आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

कहानी की चाभी: आशुतोष भारद्वाज

–कुछ खोज रहे हैं आप?

–खोज रहा हूँ?

–काफ़ी देर से आप नदी किनारे…..आपकी चाभी तो नहीं खोयी है?

–चाभी?

–कुछ देर पहले मुझे पानी में एक चाभी मिली थी. लंबी, अष्टधातु की चाभी. यहाँ के लोगों के पास ऐसे ताले चाभी नहीं होते तो मुझे लगा….

–दिखलाइये तो.

–वो वहाँ सागौन के नीचे मेरे थैले में रखी है –अजीब चाभी है, पता ही नहीं चलता किसी संदूक की है या दरवाजे की. आप सैनिक हैं?

–सैनिक?

–ऐसी चाभी लोहे के बड़े बक्सों की ही होती हैं. हमारे घर एक सैनिक किराये पर रहा करता था. आपकी ही उम्र का रहा होगा, शायद आपको भी उसकी ही तरह यहाँ के जंगलों में हो रही लड़ाई के लिये भेजा गया होगा लेकिन शुरुआत में कुछ दिन आप जंगल में बने कैंप के बजाय यहाँ नदी किनारे रहना चाहते होंगे….आज सुबह नदी पर हवा अच्छी चल रही है न….एक रात अचानक उसका बुलावा आया, एक बड़ा सा बख्तरबंद ट्रक उसे लेने आया और वह वापस नहीं लौटा. कई महीनों बाद हमने उसके कमरे का ताला तोड़ा, एक महाकाय संदूक और उसकी चाभी मिली. मेरा घर नजदीक है आप चाहें तो वह संदूक और चाभी आपको दिखला सकता हूँ…आप रहते कहाँ हैं?

–घर तो बहुत दूर है बाबा….मेरी कार इस जंगल में फंस गयी है.

–कार? इस अबूझमाड़ में?

–नहीं, कुछ नहीं….

–आप भी उस सैनिक की तरह ही बात कर रहे हैं, वह भी यही कहता था कि उसकी गाड़ी यहाँ आ अटक गयी है. न मालूम इस जंगल में जहाँ कोई सड़क नहीं है, साइकिल तक ढंग से नहीं चल पाती, जंगलों में हो रही लड़ाई के डर से कोई यहाँ नहीं आता, वहाँ कौन सी गाड़ी कहाँ से आ अटक जाती थी.

–कब आया था वह सैनिक, बाबा?

–दो-ढाई साल हुये. उसे भी मैंने पहली बार इसी नदी किनारे देखा था…वह भी आपकी ही तरह निगाह नीचे किये बालू पर सरक रहा था…मैंने उससे भी यही पूछा था तो बोला ‘यही तो खोज रहा हूँ कि आखिर क्या खो गया है.‘ सभी सैनिक एक जैसे होते हैं क्या…आपको किराये पर घर चाहिये…वैसे उस घटना के बाद मेरी डोकरी सैनिकों को कमरा देने से घबराती है. उनसे मन जुड़ जाता है और एक रात वे अचानक गायब हो जाते हैं.

बूढ़ा और तुम नदी से सागौन के जंगल तक चलते आ जाओगे. वह नाम की ही नदी होगी. बारीक पानी की लकीर जो थोड़ा पीछे एक काली पहाड़ी से उतर पेड़ और चट्टानों से घिरे इस असमतल पठार पर कुछ दूर सरक पत्थरों के बीच ही खो जायेगी. थोड़ा ऊँचाई से देखने से लगता था एक गीला साँप पहाड़ी से उतरता, सरकता, रेंगता काले पत्थरों के बीच किसी बांबी में घुस जाता है. दो विचित्र परिंदे महुये के वृक्ष की टोपी पर बैठे थे –तुमने सालिम अली की ‘द बर्ड्स ऑफ इंडिया‘ को जेहन में टटोला, ऐसी कोई चिडि़या आकृति नहीं सूझी.

तीन तहों में मुड़े लाल रंग के थैले से बूढ़ा एक लंबी सी चाभी निकालेगा. चाभी का सिरा गोल और नीचे कई सारे छोटे खांचे. किसी प्राचीन महाराजा के तहखाने या खजाने की चाभी. तुम उसे देर तक उलटते पुलटते रहोगे. तांबे, लोहे, कांसे और तीन चार अन्य धातुओं को गला कर बनाई गयी चाभी. क्या चाभी भी अष्टधातु की होती हैं? रात भर हुई बरसात के बाद भर आयी छोटी सी नदी के दोनो ओर जंगल में बिखरे हरे के बीच एक मोर दुबका बैठा होगा. यह नदी अगर गायब हो जाये तो बीच में उगा पेड़ बालू में धंस जायेगा.

तुम्हें यह भी लगेगा कि तुम, बूढ़ा, परिंदे यह समूची कायनात किसी अदृश्य नदी के बीच स्पंदित हो रही है अगर यह नदी सूख जाये तो तुम सब औंधे गिर पड़ोगे.

–हाँ बाबा, यह मेरी ही चाभी है… घर कहाँ है आपका? लेकिन बाबा, मेरा बुलावा आ चुका है, हो सकता है बहुत जल्दी चला जाऊँ फ़िर कभी न लौटूँ.

