी कैसे पीए? रमेश काका ने अपना लोटा बढ़ाते हुए कहा, ‘लो इसमें पानी निकालकर पी लो. ’

परवतीया को अब थोड़ा काला लगा कि मालिक उससे घिना क्यों नहीं रहे हैं? अपना लोटा क्यों दे रहे हैं? खैर वह प्यास की मारी थी. लोटा में पानी निकालकर ऊपर से उसकी धार मुंह में उड़लते हुए पानी पीने लगी. और रमेश काका गौर से उसकी छातियां घूरे जा रहे हैं. पानी पीकर वह चलने लगी, तो रमेश काका ने इसरार किया, ‘थोड़ा सुस्ता लो तो जाना. घर ही तो जाना है.’

‘‘नहीं, काका घर लौटने में देर हो जाएगी. बाबू बीमार हैं.’’

‘‘बीमार है भूअरा? कहें कि दिखा नहीं?’’

‘‘तो कौनो चिंता हो तो बताना.’’ अपनापन दिखाते हुए उसे अपने निकट बुलाने लगे रमेश काका, ‘‘आओ ना इधर तनी पसवा में. एगो बात कहनी है.’’

चली गई वह उनके थोड़ा पास और उन्होंने बाज की तरह झपटकर उसे अपनी गोद में बैठा लिया. एक हाथ से छाती दबाने लगे. दूसरे से उसे कसकर पकड़े रहे. वह उनकी गोद में जल से बाहर निकाली मछली की तरह छटपटाने लगी.

‘‘काका, छोड़िए ना. का कर रहे हैं ई? आही रे रामा केहू आ जाएगा?’’

‘‘केहू नहीं आएगा परवतीया. ई दुपहरिया में इधर केहू नहीं आएगा. बीता लो मजिगर दुपहरिया. हमरो दिन बना दो, अपनो बना लो फिर जो कहोगी, सो.’’

‘‘छोड़िए न काका.’’ रोने लगी परवतीया.

‘‘हसन बाजार से सोना के नकबाली ला देंगे तोरा के.’’ प्रलोभन देने लगे रमेश काका.

परवतीया ने और कोई चारा नहीं देखा तो दांत गड़ा दिया उसने रमेश काका की बांह में. बिलबिलाकर पकड़ ढीली की उन्होंने और वह पिंजड़े से भागे पंछी की तरह उड़ी. रमेश काका ने पीछा नहीं किया, ‘‘देखते हैं हरमजादी कब तक तरसाती हो? हमें नहीं दोगी, किसी को तो दोगी ही. सतवंती बनती है साली. देखेंग कब तक कंठीमाला फेरती है.’’

रोते हुए सीधे घर पहुंची वह और लेदरा में मुंह छिपा के रोने लगी. लछमीनिया घर पहुंची थी पहले से ही. उसने ऐसा देखा तो, पहले तो गरमाई, ‘‘अरे रांड़ी, का हुआ बताओगी कि टेसुना बहाओगी?’’

पर जब परवतीया रो-रोकर सुनाने लगी हाल, तो लछमीनिया भी उससे जा लिपटी और रोने लगी. बहुत देर तक दोनों रोती रहीं. भूअर ओसारे में पड़े खांसते रहे. उन्हें लग रहा था कि अब बहुत बूढ़ा गए वे, जिएंगे नहीं ज्यादा. हालांकि वे अभी पचास के भी नहीं हुए. पर भुअर को अपनी उम्र कहाँ याद है. यह तो उनका शरीर बता रहा है कि चलो बहुत हुआ, अब चोला बदलो.

***

ज्वाला सिंह के खेतों की कटनी के लिए हार्वेस्टर आया है. नोनार के रघु मिसिर का है हार्वेस्टर. वे इलाके के सबसे बड़े खेतीहर हैं. दो सौ बीघा के करीब खेत है उनके जिम्मे. उन्होंने समय पर मजूर न मिलने और हर साल उनके मजूरी बढ़ाते जाने से तंग आकर हार्वेस्टर ले लिया है. उनका अपना भी काम आसान हो गया है और वह भाड़ा अलग कमा रहा है. जवार भर में हाथी की तरह रौंदता हुआ घूम रहा है हार्वेस्टर. जवार भर के मजूरों ने उसका नाम राकस रख दिया है. वह राक्षस ही तो है, मजूरों की रोजी को हड़प रहा है. उसने किसान-मजदूरों के आपसी रिश्ते को तहस-नहस करने की ठान ली है. यह तो भला कहो छोटी जोत वालों का कि वे अभी भी हाथों से कटनी करा रहे हैं पर कब तक?

राजबलम राम ने मीटिंग बटोरा है रेज टोली में. मजदूरी बढ़ाने के लिए और जो मिसिर का यह राकस दनदनाता फिर रहा है पूरे जवार में उसका क्या इलाज हो? राजबलम राम आईपीएफ के नेता हैं. सीढ़ी छाप. कहते हैं नीचे रहोगे तो लोग नीच कहेंग. सीढ़ी लगाओ और लोगों के कपार पर चढ़ जाओ, लोग भय खाएंगे. उनको अन्याय बर्दाश्त नहीं होता. वे खुद मजदूरी करते हैं और मजदूरों के हक-हुकूक की बात करते हैं. मीटिंग में डीह पर के महतो, यादव और मौलाना लोग भी बुलाए गए हैं. हालांकि इनमें से कइयों के पास दो-चार बीघे अपने खेत भी हैं पर हैं दरअसल वे मजदूर ही. यादव जी लोगों का दूध का कारोबार मंदा पड़ गया है, जबसे गांव में बड़ टोली के ललू राय ने डेयरी खोला है. महतो जी लोग भी बड़का लोगन से नराज हैं कि बाजार के दिन सब्जी बेचने वालों से वसूली की रकम वे लगातार बढ़ाते जा रहे हैं. महीने में एकाध बार बाजार से देर रात सब्जी बेचकर घर लौटने वाली सब्जी बेचने वालियों से बदसलूकी और छीन-छोर अलग. अनेत बढ़ता जा रहा है. कब तक सहा जाय और कैसे निपटा जाए? मौलाना लोग की मुर्गियां और बकरियां सुरक्षित नहीं. जब मन आता है दाम दिए-न दिए उठा ले जाते हैं बाबू लोग.

