आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

देवदास: शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

वैशाख की तपती दुपहरी। स्कूल की कोठरी में फटी हुई शीतलपाटी पर बैठा देवदास ऊँघ रहा था। बार-बार जम्हुआई लेते हुए वह आखिरकार इस नतीजे तक पहुँचा कि इस छोटी-सी कोठरी में घुटते रहने से कहीं बेहतर है बाहर खुले आसमान में पतंग उड़ायी जाए। और फिर जैसे ही वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा, उसे एक बेहतर तरकीब भी सूझ गयी।

बात तब की है जब स्कूल में अर्द्धावकाश हुआ था। बाहर बच्चे छोटे-छोटे समूहों में उछलकूद कर रहे थे, तो कुछ स्कूल के सामने बगिया में पेड़ों की छाया तले गुल्ली डंडा खेल रहे थे। देव को यह छूट नहीं थी कि वह अर्द्धावकाश में भी स्कूल की कोठरी से बाहर निकले। मास्टर मोशाई गोविन्द पंडित ने उससे आजिज आकर ही यह कदम उठाया था। देव की यह प्रसिद्धि थी कि एक बार जो वह स्कूल से बाहर कदम रखता तो फिर ऐसे गायब हो जाता जैसे गधे के सिर से सींग। देव के पिता जमींदार श्री नारायण मुकर्जी ने भी मास्टर मोशाई से सख्त ताकाद किया था कि लड़का एक पल के लिए भी आँख से ओझल न होने पाए।ऐसे में देव को हमेशा कक्षा के मुख्य शिष्य भोला की देखरेख में रहना पड़ता था।

हाँ, तो वैशाख की दोपहर थी, और देव ने देखा कि मास्टर मोशाई भरपेट भात खाकर पटियें पर दोनों पैर उठाये बैठे ऊँघ रहे हैं। नींद में अनुपस्थित मास्टर मोशाई की जगह भोला उनकी भूमिका हाथ में छरी उठाये अपने जाने भरपूर निभा रहा था। भौंहों पर अनावश्यक बल डाले वह कभी बाहर ऊघम मचाते लड़कों पर एक उचाट नज़र फेरता और कभी कक्षा में बैठे देवदास व पार्वती को देखता। ज्यादा दिन नहीं हुए जब वह छोकरी, क्या नाम है इसका, पार्वती मास्टर मोशाई से पढ़ने इस विद्यालय में आयी है। एक महीने बस। जब सारे बच्चे अभी बाहर खेल रह हैं।, और उस पर देवदास की तरह कोई बन्दिश भी नहीं कि कोठरी में ही बनी रहे,

ऐसे में यही माना जा सकता है कि लड़की का मन पढ़ाई-लिखाई में बहुत रमता है तभी वह बाहर न जाकर अभी अपनी पाठ्य पुस्तक ‘बोधोदय’ के अन्तिम खाली पन्ने पर मजे से सो रहे मास्टर मोशाई का स्केच बना रही है और हू-ब-हू किसी प्रवीण चित्रकार की तरह बीच-बीच में इस तथ्य की जाँच कर रही है कि वह अपनी कोशिश में कितनी सफल है। हालाँकि वह अपने मन मुताबिक चित्र नहीं बना पायी थी, फिर भी जैसा बन पड़ रहा था, वही काफी था उसे हँस-हँसकर लहालोट करने के लिए।

ऐन इसी समय……………. अचानक देव अपनी जगह से खड़ा होता है और भोला से कहता है कि उसे हिसाब लगाने में दिक्कत आ रही है।

”कौन-सा हिसाब?” भोला भौहों पर बल देकर, भरपूर गम्भीर होकर पूछता है।

”मन, सेर, छटाँक का।”

”देखूँ ज़रा। अपनी स्लेट इधर तो लाना।”

ज़रा ध्यान दें, देव आगे बढ़ते हुए भोला के पास जाता है। भोला उसी बेंच पर बैठा है जो पिछले तीन साल से टूटी हुई है और जिस पर पिछले तीन साल से भोला बैठा चला आ रहा है। देव उसे अपनी स्लेट थमा देता है। जैसे ही भोला, निश्चित रूप से अपनी भौंहो पर बल देकर, स्लेट पर लिखे को तवज्जो देता है, देव उसे एक जोरदार धक्का देता है। बेुंच केी नीचे मास्टर मोशाई ने, जब कभी किस्मत में लिखा होगा कि अपना एक घर होगा तब के लिए, सस्ते दाम में चूना खरीदकर जमा रखा था। अपनी भौहों पर बल देकर देव की स्लेट पर लिखे हिसाब में खोया भोला, देव के इस अप्रत्याशित धक्के से सम्भल न सका और चूने के उस ढेर में औंधें मुँह जा पड़ा। हँसोड़ पार्वती को जैसे इसी का इन्तजार था, वह ताली पीट-पीटकर हँसने और उछलकूद करने लगी। बाहर खेलते लड़कों ने भी देखा, सराहा, हँसा, तालियाँ बजाई। मास्टर मोशाई की नींद हवा हो गयी। उन्होंने चारों तरफ़  हड़बड़ाई, फिर बाद में समझ में आयी मार्का गुस्सैल नज़रों से घूरा। देखा कि कोई नीचे चूने के ढेर में पड़ा, हाथ-पैर पटकता चिल्ला रहा है। हाथ में छड़ी लिए वे खड़े होकर चिल्लाए,”यह सब क्या है?” अफसोस कि मास्टर मोशाई के इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए वहाँ कोई मौजूद न था, सिवाए उस ‘अबला’ पार्वती के, और वह भी हँसी से दोहरी हुई लोटपोट हुई जा रही थी। मास्टर मोशाई आखिर मास्टर मोशाई ठहरे, उन्हें भला इतनी जल्दी समझ में क्योंकर आता, पूछे,”अबे हुआ क्या?”

आखिरकार भोला ही अपनी मुँह-नाक से चूने की परतें झाड़ते हुए उठ खड़ा हुआ। उसे इस अवस्था में देखकर मास्टर मोशाई आग बबूला हो गए, ”अबे पाज़ी, तू यहाँ चूने के ढेर में पड़ा क्या कर रहा है?”

भोला रो रहा था। अपनी भौहों पर बल डाले रोये ही जा रहा था। मास्टर मोशाई को कुछ समझ में नहीं आया, ”बता, रो क्यों रहा है? कुछ बोलता क्यों नहीं?”

”मास्टर मोशाई देव……। मैं देवदास का सवाल हल कर रहा था कि इतने में….। उस साले ने मुझे धक्का देकर…. मैंने कुछ नहीं किया मास्टर मोशाई। उसी ने मुझे धक्का देकर नीचे गिरा दिया।”

”हे भगवान, उस बदमाश ने फिर शैतानी की!”

भोला ने सिलसिलेवार ढंग से मास्टर मोशाई को सारी बात बताई। मास्टर मोशाई देव की बदमाशियों से पूर्व परिचित थे। भोला उनका प्रिय शिष्य था, उसकी इस दुर्गत ने एकबारगी उन्हें हिलाकर रख दिया। चूने के ढेर में लोटमपोट भोला किसी भुत की मानिन्द दिख रहा था, हालाँकि उसने उठकर अपनी भरपूर झाड़-पोंछ की थी। अलग से बताने की जरूरत नहीं कि देव वहाँ से कब का फरार हो चुका था। मास्टर मोशाई को कुछ सूझ नहीं रहा था और वे बार-बार यही कहते जा रहे थे, ” वह धूर्त, पाज़ी लड़का, ओह भोला, तुझे धक्का देकर रफू चक्कर हो गया! नौ दो ग्यारह हो गया, उड़न छू हो गया।” आदि-आदि। इधर भोला को भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था, वह मुँह फाड़े रोने लगा। मास्टर मोशाई ने उसे हौसला देते हुए कहा, ”चुप हो जा भोला, चुप हो जा। देव को उसके किये की जरूर सजा मिलेगी। उसका मन बहुत बढ़ गया है। तू चुप हो जा!……अबे, चुप कर!”

लेकिन भोला को अभी और रोना था, वह अपने रोने को गरिमामय बनाने के लिए छाती पीटने लगा, हाय-हाय करने लगा। वह रोते-बिलखते हुए अद्भुत लग रहा था। मास्टर मोशाई ने पूछा, ”बाकी लड़के कहाँ हैं?” यह कोई नयी बात नहीं थी, सो बाकी लड़कों को अच्छी तरह पता था कि अब उन्हें क्या करना है। वे पहले ही देव के पीछे दौड़ चुके थे। एक लड़का हाँफता हुआ आया और बोला, ”मास्टर मोशाई, मैंने देव का काफ़ी दूर तक पीछा किया। लेकिन वह……।” देवदास अपने पीछे दौड़ते लड़कों पर ईंट फेंकने लगा था इसलिए चोट लगने के डर से लड़के पीछे लौट लिए थे।

बोल कहाँ भागकर गया देवा ? पकड़ा नहीं तुम लोगों ने ? जब मास्टर मोशाई ने पूछा तो लड़के ने देवदास की करतूत बयान कर दी। उल्टे मास्टर मोशाई ने उसे डांट पिला दी। वह कोठरी में एक कोने में दुबक गया। मास्टर मोशाई ने पहले पार्वती को डांटा फिर भोला का हाथ पकड़कर देव के पिता से उसकी शिकायत करने निकल पड़े।

जब पार्वती तेरह साल की हुई तो उसके घरवालों को उसके ब्याह की फ्रिक हुई। पारो की माँ कुछ ज्यादा ही फिक्रमन्द रहने लगीं। वे बात-बात पर चक्रवर्ती बाबू को याद दिलाती कि पारो अब सयानी हो गई है, उसके लिए वर ढूँढ़ना शुरू कर देना चाहिए। चक्रवर्ती बाबू में इसके विपरित एक अज़ीब किस्म की निश्चिन्तता व्यापी थी। पारो सुन्दर तो थी, गुणवती भी थी। सो उन्हें लगता था पारो के ब्याह में ज्यादा दिक्कत नहीं आनी चाहिए।

यहाँ अलग से यह बतलाते हुए चलना चाहिए कि चक्रवर्ती परिवार में लड़कियों की शादी कोई समस्या नहीं रही। पहले इस कुल में लड़कियों के बदले रूपये लेने का रिवाज़ था और चक्रवती बाबू का ब्याह भी ऐसे ही हुआ था। लेकिन अब चक्रवर्ती बाबू ने पारो का विवाह इस रीति से न करने का फैसला लिया है। वे इसे प्रकारान्तर से बेटी बेचने के जैसा मानते हैं। पारो की माँ भी इसी विचारधारा की थीं, शायद इसीलिए सोच की दूसरी छोर पर पहुँचकर वे और भी चिन्तित रहा करती थीं।

दूसरी तरफ़  एक गुप्त बात और है कि वे शुरू से ही देव और पारो की दोस्ती को देखती आ रही थीं। हालांकि देव के परिवार व कुल को देखते हुए यह एकबारगी असम्भव जान पड़ता है फिर भी उनके मन में यह आस कहीं न कहीं दबी पडी जरूर थी कि काश पारो का ब्याह देव से हो जाए। वे सोचती थी कि ऐसा तभी सम्भव है जब सीधे देव से इस बाबत बातचीत की जाए और वह खुद इस प्रस्ताव को अपने परिवार के बीच ले जाए।

इसी उम्मीद से एक बार जब पारो की दादी ने देवदास की माँ से देव पारो की दोस्ती की बात उठाई तो देवा की माँ ने उन दोनों के बीच भाई बहन जैसे गाढ़े स्नेह की बात स्वीकार की। इससे पारो की दादी को अपनी बात रखने का थोड़ा बल मिला। बोली,तभी मैं सोचती थी कि बहू कि दोनों ……. अब देखो न, जब देवा पढ़ाई के लिए कलकता गया था तब कया उमर थी पारो की ….. आठ बरस की छोटी बच्ची थी लेकिन जब भी वह देवा के वियोग में सूखकर काँटा हो गयी थी। बहू आज भी जब कभी वहाँ से देवा की कोई चिट्ठी आती है तो जैसे गीता रामायण हो, वह उसे बार-बार पढ़ते नहीं अघाती।

देवा की माँ तुरन्त ही बुढ़िया के दिल की बात को ताड़ लिया और बरबस ही उनके होठों पर एक मुस्कान तैर गयी। नहीं, अपने आप आप में ऐसी मुस्कराहट कतई नहीं थी, कि सामने वाला अपना मखौल समझे, लेकिन वह चलती आ रही बातचीत में खलल जरूर पैदा करती है। बातचीत के बीच एक तरह के गति अवरोधक जैसी हंसी। इसके बाद कहने वाले किसी रौ में आकर कहते चले आने वाले को एकाएक रूक जाना पड़ता है। पारो की दादी भी सकपकाकर थमी गयी, जम गयीं।

देवा की माँ इस तथ्य से भलीभांति परिचित थीं कि पारो के लोगों का कुल छोटा है जहाँ लड़की का विवाह रूपये लेकर किया जाता है। तिस पर पड़ोस से सम्बन्ध करने की मनाही तो बड़े बुजुर्ग हमेशा से करते आए हैं लेकिन ये सारी बातें जुबान पर धरना अपने संस्कारों के विपरीत जाना था। वे बात बदलते हुए बोली, अभी देवा की उमर ही क्या है आप तो जानती ही हैं जमाना कितना बदल गया है। हमारा आपका जमाना होता तो देवा के ब्याह का यह बिलकुल ही उचित समय होता, लेकिन अब से ………. देवा के बाबूजी भी चाहते हैं कि वह पहले अपनी पढ़ाई पूरी कर ले अब देखिए न बड़े बेटे द्विजदास की शादी हमने छुटपन में ही कर दी सो वह कहीं का न रहा। न पढ़ लिख सका और न किसी काबिल ही बन सका। इस बात को लेकर आज भी देवा के बाबूजी पछताते रहते हैं कि नाहक ही …….. भई दूध का जला तो छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है।