–मुझे मालूम था आपकी ही चाभी होगी….

बूढ़ा कुछ कह ही रहा होगा कि जंगल से चीत्कार उठती आयी, करीब आती गयी…तुम दोनों ने पलट कर देखा एक नीलगाय पेड़ों को तोड़ती, लताओं से जूझती, चट्टानों पर लुढ़कती-ढुलकती भागती-गिरती, बिफरती-बौराती आयी, नदी किनारे ढह गयी. आधी देह पानी, बाकी मिट्टी पर. कुछ देर उसकी टांगें मचलती रहीं, धड़ तड़पता रहा. वह अपना सिर जमीन पर पटकती रही  – – ढेर हो गयी. उसके मुँह से झाग निकल रहा था, फैली आँखों में डरावनी हैरत मचली थी.

बूढ़ा झटके से आगे बढ़ेगा तुम्हारा हाथ खींच तुम्हें दूर ले जायेगा. तुम रोकना चाहोगे लेकिन बूढ़े ने तुम्हारी कलाई जकड़ रखी होगी, तुम वृक्षों के बीच घिसटते चले जाओगे. महुआ, सागौन, लताएँ, पत्थर…पानी की महीन धारा, काफ़ी दूर जाकर तुम अपना हाथ छुड़ा पाओगे वह भी महज इसलिये कि बूढ़े ने खुद ही छोड़ दिया होगा. तुम मुड़कर देखोगे नदी कहीं नहीं होगी, काली चट्टानों के बीच उभरे पेड़ों से घिरे एक पठार पर तुम आ पहुँचे होगे.

–आप जाइये अब, फ़िर मिलते हैं.

बूढ़ा तेजी से चट्टानों पर चढ़ता जायेगा, उसका कद छोटा होता उस पार पहाडि़यों में सिमट जायेगा कि पहाड़ी के उपर कोई दरवाजा है जिसके अंदर जा उसने ताला लगा दिया है.

ताला. वह अगस्त की कोई तारीख रही होगी. अठारह अगस्त. देर तक वह चाभी तुम्हारी जेब में चुभती रहेगी. किस ताले की होगी यह? कहाँ होगा इसका ताला? कौन इसके भीतर बंद हो गया होगा? कौन बाहर खड़ा अंदर जाने का इंतजार कर रहा होगा?

तुम इसे उठा कर ले आये वह इंसान तो इसे अभी भी खोजता होगा. लेकिन कहीं यह चाभी तुम्हारे लिये ही, तुम्हारी ही तो नहीं? तुम भी तो अचानक खुद को कई चक्रव्यूहनुमा दरवाजों के बाहर खड़ा पा रहे हो. पिछले कुछ हफ्तों में तुम्हारे घर और शहर का दरवाजा तुम्हारे लिये कुछ इस तरह बंद हुआ है कि तुम इस अबूझे जंगल में अपने अंत को समूचा जीने के लिये आ गये हो.

क्या अंत भी कोई जीने की चीज है? अगर तुम्हें वाकई मरना होता तो अपने शहर में ही मर सकते थे. सभ्यता और समय से बाहर स्पंदित होते इस जंगल में क्या तुम सिर्फ मरने आये हो? तुम कब तक अपने को छलावे के तालाब में डुबोये रखोगे?

क्या इस जंगल का दरवाजा इसी चाभी से खुलेगा ? क्या यह इस मृत्यु-द्वार की चाभी है?

चाभी के फेर में तुम भूल जाओगे वह बूढ़ा कौन था, यहाँ जहाँ दूर तक सिवाय प्राचीन चट्टान, पेड़ और पानी की बारीक सर्पनुमा नदियों के कुछ दिखलाई नहीं देता, वह कहाँ से और क्या करने आया था.

तुम्हें सिर्फ इतना याद रहेगा पिचहत्तर करीब का दिखता वह एकदम सीधा चलता था, तुम्हारे देखे में पहला इंसान जिसके चेहरे की त्वचा झुर्रियों के बावजूद एकदम कसी हुई थी. वह शायद भूतपूर्व सैनिक होगा और विकट जहरीले साँप को भी मुँह से पकड़ सकता होगा. लेकिन क्या सिर्फ एक मुलाकात के बाद कहा जा सकता है कोई इंसान साँप पकड़ना जानता है? शायद तब जब बोलते वक्त उसका हाथ हमेशा लहराता रहे, उंगलियाँ इस तरह खुलती-बंद होती रहें कि किसी साँप को जकड़ उसका दांत तोड़ जहर निकाल रहीं हों, और निगाह किसी साँप-सी चीज को बालू में टटोलती रहें. उसकी जकड़ में तुम्हारा हाथ किसी सपेरे की मुठ्ठी में जहरीले साँप सा तड़पता था. लेकिन कोई सैनिक सपेरा कैसे हो सकता है? तो क्या कोई सपेरा सैनिक बन सकता है? सेना में शायद ऐसी कोई बाध्यता नहीं कि सपेरों की भर्ती नहीं होगी, और सपेरों को अपनी जाति में किसी सैनिक को लेने से क्या गुरेज. यानी वह भूतपूर्व सैनिक था जो रिटायरमैंट के बाद सपेरा हो गया था या खानदानी सपेरा जो सेना में भर्ती हुआ था जिसे रिटायर होने के बाद हर इंसान सैनिक नजर आता था.