घुरी राम ने एक अलग सवाल उठा दिया कि इस साल मालिक लोग को मजूरों के बोझे देखकर आंखें फट रही हैं. उनके खलिहान में बोझे रखने पर खतरा है. उन्हें अपने पहाड़ जैसे बोझे के टाल नहीं दिखते. मजूरों के दस-बीस बोझे उनकी आंखों में गड़ते हैं.

‘‘गड़ने दीजिए. का कर लेंगे लोग? कौनो चुरा के ला रहे हैं हम लोग? पसीना बहाकर कमा रहे हैं.’’

‘‘हाँ उनलोगों का तो सिर्फ खेत ही है. उपजा तो हम ही रहे हैं.’’

‘‘बहुत राजपूत भूमिहार लोगों को तो अपना खेते नहीं नहीं मालूम है जी. हम जोतते-कोड़ते, उपजाते हैं और वे लोग खाकर सिरिफ झाड़ा फिरते हैं.’’

‘‘ ए काका, गांव में रहना मोसकील हो गया है. हम भी आदमी हैं पर हमारा कोई इज्जत ही नहीं है. हमारी जनानियों को वे लोग अपना माल बूझते हैं.’’

‘‘ बिना मतलब हमसे मार-पीट करे हैं. रास्ते चलते गाली देते हैं. ’’

‘‘ टाइम पर मजूरी नहीं देते हैं. मजूरी मांगने जाओ तो ऐसे करते हैं जैसे हम भीख मांग रहे हों. ’’

‘‘हमने सहजा सिंह के खेत में बंटाई पर सब्जी की खेती की है. मेहनत से खून-पसीना बहा के सिंचाई-निराई करते हैं पूरा परिवार मिलकर. वे बिना कहे-बताए जब मन करे, सारी सब्जियां तोड़ ले जाते हैं. एक दिन टोक दिया तो खेत में ही उन्होंने हाथ छोड़ दिया. गाली देने लगे. ’’

‘‘पिछले इतवार को मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. मुझे दस्त हो रही थी. मैं अपने घर के आगे बैठा था. मालगुदन जी आए और कहने लगे बरिसवन पाहुन के घर पाहुर पहुंचा आओ. जब मैंने उनसे कहा मलिकार मुझे दस्त हो रहा है, ठीक हो जाऊंगा तो एक-दो दिन में चला जाऊंगा या फिर किसी और को देख लीजिए तो मुझ पर उन्होंने लात चला दी और कहने लगे, कमकर राम तुम्हारा पिछवाड़ा तोड़ देंगे. नेता बनते हो. ’’

‘‘अब हम नहीं सहेंगे जुलुम. हम भी आदमी है. ’’

‘‘लड़ने के लिए एक होना पड़ेगा. ’’

‘‘एक कहाँ हो रहा है कोई. देखिए, आज मीटिंग है और कितने लोग नहीं आए हैं, काम पर गए हैं. ’’

‘‘पिछली हड़ताल में भी हमारी एका नहीं रही थी. कुछ लोग काम करते रहे. ’’

‘‘ लड़ाई के लिए एका जरूरी है. ’’

‘‘ ऊ लोग सुनते हैं कि मीटिंग में गया था तो गाली देते हैं. ’’

‘‘गाली से निजात पाने के लिए भी गाली सुननी होगी.’’

‘‘ इंकलाब जिंदाबाद. ’’

‘‘हर जोर जुलुम के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है.’’

3

आज ललन बाबा के दुआर पर सुबह-सुबह मजमा लगा है. पूरी बड़ टोली जुट गई है. ललन बाबा की माई धारा प्रवाह गालियों का स्वस्ति वाचन कर रही हैं. वे हैं एक नंबर की पिड़काह. गाली देने की गजब की प्रतिभा है उनके पास. राह चलते कोई मिल जाए और उसे वे दो गाली न दे दें, ऐसा हो ही नहीं सकता. लोग बचते हैं. गली में लोग उन्हें देखकर रास्ता बदल लेते हैं पर गाँव के लड़कों को उनसे उलझते हुए शायद बहुत मजा मिलता है. वे जितनी गालियां देती हैं, उतना ही उन्हें चिढ़ाने में इन्हें मजा मिलता है. ललन बाबा आजिज आ गए हैं गाँव के लौंडों से और अपनी माई से. तरह-तरह का यत्न कर चुके हैं पर किसी का कोई इलाज नहीं.

आज सुबह-सुबह गाँव के जगने के पहले ही उनके दरवाजे पर कुछ लड़कों ने सिंदुर, एक छोटी शीशी सरसो तेल, एक जोड़ी रिबन और गेंदे के चार बड़े-बड़े फूल रख दिए हैं. जिन लड़कों ने यह काम किया है, वे अपने-अपने घरों में जाकर इत्मीनान की नींद ले रहे हैं. और उनके कृत्य ने बड़ टोली में तूफान खड़़ा कर दिया है. ललन बाबा की माई को जिस-जिस पर संदेह हो रहा है, उनके सात पुश्तों को एक किए दे रही हैं और जिनको गालियां दी जा रही हैं, वे जुटकर सफाई दे रहे हैं या गुस्से में मारने-मरने पर उतारू हैं. कुछ लोग बीच-बचाव कर रहे हैं. ललन बाबा का पूरा परिवार डरा हुआ है कि रात में किसने आखिर उनके दरवाजे पर भूत-प्रेत रख दिया है. कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि अरे किसी की शरारत भी तो हो सकती है, पर अधिकांश लोग इसे शरारत मानने को कतई तैयार नहीं हैं. कोई कह रहा है कि देख नहीं रहे हो कि सिंदूर और रिबन रखा है, जरूर कोई प्रेतीन सटा गया है. देख लेना महीना नहीं लगेगा, घर हिला देगी यह. कोई कुछ- कोई कुछ. जितनी मुंह उतनी बातें. तरह-तरह की आशंकाएं और तरह-तरह के डर. ललन बाबा जाकर लोटन बहू को उसके घर से पीटते-गलियाते खींच लाए हैं. लोटन बहू उनके पैरों पर गिरकर सफाई मांग रही है कि उसका काम नहीं है पर कौन सुने? उसने आकर दरवाजे का सारा ताम-झाम उठा लिया है. ललन बाबा धमका रहे हैं कि जाकर सोन में फेंक आओ इसे और अगर घर में कुछ खरमंडल हुआ तो तुम भुगतोगी. वह रोते हुए सब सामान लेकर चली गई है.  भैरव को अच्छी नहीं लगी है ललन लोटन बहू के साथ ललन बाबा की बदतमीजी. वह किसी से कह रहा है कि इस गाँव में अबरा की कोई इज्जत नहीं है.  बड़टोली के किसी ने उसकी दलील सुन ली है और गाली बकते हुए कहा, ‘‘हं नान्ह राम, अबरा के इज्जत नहींए है पर जल में रहकर मगर से बैर भी कौनो अच्छा चीज नहीं है. आज ज्वाला सिंह के दुअरिया पर कोई भूत रख के देखे, गंड़ीए फट जाएगी.’’

