आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

अगस्त 2008 / August 2008

इतिहास, कविता और आतंक

प्रतिलिपि का यह अंक ‘इतिहास और साहित्य’ को एक शीर्षक की तरह धारण करता है. इतिहास और साहित्य की पारस्परिकता को यह साहित्य में ऐतिहासिक आख्यान के प्रवेश करने, साहित्य द्वारा इतिहास को एक विषय बनाने के दृष्टांतों – साहित्यिक पाठों के रूप में प्रस्तुत करता है. और उन साहित्यिक पाठों पर एक इतिहासकार – अपनी महत्वाकांक्षा में एक गोपन उपन्यासकार – के लेखे को भी.

असद जैदी की “१८५७: सामान की तलाश” के पिछले दिनों कई पठन-अपपठन हुए हैं. और उन सबमें साहित्य को इतिहास की विधियों से पूछताछ के लिए हाज़िर किया गया है. शायद इसलिए ही कि कविता इतिहास को अपना विषय बनाती है और इस तरह एक दूसरे इलाके में प्रवेश करती है. बिना इतिहास या समाजविज्ञानों जैसे प्रमाणों के वह एक ऐतिहासिक-समाज विज्ञानी पठन बनती हुई जान पड़ती है. यह ज्ञान कि अट्ठारह सौ सत्तावन की लड़ाई सामंती नेताओं की अपनी जागीरें वापस पाने की लड़ाई थी, कविता को इतिहास से प्राप्त होता है. यह ज्ञान भी कि अट्ठारह सौ सत्तावन के असली नायक किन्हें माना जाए, वह इतिहास से – एक तरह के इतिहास लेखन – से प्राप्त करती है. यदि आप कविता में भी यह कहें कि कौन दोषी था, कौन गद्दार आपको इसके लिए प्रमाण चाहिए. और कविता ऐसा प्रमाण दे नहीं सकती, वह सदैव एक राय, एक रुख है. प्रमाण इतिहास(-लेखन ) में होगा.

असद की कविता यह ज्ञान सीधे इतिहास से नहीं प्राप्त करती, ‘शायद’ कालांतर में लिखे गए उपन्यासों और व्यावसायिक सिनेमा से. और इस तरह साहित्य के इतिहास को ग्रहण करने की दूसरी विधियों, अंतर्पाठीयतों को किस्से में शामिल करती है.

चंद्र प्रकाश देवल की “झुरावो”, जो १८५७ जैसे ‘बड़े’ ऐतिहासिक आख्यान की बजाय एक छोटे विद्रोह की लगभग ‘इतिहास-विश्रुत’ घटना को अपना स्रोत बनाती है, इतिहास का प्रत्याख्यान बन जाती है पर उससे बहुत भिन्न तरीके से जिससे असद की कविता ‘इतिहास’ का नहीं उसे ‘उपेक्षित’ करने वाले साहित्यिक प्रतिमानीकरण का प्रत्याख्यान करने की महत्वाकांक्षा करती है. देवल की कविता, सूचना के स्तर पर भी, हमारी इतिहास की समझ को विचलित करती है. १६ वीं सदी, कवियों का धरणा और धरणा देते हुए अपने जीवन को त्यागना. १६ वीं सदी, राजस्थान, चारण कवि.. यह सब एक दूसरे इतिहास का आह्वान करता है. देवल इतिहास से मामूली ‘सामान’ लेते हैं और उसे आजादी की देशकाल से बड़ी तड़प का काव्य बनने का प्रयत्न करते हैं.

इन दो कविताओं के साथ है कुंवर नारायण की सत्तर के दशक में लिखी गई कहानी जिसमें कहानीकार के अनुसार सिर्फ़ “चार-पाँच वाक्य मेरे जोड़े हुए हैं”. बाकी सब तो लिखा हुआ मिल गया था. यहाँ इतिहास ही ‘सामान’ है।

यहाँ कोई युक्ति नहीं इतिहास से वर्तमान तक सातत्य स्थापित करने की. लेकिन ‘साहित्य’ के चार पाँच वाक्य भर एक ऐतिहासिक वृतांत को लगभग ‘शुद्ध’ गल्प बना देते हैं, उस तरह की अपरिहार्य अन्तर्निहित गल्पता से जुदा जिसकी ओर सुधीर चंद्र अपने निबंध में लाकां के बहाने इंगित करते हैं, जो हर विमर्श में मौज़ूद होती है, और इतिहास में सबसे जाहिराना ढंग से.

हमें इतिहास और साहित्य को शीर्षक की तरह धारण करने के लिए इन मजमूनों ने ही उकसाया. उम्मीद है अगले अंको में हम ऐसे कुछ और मज़मून प्रकाशित कर पाएंगे. इसी अंक में प्रकाशित वागीश शुक्ल के उपन्यास अंशों को इतिहास पर औपन्यासिक विमर्श की तरह पढ़ा जा सकता है. वरिष्ठ चित्रकार हकु शाह और ‘अनजान’ शिक्षक मिथिलेश मुख़र्जी के आत्मकथात्मक वृतांत भी एक निजी पाठ में बहुत सारे सार्वजनिक इतिहास को निर्मित करते है.