चाभी अभी भी तुम्हारी जेब में थी. आज शाम भी कोई तुमसे ठीक यही सवाल करने वाला होगा. फर्क फकत इतना तुम नदी के बजाय किसी पगडंडी के सहारे चल रहे होगे. बेतरतीब पत्थरों के बीच. लेकिन नदी भी तो एक सड़क ही होती होगी. पानी की सड़क. कुछ चीजें पानी की सड़क किनारे खो जाती होंगी तो कुछ पथरीली सड़क के सहारे.

–कुछ खोज रहे हैं आप?

–खोज रहा हूँ?

–काफ़ी देर से आप इन झाडि़यों में…..आपकी कोई कहानी तो नहीं खोयी है?

–कहानी?

–कुछ देर पहले मुझे वहाँ बांस के झुरमुट में कई पन्ने बिखरे मिले थी. सफेद, नीली लाइन वाले कागज के पन्ने. बैचेन इबारत. यहाँ तो मुझे दूर दूर तक आबादी दिखाई नहीं देती….मुझे लगा…

–दिखलाइये तो कहानी.

–रेल के डिब्बे में है. मैंने अपने बैग में रख ली थी –विचित्र लिखावट है, काफ़ी देर पन्ने पलटती रही. अम्मी को भी दिखलाया, उन्होंने दुनिया भर की लिपियाँ हजम की हुयी हैं, उन्होंने यह तो बता दिया कि यह आपकी ही लिपि है लेकिन इस पर लिखा वह नहीं पढ़ पायीं.

मिनी के दुपट्टे तले सागौन के पेड़ हिल रहे होंगे. उस हिलने में तुम्हें कायनात सिहरती दिखलाई देगी. तुम दोनो सागौन और महुआ के बीच फंसे एक रेल के डिब्बे तक आ जाओगे. वृक्षों के बीच बिछी पटरियाँ. पचासों साल पहले जब देश में रेल लाइन खिंच रही थीं तो यहाँ भी पटरियाँ बिछायीं गयी थीं शायद एकआध साल कोई रेलगाड़ी इस जंगल से गुजरी भी थी लेकिन सत्ता को तुरंत ही एहसास हुआ कि तकरीबन दौ सौ वर्ग मील में फैले इस बीहड़ में जब कोई स्टेशन ही नहीं तो फ़िर उत्तर से दक्षिण या पश्चिम से पूर्व को जाती रेल की महज दूरी कम करने के लिये इस बने रेल रूट का कोई औचित्य नहीं है. भले ही रेल को कुछेक सौ किलोमीटर अधिक चलना होगा लेकिन वह आबादी के बीच से तो गुजरेगी.

पटरियाँ लेकिन ज्यों बिछी हुई हैं जिन पर लुढ़क यह डिब्बा यहाँ आ गया है.

न इंजन, न कोई और डिब्बा आगे पीछे – बस एक छोटा-सा डिब्बा जैसा पहाड़ों में चलने वाली खिलौना रेलगाडि़यों का होता है. किसी विशाल  घोड़े या हाथी-सा डिब्बा घास चरने के लिये आ खड़ा.

मिनी डिब्बे के अंदर जायेगी, अपने बैग से कुछ मुड़े-तुड़े पन्ने निकाल ले आयेगी.

–ये देखिये.

हाशिये पर बहे आते उलझे, बिखरे अक्षर. नहीं, हाशिया उन पन्नों पर होगा ही नहीं. उपर से नीचे तलक, बांये से दांये तलक फकत शब्द. बेहिसाब बेतरतीब पंक्तियाँ, पहली पंक्ति दूसरी को काटती, तीसरी से छुलती, चैथी में समाती हुई. कोई इस कदर रमा हुआ होगा लिखने में कि शब्द ज्वालामुखी की तरह फूट कर कागज पर उतरे होंगे.

–यह मेरी ही कहानी है मिनी, इसे ही खोज रहा था मैं.

–मुझे लग ही रहा था. आप अपनी कहानियाँ संभाल कर क्यों नहीं रखते? अगर मुझे झाडि़यों के किनारे नहीं मिलती तो यह न मालूम कहाँ खो जाती.

तुमने पीठ पर टंगा बैग उतार कहानी डायरी के बीच रख लोगे.

–हम कब तक यहाँ जंगल में अटके रहेंगे अमिताभ? सात घंटे तो हो गये.

–मैं काफ़ी दूर तलक देख आया हूँ कहीं कुछ सुझाई नहीं देता.

–अम्मी बतला रहीं थीं आपने उनसे कहा इन जंगलों में लड़ाई चल रही है…. मुझे तो गोली की कोई आवाज सुनाई नहीं दी.

–हमेशा तो गोलियाँ नहीं चलती, लेकिन फ़िर कभी भी चल सकती हैं. हमारे, तुम्हारे देश की सीमा जैसे दो गुट यहाँ तैनात हैं, कोई कह कर गोली थोड़े चलायेगा.

–अगर आप न होते तो हम बुरी तरह से फंस जाते.

–अभी क्या कम फंसे हैं?