भैरव ने इस बड़बड़ाहट को सुना नहीं है. वह किसी जल्दबाजी में था, निकल गया है. शायद मैदान होने जा रहा था. लोटा लिए हुए तेजी से खेतों की ओर चला गया है. ललन बाबा को कोई सलाह दे रहा है कि घुरिया को बुला के कुछ झाड़-फूंक करा लीजिए. कौनो भरोसा है, कुछ हो-हवा गया तो अउर महंगे पड़ेगा.

लोटन बहू के सामान समेटकर ले जाने के बाद ललन बाबा की माई दरवाजे पर जुटी भीड़ को ही गाली देने लगी हैं, ‘‘का इहाँ पतुरिया का नाच हो रहा है? तुम सब के घर माई-बहिन नहीं है का रे? इहाँ तमासा हो रहा है? धर के मुड़ीए ममोर दूंगी….’’ भीड़ तीतर-बीतर हो गई है.

घुरी राम गाँव का माना हुआ ओझा है. बहुत ख्याति है उसकी. जवार भर के पांच-छह गाँवों में जबरदस्त पूछ है. किसी को कोई हवा-बयार लग जाए, किसी को भूतीन-प्रेतीन पकड़ ले, किसी को बेटा चाहिए, किसी का मरद मान नहीं रहा है, किसी का सवांग कलकता से लौटा नहीं चार साल से- दौड़ो घुरिया के पास, पकड़ लाओ. किसी को भभूत देता है, किसी को फूल देता है, किसी से अंग्रेजी दारू और मुर्गा लेके शमशान में जाकर साधना करता है और सबकी बाधा दूर कर देता है. दूर न भी करे तो मोसिबत हलुक तो कर ही देता है. उसकी ओझई से परेशान रहते हैं सुमेसर तिवारी. वह उनका बनिहार है. कई बार काम अकाज होता है उनका घुरिया के ओझई से पर सुमेसर तिवारी झेले जा रहे हैं. गाँव के नान्ह टोली का कई ‘टॉप माल’ चखा चुका है उन्हें. यह बात कौन नहीं जानता. मुर्गा-दारू की कभी कमी नहीं होने दी. सुमेसर तिवारी की चार बात सह भी लेता है. गाँव-जवार में उसकी इतनी प्रतिष्ठा है फिर भी सुमेसर बाबा सबके सामने उसे चार बात कह लेते हैं, यह कम है क्या? बाबा इसी बात की लाज निबाहते हैं और बर्दाश्त किए जा रहे हैं घुरिया को. दोनों परस्पर एक-दूसरे को लाभान्वित कर रहे हैं.

घुरिया के बारे में कई किस्से मशहूर हैं जवार भर में. मैनेजर तिवारी ने एक किस्से का काफी प्रचार किया है. वे इसे सौ फिसदी हकीकत कहते हैं, जबकि घुरिया इसे इसे सौ फिसदी झूठ कहता है. गाँव में इस पर मिली-जुली राय है. पचमा मास्साब के लड़के की शादी के चार साल हो गए और कोई बाल-बच्चा नहीं. पूरा परिवार चिंतित. टोला-जवार चिंतित. हितई-नतई चिंतित. लड़की बांझ है. नहीं का बात करते हैं मरदे, लड़की तो हीरोईन है रे, मुअल बिया छीट दो तो फसल लहलहा जाएगी. लइकवे नामरद लगता है. आरे नहीं जाइएगा, एक से एक सुभेख गाय गाँव में बहिला नहीं निकल गई है. सुभेख होने से क्या होगा, खेत बंजर है. मरद में कभी दोस होता है हो. आरे आपको मालूम है, उसका हथियारे काम नहीं करता है, तो खेत उपजाउए होके झांट उखाड़ लेगी. ए मरदे कइसन बात कर रहे हो, देखे हो उसका हथियार? तरह-तरह की बातें. कुछ चिंता में, कुछ रस लेने के लिए विचार गोष्ठियां जगह-जगह. इन विचार गोष्ठियों की खबरें पचमा मास्साब तक भी पहुंचती. फलाने ने ये कहा, अलाने ने ये कहा. तरह-तरह की दवाई, तरह-तरह के उपाय. कथा-मनौती सब पर सब बेकार. हार कर घुरी को बुलाया पचमा मास्साब ने, घुरी तुम तो जानते ही हो. राम जी के दया से चार साल हो गया. घर में बाल-बुतरू न हो तो मनहूसी जैसा लगता है. घुरी थोड़ा कहना, ज्यादा समझना की तर्ज पर सब समझ गए, बस-बस मलिकार. घबराने की बात नहीं है. कब काम आएगा घुरिया. मलिकार दशहरा आने दीजिए.

दशहरा आया. दिन में दुर्गा सप्तशति का पाठ करते मैनेजर तिवारी. रात में घुरिया पचमा मास्साब को बहू को एक कमरे में बंद कर ना जाने कौन टोटरम करता. मुर्गा का मांस बनवाकर और अंग्रेजी दारू का पौव्वा, दो पाकेट अगरबती, एक शीशी सेंट और एक सोटा लेकर घुस जाता कोठरी में. कोठरी का दरवाजा बंद. कह दिया था, मलिकार जेतना दिन चलेगा मनेजर बाबा के पूजा, ओतने दिन चलेगा हमरा भी टोटरम. रात-रात भर हमको भगवती काली, कौड़ी कमछेयावाली के सुमिरन करना होगा. मलकिनी नहा धोके रात नौ बजे तैयार हो जाएं. बारह बजे कोठरी बंद करता था घुरिया. उसने पूरे परिवार को चेता दिया था कि सब लोग अपना इत्मीनान से सोए. खबरदार रात में कोई ढुका नहीं लगाएगा. कवाड़ी नहीं खटखटाएगा. अंदर से मलकिनी का भूत चिल्लाए तो खबरदार आना नहीं है. तरह-तरह की शर्त. संतान के लिए छाती पर पत्थर रखकर मान लिया पूरे परिवार ने.