देवा की माँ ने अपने कथन में अपने पति का हवाला जान बूझकर जड़ा था। हमारी सामाजिक संरचना ही ऐसी है कि सारे महत्वपूण्र माने जाने वाले निर्णय पुरूषों के द्वारा लिए जाते हैं और अभी वैसे ही एक महत्वपूर्ण निर्णय की, बाबत दो खांटी घरेलू स्त्रियों में बातचीत हो रही थी। ऐसे में यह जरूरी था कि अन्तिम फैसले की बात किसी पुरूष पर टाल दी जाए देवा की माँ ऐसी कोई बात नहीं कहना चाहती थी जिसमें किसी फैसले पर पहुँचने का सुराग हो, इसलिए उनकी वाक्य संरचना गोल मोल शब्दों और लच्छेदार मुहावरों से निर्मित थी। और चूंकि वह वहाँ अपनी जमानत पर नहीं, अपने पति के प्रतिनिधि के रूप में थी, इसलिए उनके पति की फिलहाल नामौजूदगी के कारण अन्तिम निर्णय अभी बाकी था। पारो की दादी के साथ भी कुछ ऐसा ही था – उन्होंने अब तक लगभग वही बातें कही थी जो यदि उनका बेटा होता तो कह सकता था। लेकिन देवा की माँ की बातें सुनकर पारो की दादी निराश हो गयी और फिर उन्होंने एक ऐसी बात कही दी जो सिर्फ औरतें ही कहेंगी, पुरूष नहीं। उन्होंने कहा – बहू वैसे तो मुझे नहीं कहना चाहिए, लेकिन तुमसे क्या छिपा दुर्गा भवानी की किरपा से पारो अद्भुत सुन्दर निकली है। कद काठ, देह की गढ़न में भी उसकी सानी नही। गुणवती भी है तुम जानती हो सो उसका ब्याह यहाँ नहीं तो कहीं और होने से रूका नहीं रहेगा। लेकिन मेरी एक बात गांठ बांध लो तुम्हें दुबारा ऐसी बहु नहीं मिलेगी -हाँ!”

अब चूँकि पारो की दादी ने यह बात अपने बेटे का प्रतिनिधि होकर नहीं, अपने बूते कही थी सो उनकी तरह एक औरत होने के कारण अन्तिम निर्णय का हक भी देवा की माँ को मिल गया। उन्होंने अपनी आवाज़ में तुर्शी मिलाते हुए कहा, ”ऐसी बात कहकर मैं अपने पति की निगाह में गिरना नहीं चाहती।”

बात खत्म हो गयी, लेकिन देवा की माँ ने बिना मुकर्जी साहब से मशवरा लिए पारों की दादी को अन्तिम फैसला सुना दिया था। इससे पहले कि पारो की दादी या उसका बाप खुद मुकर्जी साहब से मिलकर फिर कोई बात छेड़े, वह जल्द-अज-जल्द उन्हें सबकुछ बताकर उनके मन की थाह पा लेना चाहती थीं। रात में मुकर्जी साहब को भोजन कराते हुए उन्होंने बात छेड़ी। मुकर्जी साहब ने कहा, ”हाँ, पारो बड़ी हो गयी है, वे लोग उसकी शादी की सोच रहे हैं तो ठीक ही है।”

देवा की माँ ने बात खोली, ”आप समझे नहीं, वे लोग पारो का रिश्ता अपने देवा के साथ….।”

मुकर्जी साहब चौंक गये। पूछे, ”क्या कहा ज़रा फिर से कहना……?”

”अजी मैंने कहाँ कुछ कहा, वो तो पारो की दादी….। मैंने तो साफ़-साफ़ कह दिया कि देवा पारो को खूब मानता है लेकिन इसका अर्थ ही है कि…..।”

”चक्रवर्ती लोगों से सम्बन्ध जोड़कर मैं अपनी जग-हँसाई नहीं कराना चाहता। तुम्हें ऐसे फालतू बातों पर कान नहीं धरना चाहिए।”

देवा की माँ ने कहा, ”आप मुझे लेकर निश्चित रहें। बल्कि मुझे तो आपको लेकर ही डर है । कहीं आप लल्लों-चुप्पों में न आ जाएँ!”

मुँह में कौर डालते हुए मुकर्जी साहब ने कहा, ”मुझे लेकर निश्चिन्त रहो। इतनी कच्ची गोटियाँ खेली होतीं तो इतनी बड़ी जमींदारी अब तक न बचती।”

मुकर्जी साहब इतने बड़े जमींदार हैं और अपनी रिआया पर अपना दबदबा कायम रखने के लिए एक जमींदार को क्या कुछ नहीं करना पड़ता, यह कौन नहीं जानता, लेकिन देव और पारो के रिश्ते पर अपना अन्तिम निर्णय सुना देने वाली इस मुकर्जी दम्पती ने एक बार भी अपना-अपना चोला उतारकर देव और पारो की बाबत न सोची। देवा की माँ के समक्ष पारो की दादी थीं जिन्होंने अपनी कुल-मर्यादा को भुलाकर ऐसा प्रस्ताव रख दिया था, और जिन्हें तत्काल नीचा दिखाना भर ही जरूरी लगा देवा की माँ को। और इसी तरह मुकर्जी साहब के समक्ष अब सबसे अहम सवाल यह था कि उन्होंने कच्ची गोटियाँ खेली थीं या पक्की!

इधर जब नीलकंठ चक्रवर्ती को पता चला कि उनकी माँ देवदास की माँ के पास पारो का रिश्ता लेकर गयी थीं और देवा की माँ ने इनकार कर दिया, तो वे बौखलाये हुए माँ के पास गये। ”माँ, तुम क्या मानकर उनके घर गयी थी रिश्ता माँगने?…. कि वे लोग पारो का रिश्ता कबूल कर लेंगे? मैं पूछता हूँ कि क्या कमी है हमारी पारो में, कि हम उनके आगे झुकें? तुम देखना, अगर एक सप्ताह के भीतर मैंने मुकर्जी लोगों से भी बड़ें घर में पारो का रिश्ता तय नहीं करा दिया तो मेरा भी नाम नीलकंठ चक्रवर्ती नहीं।”

पारो ने जब अपने पिता की इस प्रतिज्ञा को सुना, तो मानो उसके पैरों तले जमीन खिसक गयी। बचपन में देवदास के तीन रूपये उसने अपनी मर्जी से, जिस अधिकार भावना के साथ खर्च किये थे, इन वर्षों में वह इतनी पुख्ता हो गयी थी कि यह उसकी कल्पना से सर्वथा परे था कि उस देव से दूर होना पड़ सकता है। इससे पहले उसे इस बात की जानकारी नहीं थीं, और अब जब पता चला तो साथ ही अपने पिता की इस प्रतिज्ञा के साथ कि एक सप्ताह के भीतर……!

यह तो पारो की बात हुई, देवदास के बारे में फिलहाल यही कहा जा सकता है कि कलकत्ता से पहले तो वह पारो पर अपना अधिकार समझता था, लेकिन फिर ज्यों-ज्यों कलकत्ते में उसका मन रमने लगा, पारो के प्रति वह भावना क्षीण से क्षीणतर हो गयी। कहें, वह पारो को लगभग भूल ही चुका था। और यह इतने स्वाभाविक रूप से हुआ कि इसके लिए उसे कतर्इ् दोष नहीं दिया जा सकता। उसे अन्दाजा ही नहीं था, न इसकी उम्मीद कि पारो से दूर होने के बाद जहाँ वह उसे क्रमशः भूलने लगा, पारो उसे और-से-और अपने करीब पाती गयी। बचपने में पारो के साथ उसका जो बन्धुत्व था उसे वह अक्षुण्ण और चिरस्थायी तो बनाये रखना चाहता था, लेकिन इसका एकमात्र रास्ता विवाह ही है, इसे जितना साफ़-साफ़ पारो ने महसूस कर लिया था, देव ने नहीं। पारो ने समूचा सोच लिया था और वह निष्कर्ष तक पहुँच चुकी थी, देव अभी नहीं।

इसलिए जिस दिन पारो को पता चला कि उसकी दादी ने देवा की माँ से इस रिश्ते की बात चलाई थी और उन्होने दो टूक इनकार कर दिया है, उस दिन से जैसे उसे काठ मार गया हो। उसकी पूरी दुनिया ही उजड़ गयी। वह खोयी-खोयी-सी रहने लगी। देवदास, जबकि इन सारी बातों से अब तक अनजान था शायद। सुबह उठकर नित्यकर्म के बाद वह पढ़ाई करता, दिन चढ़े जब गर्मी बढ़ती छड़ी लेकर घूमने निकल पड़ता। अक्सर इस समय पारो अपनी खिड़की पर होती, देव से उसकी नजरें मिलतीं, उसकी पलकें गिर जातीं, देव आगे बढ़ जाता। वह देव के शर्मीले स्वभाव से वाकिफ़ थी, इसलिए उसका हिचकना, फिर आगे बढ़ जाना प्रत्याशित था। कभी-कभी वह रूक जाता, खिड़की के पास आता, थोड़ी बातचीत भी हो जाती। लेकिन दोनों को ही इस बात का अंदाजा था कि वे बड़े हो चुके हैं, अकारण मिलना-जुलना, एक-दूसरे के साथ ज्यादा देर रहना उचित नहीं।

इन दिनों देवदास तालसोनापुर में ही था। गाँव में कलकत्तें जैसी धुमधाम और रौनक तो थी नहीं, न ही थियेटर-बायस्कोप जैसे मनोरंजन के साधन; ऐसे में देव के पास फुसर्त-ही-फुसर्त थी। बचपन की बातें अक्सरहाँ उसे याद आती। वह सोचता कि उसके बचपन की साथिन पारो अब इतनी बड़ी हो गयी है कि ‘पार्वती’ बन गयी है, ठीक इधर जैसे पारो सोचती कि उसका देव दा अब ‘देवदास बाबू’ बन गया है।

कभी-कभी देव सीधे उसके दरवाजे पर पहुँचकर आवाज़ लगाता, ”काकी माँ! क्या हो रहा है?” पारो की माँ अब भी देव को उतना ही स्नेह, मान-आदर देती थीं। वे उसे दुलारकर भीतर लिवा लातीं। कुछ देर बातें करने के बाद देव तफरीह के लिए निकल पड़ता। कभी जब पारो से अचानक आमना-सामना हो जाता तो वह बचकर निकल जाती। रात में, जब तक देव के कमरे में प्रकाश रहता, वह अपने कमरे में अँधेरा किये एकटक देखती रहती। सबके सामने मजबूती से खुद को सम्भाले रखने वाली पारो, इस वक्त, जब कोई उसे देखने वाला न होता, किसी अधीर चकोर की तरह होती जो चाँद की तरफ़  टकटकी लगाये रहता है। हाँ, पारो ने अपना दुख अपनी परछाई से भी नहीं कहा। वह हमेशा इस बात के प्रति चौकन्नी रहती कि उसकी किसी गाफ़िल हरकत से उसकी भावनाएँ जाहिर न हो जाएँ। वैसे भी इन दिनों वह चुप्पी होती जा रही थी, लेकिन गौना अभी नहीं हुआ था। कभी-कभार वह इधर आ जाती तो पारो का मन बहल जाता। समवयसी होने के चलते पहले दोनों प्रेम, विवाह, पसन्द-नापसन्द आदि विषयों पर बातें कर लेती थीं, लेकिन इन दिनों जैसे ही उनकी बातचीत की सुई इस दिशा में मुड़ने को होती, पारो विषय बदल देती।

कुछ दिनों पहले चक्रवर्ती बाबू पारो के लिए वर ढूँढ़ने निकले थे। तालसोनापुर से बीस-पच्चीस कोस दूर बर्दवान जिले में हाथीपोता गाँव था। एक घटक[i] के मुँह से उन्होंने वहाँ के जमींदार भुवन चौधरी के बारे में सुन रखा था। उसके साथ जाकर देख आए हैं, बात पक्की कर आए हैं। भुवन बाबू आर्थिक रूप से सुदृढ़ हैं, उमर चालीस के आसपास, एक-दो साल कम ही। पिछले साल पत्नी का देहान्ता हुआ था। चक्रवर्ती बाबू ने जब अपनी पत्नी और माँ को इसकी सूचना दी तो वे यद्यपि खुश न हुई, किन्तु ब्याह में मिलने वाले एक-दो हजार नकद की उम्मीद ने उनकी जुबान पर ताला जड़ दिया।

रात का कोई एक बजे का समय। बिस्तर की चादर को अपनी देह से भली-भाँति लपेटकर पारो सीढ़ियाँ उतरी और नीचे आँगन में आ गयी। चारों तरफ़  चाँदनी छिटक रही थी। आँगन में खटिया डाले दादी सोई थीं। पारो बेआवाज़ दरवाजे तक आयी और जैसे हाथ से पत्तियाँ उठाते हैं, इतने हल्के हाथों किवाड़ खोला। बाहर सुनसान। चरिन्द-परिन्द का नामोनिशान नहीं। एक पल के लिए हिचकी, फिर जैसे कुछ सोचकर उसने आगे कदम बढ़ा दिया।

मुकर्जी साहब की कोठी चाँदनी मेुं दूध धुली लग रही थी। सेहन में बूढ़ा दरबान किशन सिंह अपनी खटिया पर बैठा रामचरितमानस का सस्वर पाठ कर रहा था। सिर झुकाये ही पूछा, ”कौन?” पारो ने कहा, ”मैं!” इतने भर से किशन सिंह ने पता नहीं क्या समझा, सिर उठाकर आगे दरियाफ़्त करने की भी ज़रूरत महसूस नहीं की उसने, जहाँ छोड़ा था आगे से पाठ करने लगा। सोचा होगा, कोई नौकरानी होगी या ऐसा ही कुछ! पारो भीतर पहुँच गयी। गरमी का मौसम होने के कारण अधिकांश नौकर-चाकर बरामदे में ही सोये थे। उनमें से किसी ने पारो का जाते देखा या नहीं, इस बारे में पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। घर के भूगोल से पारो भली-भाँति परिचित थी, सो सीढ़ियाँ चढ़कर देवदास के कमरे तक पहुँचने में उसे कोर्इ् दिक्कत नहीं हुई। दरवाज़ा यों ही भिड़ा दिया गया था, वह भीतर आ गयी। देवदास कुर्सी पर बैठकर पढ़ते-पढ़ते सो गया था। मेज पर रखा लैम्प धीमी लौ में जल रहा था। पारो ने उसकी लौ तेज कर दी। नींद में गाफ़िल देव का चेहरा रोशन हो उठा। एक पल के लिए मन्त्रमुग्ध सी पारो उसे देखती रही, फिर वहीं फर्श पर उसके पैरों के पास बैठ गयी। देवदास के घुटनों पर हौले से हाथ रखकर हिलाया, फुसफुसाकर बोली, ”देव दा!”