–अभी यह तो है कि इस जगह को जानने वाला कोई हमारे साथ है. मि.टोप्पो नाम के गाइड हैं बस, फूल-पत्ती करते रहते हैं.

–मैं भी इन अबूझे जंगलों के बारे में पूरी तरह अनजान हूँ मिनी.

–फ़िर भी…. आपने जब बतलाया कि आप इस डिब्बे में बिजली का इंतजाम कर सकते हैं तो इतनी तो तसल्ली हुई कि अगर रात तक बाहर निकल नहीं पाये तो बिना खतरे के अंदर बंद हो सो सकते हैं.

–रेल के किसी किसी डिब्बे के नीचे एक छोटा पावरहाउस होता है. उसमें इतनी बिजली होती है कि कई दिनों तक कुछेक बल्ब और पंखे का काम चल जाये. संयोग से यह ऐसा ही डिब्बा है, बस उस पावरहाउस को डिब्बे के साॅकेट से प्लास और पेचकस से जोड़ना भर है.

तुम दोनो पटरियों के सहारे चलते बाहर निकलने का रास्ता टटोल रहे थे. काली पहाड़ी से घिरे इस पठार पर अभी अंधेरा नहीं हुआ था. इस जगह के पत्थर, मिट्टी, परिंदे, आकाश और हवा भी अपरिचित से लगते थे. कुछ भी ऐसा नहीं था जिसमें किसी स्मृति, परिचय की पूर्वगंध हो. सदा को गुम जाने की अनिर्वचनीय सी पुकार इस बीहड़ से उठती थी, सांसों को समेटती ले जाती थी.

–वे लोग जो हमारे साथ इस डिब्बे में आ रहे थे, न जाने कहाँ गायब हो गये.

–कुल कितने गायब हुये हैं?

–बारह या शायद पंद्रह लोग थे जिन्हें सेमिनार में बोलना था, इसके अलावा एक मैं और एक मि.टोप्पो. अब सिर्फ मैं, अम्मी, मि.टोप्पो और मायरा …. उनका किसी ने अपहरण कर लिया क्या? वो लोग जो यहाँ लड़ रहे हैं?

–ऐसा तो नहीं लगता, अपहरण होता तो कुछ तो पता चलता.

–एक बात बतलाओ अमिताभ, हमारी तो रेल का डिब्बा यहाँ अटका पड़ा है आप यहाँ कैसे फंस गये?

–मैंने बतलाया तो था आपकी ही रेल में आ रहा था मैं, आपसे ठीक पीछे वाले डिब्बे में. मेरे डिब्बे का बाथरूम खाली नहीं था, इसलिये आपके डिब्बे में चला आया और ठीक उस वक्त यह डिब्बा कट कर अलग हो गया.

–मुझे भरोसा नहीं होता.

–क्यों?

–आपका बैग.

–क्या बैग?

–कोई बाथरूम अपना बैग लेकर जाता है क्या?

–ये बैग मैं हमेशा अपने साथ रखता हूँ.

–इतना भारी बैग? दस-बारह किलो का, जिसमें न जाने कौन से औजार, बीकर, टैस्ट-ट्यूब, कैमीकल्स भरे हुये हैं.

–तुम मेरा बैग अंदर से देख चुकी हो!?

मिनी एक चट्टान पर बैठ गयी थी. सिगरेट पीने के अंदाज में एक तिनके को मुँह में दबाये हुये थी. तुम दोनो की आँखें एकदूसरे को देखती रहीं. तुम्हें लगा वह भी शायद कोई सपेरन है, यह तुमने लेकिन नहीं सोचा आज तुमने साँपचश्मा पहना हुआ है और इसलिये तुम्हें लग रहा है कि जिस चट्टान पर मिनी बैठी है उसके करीब ही एक बांबी है जिसके मुहाने पर उसकी उंगलियाँ किसी साँप को टटोली रहीं हैं. यह तुम्हारे साथ अमूमन होता है, किसी किसी दिन सामने आये हर व्यक्ति को एक ही प्रजाति का, मसलन संपेरा, ठठेरा, षटकोण, शरीफ़ा समझने लगते हो. लेकिन तुम कई चीजों की तरह यह भी गौर करना भूल जाते हो कि इन सभी प्रजातियों के नाम बचपन में पढ़ी हिंदी वर्णमाला के ही होते हैं –ठ से ठठेरा, स से संपेरा, ऐ से ऐनक. वर्णमाला का यह खेल तुम्हें बहुत बाद में समझ आयेगा, अभी वह समझ आना बाकी है. इस वक्त तो सपेरन तुम्हारे सामने बैठी है.

–तुम सबसे झूठ बोल सकते हो, अपुन से नहीं. सच सच बतलाओ तुम यहाँ कैसे आये, क्यों आये? और झूठ क्यों बोला?

मिनी अब मुस्कुरा रही थी.

–इस डिब्बे का हर यात्री एक खुफ़िया ख्वाहिश लिये आया है. यह सिर्फ दिखावा है कि कोई पुराने सिक्कों का विशेषज्ञ है, कोई डायनासोर जैसे प्राणियों का डीएनए अपनी हथेली पर लिये फ़िरता है, कोई सभी धर्मों का ज्ञाता है कि मेरी अम्मी प्राचीन लिपियों को टटोल चुकी हैं. तुम बताओ तुम्हारी हसरत क्या है?