पहिला दिन तो परिवार के सब लोग जागते रहे. दूसरे दिन पूरा परिवार सो गया, जिसकी बीवी की ओझाई हो रही थी, वहीं जागता रहा और बेचैन रहा. अगले दिन पूछा उसने अपनी मेहरारू से- आ हो, का करता है घुरिया भीतरवा?

वह बोली, कुछ नहीं जी. आसनी बिछा के बैठ जाता है. अगरबती जलाते रहता है और दारू जमीन पर ढरकाते रहता है. का दो बुदबुदाते रहता है. कभी मीटवा खाता है और कभी सोटवा जमीन पर पटकता है. इहे भर रात. बारह बजे अइबे करता है, तीन बजे भोरहरिए निकल लेता है. तीन घंटा पूजा बस.

आ तुम का करती हो?

हम का करेंगे, हम खटोलवा प सुत जाते हैं अउर सपना देखते हैं.

पूरा परिवार आश्वस्त होकर सोने लगा अगली रात से.पर मनेजर तिवारी अपने घर में करवटें बदलते रहे.

छठ बाद सुनाई पड़ा कि पचमा मास्साब दादा बनने वाले हैं. धूमधाम से छठ करवाया मैनेजर तिवारी ने, पर कहते हैं कि घुरिया साला हरामी है.

लोग पूछते हैं कइसे, तो जो किस्सा सुनाते हैं मैनेजर तवारी, उसके पहले कहते हैं -किसी से कहना मत. पर मैनेजर तिवारी के जलने से का होता है. घुरिया भी बाभन का ही बेटा है. नान्ह के घर जन्मा है, बीज बाभन का है. देखते नहीं हैं कइसे बरता है उसका चेहरा. भक-भक. छह फीट का सुडौल शरीर दिया है परमात्मा ने और परमात्मा की दया से उसका जस बढ़ता ही जा रहा है. कोई कुछो कहे. नान्ह से बड़ तक चलती है उसकी पुरोहिती. जहाँ दवा-दारू-दुआ, पूजा-पाठ सब फेल, उहाँ घुरिया. घुरिया कोई न कोई जुगत निकाल देता है. गाँव में घुरिया नहीं होता तो लोटन बहू कितनों को खा गई होती. मनेजर तिवारी जोड़ते हैं, घुरिया लोटन बहू को खाता है. खाता है माने बूझते हैं ना?

***

भू्अर दुसाध चार दिन से बीमार पड़े हैं. पेट चल रहा है और बुखार टूट नहीं रहा है. लेदरा ओढ़ के सोए हैं और कंपकपी छूट रही है. गाँव मे सरकारी होस्पीटल है. होस्पीटल क्या है, भुवनेश्वर सिंह के दालान की एक कोठरी है जो नियम से खुल जाए तो महीने में तीन दिन खुलती है, नहीं तो भगवान जब चाहते हैं तब खुलती है. पीरो से एक कम्पोडर साब आते हैं. जिस दिन कोठरी खुलती है, उस दिन उसमें झाड़ू लगा देता है रमचरना. रमचरना कमकर भुवनेश्वर सिंह का चरवाह. वह होस्पीटल का चपरासी भी है. तीन सौ दरमाहा पाता है. कोठरी में रखे जग को मांजकर पानी भर देता है. कंपोडर साब पीरो के बड़का अस्पताल से फूकौना लाते हैं और जो उनसे मिलने आता है, उसको देते हैं. कहते हैं ई हथियार में पहिन के खेला करने पर बच्चा नहीं होता है. पीठ पीछे पूरा गाँव उनका मजाक उड़ाता है और उन्हें फूकौना डाक्टर कहता है. सामने लिहाज वश सब कमपोडर साब कहते हैं. उनके फूकौने को बच्चे गाँव में फूला-फूलाकर खेलते रहते हैं. एक दिन कंपोडर साब ने सिपाही अंकल को टोका, आप लोग फूकौनवा का इस्तेमाल नहीं का करते हैं? देखते हैं कि बच्चा सब दिन भर उसी से खेलता रहता है. सिपाही अंकल बिगड़ गए कम्पोडर साब पर, आरे मरदे का मजाक करते हैं. ई फूकौना पेन्ह के ऊ कुल्ह काम होगा? मजे नहीं आएगा. आ बच्चा तो भगवान जी नू देते हैं. ई फूकौना रोकेगा जी भगवान जी के देल? सरकारो बहिनचो गजबे चीज है. एगो मैडम बनी थी प्रधानमंतरी तो लोगिन के धर-धर के बधिया बनाने लगी थी. आ अब फूकौना बंटवाया जा रहा है. एकरी बहिन के सरकार…

खैर लब्बोलुआब यह कि कम्पोडर साहब तो गाँव वालों के लिए दर्शन के भी दुर्लभ थे और कभी दर्शन देते भी थे तो लोग जानते थे कि फूकौना ही उन्हें मिल सकता है. इस प्रकार होस्पीटल गाँव में हेल्थ की दृष्टि से नहीं मनोरंजन के लिहाज से अपनी थोड़ी-बहुत उपयोगिता सिद्ध किए हुए था.

गाँव से होस्पीटल का ऐसा कोई समझौता तो था नहीं कि जिस दिन कम्पोडर साब आते उसी दिन गाँव के लोग बीमार पड़ते और आते ही खटाखट दवा लेकर निरोग हो जाते. लोग सालो भर बीमार पड़ते रहते थे और वे गाँव के नीमहकीम देवनारायण सिंह के भरोसे बीमार होते रहते थे और उनकी दवा खाकर अक्सरहाँ रोग से ही नहीं बल्कि जीवन से भी मुक्ति पाते रहते थे. जो थोड़े समर्थ थे वे ज्वाला सिंह की जीप में बैठकर जेठवार जाकर इलाज कराते थे. वहाँ के डॉक्टर तो रोज लगभग उपस्थित हो जाते थे पर कब आएंगे और कब चले जाएंगे-उनका भी ठिकाना नहीं था. खैर लोगों को भी बहुत फर्क नहीं पड़ता था. उनका तो यह मानना था, देखिए खोखी-सरदी छोड़ दीजिए तो कवनो बड़हन बीमारी असही नहीं हो जाती है. कवनो पाप किए होंगे तबे होती है. एह जनम में नहीं तो पिछला जनम में किए होंगे. आ जब पाप किए हैं तो डॉक्टर मैयाचो क्या करेगा जी, आपको सजाए तो भोगना ही न पड़ेगा. चलिए ठीक है गाँव में होस्पीटल है, भुनेसर भाई के दुआर पर खुल गया है. किरयवा तो मिल रहा है. कवनो बढ़िया काम किए होंगे पूरुब जनम में आज फल उठा रहे हैं.