नींद के आवेश में लथपथ देव इतना सुनकर, बिना आँखें खोले ही, अनायास हुँकारी भर बैठा। पारो चुप रही। फिर थोड़ी देर बाद उसने देव के घुटनों को हिलाया। उसकी चूड़ियाँ खनक उठीं। रात के सुनसान में उसकी चूड़ियाँ खनक उठीं। रात के सुनसान में उसकी चूड़ियों की खनखनाहट प्रमुख होकर सुनायी पड़ी। पारो ने फिर से पुकारा, ”देव दा, उठो।”

देव ने आँखें खोजीं। लैम्प की रोशनी सीधे उसकी आँखों पर पड़ी, सो एक पल के लिए वह चौंधिया गया। घुटने पर रखे हाथ को पारो ने हटा लिया। उस पर देव की नज़र पड़ी। तत्काल ही उसे समय का अन्दाजा हुआ। उसने कलाई घड़ी पर नज़र डालते हुए पूछा, ”पारो तुम!……….इस वक्त!” वह कुर्सी पर बैठे-बैठे ही सचेत हो गया। ”क्या बात हो गयी पारो?”

”हाँ देव दा, यह मैं हूँ।” इतना कहकर पारो चुप हो गयी। देव ठीक से बैठ गया। वह इन्तज़ार कर रहा था कि पारो कुछ और बोलेगी, लेकिन जब वह चुप ही रही तो देव ने पूछा, ”इतनी रात गये? सब ठीक तो है न!”

पारो फिर भी चुप रही। देव उठा और कमरे के दरवाजे तक आया। किवाड़ खोलकर सरसरी नज़र से बाहर देखा, फिर किवाड़ को भिड़ा दिया। बन्द नहीं किया। पारो खड़ी हो चुकी थी। देव ने हैरत में पड़कर पूछा, ”अकेली आयी हो?”

”हूँ।” पारो का चेहरा नीचे की ओर था।

”डर नहीं लगा?”

पारो ने चेहरा उठाया। मुस्करायी। बोली, ”मैं भूतों से नहीं डरती।”

”….और आदमी से?”

पारो चुप। देव को क्या वाकई इस बात का अन्दाजा नहीं कि इस संकट की घड़ी में पारो को आदमी से भी डर नहीं लगेगा?

अच्छा छोड़ो, बताओ बात क्या है?”

पारो फिर चुप! क्या वाकई देव को अंदाजा नहीं? उसे जानना चाहिए कि इतनी रात गये पारो क्यों आयी है? वह वाकई नहीं जानता या न जानने का अभिनय कर रहा है? क्या वह पारो को तोल रहा है?

”तुम्हे आते किसी ने देखा तो नहीं?”

”किशन सिंह ने देखा था।”

”और किसी ने?”

”शायद बाहर बरामदे में सोये नौकरों में से किसी ने देखा हो।”

देवदास चुप। उसके चेहरे के नकूश एकबारगी बदल गये। ”क्या किसी ने तुम्हें पहचाना?”

उसकी परेशानी से पारो को किंचित निराशा हुई भी हो तो भी उसने जाहिर नहीं किया। सहजता से बोली, ”सभी तो मुझे जानते हैं। हो सकता है जिसने देखा हो वह पहचान भी गया हो!”

देवदास की सिट्टी-पिट्टी गुम गयी। समझ नहीं आया क्या कहे! सकपकायी-सी आवाज़ में इतना ही पूछ सका, ”आखिर क्यों पारो! क्यों यह सब!…..बात क्या थी जो इतनी रात गए तुम्हें……?”

वह आगे कुछ न कह सका और धम्म से बिस्तर पर बैठ गया। पारो चुपचाप उसे देख रही थी।

”मैं अपने लिए नहीं….! तुम तो इन नौकर-चाकरों की आदत से वाकिफ हो। ज़रा-सी बात का भी बतंगड़ बना देते हैं। तुम्हारे यहाँ आने की बात सुबह होते ही चारों तरफ़  फैल जाएगी। फिर क्या सफाई दोगी तुम? कैसे मुँह दिखा सकोगी?”

पारो तिलमिला गयी, ”देव दा, इसकी चिन्ता करने की तुम्हें जरूरत नहीं।” उसने सिर झुका लिया। देव अब तक संयत हो चुका था। बोला, ”पारो बात अब पहले-सी नहीं रही। तुम अब बड़ी हो चुकी हो। यहाँ आते तुम्हें लाज नहीं आयी?”

”देव दा, इसमें लाज आने की तो कोई बात नहीं।”

”जब लोगों को पता चलेगा तो…? क्या जबाब दोगी?”

पारो धीमे कदमों से देव के पास आयी। उसकी आँखों में एक अजीब परस्तिश-सी तैर रही थी। मीठी आवाज़ में बोली, ”क्या मैं नहीं जानती यह सब?…..लेकिन इन सबसे ऊपर मैं यह भी जानती हूँ कि तुम मेरी लाज रख लोगे। अगर इसका मुझे यकीन न होता देव दा तो मैं हरगिज यहाँ पाँव न धरती।”

”लेकिन मैं भी तो…..” देव रूक गया। पारो उसकी तरफ़  प्रश्नार्थक नजरों से घूर रही थी। उसकी सीधी आँखों की आँच देव से झेला न गया। उसने नजरें फेर लीं।

”तुम्हारा क्या है देव दा!” पारो की आवाज़ में घुली मिठाई हवा होने लगी। ”बोलो न देव दा, रूक क्यों गये?

लेकिन देव चुप ही रहा। पारो ही बोली, ”तुम्हारा क्या है, तुम तो मरद मानुष ठहरे। आज अगर मेरा यहाँ आना सब पर जाहिर भी हो गया तो एक दिन, दो दिन, एक सप्ताह, हद-से-हद एक महीने में भूल जाएँगे कि आधी रात कोई दुखियारी पारो अपने देव दा से मिलने उसके कमरे में चली आयी थी। और मेरी वजह से….” पारो की आवाज़ दरकने लगी। उसने ठोढ़ी देव के घुटनों पर रख दी।

देव ने उसके बालों में उँगली फेरते हुए पुकारा, ”पारो!”

”अगर मेरी वजह से तुम्हारी ज़रा भी बदनामी होती है देव दा तो मैं गले में घड़ा बाँधकर पोखर में कूद…!”

देव ने अपना हाथ पारो के होंठो पर रखकर आगे कुछ कहने से बरज दिया। पारो का चेहरा अँधेरे में था इसलिए देव को पता नहीं था वह रो रही है। जब उसके हाथों पर बूँदें गिरीं तो वह जैसे मचल गया, ”पारो! क्या तुम रो रही हो?”

पारो की हिचकियाँ बँध गयीं। देव उसके कन्धे को थपथपाने लगा, ”ना पारो ना!”

पारो नहीं मानी, पूर्ववत रोती रही। देव ने कन्धे से पकड़कर उसे उठाना चाहा, ”पारो, ऊपर आओ। बगल में बैठो। आओ।”

”नहीं देव दा, मुझे यहीं रहने दो। मुझे सारी जिन्दगी यहीं रहना है, तुम्हारे चरणों के पास। बोलो देव दा, मुझे यहाँ थोड़ी-सी जगह दोगे?”

”मेरे अलावा क्या तुम किसी और से ब्याह नहींं कर सकती?”

पार्वती ने कुछ नहीं कहा। देव भी चुप। कमरे में शान्ति। दूर कहीं कुत्ते के भौंकने की आवाज़ कट-पिटकर आ रही थी। जब दीवार-घड़ी ने दो बजने का गजर दिया तो दोनों की तन्द्रा टूटी। सोच के बिखरे सिरों को समेटते हुए देव ने वहीं से कहना शुरू किया, जहाँ बातचीत खत्म हुई थी।

”……तुम्हें पता है कि मेरे घरवाले इस रिश्ते के खिलाफ हैं?”

”सुना ऐसा ही है देव दा!”

देव चुप हो गया। थोड़ा साहस बटोरकर पूछा, ”फिर यह सब करने से क्या फायदा पारो?…..सुनो, इधर आओ।”

लेकिन पारो जैसे बीच मँझधारा में हो और देव के पाँव पकड़कर ही किनारे पर पहुँचा जा सकता है, ऐसे उसने कसकर पाँव पकड़ रखा था और रोये जा रही थी। बोली, ”इतना सब मैं नहीं जानती।”

”लेकिन माँ-बाबूजी की मर्जी के बगैर….?”

”इसमें हर्ज ही क्या है?”

”लेकिन वे मुझे इस घर से बाहर निकाल देंगे, और ऐसा न भी हो तो वे बहू के रूप में तुम्हें यहाँ रहने नहीं देंगे। …..फिर मैं तुम्हें रखूँगा कहाँ?”

”मुझे बस यहीं रहना है, तुम्हारे चरणों में।”

फिर चुप्पी। लम्बी चुप्पी। लेकिन दोनों चुप रहकर भी जैसे एक निष्कर्ष तक पहुँच रहे थे। पारो हताश थी, देव शर्मसार।

घड़ी ने सुबह के चार बजाए। नौकर-चाकर उठने को होंगे। गरमियों में सुबहें जल्दी हो जाया करती हैं।

देवदास ने पारो को कन्धे से उठाते हुए कहा, ”पार्वती! चलो। आओ मैं तुम्हें घर तक पहुँचा आऊँ।”

पारो के आँसू सूख चुके थे। चेहरे पर दृढ़ता। बोली, ”…और जो किसी ने देख लिया तो तुम्हारी बदनामी नहीं होगी?”

पारो के तंजिया तेवर की अनदेखी करते हुए देव ने कहा, ”अगर थोड़ी-बहुत बदनामी भी होती है तो कोई हर्ज नहीं।”

”ठीक है, तो चलो, छोड़ो आओ।”

दोनों चुपचाप चल दिये।

दूसरे दिन जब देवदास ने अपने पिता के समक्ष प्रस्ताव रखा तो वे बुरी तरह झुँझला गये, ”आखिर क्या चाहते हो तुम? तुम कभी मुझे चैन से रहने दोगे या नहीं? बचपन से लगाकर अब तक कोई-न-कोई टंटा हमेशा खड़ा किए रहते हो।”

देवदास कुछ न बोला। वहीं खड़ा रहा।

”क्या हुआ, अब खड़े क्यों हो? जाओ मेरा दिमाग मत खाओ। तुम्हारे इस तरह अड़े रहने से मेरा फैसला नहीं बदलने वाला।”

देवदास फिर भी चुप वहाँ खड़ा रहा। अन्त में मुकर्जी साहब खीझ कर बोले, ”जाओ, जाकर अपनी माँ से मशवरा करो। वो मान जाती हैं तो तुम माँ-बेटे जो जी में आए करो, मुझे किसी से कोई मतलब नहीं। जाओ मेरा पिंड छोड़ो।”

जब देवदास ने अपनी माँ से यह सबकुछ कहा तो वह अलग से हाय-तोबा मचाने लगी, छाती पीटते हुए बोली, ”लाज शरम सब धो के पी गया क्या? …..मेरे तो करम फूटे थे जो अपनी कोख के जने से यह सब सुनना पड़ रहा है-हाय-हाय!”

सबसे क्रुद्ध होकर देवदास ने सामान बाँधा और उसी घड़ी बग्घी निकालकर कलकत्ते के लिए रवाना हो गया।

देवदास के यहाँ से लौटने के बाद, पता नहीं किस आधार पर, लेकिन पार्वती को लगा था कि वह अपने माँ-बाबूजी से इस बाबत जरूर बात करेगा। लेकिन जब उसने देव के कलकत्ता चले जाने की बात सुनी तो उसे गहरा सदमा पहुँचा। उसे यही लगा कि देव ने अपने घरवालों के सामने चर्चा ही नहीं उठायी और बचने के लिए कलकत्ता चला गया।

शाम को मनोरमा उससे मिलने आयी। देव के अचानक कलकत्ता चले जाने की बात वह जानती थी। छूटते ही उसने पारो से पूछा, ”देवदास क्या वाकई कलकत्ता चला गया?

”हाँ!”

”अब?….क्या सोचा है तुमने?”