अब तुम्हें एकदम यकीन हो जायेगा कि यह लड़की सपेरन ही है. किसी भी पल मुँ में दबाये तिनके की बीन बजाने लगेगी. लेकिन तुम साँप नहीं हो, भले कितनी ही बीन बजाये तुम नहीं नाचोगे.

–या तो मैं इस डिब्बे का नहीं हूँ या फ़िर मेरी कोई खुफ़िया ख्वाहिश नहीं है. एक चीज तय करो.

–तुम्हें एक भी चीज तय करने की इजाजत नहीं तुम सुबह से हम सबको पागल बना रहे हो.

–पहले तुम बतलाओ तुम्हारी और तुम्हारी अम्मी की क्या खुफ़िया ख्वाहिश है.

–अपना तो मैं बतला चुकी हूँ….सूफ़ी गायिका. दुनिया की पहली सूफ़ी गायिका.

–नहीं, यह नहीं है.

–यही तो है, सबको लगता है मैं डाॅक्टरी की पढ़ाई पढ़ रही हूॅं, डाॅक्टर बनना चाहती हूॅं लेकिन असलियत में मलंग फकीरों की तरह सूफ़ियाना जुनून में डूब जाना चाहती हूँ… पगलाया जुनून.

मिनी की समूची देह हवा में फैल गयी. हरेक अंग अपना नैसर्गिक विस्तार खोजने लगा, उसके चेहरे की नसें मसमसाने लगीं, दुपट्टा उड़ झाड़ी में टक गया. लाल कमीज छाती से सट गयी. मिनी इस कदर खुली और बिखरी कि लगा इन्हीं पहाड़ों में समा जायेगी. तुम्हें सुबह नदी किनारे बिफरती नील गाय याद आयी. जब वह जमीन पर छटपटाती थी उसकी रीढ़-हड्डी की लकीर त्वचा फोड़ बाहर आने लगती थी, मिनी की रीढ़ हड्डी किस कदर उसके मांस से बाहर आयेगी.

तुम दोनो के बीच किसी विशाल अखरोट या मानव मस्तिष्क जैसी पृथ्वी खिंची थी. उबड़-खाबड़. तुम उस जगह आ गये थे जहाँ कदम के फासले पर पेड़ थे, उनके बीच पगडंडी पर लताओं से बचते हुये सरकना होता था. पगडंडी भी नहीं, उसके लिये तो किसी के पग पड़ना जरूरी होता है, यह जगह इतनी अनछुई थी कि शायद सृष्टि के इतिहास में पहली मर्तबा इसे मानव कदम छू रहे थे. इस पहली मर्तबा के खुमार में खुफ़िया ख्वाब का खेल बड़ा खतरनाक हो सकता था.

–तुम झूठ बोल रही हो. अगर अफगान बॉर्डर के नजदीक के मैडीकल कॉलेज में लाहौर में रहने वाली लड़की का जिद से दाखिला उसके सूफ़ियाना ख़्वाबों पर एक नक़ाब है कि वह अफगानी मलंगों की संगत में सूफ़ी संगीत सीख सके, उसी तरह सूफ़ी का खेल भी उसकी हसीन हसरतों पर गिरा एक पर्दा है.

मिनी ने तुम्हें देखा फ़िर पलट कर डिब्बे की ओर. पेड़ों के बीच से डिब्बा तो नहीं लेकिन कुछ दूर पटरियाँ जरूर दिख रहीं थीं जिससे थोड़ा आगे डिब्बा होना चाहिये था यानी अभी खोना बाकी था.

–पहले तुम बतलाओ फ़िर मैं बताऊँगी.

ठीक इस लम्हा तुम्हें लगा यह लड़की अब बहुत अधिक दूर नहीं है, बहुत अधिक देर नहीं है. तुम चौंक भी गये क्योंकि तुम इसकी माँ से उम्मीद जोड़े बैठे थे, यह थोड़ी छोटी लगी थी. लेकिन छोटी-बड़ी की कब तुम्हें फ़िक्र रही अगर यह तुमसे कुछेक साल छोटी थी तो इसकी माँ कई साल बड़ी थी. असल बात यह थी कि अमूमन दूर सुदूर तक की संभावना तलाश लेती तुम्हारी निगाह इस मर्तबा नहीं सोच पायी थी कि महज सात-आठ घंटों में किसी मां और उसकी बेटी दोनो ही …..

तुम यहाँ अज्ञात की तलाश में आये थे और तुम्हें लेगा हीरे का खजाना मिल गया है. भटकी रेल के अटके डिब्बे के यह अलबेले यात्री उस अज्ञात को हासिल करने में तुम्हारे किरदार हो सकते थे, तुम चाहो तो जंगलों में चल रही लड़ाई के बीच इन्हें फाँस मरवा या कम-अज-कम मरने का खेल भी रच सकते थे नहीं तो इनके साथ रोमांस की संभावना तो बनती ही थी. एक ही दिन में एक ही बिस्तर पर दो अलग पहर में माँ और उसकी बेटी का साथ.