प्रतिकार करते भुवनेश्वर सिंह, आरे का बढ़िया काम किए होंगे. नौ महीना से किराया नहीं मिला है. आपलोग जो खूब फूकौना फूला रहे हैं, एक दिन भगाएंगे कम्पोडर राम के तब बुझाएगा.

छांगुर सिंह ने कहा, आरे महराज ऐसा होइए नहीं सकता, नौ महीना में तो जनानी बाचा दे देती हैं. सरकार छिनरी कैसे नहीं पैसा देगी जी. लेने का लूर नू चाहिए.

भुवनेश्वर सिंह ने बोल छोड़ा, चंदना दुसाध बो बूझ रहे हैं का गोवरनमिंट को?

इधर लोग सरकार की मइया-बहिन को याद कर रहे थे. डॉक्टर, हॉस्पिटल आदि को फालतू करार दे रहे थे. उधर गाँव के एक कोने की टूटी और फूटी हुई कोठरिया में लेदरा ओढ़ के भुअर दुसाध एक सौ चार डिग्री बुखार से तड़प रहे थे. उल्टी कर रहे थे. बिस्तरा गंदा कर रहे थे. लछमीनिया रो रही थी, परवतिया रो रही थी.  अपनी ढही हुई और खाली नाद पर खूंटे से बंधी रंभाती-छटपटाती उनकी भइसिया रो रही थी. परवतिया कपड़ा भिगा लाई थी और उनका चेहरा पोंछ रही थी, बाबू, ए बाबू अंखिया तनी खोलो ना. तनी ताको ना. कईसन तबीयत है बोलो बाबू…बोलते-बोलते खुद ही रोने लगी परवतिया. परवितया रो रही है और भूअर के चेहरा पोंछ रही है. लछमीनिया भूअर के तलवे में तेल मल रही है. अचानक लछमीनिया भी बोकार फाड़ कर रोने लगी. परवतिया भागी देवनारायण सिंह के यहाँ, माई डगडर साहेब के लिआ के आते हैं, बाबू आंख नहीं खोल रहे हैं.

देवनारायण सिंह बिहिया बाजार जाने के लिए धोती पहन रहे हैं. जाकर पैर पर गिर पड़ी परवतिया, जान बचा लीजिए ऐ डगडर चाचा, बाबू कइसे -कइसे तो  कर रहे हैं. लगता हैं बचेंगे नहीं. आप ही भगवान हैं ए डगडर चाचा. जान बचा लीजिए बाबू के. बाबू बिना हमलोग कइसे जिएंगे, कइसे उबार होगा हो डगडर चाचा.

धत् साली, कुछो नहीं होगा भुअरा के. नान्ह कठजीव होता है, जल्दी मरता नहीं है. आ रहे हैं बिहिया से त चल एगो सूई देंगे टनमना जाएगा.

ना ए डगडर चाचा. बाबू अंखियो नहीं खोल रहे हों डगडर चाचा. चल के तनी देख लीजिए हो चाचा.

धत् साली, जतरा प चोन्हा का कर रही है. कह रहे हैं न कि आ रही बिहियां से. ऊ मरेगा एतना झट से? बिहिए बड़ा विदेश में है. दू-चार घंटा में आ रहे हैं, चल…

ना ए चाचा जनवा बचा लीजिए बाबू के. बाबू बचेंगे ना ए चाचा..

देवनारायण सिंह की पत्नी बोली, जाके देख काहे नहीं लेते हैं, गरीब को. बेचारा सिरियस होगा. रो रही है बेचारी तो बड़का डगडर बन रहे हैं, अइसा गजब आदमी होता है?

तुम औरत सब न, नाक नहीं होता तो मइला खाती. तुम्हीं जानती हो कि मर जाएगा? ढेर मोह आ रहा है तो जाके तुम्हीं देख लो ना.. अपनी जनानी को डांटा देवनारायण सिंह ने.

ए महराज, मत जाइए बाकि घर में लड़ाई-झगरा मत कीजिए. अइसा निसरधी आदमी होता है…भुनभुना रही हैं वे.

आकाश-पाताल एक कर के रो रही है, रोए जा रही है परवतिया.

देवनाराण सिंह ने दवाई वाला चमड़े का बैग उठा लिया है- चल देख लेते हैं, नखरा मत पसार.

घर से बाहर निकलकर गली में सुनसान पाकर परवतिया की छाती दबोच लेते हैं देवनारायण सिंह.

छोड़िए हो चाचा. केहू देख लेगा हो चाचा.

चुप्प साली. माल तो मजिगर हो गया है. उसकी छाती छोड़कर पीछे-पीछे चल रहे हैं देवनारायण सिंह. आगे-आगे भाग रही है परवतिया.

भूअर के घर पहुंचते ही नाक ढंक लेते हैं देवनारायण सिंह. बैग में काफी देर उटकेर कर एक पुराना सीरिंज और नीडल निकाल कर एक छोटी शीशी में दवा भर कर कहते हैं, चूतर पर लगेगा. कपड़ा हटाओ.

मालिक, गंदा किए हुए हैं सब. जवाब देती है लछमीनिया.

जाने दो, कहकर भूअर की बांह में सूई लगा देते हैं वे.

भूअर में कोई हरकत नहीं.

लाओ, जल्दी निकालो पचास रुपया. बिहिया जाना है. लेट मत करो.

मलिकार हम दे देंगे. परवतिया के बाबू ठीक हो जाएंगे तो दे देंगे कमाकर.

तोहनी सब में इहे कमी है. इसीलिए मैं जल्दी दवा-दारू नहीं करता. जल्दी ले आओ. नेटुअई मत पसारो. लाओ. डांटते हैं देवनारायण सिंह.

मलिका…र …

ए जादा चालू नहीं. निकाल…

पुराना टीन के बक्सा हिलकोर के एक, दो, पांच, दस के कई फटे-पुराने-नए नोट मिलाकर वह सब देवनारायण सिंह के हाथ में रखती  है.

भूअर गों गों गों कर उल्टी कर रहे हैं.

देवनारायण सिंह इत्मीनान से रुपया गिन रहे हैं, हाँ बयालिस रुपया है. आठ रुपया बकाया है ध्यान रखना. वे पैसे लेकर चल देते हैं.