ऐसा नहीं कि पूरा दिन निकलने को आया और पारो ने इस बाबत कुछ सोचा ही नहीं। वास्तव में वह पूरे दिन यही सोचती रही है कि अब आगे क्या करना है, लेकिन अब तक किसी ठोस निष्कर्ष तक नहीं पहुँच सकी है। सचाई तो यह थी कि उसके मन ने अभी तक आशा का दामन न छोड़ा था। उसे अब भी लगता था कि कलकत्ते जाकर देव दा जरूर कोई उपाय निकाल लेंगे। यह सब अभी दो दिन और लगना था, जब तक उसे देवदास का वह पत्र न मिल जाए जिसे उसने कलकत्ता पहुँचकर लिखा था।

देव ने लिखा था-

पार्वती, यहाँ पहुँचने के बाद पिछले दो दिनों से मैं तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा हूँ। माँ-बाबूजी की मर्ज़ी के खिलाफ़ जाकर मैं उन्हें कितना गहरा मानसिक आघात पहुँचाऊँगा, और मेरा यह कदम उन्हें कितना भारी कष्ट देगा; शायद इसका तुम्हें अनुमान नहीं। अलावा इसके, मैं अभी अपने पैरों पर भी तो खड़ा नहीं। इसलिए पारो, मेरा तुमसे ब्याह करना सम्भव नहीं। मैं जानता हूँ कि हमारे बीच शायद यह अन्तिम पत्र है; इसलिए अपने जाने मैं सारी बातें साफ़-स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। मेरी माँ हरगिज नहीं चाहतीं कि मेरी शादी ऐसे छोटे कुल वाले परिवार में हो जहाँ लड़कियों के बदले धन लेने का रिवाज है। अलावा इसके, पड़ोस में समधियाना भी उन्हें नहीं सुहाता। रही बाबूजी की बात तो तुम उनके स्वभाव से परिचित हो, ज्यादा क्या बताना! पारो तुम कितना विवश होकर उस रात मेरे कमरे में आयी होगी, सोचता हूँ तो तुम्हारे प्रति सम्मान में मेरा सिर झुक जाता है। लेकिन शायद तुम भी मेरी मजबूरी समझ सको।

यहाँ एक बात और साफ़ करता चलूँ। पारो, यह सच है कि मैंने तुम्हे इतने गहरे जाकर कभी नहीं चाहा कि तुम्हें अपनी पत्नी बनाने की भी सोची हो! उस रात पहली बार मेरे प्रति तुम्हारी भावनाएँ जानकर मैं परेशानी में पड़ गया। मैं आज भी यह सोचकर परेशान हो जाता हूँ कि मेरी वजह से तुम्हें इस सन्त्रास को झेलना पड़ रहा है। हो सके तो मुझे भूल जाना। मैं ईश्वर से तुम्हें मुझे भुला सकने लायक शक्ति, दृढ़ता, सहिष्णुता और अन्ततः सफलता प्रदान करने की प्रार्थना करूँगा।

– देवदास मुकर्जी

जाने किस रौ में आकर देवदास ने न सिर्फ़ यह सब लिख डाला, बल्कि लिफाफे में बन्द कर डाक छोड़ भी आया। लेकिन इसके तुरन्त बाद अपने लिखे हुए शब्दों के पारो पर पड़ने वाले असर की सोचकर उसे पछतावा होने लगा। पारो को वह बचपन से जानता आया है, वह भली-भाँति जानता है कि वह कितनी अभिमानिनी है। यह सब अगर किसी और ने लिखा या कहा होता तो अलग बात थी, लेकिन खुद उसके कहे से पारो को मर्मान्तक चोट पहुँच सकती है। कहीं वह आत्महत्या ही न कर ले! उसे याद आना था जब पारो उसके घुटनों पर चेहरा टिकाये हिचकियाँ ले रही थी। अपने कुल की मर्यादा, मान व इज्जत किसे नहीं प्यारी होती! इसके बावजूद आधी रात में वह कितनी मजबूर होकर देवदास के पास आयी होगी! देवदास के प्रति उसका प्यार कितना गहरा होगा जो उसने लोकलाज को भुलाकर यह कदम उठाया होगा। दूसरी तरफ़  देवदास इसी लोकलाज व कुल की मर्यादा को प्रमुखता देकर आज लिख बैठा कि…..। अगर वह आत्महत्या कर ले, जैसा कि वह कह भी रही थी, तो यह पाप किसके सर चढ़ेगा? क्या फैसले की घड़ी में ऊपर वाले के सामने अपनी सफाई में दो शब्द बोलने का भी मुँह रह जाएगा?

देवदास यह सब डाकखाने से लौटते हुए सोच रहा था। आजकल वह अपने मामा के घर नहीं, एक मेस[ii] में रहने लगा था। कमरे में आकर वह लेट गया। उसके कमरे से सटा जो दूसरा कमरा था, वहाँ चुन्नीलाल नामक एक युवक रहता था। पिछले नौ साल से वह वहाँ बी.ए. का इम्तहान देता रहा था। देवदास से उसकी पटती थी। इस वक्त शायद वह कहीं घूमने-फिरने गया होगा, वरना देवदास उसी के पास बैठता। न ही मेस में कोई और साथी दिखा, सो देवदास दरवाज़ा बन्द कर लेट गया।

दोपहर ढली, शाम हुई। एक-एक कर सारे छात्र, जहाँ कहीं थे, मेस में लौट आए। रात के भोजन के समय देवदास को रसोई में अनुपस्थित पाया गया। किसी ने उसके लिए आवाज़ भी लगायी, लेकिन कोई जवाब नहीं आया। चुन्नीलाल रात के भोजन के समय यदा-कदा ही होता है, इसलिए वह जो यह सब नहीं जान पाया तो कोई हैरत की बात नहीं।

देवदास अपने कमरे में ही लेटा था। घड़ी ने रात के एक बजाए लेकिन सदा समय पर सो पड़ने वाले देवदास की आँखों में अभी तक नींद नहीं उतरी। तभी घूमते-घामते, गाते-गुनगुनाते चुन्नीलाल वहाँ से गुज़रा। दरवाज़ा बन्द था लेकिन सूराखों से रोशनी छिटक रही थी सो चुन्नीलाल देवदास के दरवाजे तक आकर ठिठक गया। पुकारा, ” देव बाबू, ओ देव बाबू! अभी तक जाग रहे हो?”

भीतर से आवाज़ आयी, ”मैं तो जाग रहा हूँ लेकिन तुम अभी यहाँ क्या कर रहे हो चुन्नी बाबू?”

ठहाके मार कर चुन्नीलाल हँसा। बोला, ”बन्धु, आज तबीयत कुछ नासाज़ थी सो चहलकदमी करने निकला था।” कहते हुए चुन्नीलाल आगे बढ़ गया। फिर तुर’न्त ही वापस आया। बड़ी अद़ा से दरवाज़े पर दस्तक दिया, ”दरवाज़ा, खोलने में कोई दिक्कत तो नहीं होगी बन्धु?”

”नहीं नहीं, कोई दिक्कत नहीं। अभी खेलता हूँ।” कहते हुए देवदास उठा, ”कोई काम था चुन्नी बाबू?”

”काम तो कुछ खास नहीं, बस थोड़ा तमाखू मिल जाता तो तबीयत हरी हो जाती। है?”

देवदास ने दरवाज़ा खोल दिया। ”हाँ है, भीतर आ जाओ।”

चिलम तैयार करते हुए चुन्नीलाल ने पूछा, ”बात क्या हो गयी जो आज तुम अभी तक जाग रहे हो?”

”चुन्नी बाबू नींद पर किसका जोर चलता है, आती है आती है, नहीं आती तो फिर नहीं आती।”

चुन्नीलाल ने फिर एक जोरदार ठहाका लगाया, ”भई वाह! अब तक मैं यही सोचता था कि तुम्हारे जैसे जो राजा बेटे हुआ करते हैं, उन्हें कम-से-कम नींद से उलझना नहीं पड़ता; लेकिन आज तो कुछ नया अनुभव हो रहा है-वो क्या कहते हैं, हाँ, एक नयी सीख मिल रही है!”

देवदास चुप ही रहा, चेहरा किसी सोच में बझा-तना। चुन्नीलाल ने कश खींचते हुए उसके चेहरे पर गौर किया। पास आकर आत्मीय स्वर में बोला, ”देव बाबू, क्या बात है? जब से तुम इस बार घर से लौटे हो, कुछ खोये-खोये से रहते हैं! घर में तो सब ठीक है न?”

देवदास ने जैसे कुछ सुना ही न हो। चुप। चुन्नीलाल उसके करीब गया और हौले से उसकी पीठ थपथपाते हुए बोला, ”सब ठीक है न? कोई बात है जो तुम्हें भीतर-ही-भीतर लगातार मथ रही है। क्यों, मैं ठीक कह रहा हूँ न?”

देवदास उसे एकटक देखता रहा। फिर जैसे सोते से जगा हो, पूछा, ”चुन्नी बाबू, तुमसे एक बात पूछनी थी! सच-सच बताना, क्या तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं है?”

चुन्नीलाल जोर से हँसा, ”नहीं देव बाबू, मैं तो मस्त-मलंग हूँ। मुझे भला तकलीफ़ छू भी कैसे सकती है!”

”मस्त-मलंग तो आज दिख रहे हो, क्या कभी भी कोई तकलीफ़ नहीं रही? आखिर तुम इतना हँस क्योंकर सकते हो चुन्नी बाबू?”

चन्नीबाबू संज़ीदा हो गया। कश खींचकर पूछा, ”क्यों जानना चाहते हो देव बाबू?”

”ऐसे ही, मान लो मुझे दूसरों का दुख-दर्द सुनना अच्छा लगता है।”

”ऐसी बात है तो फिर ठीक है, बताऊँगा कभी विस्तार से अपनी कहानी?”

बात कभी और पर टल गयी। चुन्नीलाल, जैसे चोरी पकड़ी गयी हो, देवदास की सीधी चींथ डालने वाली निगाह से बचने लगा। अचानक देवदास ने पूछा, ”अच्छा ये बताओ, तुम रात-रात भर कहाँ गायब रहते हो?”

”क्या देव बाबू, अनजान क्यों बनते हो! यहाँ भला किसी से छिपा है यह? सब जानते हैं, तुम भी जानते हो!”

”अन्दाजा तो है लेकिन साफ़-साफ़ जानना चाहता हूँ। बोलो।”

एक पल के लिए चुन्नीलाल ने देवदास को गौर से देखा। नहीं, वह वाकई जानना चाहता था- यह देखकर चुन्नीलाल उत्साहित ही नहीं, उत्तेजित भी हो गया। देवदास को थोड़ा-बहुत अन्दाजा था और वह पूरा सच जानना चाहता था। यदि वह पूरी तरह अनजान होता तो शायद चुन्नीलाल उसे कतई नहीं बताता। इसके अलावा जब हम पहली बार किसी से अपनी बुरी आदतों के बारे में बताएँगे तो झिझकेंगे, चुन्नीलाल के लिए यह कोई नया अनुभव कतई न था। वह देव के पस आ सटा, फुसफुसाकर बोला, ”मत पूछो देवबाबू कि कहाँ जाता हूँ! जन्नत कह लो जो धरती पर रात होते ही उतर आती है। लेकिन वहाँ के बारे में सब कुछ जानने के लिए तुम्हें मेरी तरह बनना पड़ेगा। चलो, कल तैयार हो लेना, तुम्हें भी जन्नत की सैर करा देंगे।”

”चुन्नी बाबू, सुना है वहाँ जाकर आदमी अपने सारे दुखों को भुला देता है!”

”बिल्कुल सही। सौ फीसदी सही।”

”ठीक है, फिर कल मुझे भी लिए चलना!”

देवदास और चुन्नीलाल सज-धजकर निकले। देवदास तो जिन कपड़ों में था, उन्हीं में निकलना चाहता था लेकिन चुन्नीलाल की जिद की वजह से ऐसा न हो सका। ताँगा उन्हें चितपुर में एक दोमंजिले मकान तक ले आया। उतरकर चुन्नीलाल ने देवदास के हाथों में अपना हाथ डाल दिया, और वे मकान के भीतर चले आए। इस मकान की मालकिन का नाम चन्द्रमुखी था। वह जीने पर ही मिल गयी। चुन्नीलाल के साथ आज एक नये आगन्तुक को देख, उसने स्वागत करते हुए अपनी देह पर कुछ ज्यादा ही लोच डाल दी, स्वर में कुछ ज्यादा ही मिठास। पता नहीं क्या हो गया कि देवदास हत्थे से उखड़ गया। चुन्नीलाल को घूरते हुए बोला, ”ये तुम मुझे किस नरक में ले आए चुन्नी बाबू!”

न सिर्फ चुन्नीलाल, बल्कि चनद्रमुखी भी देवदास के चेहरे पर पसरी हुई घृणा और उसकी जहर बुझी बात सुनकर आश्चर्य में पड़ गयी। चन्द्रमुखी और उसके इस कोठे की इस इलाके में अच्छी साख थी। आज तक ऐसा न हुआ कि….!

चुन्नीलाल ने स्थिति अपने हाथ में लेते हुए कहा, ”माफ़ करना चन्द्रमुखी, ये मेरे मित्र हैं श्री देवदास मुकर्जी। ऐसी जगहों पर पहली बार आए हैं न इसलिए…..हें-हें!…आइए भीतर चलकर बैठते हैं देव बाबू।”

भीतर बड़ा ही भव्य एक हॉल था जिसके फर्श पर गद्दा बिछा था। चुन्नीलाल देवदास को वहीं ले आया और बिठा दिया। चन्द्रमुखी भी वहीं जा बैठी। देवदास सिर झुकाये बैठा था। नौकरानी चाँदी का हुक्का भरकर ले आयी, लेकिन देवदास ने उसे छूने से भी इनकार कर दिया। उसके मना कर देने से चुन्नीलाल ने भी पीना उचित न समझा। बेचारी नौकरानी कुछ देर हुक्का लिये-लिये खड़ी रही, फिर चन्द्रमुखी खुद ही हुक्का गुड़गुड़ाने लगी। एक-दो कश ही अभी ले पायी थी कि उसके कानों में जैसे गर्म-पिघलते सीसे पड़े हों, देवदास की आवाज़ आयी, ”ऐसी निहायत ही बदतमीज़ और बेशरम औरत मैं पहली बार देख रहा हूँ!”