सबसे दूर चले आने, सब कुछ पीछे छोड़ देने के बाद कोरी स्लेट पर अनजान लड़कियों के साथ रोमांस, मृत्यु और अज्ञात की काया में लिपटा यह खेल कितना उन्मादा होगा. यह अलग कि तुम्हें बाद में या शायद कभी नहीं मालूम चल पायेगा जिनके साथ तुम यह खेल खेलना चाह रहे थे उनके लिये तुम खुद भी एक खिलाड़ी ही थे.

इस लम्हा तुम बगैर मिनी को जवाब दिये उसके दिये पन्नों को टटोलते रहोगे.

डॉल्फिन ट्रेनर और एंटी लैंडमाइन विशेषज्ञ –इन पन्नों में महज दो ख़्वाहिशें दर्ज होंगी जिन्हें वह इंसान अपनी मौत से पहले अंजाम देना चाहता होगा. कौन होगा यह इंसान जो डॉल्फिन को सीटी बजाना सिखाने के साथ जमीन के भीतर बिछी बारूदी लैंडमाइन को भी ध्वस्त करना चाहता होगा. तुम्हें अचानक याद आयेगा तुम खुद भी उन्हीं जंगलों में हो जहाँ हर कदम पर बारूद बिछा है, उंगली भर चूक और तुम चकनाचूर. कोई ठीक नहीं तुम्हारे नीचे बारूद बिछा हो.

तुम्हारी गोद में बिखरे पन्ने. तुमने बेतरतीब इबारतों के कई नमूने देखे होंगे लेकिन इन पन्नों पर बिखरे शब्दों का कोई जोड़ नहीं होगा. लिखावट महज इतना बतलायेगी कि किसी ने मौत से पहले अपना अंतिम वक्तव्य दिया है.

क्या यह कोई सुसाइड नोट है? लेकिन आठ पन्नों में फैला कोई सुसाइड नोट होता है? या किसी ने कोई कहानी लिखी है किसी मरते इंसान के आखिरी कलाम की? या उस मरते हुये इंसान ने ही अपने को लिखा है? पन्ने एकदम ताजा हैं, कई दिनों से झाडि़यों में पड़े होते तो धूप में कुम्हला, गल गये होते. देखने से लगता है कुछेक घंटे पहले ही यहाँ किसी से छूट गये होंगे. या उसने जानबूझ कर छोड़ दिये होंगे? यहाँ से सबसे नजदीक का गाँव न मालूम कहाँ होगा, होगा भी या नहीं? होगा भी तो वहाँ से कोई यहाँ आ पन्ने रख गया नहीं होगा. यानी होने तो रेलयात्रियों में से ही किसी के चाहिये यह. लेकिन कौन? वैसे भी बाकी बचे यात्री, वे गये कहाँ?

तुम्हारी जेब में नदी किनारे मिली चाभी अभी भी रखी होगी. क्या जिस इंसान की चाभी खोई थी उसी ने यह सुसाइड नोट भी लिखा है? लेकिन वह है कौन? क्या तुम्हारी तरह कोई और भी है यहाँ जो इस जंगल में चला आया है कोई खुफ़िया ख्वाब लिये? मरने या फ़िर अपने किरदारों की तलाश में –बीकर, टैस्ट-ट्यूब, यूरेनियम रॉड और पोटेशियम सल्फेट लिये.

ऐसा तो नहीं वह इंसान भी रेल के इसी डिब्बे में सफर कर रहा हो और यहाँ आ जंगलों में कहीं गुम हो गया हो? लेकिन कैसे? इस डिब्बे के जो लोग गुम गये हैं, उनमें से तो कोई भी इस लिपि को, देवनागरी को नहीं जानता होगा. या हो सकता है वह इसके बाथरूम में दुबक कर बैठा हो, डिब्बा अटक जाने पर कहीं उतर कर चला गया हो? या वह किसी और डिब्बे में हो लेकिन इस जंगल में तो सिर्फ यही डिब्बा अटक कर घिसटा चला आया है, बाकी रेलगाड़ी, डिब्बे और इंजन कहाँ होंगे? वैसे यह डिब्बा वाकई खोया है भी या ये लोग — मिनी, उसकी अम्मी, मि. टोप्पो, मायरा — तुमसे झूठ बोल रहे हैं लेकिन क्या इन परदेसियों में इतनी समझ होगी कि कहानी बना सकें? लेकिन क्या ये वाकई परदेसी हैं? सभी तो यहीं के से दिखाई देते हैं. लेकिन फ़िर पूरे दक्षिण एशिया में, कई देशों के वाशिंदों की शक्लो-सूरत एक सी ही तो है. कौन से हम जापानी या अफ्रीकी हैं. पर आखिर ये कौन सेमिनार है जिसमें ये लोग जा रहे थे? द टेल ऑफ एंशियंट क्राईज़ उर्फ प्राचीन प्रलाप की पॅूंछ –यह कौन सा मसला हुआ? क्या ये सब मिल तुम्हें कोई कहानी तो नहीं सुना रहे, ऐसी कहानी जिसके आख्यायक यह सभी हों, बारी बारी से हर कोई मंच पर कहानी सुनाने आ जाता हो और तुम इनकी कहानियों के एक श्रोता हो और किरदार भी कि तुम कहानी सुनते भी चलते हो किरदार भी होते जाते हो. क्या यह सब भी तुम्हारी तरह यहाँ जानबूझ कर आ गये हैं?