भूअर की हालत बिगड़ती जा रही है. शाम चार बजे तक वे मुंह से अजीब ढंग की आवाज निकालने लगे हैं. नाक से पानी बह रहा है और शरीर कांप रहा है. नन्ह टोली के काफी लोग इकट्ठा हो ए हैं.

ए परवतिया के माई कौनो ओझा से दिखाओ हो. लगता है, ई कौनो भूत-उत धर लिया है इनको. देख नहीं रही हो कइसे बोल रहे हैं.

हं हो लगता है उतरवारी अलंग वाला प्रेतवा धर लिया है.

आ दूर, बुलवा काहे नहीं लेती हो घुरी बचवा के. जान लोगी का तुम लोग भुअर बेचारू के. एक बूढ़ी महिला ने सलाह दी है.

घूमते-फिरते खुदे आ गए हैं घुरी. एक हाथ पर खैनी रखकर दूसरे हाथ के अंगूठे से उसे इत्मीनान से मसल रहे हैं. वे बहुत ध्यान से देख रहे हैं भुअर को. काफी देर देखते-देखते अचानक बोले हैं, उतर भर के ब्रह्म बाबा हैं. काफी नाराज हैं. अकेले नहीं होगा. नोनार के रामचन को भी बुलाना पड़ेगा.

कोई रामचन को बुलाने भागा है. कुछ देर बाद हाथ में सोटा लिए रामचन अउर घुरी आ गए हैं, खटोला पर से जमीन पर उतारो बर्ह्म को.

सुध घी मंगाया गया. घर में ही था एक पाव. एक पाव से नहीं होगा. चलो शुरू करते हैं फिर देखा जाएगा. गाय के गोबर से बना गोइठा चाहिए. बगल के घर से आ गया है. परवतिया भाग के बलेसर साह के दुकान से लौंग और बाकी सामग्री ले आई है, जो जो घुरी और रामचन ने बताया है.

कोठरी में आग जला दी गई है. उसमें घी, सामग्री, लौंग डाला जा रहा है. सब देखनिहार लोगों को भगा दिया गया है. कोठरी का दरवाजा भिड़का दिया गया है. दोनो सयाने नशे में हैं. टोटरम शुरू करने के पहले लछमीनिया से मांगकर वे दम भर महुए की दारू चढ़ा चुके हैं. रामचन ने जलती आग में चार-पांच सूखी लाल मिर्चे झोंक दी है. भूअर का दम घुटने लगा है. वे छटपटाने लगे हैं.  दोनो सयाने झूम रहे हैं, तरह-तरह का अभिनय कर रहे हैं. और जब-जब भूअर छटपटाकर कुछ कहना चा रहे हैं, कभी उनके पैर, कभी हाथ पर सोटे से ठोक रहे हैं. भूअर दर्द से कराह रहे हैं. दोनों भूत उतारनेवाले धीरे-धीरे और क्रूर होते जा रहे हैं, मारो साले बर्ह्म को ऐसे नहीं उतरेगा. चमड़ी खींच लेना पड़ेगा. उन दोनों की निर्दयता देखकर परवतिया छटपटा रही है, कब ठीक होंगे हमार बाबू हो भइया? इनको का हो गया हो भइया?

लछमीनिया कभी-कभी उन दोनों को मारने से मना भी करती है, हाथ जोड़ती है तो वे उसे डपट देते हैं.

दोनो मां-बेटी छाती पर पत्थर रखकर ये सब झेल रही है. इसके पीछे वह अंधविश्वास है कि जो मार पड़ रही है वह भूअर पर नहीं बर्ह्म पिचास पर पड़ रही है. पर हर चोट के बाद भुअर कराह उठते हैं. वे उसी तरह निरुपाय हैं जैसे हलाल किया जा रहा बकरा.

सुबह होने को है. अब सयानों को लग गया है कि भुअर अब कुछ ही घंटों के मेहमान हैं. आपस में आंखों के इशारे से दोनों ने बतिया लिया.

घूरी बोला, लछमीनिया भुअर के बचे के चानस कम है. अब तैयारी कर लो. लगता है कि अब चला-चली की बेर आ रही है.

उसके इतना कहते हीं भूअर से लिपट के लछमीनिया और परवतिया विलाप करने लगी. लगा जैसे अपने विलाप से यमराज को मजबूर कर देंगी. भूअर को मरने नहीं देंगी. उन दोनो के हृदय विदारक विलाप सुन कर दोनों सयाने तेजी से खिसक लिए.

सुबह में मैदान होने के लिए हीरा बाबा नान्ह टोली की ओर से ही निकल रहे थे कि उन दोनों के विलाप सुनकर ठिठक गए. चोरी-ओरी हो गई का? परवतिया के साथ कौनो कुछ खेल गया का? भूअरा की आवाज नहीं आ रही है, भूअरा बीमार थ-मू गया का? उनसे रहा नहीं गया. चले गए उसके घर की ओर. वहाँ के हालात देखे तो उनका मन करुणा और क्रोध से एक साथ भर गया. नब्ज टटोली भूअर की…. और लगा कि अभी जिंदा है तो बिगड़ पड़े लछमीनिया पर, मुआना चाहती है का रे इसको? इ अब-तब कर रहा है, आ तुम सब बइठ के रो रही है. आरे ले के भागो जेठवार, उहाँ होगा डाक्टर नहीं तो मर जाएगा बेचारा. जल्दी करो. और पता नहीं क्या बड़बड़ाते हुए वे वहाँ से निकल गए. रास्ते में नान्ह टोली का जो दिखा, उसको गलियाते हुए और भूअरा को जल्दी अस्पताल ले भागने की नसीहत देते हुए वे मैदान की ओर निकल गए.

धीरे-धीरे भुअर के दरवाजे पर भीड़ जुट गई. उसके कपड़े बदल कर उसे खटोला पर लिटाया गया और चार लोगों ने उठा लिया. पीछे-पीछे लछमीनिया लोटा में पानी लिए हुए और कुछ कपड़ा-लता और एक गठरी सम्हाले परवतिया. दोनों सुबकते हुए चल रही हैं. खटोला पर भुअर को सम्हाले लोग जल्दी पहुंचने के लिए दुलकी चाल से चल रहे हैं. ज्योंही गाँव से बाहर कुछ आगे निकले थे कि भुअर ने मुंह से अजब ढंग से आवाज निकाला. देखने के लिए खटोला जमीन पर रखा गया और देखते-देखते भुअर ने छटपटाकर प्राण त्याग दिए. उनका चेहरा एक ओर झूल गया.