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अंक का दूसरा शीर्षक ‘कविता’ हो सकता है – हमारे लगभग गद्य द्वारा परिभाषित समय में, और उसी साँस में, हमारे बाज़ार द्वारा परिभाषित समय में कविता लिखना बहुत दिन स्वस्थ रखने वाला उद्यम नहीं रह गया है. तर्क बहुत सरल है: कविता पढी नहीं जाती इसका सबूत यह है कि कविता पुस्तकें बिकती नहीं और कविता पुस्तकें न पढी जाती है न बिकती है यह सबूत है कि हमारे समय में कविता अच्छी लिखी ही नहीं जा रही १०० बरसों और पाँच भाषाओं के आर पार फैले इस अंक के बारह कवि और उनकी कवितायें इस मिथ का सविनय प्रतिकार हैं.

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दूसरे अंक से ठीक पहले जिन धमाकों से ‘हमारे’ शहर की ज्यामिति बदल गयी थी, वे अब और जगहों पर हुए हैं. ‘आतंकवाद’ में लगा ‘वाद’ सदैव से एक परेशान करने वाला प्रत्यय रहा है. एक ‘वाद’ के रूप में तीन दशक के अपने भारतीय जीवन में अब पहली बार यह ‘राष्ट्र के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती’ की बजाय, एक दूरस्थ खतरे की बौद्धिक प्रस्तुति की बजाय अपने अवयव में हमारे सामने है. यह आतंकवाद से’वाद’ के गायब होने और आतंक के ख़बर नहीं,अनुभव में बदलने की शुरुआत है.

History, Poetry and Terror

This issue of Pratilipi could have been titled “History and Literature”. It presents the inter-textualities of history and literature in instances where the narrative of history enters a literary text, where a literary text makes history its subject and, also, as a text in which a historian – a novelist in his secret ambition – takes account of these (literary) texts.

There have been many readings/mis-readings of Asad Zaidi’s “1857: Samaan ki Talaash” over the past few weeks. All of them have been historical interrogations of literature. Possibly because the poem makes history its subject and thus enters a new territory. It seems to come across as a historical-sociological text without having the rigor of history or sociology. That the battle of 1857 was the battle of feudal leaders trying to regain their lands – this knowledge, the poem gets from history. And who should be considered the real heroes of 1857 – this, too, it knows from history – or from a kind of history-writing. If you call someone guilty or traitor, even in a poem, you need proof. But poems do not give proofs. They are always opinions, inclinations. The proof will lie in history (-writing).

Asad’s poem does not derive its knowledge directly from history. ‘Perhaps… from later novels and popular cinema’. And this is how, through the different ways in which literature receives history, inter-textualities enter the picture.

Chandra Prakash Deval’s “Jhuravo” – which, instead of making a “big” historic event like 1857 its source, turns to a small revolt almost lost to history – turns into a counter-narrative of history, but in vastly different manner than Asad’s poem which in its ambition tries to be a counterpoint not of history but of the literary canon that disdained it. Deval’s poem, even at the level of information, disturbs our understanding of history. The 16th century, poets protesting, taking their lives in protest. The 16th century, Rajasthan, the Chaaran poets… all these invoke a different history. Deval takes some “material” from history and tries to turn it into the poetry – not limited to one particular time and space – of striving for independence

Along with these two poems, there is Kunwar Narain’s story, written in the 1970s, which, the author says, “I have only added four or five lines to. The rest was already written.” Here, history becomes “material”.

It does not have any direct device to establish a continuum between the historical and the contemporary. But a mere four-five lines of “literature” are enough to turn history into almost pure fiction. This fictionality, though, is very different from that inevitable fictionality which Sudhir, via Lacan, hints at, and which lies embedded in every discourse, and most obviously in history.

So these were the pieces that encouraged us to adopt “History and Literature” as a title. We hope to publish other such pieces in coming issues. Excerpts from Wagish Shukla’s novel, featured in this issue, could also be read as a novelistic discourse on history. The autobiographical accounts of well-known painter Haku Shah and “unknown” teacher Mithilesh Mukerjee also construct public history within private texts.

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A second “title” for this issue could be “poetry”. In a time almost defined by prose and, in the same breath, in a time defined by the market – writing poetry is not an industry conducive to good health. The logic is simple: No one reads poetry. The proof? Books of poems do not sell. And if books of poems are neither sold nor read, it’s proof that good poetry is not being written.

We humbly submit 12 poets – in five languages and spanning, chronologically, a hundred years – in refutation.

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The blasts that disturbed the geometry of “our” city, just a few days before the second issue, have now occurred in other cities as well. The “-ism” in “terrorism” has always been a problematic suffix. After 30 years in India as an “-ism” it has, now, appeared before us – not as “the greatest challenge for the nation”, not as some intellectualization of a distant danger, but in its true element. This is the beginning of terrorism without the “-ism”. Of terror not as news, but as experience.

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