जैसा इस डिब्बे के सलामत यात्रियों ने अमिताभ को बतलाया और जिस पर उसे यकीन नहीं हुआ, वैसे ही जैसे उसके बतलाये पर इन यात्रियों को यकीन नहीं हुआ था राजधानी से चली यह रेल दक्षिण देश के किसी प्राचीन शहर को जा रही थी. सामान्य रेल यह, इसमें एक विशेष डिब्बा भी था जिसमें प्राचीन चीजों के कुछ दक्षिण एशियाई विशेषज्ञ वहाँ हो रही ‘द टेल ऑफ एंशियंट क्राईज़ उर्फ प्राचीन प्रलाप की पूँछ नामक एक सेमिनार में हिस्सा लेने जा रहे थे कि लाइनमैन की असावधानी की वजह से उनकी रेल किसी विभाजित होती पटरी पर कुछ यॅू विभाजित हुई कि रेल आधे डिब्बों समेत एक रस्ते और बाकी डिब्बे दूसरी पटरियों पर. उन बाकी डिब्बों में यह विशेष डिब्बा सबसे आगे था. रेल कर्मचारी फौरन हरकत में आये, भटकते आगे बढ़ते जाते डिब्बों को आगे वाली पटरी पर मिलाने को पेंच लड़ाये, बाकी डिब्बे तो रोक लिये गये लेकिन यह डिब्बा उन डिब्बों से कट कर एक सूनी, अर्से से बंद पड़ी पटरी पर चला गया.

आगे जंगल था, पहाड़ी ढलान भी और यह डिब्बा लुढ़कते हुये उस पटरी पर चला आया जो सौ साल पहले जब पहली पटरियाँ यहाँ बिछी थीं उनमें से थी और पिछले दस सालों से, जब से इन जंगलों में लड़ाई चल रही थी, सुनसान पड़ी थी. लड़ाई के डर की वजह से लाइनमैन इस डिब्बे को खोजने जंगल के अंदर नहीं आये और पिछले चैबीस घंटों से यह डिब्बा बीहड़ में अटका पड़ा है.

उनके अनुसार इस डिब्बे में सिर्फ दो थे जो किसी प्राचीन हुनर में माहिर नहीं. अपनी खुफ़िया ख़्वाहिश खोदने अम्मी के साथ चली आयी मिनी और भारतीय मूल के नेपाली गाइड मि.टोप्पो.

–मि.टोप्पो… हम यहाँ से कभी निकल पायेंगे या नहीं? अमिताभ बतला रहा था यहाँ दूर दूर तक कुछ नहीं है, जल्द ही हमारे डिब्बे में रखा खाने का सामान भी खत्म हो जायेगा.

–पता नहीं मैडम.

–आप गाइड हैं मि.टोप्पो आपको तो सब पता होना चाहिये….रात को हम सोयेंगे कहाँ…इस डिब्बे में?

–पता नहीं मैडम… ये देखिये मैडम, ये पौधा सिर्फ यहीं होता है. ये धूप में मुरझा जाता है रात में इसकी एक पत्ती में से दूसरी निकलने लगती है. तकरीबन एक घंटे में ये पत्ती बाहर आ जाती है, अगर आप पूरी रात इसको देखती रहें तो आप चैंक जायेंगी किस तरह ये पत्ती निकलती है.

–सिर्फ रात में?

–हाँ. अगर रोशनी न हो, सूरज न हो तो आठ महीने में ये पौधा पूरी पृथ्वी पर फैल जायेगा और साल भर में पूरी पृथ्वी पर माउंट एवरेस्ट तक ऊँचा पहाड़ बन जायेगा – पत्तियों का पहाड़, पौधे का पहाड़.

–फ़िर आप उस पर बैठ कर माउंट एवरैस्ट पर सूसू करना मि.टोप्पो.

–नहीं मैडम, वहाँ बहुत ठंड होती है, सूसू निकलते ही तुरंत जम जायेगा.

–निकलेगा तो सही. निकलने के बाद जो हो आपको क्या.

–नहीं मैडम. बर्फ आपके अंदर तक घुसती जाती है. या तो आप किसी गर्म शैक इत्यादि में बंद हो सूसू करें नहीं तो आपके भीतर तक बर्फ जम जायेगी, आप एकदम अकड़, जकड़ जायेंगी, फ़िर बहुत गर्मी चाहिये होगी आपको अकड़न-जकड़न छुटाने के लिये.

किसी अनाम वृक्ष से पीठ टिकाये खड़ी मीरां को अचानक लगा बुटकन से मि.टोप्पो बहुत काम के आदमी हो सकते हैं.

–आपके साथ ऐसा हुआ है कभी मि.टोप्पो?

–मेरे साथ तो नहीं मैडम लेकिन जिन लोगों को लेकर हम पहाड़ पर चढ़ते थे, उनके साथ अक्सर हो जाया करता था. एक जर्मन मैडम थीं, बहुत सुंदर. खुले में ही बैठ गयीं, जबकि हमने मना किया हुआ था कि बर्फ पर सूसू न करियेगा. अचानक वो चिल्लाने लगीं हम उनकी ओर भागे तो देखा उनकी आइसपैंट्स खुली पड़ी थी और वे बर्फ पर शार्क मछली की तरह पछाड़ खा रहीं थीं. जैसे तैसे हमने उन्हें गर्मी दी.