छाती पीट-पीट कर और भूअर की लाश पर माथा पटक-पटक कर विलाप करने लगी लछमीनिया और परवतिया.

बीच-बीच लछमीनिया विलाप करते हुए बोलती जा रही थी-आरे कौन दुसमनिया निकले हो परवतिया के बाबू. आही हो रामा…. अब के हम लोगों को देखेगा हो रामा..चारू ओर अन्हार हो गया हो रामा…. ए परवतिया के बाबू, ए परवतिया के बाबू अंखिया तनी खोल…. परवतिया भी बाबू-बाबू चीखते हुए भूअर को जगाने का यत्न करने लगी.

जो लोग ले जा रहे थे, उनमें से भी दो की आंखें छलछला आई और उन्होंने गमछे से आंसू पोंछ लिया.

सुबह का समय था. गाँव के और लोग भी इकट्ठा होने लगे. लाश गाँव में वापस लाई गई.

दाह-संस्कार की तैयारी होने लगी. कोई कफन लाने भागा. ललन बाबा ने कहा कि टिकटी के लिए उनके बंसवार से बांस ले लिया जाए. कोई किसी के घर से रस्सी मांग लाया. पूरा गाँव गमगीन. भूअर के सीधेपन और परिश्रमी व्यक्तित्व की चर्चा होने लगी. जगह-जगह लोग आपस में उनसे जुड़े अनुभवों को आपस में बांटने लगे. ऐसे थे भूअर-वैसे थे भूअर. भूअरा गौ आदमी था. बड़टोली में भी मातम पसर गया.

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  1. पढ़ते-पढ़ते गाँव की यादों में खो गया . सभी पात्र ऐसे घुलते-मिलते से महसूस हुए कि लगा कि ये सारी घटनाएँ मेरे ही गाँव की है. आखिर में तो आपने आँखों से लोर टपका दिए भाई. गज़ब की संवेदना है इन पंक्तियों में :बीच-बीच लछमीनिया विलाप करते हुए बोलती जा रही थी-आरे कौन दुसमनिया निकले हो परवतिया के बाबू. आही हो रामा…. अब के हम लोगों को देखेगा हो रामा..चारू ओर अन्हार हो गया हो रामा…. ए परवतिया के बाबू, ए परवतिया के बाबू अंखिया तनी खोल…. परवतिया भी बाबू-बाबू चीखते हुए भूअर को जगाने का यत्न करने लगी.

  2. chanchal. nakhreela. aur adbhut Hare!

  3. ADHBHUT

  4. सुंदर उपन्यास रचना के लिए बधाई। पूरा पढ़ने की इच्छा है।

  5. adhbhut ag hai aapne —=..rim shubhkamna .deshaj that baat se yukt.ek naya akhayan prastut kiya

  6. Kahani k “BHEL” se gyanoday me bahut pahale ek ansh padha tha GURU! Aur tabhi mujhe laga k ho na ho jarur hame Chutiya banaya ja rha hai.bahut samay k bad yani aaj vah shak satik nikala.maine usi samay phon karke btya tha k ye kahani hai hi nhi.falak bahut bda hai iska.apne sujhav manga tha.tb ye shak pukhta ho gaya tha.aj pata chala.bahut hi badhiya ban rha ye upnyas.agrim badhai!

  7. प्रिय हरे
    उपन्यास लिखने के लिए हार्दिक बधाई , अभी पढ़ा नहीं है. शीघ्र पूरा करो, शुभकामनायें.
    वीरेंद्र यादव

  8. bhai, upanyas achchha ban raha hai. jaldi pura karen. shubhakamanayen.

  9. शानदार. मैं तो कभी गांव में रही नहीं, पर बिहार /झारखंड की होने के नाते बोलचाल की ये भाषा बिल्कुल मेरी जानी- पहचानी भाषा है. ळिखने के स्टाइल से गांव का पूरा चित्र उभरकर सामने आता है. बधाई.

  10. आरे मरदे का मजाक करते हैं? अइसे बीच रसता मां थोड़े छोड़ते हैं जी…

    बहुत अच्छा लिखा हरेप्रकाश भाई…

    पियास आउर बढ़ि गई हो भइया..

    नाबिल के इंतज़ार…

  11. गांव धीरे धीरे उतरकर छाने लगता है .सजीव चित्रण बाँध लेता है .

  12. बढ़िया उपन्यास होगा. किन्तु किश्तों में पढने से उत्कंठा और आनंद दोनों जाता रहता है…

  13. पाठकों को बांधकर रखने की क्षमता इस उपन्‍यास में है। कथोपकथन की दृष्टि से उपन्‍यास बहुत सशक्‍त है। यद्यपि साहित्‍य में असंसदीय शब्‍दों से बचना साहित्‍यकार का धर्म है, तथापि ऐसे शब्‍द इतनी सहजता से अथवा प्रवणता कह लें, इस उपन्‍यास में आये हैं कि उन्‍हें सहा जा सकता है। केवल एक स्‍थल पर ‘ सिंचाई के अभाव में खेत में जब फसल सूखने लगती है तो लोग सरकार की मइया चोदने की बात कर संतोष कर लेते हैं.- थोड़ा परिमार्जन की आवश्‍यकता है। यहां उपन्‍यासकार अश्‍लील हो गया है, उचित समझें तो देख लें। उपन्‍यास पूरा पढ़ने पर ही वैसे यह कहा जा सकता है कि उसका कुल प्रभाव क्‍या है। फिलहाल इतने अंश से उपन्‍यासकार की बेलाग और बहुफलकीय किस्‍सागोई पर भरोसा जगता है। साधुवाद।

  14. उपन्यास अंश पढ़ कर लग रहा है कि यह लोक-राग से भरपूर कृति बनेगी. देशज शब्दों की बहुलता है, मगर यह भी आस्वादन है. लोगों को अच्छा लगता है.शुभकामनाये, यह उपन्यास मील का पत्थर बने.