हाँ, यह एकदम पहली बार है। आज तक यही होता आया था कि उसके रूप-सौंर्दय के उपासक होकर ही लोग उसकी तरफ़ देखते, उसके पास आते। वह उनसे हँसी-मजाक करती, उनकी खिंचाई करती, एक-दो कड़वे बोल भी बोलती तो लोग अपने को धन्य समझते। पहली बार चन्द्रमुखी के रूप-वलय को बींधकर, छिन्न-भिन्न कर, ऐसे शब्द उस तक पहुँच रहे हैं। अपने होने में बेहद काँटेदार, रूखे, जैसे चन्द्रमुखी का पूरा अस्तित्व ही छिल गया हो। वह एकदम से तिलमिला गयी। एक पल को तो उसकी समझ में ही नहीं आया कि क्या करे! जवाब में कुछ कहने को भी उसे शब्द नहीं सूझ रहे थे। कश में खींचे गये धुएँ को भी बाहर निकालने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। और तभी उसे जोर की खाँसी हुई तो खाँसते हुए भी मन ही मन उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया, जो कम से कम इसी बहाने चुप का टोना टूटा। चुन्नीलाल ने उसे सम्भालने की गरज़ से हुक्का उसके हाथों से ले लिया। चन्द्रमुखी अब एकटक देवदास को देखे जा रही थी मानो उनके बीच अभी कोई जोरदार बहस हुई हो और एक-दूसरे के तर्क को पूरी तरह न मान पाने, और न ही खारिज कर पाने की स्थिति में अन्ततः वे खिन्न होकर चुप हो गये हों। एक गुप्त बात और है कि जैसे यह खिन्नता जब काफी लम्बी खिंच गयी हो, तीनों ही किसी बहाने समझौता चाहते थे, बस देर इतने की थी कि पहल कौन करे। देवदास को भी अपने शब्दों के लिए पछतावा हो रहा था।

आखिरकार चुन्नीलाल से और बर्दाश्त न हो सका, और वह ‘थोड़ी ताजा हवा लेकर आता हूँ’ कहकर नीचे पान की गुमटी तक चला आया। पूरे कमरें में अब बस देवदास और चन्द्रमुखी। एक-दूसरे के सामने। चुप।

कुछ और न सूझा तो देवदास ने यही पूछा, ”क्या तुम रूपये-पैसे लेती हो?”

ये शब्द इतने मासूम थे कि चन्द्रमुखी को सहसा अब तक लिये गये रूपये-पैसे किसी गुनाह की तरह लगे। वह कुछ बोल न सकी। चन्द्रमुखी की उम्र क्या होगी-यही कोई चौबीस-पच्चीस साल। मतलब देवदास से तीन-चार साल बड़ी। पूरे इलाके में उसकी सुन्दरता का डंका बजा हुआ था। पिछले नौ-दस सालों से वह इस धन्धे में थी। अब तक न जाने कितने पुरूषों के सम्पर्क में आ चुकी थी, लेकिन जैसा आज उसके साथ हुआ, कभी न हुआ था। उसके सामने सिर झुकाये बैठा यह आदमी उसे अनोखा लगा। किसी तरह बोली, ”अलग से नहीं माँगती, लोगबाग जो कुछ देते हैं अपनी मर्जी से!” उसे खुद ही लग रहा था जैसे वह सफ़ाई दे रही है। उसने हिम्मत बाँधकर अपने शब्दों को सजाया, ”लोगों की कृपा है! प्रसाद समझकर ले लेती हूँ!”

देवदास दो टूक जवाब चाहता था, बोला, ”मैं लोगों की कृपा और प्रसाद के बारे में नहीं जानना चाहता। साफ़ साफ़ बोलो क्या तुम रूपये लेती हो?”

”जी लेती हूँ। इसी से मेरा जीवन चलता है।”

देवदास ने अपनी जेब में हाथ डाला और एक नोट निकालकर उसकी तरफ़  फेंक दिया। यह भी न देखा कि कितने रूपये का नोट है। उठा और जाने लगा तो चन्द्रमुखी जैसे मचल पड़ी। उसे लगा जैसे अगर उसने न रोका तो उसका कुछ खो जाएगा। दौड़ पड़ी और दरवाज़ा छेककर खड़ी हो गयी, ”क्या आप इतनी जल्दी चले जाएँगे?” बिना कोई जवाब दिये देवदास नीचे उतर आया। चन्द्रमुखी उसे देखती रही। नीचे पान की गुमटी पर चुन्नीलाल खड़ा था, देव को आता देखकर चौंक गया। पूछा, ”अरे देव बाबू, क्या बात हो गयी। कहाँ जा रहे हो?”

”मेस जा रहा हूँ।”

‘लेकिन बात क्या हुई?इतनी जल्दी भी क्या है!”

देवदास कुछ न बोला। एक पिनक में जैसे चलता ही जा रहा है, यह देखकर चुन्नीलाल दौड़ा हुआ आया, ”चलते हैं चलते हैं। रूको एक मिनट, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।”

”रूकना क्या है, चलना है चलो।”

”हाँ हाँ, चल रहा हूँ लेकिन ज़रा ऊपर कह तो आऊँ।”

”ठीक है तब तुम आराम से आना, मैं चला।” देवदास ने ताँगा रूकवाया और इससे पेशतर कि चुन्नीलाल कुछ कहता, देवदास वह जा यह जा!

चुन्नीलाल जब ऊपर आया तो चन्द्रमुखी चौखट पर ही खड़ी थी। देवदास द्वारा दिये गये नोट को पकड़े हुए उसका एक हाथ दरवाजे से लगा था, जंजीर के पास। गोरे हाथ का कंगन ढुलककर नीचे जैसे सोया पड़ा हो। चन्द्रमुखी भी चुन्नीलाल को देखकर जैसे सोते से जगी। भीतर लिवा लाते हुए पूछा, ”क्या आपके दोस्त देव बाबू चले गये?”

चुन्नीलाल देवदास के किये को लेकर एक खीझ से भरा हुआ था। चुप ही रहा। चन्द्रमुखी ने वह नोट दिखाते हुए कहा, ”यह दे गये हैं। ठीक समझें तो ले जाएँ इसे। उन्हें लौटा दें।”

”इसमें लौटाने को क्या है! खुशी से दे गया है तो बख़्शीश समझकर रख लो।”

”यह सब मैं नहीं जानती कि वे खुशी से दे गये हैं या नहीं….। मैं यहाँ आने वालों से रूपये लेती हूँ यह जानकर ही दे गये हैं।” मसनद खींचकर बैठते हुए चन्द्रमुखी अब तक कुछ सम्भल गयी थी। मजाक के लहजे में पूछा, ”ये बताइये चुन्नी बाबू, आपके ये दोस्त थोडे पागल हैं क्या?” लेकिन पहली बार खुद चन्द्रमुखी को यह अहसास हुए बिना नहीं रह सका कि उसके मज़ाक में वह धार नहीं, जिसके लिए वह प्रसिद्ध है। मुस्कुराहट में उसके होंठ फैले तो सही, लेकिन जैसे कुछ खोये खोये से रहकर।

”पागल-वागल तो नहीं, हाँ इन दिनों कुछ परेशान जरूर है।” चुन्नीलाल ने सफार्ई दी,”तुम उसकी जली कटी बातों को दिल से न लगाना चन्द्रमुखी। बुरा आदमी नहीं हैं, बस मैंने कहा न कुछ परेशान परेशान-सा है।”

” क्यूँ परेशान क्यूँ हैं आपके देव बाबू ?”

” ठीक से बताए तब तो पता चले। चुप्पा किस्म का है, कुछ बोलता ही नहीं। मुझे जहाँ तक लगता है, शायद घर से कुछ परेशान है।”

चन्द्रमुखी ने चुन्नी बाबू की तरफ़  हुक्का बढ़ाया। खुद कश लेने की हिम्मत नहीं पड़ी। पूछी, ” जब उन्हें यह सब पसन्द नहीं था तो जबरदस्ती उन्हें यहाँ क्यूँ लाए ?”

” मैने कोई जबरदस्ती नहीं की उसके साथ। उसने खुद ही यहाँ आने की जिद पकड़ रखी थी।”

सुनकर चन्द्रमुखी चौंकी। घुटना मोड़कर उसके ऊपर हाथों की कंघी बाँधकर बैठ गयी। चुन्नीलाल ने उसे विश्वास दिलाया, ” ठीक कह रहा हूँ, वह खुद अपनी मर्ज़ी से यही आया।”

इसके बाद देर तक दोनों तरफ़  चुप्पी छाई रही। घुटने पर ठोढ़ी रखकर चन्द्रमुखी जाने किसी ख़याल में खो गयी थी। उसी सोच में बुझी उसने कहा, ” चुन्नी बाबू मेरा एक काम करोगे ?”

” बोलो”।

” आपके वो देव बाबू कहाँ रहते है ?”

” मेरे ही साथ। हम एक ही मेस में रहते हैं। क्यों क्या हुआ ? क्या काम कह रही थी?”

” क्या उन्हें एम दिन दुबारे से यहाँ ला सकेंगे?” कहते हुए वह जैसे शरमा गयी। पल भर में उसने खुद को सम्भाल लिया। चुन्नीलाल हुक्के से लगा हुआ था, भाँप न सका चन्द्रमुखी एक पल के लिए जैसे सितार की तार की मानिन्द थिरक गयी थी। बोला, ” मुझे नहीं लगता वह कभी सपने में भी इधर का रूख करेगा। क्यों क्या बात है, उससे कोई काम है ? क्यों बुलाना चाहती हो दुबारा उसे?”

” आप सवाल बहोत पूछते है चुन्नीबाबू।” इठलाते हुए चन्द्रमुखी ने कहा, ” मैं कुछ नहीं जानती आप यह कैसे करेंगे, बस इतना जानती हूँ कि मैंने कह दिया तो जरूर करेंगे। आपको उन्हें यहाँ दुबारे से लाना ही होगा-बस।”

उसकी इठलाहट ने चुन्नी बाबू में जीवन्तता ला दी, जो देवदास के चले जाने के बाद काफूर हो गयी थी। आँख मारते हुए कहा, ” समझ गया मादाम चन्द्रमुखी! औरतें हमेशा उस मर्द को पूजती हैं जो उन्हें फटकार लगाए। क्यों, ठीक कहा न?”

”औरते किसे किस वजह से पूजती है यह हम औरतो पर ही छोड़ दीजिए चुन्नी बाबू। ”

चुन्नीलाल ने झूठमूठ मचलते हुए पूछा, ” फिर बताओ न क्या काम है उससे जो दुबारा उसे बुलाना चाही हो?”

”अरे मुझे भला क्या काम होगा आपके दोस्त से! एक आदमी जो यहाँ आता है और कोने में सिर झुकाए बैठा रहता है, एक नज़र भी मुझे नहीं देखता। और इतना बड़ा नोट बिना देखे ही मुझ पर फेंककर चला जाता है, तो उसके बारे में उत्सुकता नहीं करेंगी क्या जी।”

चुन्नीलाल कुछ गम्भीर हो गया। बोला, ” यह सब बहानेबाजी छोड़ो चन्द्रमुखी । मैं जानता हूँ तुम नोट वाली बात की आड़ ले रही हो। रूपये-पैसे का तुम्हारी निग़ाह में कोई मोल नहीं कि तुम उत्सुक होओ। बात कुछ और है। क्या पहली ही नज़र में वह तुम्हें ……………..?”

इससे पहले की चुन्नीलाल की बात पूरी होकर उजागर होती, चन्द्रमुखी ने जल्दी से बात काटी, ” कुछ ऐसा ही समझ लो!” इस तरह वह अनकहा ही रह गया और नियति बनकर चन्द्रमुखी या देवदास से चस्पा न हो सका।

चुन्नीलाल को हैरान होना था, ” इतने लोग यहाँ आते-आते हैं, इतनी देर-देर तक रहते और अचानक एक शख्स आता है, तुम्हारी तरफ़ देखता तक नहीं, पाँच मिनट में चल देता है और तुम पर जैसे कोई जादू हो जाता है।”

चन्द्रमुखी हँस पड़ी। खुली हुई उजली हँसी। अब उसका कोई भेद नहीं रह गया था जिसे छिपाने की जुगत करनी होती। बोली, ”लाओगे न उन्हें?”