–उन्होंने कुछ बताया क्या हुआ था उन्हें?

–हाँ, बर्फ का ठंडा साँप भीतर घुस गया था..उन्होंने बतलाया. कई दिनों तक वे उस साँप की अकड़न अपने भीतर महसूस करती रहीं थीं.

मीरां वहीं एक चट्टान पर बैठ गयीं. अपनी टांग भींच लीं –भीतर घुस गये ठंडे साँप की अकड़न. उन्हें फ़िल्मों में देखे वे दृश्य याद आये जब कोई लड़की लहराता साँप लिये नाचती है. उन्होंने डंडी से मिट्टी पर एक आकृति उकेर दी.

–बताइये मि.टोप्पो, यह क्या है?

मि टोप्पो जमीन पर बैठ गये, बहुत गौर से, बहुत देर तक उसे देखते रहे.

–कोई साँप जैसी चीज है मैडम.

–आप को पता है मि टोप्पो, एक अफ्रीकी कबीले की लिपि में कुल पैंसठ अक्षर होते हैं और हर अक्षर विभिन्न सांपों की आकृति का ही एक रेखाचित्र सा दिखता है. कई मुद्राओं में कुंडली मारे साँप उनकी लिपि में बैठे होते हैं. उनकी भाषा में साँप के एक सौ बाईस पर्यायवाची हैं.

–साँप के कई नाम तो यहाँ भी हैं मैडम…. सर्प, नाग, फणधर, विषधर, मणिधर, व्याल, भुजंग, कंचुकी…..

–मि.टोप्पो, मैं बतला रही हूँ कि वह पूरी लिपि ही साँप पर आधारित है जैसे किसी साँप ने ही उस लिपि को रचा हो.

मीरां समझ चुकी थी मि.टोप्पो से बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है. मि.टोप्पो कई पर्वतारोहियों के कुली बतौर माउंट एवरैस्ट सत्रह बार पूरी और अढ़तीस मर्तबा आधी चढ़ चुके थे. आधी इसलिये कि जब पर्वतारोही थक कर या बीमार हो वापस लौटने लगते तो उन्हें भी लौटना पड़ता था. हिमालय के पहाड़ और जंगलों में घूमते रहने से उन्हें हर तरह की वनस्पतियाँ, चट्टान, पानी, मिट्टी इत्यादि की समझ हो चुकी थी. वे मिट्टी को देख बतला सकते थे इसमें कौन से खनिज होंगे, कितना नीचे कोयला, लोहा, तेल होगा. एक बार दुबई का एक शेख उनके साथ एवरेस्ट पर चढ़ रहा था वह मोटा चढ़ तो महज पच्चीस तीस मीटर ही पाया लेकिन उसने मि टोप्पो का हुनर उतनी ही देर में भांप लिया जब उसे ठंड लगने पर मि.टोप्पो ने बतलाया कि एक खास जगह साढ़े आठ फ़ीट खुदाई करो तो बर्फ के नीचे गर्म पानी का झरना निकल आयेगा. उस शेख ने मि.टोप्पो को अपने साथ चलने का न्यौता दिया, अरबों रुपये का लालच दिया कि मि.टोप्पो को सिर्फ इतना काम करना होगा कि बतला दिया करें किस जगह तेल निकलेगा तो ड्रिलिंग में होने वाला करोड़ों का खर्च बच जाया करेगा लेकिन मि.टोप्पो ने मना कर दिया. पिछली साढ़े सात पीढि़यों से उनके दादा, परदादा टूरिस्ट गाइड होते आये थे और वे ये काम नहीं छोड़ना चाहते थे. साढ़े क्योंकि मि.टोप्पो ने बीस बरस बैंक में बतौर क्लर्क नौकरी की, अपने परिवार में पहले पुरुष बने जिसने गाइड के अलावा कोई और काम किया, लेकिन अपने पिता की मृत्यु के बाद उनका झंडा संभाले रखने के लिये आ गये.

–मि.टोप्पो, अमिताभ बहुत झूठा-सा लड़का नहीं लगता?

–क्या मैडम?

–वो कहता है वह किसी पत्रिका के असाइमैंट पर इस बीहड़ की फोटोग्राफ़ी करने आया है, जबकि मुझे वह कोई जासूस लगता है.

–जासूस मैडम?

–हमारे मुल्क का कोई भी इंसान यहाँ आता है तो यहाँ की सरकार उसके पीछे जासूस लगा देती है…. आप उसकी हरकत नहीं देखते?

–जासूस तो हम सभी हैं मैडम…मैं, आप, मिनी मैडम, मायरा मैडम.

–मि.टोप्पो आपने फ़िर उगल दिया… मैंने आपसे शुरु में ही कहा था आप चीजें पेट में क्यों  नहीं रख सकते. अब सुनिये, सवाल मत करिये….आपने कभी कत्ल किया है? ….मौका मिले कभी तो करना चाहेंगे?

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