  15. बहुत यथार्थ चित्रण है. इसे सुन्दर नहीं कह सकती. क्योंकि यथार्थ बहुत बदसूरत और नंगा होता है जिसका हू- बहू चित्रण करने का पूरा पूरा प्रयास किया गया है.इसके लिये साधुवाद.यथार्थ को ज्यों का त्यों रख देना बड़ी हिम्मत का काम है. कल्पना को हकीकत का रंग देना आसान नहीं होता. फिर वो चाहे उपन्यास हो या कहानी. इस उपन्यास में घुटन और पीड़ा का चित्रण बहुत तीव्र रूप में हुआ है जो सीधे सीधे आत्मा को जाकर झकझोरता है .और यही लेखक की असली सफलता है. और किसी रचना के कालजयी होने का प्रमाण भी. बहुत बहुत बधाई .
    डॉ.अनीता सोनी

  16. प्रिय बंधु, यथा स्थिति की इतनी सजीव तस्वीर भीतर एक गहरी बेचैनी पैदा करती है. प्रश्न यह है कि किया क्या जा सकता है. जो लोग इन स्थितियों के लिए जिम्मेदार हैं वह इतने चिकने घड़े हैं कि उन पर शब्दों का तो क्या सार्वजनिक रूप से हुई बेइज्जती का भी असर नहीं होता. लेखक जिन पर ज्यादा जिम्मेदारी है वह भी बिकते जा रहे हैं. शरद पवार के हाथों इस तरह पुरस्कार पाना बिक जाना ही हुआ. असली मकसद तो सरकार की पार्टी का सधा, वह भी कमोबेश जनता के पैसे से. खैर, जो भी है. तुम्हारी रचना में सचमुच बहुत दम है. ईमानदारी से कहूँ, अभी पूरा नहीं पढ़ पाया हूं, लेकिन पढूंगा ज़रूर.
    एक बात कहूँ. ऐसी रचनाओं में अप्रत्यक्षतः बिहार ही दिखाया जाता है. क्यों..? उत्तरप्रदेश या कोई अन्य राज्य इस से फर्क जीवन नहीं जी रहा है. यह ब्रांडिंग मुझे बहुत ठीक नहीं लगती. इस पर सोचना.

  17. भाई,अभी आँख का आपरेशन हुआ है। पढना लिखना बाधित है ….फिलहाल आपको बधाई।शेष फिर।

  18. ‘उन्हें अपने पहाड़ जैसे बोझे के टाल नहीं दिखते. मजूरों के दस-बीस बोझे उनकी आंखों में गड़ते हैं.’….htash mjdur ka ye kthn mn ko jhkjhor deta hai aur sath hee lekhak kee bhavprnvta kee or ishara bhee krta hai .ek chhote se ansh me itnee ghraaii aur sanvednaen hona aashchryjanak hai . badhaii.pura upnyas padhne kee ichchha hai.

  19. bahut badhayi hare ji. padh kar jaldi hi bataunga.

  20. “Ghar ke munder par kauwa ke kaawn,aapan gaawn”,Upanayas me e gaawn purhar samvedna lehle samagrata ke saath utar rahal ba.Tani jaldi rahe ke chahin,bahut-bahut badhayee……

  21. गोदान की तरह का यह मृत्यु-सत्य और विपन्न परिवार की करुण यथार्थपरक कहानी कहता उपन्यास-अंश……पूरा पढ़ने को अधीर करता हुआ….अब देखता हूँ कब हस्तगत होती है पुस्तक?

  22. bahut badhiya, upnyaas ans . pura padhe bina kam nahi chalega.

  23. गांव के समाज में इन तमाम विद्रूपताओं के बाद भी एक तरह की सामाजिकता है. सामाजिक जिम्मेदारी का बोध है. महानगरीय समाज के नए ज़मींदार तो अपनी गाड़ी रोकने की ज़रूरत भी नहीं समझेंगे.

  24. its sounds super…………….please complete it soon……….congrates for your wok

  25. उपन्यास के जल्द पूरा होने की शुभकामनाएं। भाषा पठनीय है।

  26. sundar shabd…ahaj bhasha..gaon ke school ki bheetari bahri tasveer uker kar rakh di aapne….band kar rakhane ki kshamta hai is upanyas me…

  27. अरे बाप रे। कहानी पढ़ ली। पर ये तो बताओ कि ये किस देश की कहानी है जहां बगैर पढ़े आठवीं पास का सर्टिफिकेट दिया जाता है? मुझे तो लगता है कि शायद अब तो बिहार में भी नहीं होता होगा। हां ,पढ़ने में रोचक है लेकिन वही शोषण, वही गांव की भाषा और कहीं कहीं कुछ गन्दे शब्द।काशी नाथ सिंहजी का ‘काशी का अस्सी‘ याद आ गया। कहानी बांधे रखती है ये अच्छी बात है। मैं आपको और पढ़ना चाहुंगी। आपकी रचनाएं कहां कहां छपी हैं बता दो। मेरे पास लगभग सभी पत्रिकाएं आती हैं।

  28. aapka yeh upanyaas ansh padaa poore samay bandhe rakhne men saksham hai ,iske liya badhai deta hoon.
    ashok andre

  29. publish karne yougya hai .

  30. post this novel soon. ek nai duniya ke bare me pata chala…….

  31. Loved the story. When is the next part being published? Plz let me know Can’t wait to read what happened next.
    Thanks.

  32. Anchlik upanyas he. katha pravah sundar he. poora padhenge to aur adhik achchha lagega

  33. बहुत सुन्दर..सराहनीय प्रयास…साधुवाद.

  34. गांव के जीवन का बहुत ही सजीव और सरस चित्रण किया है हरेप्रकाश जी ने। उपन्यास पढ़कर मुझे अपने गांव में बिताए समय की याद आ गई। पूरा उपन्याल पढ़ने की उत्सुकता रहेगी। फिलहाल बहुत-बहुत बधाई…..

  35. इस कथा को पूरा पढवाइये हरे प्रकाश जी…..वैसे अगर आपका लेखक कथा में अपने होने के अहंकार या स्वाभिमान या उसकी अनिवार्यता से मुक्त हो सका तो यह कथा उपन्यास के यूरोपीय चौखटे को तोड़ देगी….शिल्प को दृश्यात्मक ही बने रहने दीजिए..

  36. hareprakash ji ke paas gramy jeevan ka saghan anubhav hai, samvedansheel bhasha hai aur grameen jeevan ke prati gahra sarokar hai. aashchary nahin ki unka likha ek bahut pathniiy yatharth ke roop men saamne aaya hai. unka yah upanyaas jald poorn ho, lokpriy ho yahi shubhkamna hai.

  37. हरेप्रकाश जी.
    जितना पढने को मिला, ऐसा लगा जैसे कोई कालजयी रचना तैयार हो रही है। सटीक शब्दों के माध्यम से ग्रामीण परिवेश का प्रभावशाली चित्रण आप कर रहे हैं। बधाई और शुभकामनाएं, इस उपन्यास को पूर्ण कीजिए और साहित्य जगत को समृद्ध करें। धन्यवाद।

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