” भई अब तो लाना ही पड़ेगा।”

” मेरे सिर की सौ।”

” कसम-वसम न दो, मैं पूरी कोशिश करूंगा अपनी तरफ़  से।”

देवदास को मना कर देना चाहिए था। कितने दिन वह यों ही कलकते की सड़कों पर भटकता? एक न एक दिन थक जाता और फिर पटरी पर लग जाता। चन्द्रमुखी के लिए भी यही ठीक होता कितने दिन व इन्तज़ार करती देवदास का? एक-न-एक-दिन आजिज आकर वह अपने पुराने-धन्धे पर लौट जाती। चुन्नीलाल तो एक दिन अपना बोरिया बिस्तर बाँधकर कहीं चला गया। कुछ लोग कहते है कि वह अपने घर लौट गया और कुछ कहते है कि उसे इलाहाबाद में कोई नौकरी लग गयी। उसने असली बात सिर्फ देवदास को बताई थी लेकिन उस वक्त देव नशे में धुत था। सिर्फ़ एक बार चन्द्रमुखी के कोठे पर जाने का करार रखने वाला देवदास अब ज्यादातर वहीं पड़ा रहता है। शराब की उसे लत लग चुकी है। दिन दिन भर बेहोश रहता है। जब चन्द्रमुखी उसे रोकती है तो भौंहें तरेरकर, गुस्से में बलबलाते हुए पूछता है, सिर्फ एक कारण बता दो कि क्यूं न पीउं।

क्योंकि आपने अभी पीना शुरू किया है शुरू में इतनी शराब बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। बीमार हो जाएगें।

मैं बर्दाश्त करने के लिए नहीं पीता। मैं यहाँ तुम्हारे साथ हूँ इस कडवे सच को बर्दाश्त करने को पीता हूँ। क्या नाम है तुम्हारा है हाँ चन्द्रमुखी मैं पीता हूँ कि तुम्हें बर्दाश्त कर सकूं। यह पहली बार नहीं था कि देवदास ने उसे इस तरह अपमानित किया था। वो जब भी मौका मिलता वो चन्द्रमुखी को उसकी औकात बताने से बाज़ नहीं आता। तिस पर भी चन्द्रमुखी उसे यहाँ आने से मना नहीं कर पाती बल्कि सच्चाई यह है कि वह चाहती है कि देवदास अपना अधिकांश वक्त यहीं बिताए। अपनी आँखों के सामने उसे रखना चाहती है। हाँ वक्त आ गया है जब उसे खुद से स्वीकार कर लेना चाहिए कि वह देवदास से प्रेम करने लगी है। शायद इसी वजह से देव की यह हालत उससे देखी नहीं जाती। लेकिन शराब में और शराब से ज्यादा अपने आप में डूबा देवदास क्या कभी यह जान पाएगा?

देवदास ने अपना गिलास दीवार से दे मारा छन्न की आवाज़ के साथ गिलास के परखच्चे उड़ गए फर्श पर चारों तरफ़ किरचियाँ बिखर गई। नशे में बड़बड़ाता हुआ देवदास कह रहा था यहाँ मैं क्यों पड़ा रहता हूँ क्योंकि मुझमें यहाँ से उठकर जाने की ताकत ही नहीं। तुम्हें क्यों देखता हूँ, तुमसे क्यों बातें करता हूँ? क्योंकि मुझे अच्छे बुरे का फ़र्क करने लायक होश ही नहीं। लेकिन नहीं मैं इतने भी नशे में नहीं हूँ कि तुम मुझे छू सको। ना ना …. नशे में होकर भी इतना होश अभी बाकी है कि तुम्हारे जैसी लड़की मेरा स्पर्श न कर पाए। मैं तुमसे नफरत करता हूँ चन्द्रमुखी।

चन्द्रमुखी रो रही थी अपनी आवाज़ को किसी तरह देवदास तक पहुँचाते हुए बोली, लेकिन देव बाबू यहाँ आने के लिए शराब की क्या जरूरत है? मैं ऐसे कई लोगों को जानती हूँ जो यहाँ नियमित आते हैं और शराब को छूते तक नहीं।

शराब को छूते तक नहीं और फिर भी यहाँ चले आते हैं। यहाँ इस नरक में। अरे बाप रे, ऐसे ढोंगियों को तो गोली से उड़ा देना चाहिए। कितने गिरे हुए लोग हैं जो पूरे होशोहवास में भी यहाँ आ सकने की हिम्मत कर सकते हैं। कहकर देवदास देर तक अफ़सोस करता रहा। चन्द्रमुखी का कलेजा ही जैसे पिघलकर उसकी आँखों के रास्ते निकला पड़ रहा हो।

थोड़ी देर बार देवदास ने फिर से कहना शुरू किया अबकि थोड़ा सम्भल कर देखो चन्द्रमुखी मैं तुम्हें समझता हूँ कि क्यों ऐसे लोग मुझसे भी ज्यादा गिरे हुए हैं।……….. ..क्या है कि जब मैं शराब पीना छोड़ दूँगा, तो फिर मैं यहाँ नहीं आऊँगा। यानी इस नरक से मुझे छुटकारा मिल जाएगा।….यानी मेरे पास तो एक विकल्प है, लेकिन जो लोग होशो हवास में यहाँ आते हैं, उनके पास तो कोई विकल्प नहीं।…..यह एकदम ठीक बात है, उन्हें गोली से उड़ा देना चहिए।…तुम समझ रही हो न?”

चन्द्रमुखी ने तुरन्त सिर हिलाया, ”हाँ देव बाबू, समझ रही हूँ!” एक बार फिर से उबाल उठा और उसकी आँखों से ताजे आँसू निकल पड़े।

देवदास अपनी ही रौ में था, उसे फुर्सत नहीं थी कि चन्द्रमुखी के रोने पर उसका ध्यान जाए। व्यथित होकर बोला, ”देखो चन्द्रमुखी, बहुत मज़बूर होकर ही मैंने शराब को हाथ लगाया है। हाँ, ये सच है कि इससे थोड़ी मदद मिलती है अपने दुखों को भूल सकने में अब इसे भी छोड़ दूँ तो कहाँ जाऊँ, क्या करूँ!” और वह रो पड़ा। तकिये से मुँह छिपाकर रो पड़ा। हिचकियों से उसका पूरा बदन थर्रा रहा था। जाने कौन से दुख थे जो तरल होकर बहने शुरू हुए तो रूकने का नाम नहीं ले रहे थे। वह जार-जार रो रहा था।

चन्द्रमुखी से रहा न गया। उसने देवदास को कन्धे से पकड़कर ज्यों ही उठाना चाहा, वह बुरी तरह भड़क गया। चिल्लाकर पूछा, ”तुमने क्यों छुआ मुझे? छोड़ो, छोड़ो मुझे।” चन्द्रमुखी दूर जा छिटकी। वह बेतरह डर गयी थी। देवदास ने भी तुरन्त अपने को सम्भाला। स्वर को संयत कर बोला, ”क्या तुम्हें पता है कि मैं तुमसे कितनी नफरत करता हूँ? और आगे भी करता रहूँगा। हाँ, लेकिन मैं यहाँ आना भी नहीं छोड़ूँगा। आऊँगा, एक नहीं हजार बार आऊँगा। तुम्हारे पास बैठूँगा, तुमसे बातें भी करूँगा। मेरे पास कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं।”

देवदास के अचानक चिल्लाने से चन्द्रमुखी जो डरी थी, उसके संयत होने के बाद वो रो पड़ी। इस बार उसके रोने में किसी छोटी बच्ची-सी बात थी,  जो अपने बड़ों के गुस्सा हाने से पहले डर जाती है लेकिन रोने की हिम्मत तभी कर पाती है जब वे शांत-संयत हो लें। फिर उसका रोना नहीं थमता, उसके मनाने के बाद भी। देवदास भी चुप होकर उसका रोना देखने लगा। पास आया और बोला, ”चुप हो जाओ चन्दुमुखी!” इसका उल्टा ही असर हुआ चन्द्रमुखी पर। वह और जोर से रोने लगी। देवदास सिर झुकाए बैठा रहा देर तक। चन्द्रमुखी का ज्वार जब उतरने को था, उसने सुना देवदास कह रहा था, ”तुम तो देवी हो। सहनशीलता की सजीव मूर्त्ति। कितना कुछ बर्दाश्त करती हो! अपमान, नफ़रत, लांछन, अत्याचार, और एक औरत के लिए सबसे ज्यादा दुखदायी पुरूषों का नकली प्यार। सारी औरतों के साथ ही ऐसा है, लेकिन इसके बाद उनमें एक बहनापा भी तो है, जिससे उनका दुख कुछ कम हो लेता है। तुम तो उन औरतों के लिए भी गयी-बीती हो। तुम्हारे दुख को बाँटने का तो कोई……!”

चन्द्रमुखी हतप्रभ थी। ये आदमी भीतर से ऐसा है, इतना संवेदनशील! उसने कभी नहीं सोचा था कि उसकी स्थिति का अन्दाजा भी लगा सकने वाला इस धरती पर कोई होगा। और यह आदमी, जो अभी नशे में चूर है, सब जानता है। तीन-चार पंक्तियों ही इसने उसके जीवन का सारांक्ष लिख दिया। क्या यह सब कुछ जानता है?

देवदास ने आगे जो कुछ कहा, उससे तो चन्द्रमुखी के आश्चर्य का ठिकाना ही न रहा। वह देवदास से प्रेम करती है, खुद देव की बात ही छोड़िए, उसने एकान्त में अपने से भी बाआवाज़ नहीं कहा। वाकई नशे में डूबा यह आदमी अन्तर्यामी है। वह कह रहा था, ”तुम मुझसे प्यार करती हो! तुम मुझसे प्यार करती हो!”

चन्द्रमुखी के कान बजने लगे। शर्म से उसके गाल लाल होने लगे। देवदास लेट गया और खुद से ही बड़बड़ाने लगा, ”चन्द्रमुखी मुझसे प्यार करती है, तो क्या हुआ? मैं तो उससे नहीं करता, बिल्कुल नहीं करता।….तो क्या हुआ? बिल्कुल नहीं करता। प्यार का नाटक भी नहीं करता। सब तो नाटक करते हैं।” इसके बाद टेक्स्ट बुक में पढ़ी किसी पंक्ति को उद्धत करते हुए बोला, ”द वर्ल्ड इज ऍ स्टेज ऐड एव्री वन इज प्लेइंग हिज कैरेक्टर! सब नाटक करते हैं। कोई राजा बनता है, कोई भिखारी। कोई देवदास कोई पारो, कोई चन्द्रमुखी। देखने वालों को लगता है सब सच है। मैं सचमुच का देवदास हूँ। चन्द्रमुखी सचमुच की चन्द्रमुखी है। चन्द्रमुखी मुझसे प्यार करती है। तो क्या हुआ? वह प्यार करने को निभाती है और देखने वालों को लगता है कि….। मैं सब समझता हूँ। तो क्या हुआ? जो लोग मुझे छोड़कर चले गये, उन्हें याद करने को मैं निभाता हूँ। क्या नाटक है। एक दृश्य में उसका किरदार मुझसे अलग हो गया। उसकी राह अलग, मेरी अलग। अब मुझे जिन्दगी भर नाटक करना पड़ेगा।  चलो मेरा क्या है, सबकुछ स्क्रिप्ट में लिखा है पहले से। होन दो, जैसे-जैसे जो कुछ करना है, बोलना है; करूँगा, बोलूँगा। तो क्या हुआ? चन्द्रमुखी, ओ चन्द्रमुखी? तुम भी तो इस नाटक में शामिल हो! क्या तुम्हें पता है कि यह नाटक ट्रैजिक है या….? ट्रैजेडी मतलब….छोड़ो जाने दो।”

इसके बाद भी वह पता नहीं क्या कुछ बड़बड़ाता रहा। चन्द्रमुखी पंखा झलने लगी। उसके कानों में अब भी देवदास की पहली पंक्ति गूँज रही थी-चन्द्रमुखी तुम मुझसे प्यार करती हो! पंखा झलते हुए उसके भीतर देवदास के प्रति कैसा तो ममत्व उठ रहा था। ऐसा लग रहा था कि वह उसकी पत्नी है। यह साचते ही उसके भीतर एक सिहरन-सी उठ जाती। वह जान-बूझकर अपना ध्यान दूसरी तरफ़ लगाती, लेकिन मन पर किसका जोर चला है! देर रात तक…..तकरीबन एक बजे तक वह पंखा झलती रही। देवदास कब का सो चुका था। अन्त में वह उठी और दीया बुझाकर दूसरे कमरे में सोने चली गयी।

देखते-देखते मुकर्जी साहब को गुजरे छह महीने बीत गये। इस बीच देवदास गाँव ही था। इन छह महीनों में वह बेतरह ऊब गया था। गाँव पर उसके करने को कुछ था ही नहीं। सुबह से शाम हो जाती और फिर रात। पूरा का पूरा दिन बिना कुछ घटे बीत जाता। इस एकसार जीवन का वह अभ्यस्त नहीं था। दूसरे, द्विजदास और उसकी पत्नी का व्यवहार दिन-ब-दिन बद से बदतर होता जा रहा था। रोज-रोज की चख-चख से उसका मन बुरी तरह खिन्न हो गया।

देवदास की माँ की भी हालत कुछ इसी तरह की थी। पति की मृत्यु के बाद दीन-दुनिया से उनका मन उचाट हो गया था। बड़े बेटे ओर बहू के व्यवहार से वे भी आजिज आ चुकी थीं बचपन से ही जिसे नालायक समझती आयी थीं, आज वही देवदास उनके साथ था। माँ सोचती थी कि किसी तरह उसका विवाह हो जाए, उसका घर बस जाए तो वे हमेशा के लिए काशी चली जाएँगी। लेकिन पिता की मृत्यु के कारण एक तो देवदास अशौच की स्थिति में था, दूसरे वे चाहती थीं कि कम से कम छोटे बेटे की शादी किसी ढंग की लड़की से हो। यह भी बता देना उचित होगा कि अब वे मन ही मन पछता रही थीं कि पारो से बढ़कर कोई भी देवदास का ख्याल नहीं रख सकती। लेकिन पछताने के लिए भी अब बहुत देर हो चुकी थी। इसलिए उनकी कोशिश यही थी कि पारो जैसी ही किसी लड़की की तलाश की जाए।

एक दिन देवदास से उन्होंने अपने मन की इच्छा जताई, ”बेटा, मेरा मन अब यहाँ नहीं लगता। सोचती हूँ बनारस जाकर बाकी का जीवन पूजा-पाठ में लगाऊँ।”

”हाँ, तब तक तुम्हारे पिता की बरसी भी हो जाएगी। फिर तुम्हारा ब्याह करने के बाद ही हमेशा के लिए काशी प्रवास पर चली जाऊँगी।”

देवदास पहले काशी जाकर माँ के रहने का बन्दोबस्त कर आया, तत्पश्चात्‌ कलकत्ते के लिए रवाना हो गया। यहाँ आकर वह उसी मेस में ठहरा। दो-तीन जानने-सुनने वालों से चुन्नीलाल का पता लगाया, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी। शायद वह कहीं और रहने लगा होया यह भी हो सकता है कि उसने यह शहर ही, छोड दिया हो। एक दिन साँझ के वक़्त अचानक उसे चन्द्रमुखी की याद हो आयी। पहले तो उसने खुद पर क़ाबू किया, लेकिन फिर अपने आपको रोक न सका। ताँगे से जब वह चन्द्रमुखी के मकान पर उतरा तो रात घिराने को थी। मकान वही था, लेकिन उसकी रंगत उड़ी हुई थी। पहले तो उसे शक़ हुआ कि ग़लती से तांगा वाला उसे कहीं और तो नहीं छोड़ हुई थी! उसने दरवाज़े की कुंडी खड़काई। काफ़ी देर बाद भीतर से किसी स्त्री-स्वर ने पूछा, ”कौन?”

जवाब देने की जगह देवदास ने प्रति प्रश्न किया, ”चन्द्रमुखी हैं क्या?”

”नहीं, अब वो यहाँ नहीं रहतीं।”

दरवाज़े के पास अँधेरा थ। देवदास नीचे पटरी पर उतरा। गैस-बती का प्रकाश उसके चेहरे को रोशन करने लगा। पूछा, ”उनका पता-ठिकाना कुछ बता सकती हैं?”

खिड़की के खुलने की आवाज़। उस स्त्री ने खिड़की के अधखुले पल्ले से झाँका। थोड़ी देर बाद उसने पूछज्ञ, ”आप देवदास मुकर्जी तो नहीं?”

”हाँ, मैं ही हूँ देवदास। देवदास मुकर्जी।”

”आप भीतर आ जाइए।” कहकर उस स्त्री ने पल्ला बन्द कर दिया। थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला और देवदास झिझकते हुए भीतर पहॅुंचा। देवदास को उस स्त्री की आवाज़ कुछ जानी-पहचानी लग रही थी। उसने विधवाओं की तरह सफ़ेद घोती बाँध रखी थी। साज-सिंगार कुछ नहीं देवदास ने उससे पूछा, ”क्या तुम मुझे चन्द्रमुखी के बारे में कुछ बता  सकती हो?”

बदले में उस स्त्री ने कहा, ”आप ऊपर चलिए।”

ऊपर पहुँचकर जब उस स्त्री ने ढिबरी जलाई जो देवदास के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह और कोई नहीं, खुद चन्द्रमुखी थी। सफ़ेद धोती, जो उसने पहन रखी थी काफ़ी मैली हो चुकी थी। सिवाय हाथों के कंगन के और कोई जेवर नहीं बाल भी खुले-बिखरे से। देवदास को ख़ासा वक़्त लग गया अपने आपको संयोजित करने में।

”तुम तो चन्द्रमुखी हो!”

”हाँ जी मैं चन्द्रमुखी ही हूँ। आप तो जैसे मुझे भूल ही गये!”

”तुम कुछ दुबली लग रही हो। और ये क्या हाल बना रखा है अपना! बीमार थी क्या?”

चन्द्रमुखी को अच्छा लगा जो देवदास ने उसके दुबले होने का जिक्र किया। हँसते हुए बोली, ”चलिए आपको याद तो है कि मैं पहले कैसी थी और अब कैसी हो गयी हूँ। नहीं, मैं बीमार बिल्कुल नहीं आप आराम से बैठिए न।”

देवदास पलंग पर ठीक से बैठ गया। उसकी नज़रें कमरे का मुआयना करने लगीं। स्पष्ट था कि चन्द्रमुखी की माली हालत निहायत ही खस्ता हो चुकी थी। पलंग पर बिछी चादर भी मैली थी। कमरे में पलंग और एक पुरानी कुर्सी के अलावा कोई फर्नीचर नहीं था। खिड़की-दरवाज़े पर परदे नहीं थे। दीवारों पर टँगी तस्वीरें भी नदारद। यहाँ-वहाँ गड़ी रह गयीं कीलें हैं जिनके नीचे कभी टाँगी गयीं तस्वीरों के दाग़ भर मौजूद हैं। हाँ, दीवार-घड़ी वहीं टँगी है, लेकिन बन्द पड़ चुकी है। दीवारों के कोनों-ठिकोनों में मकड़ी के जाले लगे हुए हैं। सहसा चन्द्रमुखी ने टोका तो देवदास का ध्यान भंग हुआ, ”क्या देख रहे हैं?”

”ये सब कैसे हुआ चन्द्रमुखी? मुझे बताओं, आखिर छह महीनों मं ये क्या हो गया?”

”इसे तो बहुत पहले हो जाना था देव बाबू। मैंने नाहक ही देर कर दी।”

”तुम्हारे सारे जेवर क्या हुए?”

”सब बेच दिेय। मुझे अब इनकी कोई ज़रूरत नहीं रह गयी थी।”

”मेज़, अलमारी और यहाँ तक कि दीवारों की तस्वीरें भी बेच दीं?”

”हाँ। तस्वीरें पड़ोस की क्षेत्रमणि को दे दीं।”

”ओ! अच्छा बताओं तो, मेरे जाने के बाद क्या चुन्नी बाबू से तुम्हारी भेंट हुई?”

”दो महीने पहले आए थे। झगड़ा करके चले गये, फिर इस तरफ़ का रूख नहीं किया। अभी कहाँ क्या कर रहे हैं, इसकी कोई जानकारी नहीं”

देवदास को आश्चर्य हुआ कि चन्नीलाल ने चन्द्रमुखी से झगड़ा किया। पूछा, ”झगड़ा किस बात पर हुआ?”

”दलाली करने आए थे। मैंने उन्हें चलता कर देना चाहा तो बिफर पड़े।’

”दलाली? काहे की दलाली?”

”किसी मालदार सेठ को ले आए थे। सेठ मेरे रहने-खाने का बन्दोबस्त करने को तैयार था।”

”तो तुम्हारे रहने-खाने का यह बन्दोबस्त किया है सेठ ने?”

”अरे नहीं बाबा। आप तो कुछ समझते ही नहीं मैंने उन दोनों को फ़ौरन दफ़ा हो जाने को कह दिया। मुझे ऐसी किसी पेशकश से कोई मतलब नहीं।”

”लेकिन तुमने ऐसा किया ही क्यों?”

”बस ऐसे ही!” चन्द्रमुखी देवदास के सवालों से आजिज हो गयी। देवदास ने इसे भाँप लिया। वह चुप हो गया, लेकिन उसकी जिज्ञासा अभी पूरी तरह शमित नहीं हुई थी। चन्द्रमुखी ने यह तो बता दिया कि कैसे उसने सेठ और चुन्नीलाल को चलता कर दिया, लेकिन उसके बाद चन्द्रमुखी की यह हालत कैसे हो गयी, इस पर अभी परदा गिरा हुआ था। बहुत झिझकते हुए देवदास ने पूछा, ”तो क्या चन्द्रमुखी उस घटना के बाद से कोई नया ग्राहक तुम्हारे पास नहीं आया?”

”उस घटना के बाद से नहीं, बल्कि जिस दिन आप गये, उसी दिन के बाद से मैंने किसी को यहाँ फटकने नहीं दिया। चुन्नी बाबू आपके मित्र थे, सो उनको मनाही नहीं थी। लेकिन वे भी दस-पाँच मिनट से ज्यादा नहीं रूके कभी और जब से झगड़ा हुआ तब से तो ख़ैर उनका भी आना बन्द हो गया। अच्छा ही हुआ, मुझे भी उनका आना-जाना पसंद नहीं था।”

‘इसका मतलब तुमने धन्धा छोड दिया?”

चन्द्रमुखी हँसने लगी। परिहास के स्वर में बोली, ”हाँ आपने दिवालिया जो निकाल दिया है!”

”तो फिर तुम अपना गुज़र-बसर कैसे करती रहीं?”

”गहने-असबाब बेचने की बात तो पहले ही बता चुकी हूँ।”

”हाँ लेकिन ऐसे कब तक चलेगा? सबकुछ बेचेने के बाद जो पैसे मिले होंगे, उनमें से तो आधे खर्च भी हो गये होंगे अब तक।”

”ज्यादा नहीं बचा फिर भी आठ-नौ सौ तो हैं ही। पास के बनिये के यहाँ रख आयी हूँ। हर महीने वह बीस रूपये देता हैं काम चल जाता है।

देवदास के लिए यह एक और आश्चर्य था उसने चन्द्रमुखी की शाहखर्ची देखी थी, और वही चन्द्रमुखी बीस रूपये प्रतिमाह में अपना गुजर-बसर कर रही है। ”बीस रूपये मात्र में तुम्हारा काम चल जाता है चन्द्रमुखी?”

चन्द्रमुखी ने स्वीकार किया, ”हाँ, यह सच है कि मेरे पास जितने रूपये बचे हैं, वे नाकाफ़ी हैं। इस मकान का किराया भी पिछले तीन महीनों से बाक़ी है। सोचती हूँ कि हाथों में पड़े ये कंगन बेचकर जिसका जो बनता है चुका दूँ और कहीं और चली जाऊँ।”

”लेकिन जाओगी कहाँ?”

”कहीं भी, कोई-भी सस्ती जगह। किसी गाँव-देहात में जाकर बस जाऊँगी, जहाँ बीस रूपये में आसानी से गुज़र-बसर हो जाए।”

”जब यही सोच रखा है तो फिर इतने दिनों यहाँ क्यों पड़ी रहकर कष्ट भोगती रही?”

चन्द्रमुखी ने सिर गड़ा लिया। चुप हो गयी। क्या देवदास से वह आज सब कुछ बता दे? उसे चुप देखकर देवदास ने पूछा, ”चुप क्यों हो गयी चन्द्रमुखी? क्या बात है? बोलो।”

झिझकते हुए चन्द्रमुखी ने कहा, ”पहले आप वचन दीजिए कि मेरी बात का बुरा नहीं मानेंगे। दरअसल मैंने बहुत पहले ही सोच लिया था कि यहाँ से चली जाउँ। इतने दिन यहाँ रूके रहने का एकमात्र कारण आप थे। मन में था कि यहाँ से विदा लेने से पेशतर एक बार आपके दर्शन करती जाउं। अब आपसे मुलाकात हो गयी, कल ही चली जाउँगी। आप मुझे आशीर्वाद दें। कहती हुई चन्द्रमुखी देवदास के पैरों पर गिर गयी। देवदास ने मना किया कि वह उम्र में उससे बड़ी है, इसलिए उसका पैर छूना उचित नहीं, लेकिन चन्द्रमुखी नहीं मानी। अन्ततः देवदास को उसे आशीर्वाद देना ही पड़ा। उसे कन्धों से पकड़कर उठाते हुए देवदास ने पूछा, क्यों मिल के ही जाना चाहती हो, क्या कुछ कहना था मुझसे ?

कहना तो बहुत कुछ है आपसे लेकिन डरती हूँ कहीं आप बुरा न मान जाएं। मैंने आपका गुस्सा देखा है।

कह डालो जो कहना हो। आज मैं नशे में नहीं हूँ जो बेवजह तुम पर गुस्सा करूं।

चन्द्रमुखी वहीं फर्श पर बैठ गयीं थोड़ी देर चुप रही, यह सोचती हुई कि बात की शुरूआत कहाँ से हो। एक लम्बी साँस भरते हुए उसने कहना शुरू किया, सुनना ही चाहते हैं तो शुरू से सुनिये। मुझे आज भी याद है वह शाम जब चुन्नी बाबू केसाथ पहली बार आप यहाँ आए थे। उस दिन मैं दरवाज़े पर ही खड़ी थी, जबकि आम तौर पर मैं वहाँ खड़े होने से बचती हूँ। तो क्या मुझे पहले से पता था कि आज कोई ऐसा आने वाला है जो एक बार आएगा फिर कभी भी न जाएगा। बहरहाल, आप आए और मुझे अपमानित करके चले गए। जाते-जाते मेरे मुँह पर रूपये फेंक गये।

देवदास को भी याद थी वह शाम, बल्कि अपने रूक्ष व्यवहार को लेकर आज वह शर्मिन्दा महसूस कर रहा था। उसने चन्द्रमुखी को टोका, मुझे अपने व्यवहार के लिए पछतावा है, मुझे वैसा नहीं करना चाहिए था।

चन्द्रमुखी हंसने लगी। बोली, आप पहले ऐसे शख्स थे जिन्होंने मेरी तरफ़  पलटकर भी न देखा। जिन्होंने मुझसे इतनी नफ़रत की। सब जानते हैं मैं वेश्या हूँ, सब इसी गरज से आते भी हैं। लेकिन उनमें से कोई न था जो मेरे मुँह पर मुझे वेश्या कहकर दुत्कारता। सब मुझसे प्यार करने का दम भरते थे, आपने अपनी नफ़रत को मुझ पर जाहिर किया। पता नहीं आपको याद भी है कि नहीं कि नशे की झोंक में आपने मुझे क्या-क्या कहा है।

देवदास चुपचाप सुनता रहा। चन्द्रमुखी उसी रौ में कहती जा रही थी, सच कहने में लाज आती है, लेकिन उस दिन जाते जाते जब आपने मुझे रूपये पकड़ाए, आपकी वह अदा सीधे मेरे दिल में उतर गयी। इसी कारण मैंने चुप्पी बाबू से विनती की कि वे आपको लेकर दुबारा यहाँ आएं। नहीं, मैं आपसे प्यार नहीं करती थी, न ही नफ़रत ही। लेकिन जब आपका मेरे पास होना मुझे अमीर बना देता। आप यहाँ आते, शराब पीते, जाने क्या कुछ बकते, मुझे बुरा नहीं लगता, लेकिन आपको कष्ट में पड़ा देख मुझे भी कष्ट होता। फिर मुझे लगा कि आप मुझसे इसी कारण तो नफ़रत करते हैं न कि मैं एक वेश्या हूँ। तो क्यों न मैं यह धन्धा ही छोड़ दूं।

इसके बाद दोनों ही तरफ़  देर तक सन्नाटा खिंचा रहा। देवदास जाने क्या सोच रहा था तभी उसके कानों में सिसकियों की आवाज़ आयी। देखा, चन्द्रमुखी रो रही थी। रोते-रोते कह रही थी, देव बाबू मैं जानती हूँ कि मैं कितनी गिरी हुई औरत हूँ और मेरे मुँह से आपके लिये ये सारी बातें शोभा नहीं देती। लेकिन मैंने यह सब कुछ कह देने का साहस भी आप ही से पाया है। वाकई आपके प्रति मेरे मन में एक न समझ में आने वाली भावना है। आप मुझे जितना ही अपने से दूर करना चाहते, मैं उतना ही आपके पास खिंची चली आयी। मुझे माफ़ कर दीजिएगा देव बाबू।

देवदास चुपचाप बैठा चन्द्रमुखी की बातें सुन रहा था। पता नहीं उसे यह सब कुछ सुनना अच्छा लग रहा था या नहीं। चन्द्रमुखी न जाने कितने दिनों से जमे भार को आज उतार रही थी और वह इसमें बाधक नहीं बनना चाहता था। चन्द्रमुखी अब भी कहे जा रही थी आपको पता नहीं याद है कि नहीं,एक दिन आपने कहा था कि हमारे जैसी स्त्रियों को न जाने कितना कुछ सहन करना पड़ता है। हमें हर प्रकार से लांछित, प्रताड़ित और अपमानित लज्जित किया जाता है। लेकिन हम चुप रहती हैं, आपके इस कहने ने मुझमें कितना कुछ तोड़फोड़ कर डाला, खुद आपको इसका अनुमान नहीं सबसे पहले उसी दिन इस धन्धे को छोड़ देने का ख्याल मेरे मन में आया।

लेकिन जब कुछ करोगी नहीं तो फिर तुम्हारा जीवन कैसे चलेगा चन्द्रमुखी?

ये तो मैं आपको पहले ही बता चुकी हूँ देव बाबू।

लेकिन ईश्वर न करे जो वह बनिया बेईमान हो जाए। मेरा मतलब है कि रूपये पैसे का मामला है, किसी की भी मति बदलने में कितनी देर लगती है।

चन्द्रमुखी ने बिना किसी घबराहट के एकदम शान्त सहज लहजे में कहा, मैंने पहले ही इस बाबत सोच रखा है। अगर ऐसा हुआ तो मुझे आपके आगे हाथ फैलाना होगा।

हाँ, ठीक है। मेरे पास ही आना। और किसी से माँगने मत जाना।

देवदास को अच्छा लगा चन्द्रमुखी उस पर इतना अधिकार देखती है। पूछा, यहाँ से कब जाने की बात सोच रही हो।

कल ही इस बारे में सोचूंगी।

देवदास ने सौ सौ के पांच नोट निकाले और उन्हें तकिये के नीचे रखकर कहा, चन्द्रमुखी, तुम्हें अपने कंगन बेचने की कोई जरूरत नहीं। हाँ, उस बनिये से एक बार जरूर मिल लो। अच्छा, ये तो पूछने से रह गया कि तुम जाना कहाँ चाहती हो, किसी तीर्थ स्थान में जाकर बसने का विचार है ?

नहीं, पूजा पाठ की तरफ़ मेरा कोई झुकाव नहीं है। कलकते से अधिक दूर भी नहीं जाना चाहती। यहीं कहीं हुगली या बर्दवान[iii] (कलकते के निकटवर्ती बंगाल के दो जिले – अनु.) के किसी गाँव में जाकर बस जाउंगी।

देवदास ने थोड़ा झिझकते हुए पूछा, क्या किसी परिवार में नौकरी करने का विचार है?

यह सब क्या मुझसे हो सकेगा। अब तक किसी की चाकरी न कर सकी तो अब क्या करूंगी।

बातचीत काफ़ी बोझिल हो चली थी। देवदास ने माहौल को हल्का बनाने की गरज़ से मज़ाक किया, सोच लो, कलकाते के इतना निकट रहोगी तो मन हमेशा इधर को ही खिंचता रहेगा।

चन्द्रमुखी पर इस मज़ाक का अच्छा असर हुआ, वह हँस पड़ी। बोली, आदमी का मन तो हमेशा से ही चंचल रहा है। फिर मैं तो स्त्री हूँ, स्त्रियों के बारे में आप लोगों ने कहावत ही बना दी है कि उनका मन अतिचंचल होता है। लेकिन मैंने यहाँ काफी समय बिताया है। सच पूछिये तो दुनिया का हर सुख भोग चुकी हूँ। मन भर चुका इन सबसे। मैं वाकई यह सब छोड़ना चाहती हूँ। यह थोड़े ही है कि मैं किसी भावावेश में आकर यह सब कर रही हूँ। मैंने काफी सोच विचार के देख लिया है। आपको बताउं कि इस तरह का सादगीपूर्ण जीवन जीते हुए आज छह महीने हो चले हैं, लेकिन एक बार भी मेरे मन में पछतावे जैसी कोई चीज़ नहीं आयी।

देवदास चन्द्रमुखी के चेहरे पर फैले तोष और तप के तेज को बहुत देर तक निहारता रहा। चन्द्रमुखी भी चुप हो गयी। पहली बार देवदास उसे इतनी देर तक देख रहा है। पहले पहल थोड़ी झेंप के बाद चन्द्रमुखी ने भी देवदास को सीधे देखना शुरू किया। ऐसा होते अभी कुछ ही पल बीते होंगे कि चन्द्रमुखी ने आज पहली बार अपने पेट में, नाभि के पास एक अजीब हलचल को महसूस किया। दिल की धड़कनें बढ़ गयी। देवदास ने नजरें हटा ली। चन्द्रमुखी उसके एकदम पास आ गयी। उसके दोनों हाथों को जब चन्द्रमुखी ने पकड़ा तो देवदास अपने आपको न छूने की ताकीद न कर सका। चन्द्रमुखी ने कहा, देव बाबू, एक बात पूछूं ?

पूछो।

”क्या पार्वती ने आपको बहुत कष्ट पहुँचाया है?”

देवदास असंयत हो चला, पूछा, ‘यह सब क्यों जानना चाहती हो चन्द्रमुखी?”

”इसलिए कि आपका दुख अब सिर्फ़ आपका नहीं रहा। वह मेरा भी उतना ही है। किसी बात से आपको जितनी तकलीफ़ पहुँचती है, इस कारण मुझे भी उतनी ही। मैं आपको आपसे ज्यादा जानने लगी हूँ। नशे की हालत में आपने मुझसे न जाने क्या-क्या साझा किया है। ….मैं यह सवाल इसलिए पूछ रही हूँ देव बाबू कि मुझे नहीं लगता पार्वती ने आपको धोखा दिया है। बल्कि आपको धोखा देने वाले एकमात्र आप खुद हैं। क्यों गलत कह रही हूँ? मुझे माफ़ कीजिएगा, अगर मेरी बात का आपको बुरा लगा हो तो!… देखिए देव बाबू, मैं न सिर्फ़ आपसे उम्र में बड़ी हूँ, बल्कि दुनिया जितने नज़दीक से मैंने देखी है, शायद आपने नहीं। न जाने कैसे-कैसे लोगों और कैसी-कैसी स्थितियों से मेरा साबका पड़ा है। मैं, अपने तमाम अनुभवों की रोशनी में अधिकारपूर्वक कह सकती हूँ कि आपने ही अपने आपको छला है, पार्वती ने नहीं।….अभी थोड़ी देर पहले मैंने कहा भी था कि आप मर्दों ने हम स्त्रियों के लिए एक मुहावरा गढ़ रखा है कि हमारा मन चंचल होता है। नदी की चंचलता तो ऊपर-ऊपर दिख जाती है, लेकिन उसकी गहराई का अन्दाजा किनारे बैठा आदमी कतई नहीं लगा सकता देव बाबू। यह समाज आप मर्दों का है, जिसे जिस रंग में कहा, रँग दिया। आपकी बातें ही सुनी जाएँगी, मैंने भी श्री देवदास मुकर्जी की बातें ही सुनीं। वह पार्वती किससे कहने जाएँगी अपनी बात? कौन सुनेगा?”

चन्द्रमुखी की साँसें चढ़ने लगीं। वह वाकई बहुत कमजोर हो चली है। देवदास ने उसे अपने पास बिठाकर आराम कर लेने को कहा। चन्द्रमुखी चुपचाप बैठी रही। थोड़ी देर कमरे में सन्नाटा पसरा रहा। फिर बहुत धीमें, जैसे वह खुद से ही बातें कर रही हो, चन्द्रमुखी की आवाज़ आयी। वह कह रही थी,”देव बाबू, आज एक स्वीकारोक्ति करती हूँ। मैंने जीवन में प्रेम का नाटक न जाने कइयों से किया है और न जाने कितनी बार। लेकिन सच्चा प्रेम सिर्फ एक बार किया है, और मुझे खुशी है सच्चे प्यार का दम भरने वाले लोगों से कहीं ज्यादा इसे समझ सकी हूँ। कुछ लोग किसी की सुन्दरता के प्रति अपने आकर्षण को ही भूलवश प्रेम मान बैठते है। और यह अक्सर पुरूषों में ज्यादा होता है। जबकि स्त्रियाँ रूप-सौंदर्य के प्रति अपेक्षाकृत कम आकर्षित होती हैं। पुरूष अपने हाव-भाव, चेष्टाओं, बातचीत से अपने प्रेम का जतला देते हैं, लेकिन स्त्रियाँ अक्सर इस मामले में चुप्पी साधे रहती हैं। स्त्रियाँ प्रायः तब भी चुप रहती हैं जब उन्हें लगे कि उनके कहने से सामने वाले को दुख पहुँचेगा। इसलिए जिस आदमी का चेहरा देखना भी उन्हें नहीं पसन्द, वे उसे भी साफ़-साफ़ नहीं कहतीं। पुरूष समझता है कि उसका साथ उस स्त्री को पसन्द है, और यहीं से गलतफ़हमी शुरू होती है। और जब एक दिन स्त्री किसी उपाय से पुरूष को जतला देती है कि वह उससे प्यार नहीं करती, तो वह बौखला जाता है। स्त्री पर तमाम तोहमतें मढ़ने लगता है। दूसरे पुरूष भी उसी का कहा सच मान लेते हैं। कोई नहीं जान पाता कि बेचारी उस स्त्री पर क्या बीत रही है!”

चन्द्रमुखी किसी विदुषी की तरह सिलसिलेवार ढग से अपनी बातें रख रही थी। देवदास उसकी प्रतिभा से दंग था। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि चन्द्रमुखी इतनी सुलझी हुई और गहरी सोच रखने वाली है। इधर चन्द्रमुखी पर जैसे कोई दौरा चल पड़ा हो। उसका कहना अभी भी शेष था। वह पल भर को चुप होती, फिर कहना शुरू कर देती। वह कह रही थी, ”जानते हैं देव बाबू, कई पुरूषों का दुख देखकर स्त्रियाँ पिघल जाती हैं। उनके मन में ममता उत्पन्न हो जाती है। और विडम्बना है कि इसे भी प्रेम ही समझ लिया जाता है। स्त्रियाँ पुरूषों की सेवा में अपना सर्वस्व अर्पित कर देती हैं, सिर्फ इसलिए कि उन्होंने सामने वाले को जो दुख दिया है वह दूर हो सके। पुरूष स्त्रियों की इस वृत्ति की प्रशंसा करते नहीं अघाते। त्याग, तप और जाने क्या-क्या की देवी भी घोषित कर देते हैं। लेकिन काश वे जान सकें कि इसके पीछे यह कतई नहीं कि वह स्त्री प्रेम में यह सबकुछ कर रही है।” वह फिर से हाँफने लगी। देवदास ने उसे चुप कराना चाहा तो वह हँसकर बोली, ”आप गलत न समझें, मैं यह सब आपके और पार्वती के सन्दर्भ में नहीं कह रही। मैं तो एक आम बात कह रही हूँ।” थोड़ी देर बाद उसने फिर कहा, ”लेकिन मैं अब भी कहती हूँ कि पार्वती ने आपको धोखा नहीं दिया होगा। देव बाबू, आप अपने दुखों का कारण उसे न समझिए। यह बीमारी खुद आप ही के भीतर है। इसका इलाज़ आपको खुद करना होगा। आज भले आप मेरी बात न मानें, लेकिन एक समय आएगा जब आपको खुद-ब-खुद इसका अहसास होगा। लेकिन तब तक देर न हो जाए, मुझे इसी बात की आशंका है, सो मैं कहे दे रही हूँ। मेरी बात से आपको कष्ट पहुँचा हो तो माफ़ कर दीजिएगा।”

जाने क्या बात थी जो देवदास रो पड़ा। लेकिन चन्द्रमुखी ने न तो उसके आँसू पोंछे और न ही उसे रोन से मना किया। दरअसल कहीं-न-कहीं देवदास को भी इस सचाई का अहसास था, लेकिन वह मन के किसी अँधेरे कोने में दबा पड़ा था। आज चन्द्रमुखी ने उसे गहराई से निकालकर देवदास की आँखों के सामने ला खड़ा किया। चन्द्रमुखी उसे रोता हुआ देख रही थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे ढाँढस कैसे बँधाया जाए! अन्ततः उसने कुछ मुलायम और सहलाने वाले शब्दों का प्रयोग ही श्रेयस्कर समझा। बोली, ”देव बाबू, मैंने आपको कई बार कई रूपों में देखा है। मैं अच्छी तरह जानती हूँ आप दूसरे पुरूषों की तरह नहीं। किसी भी मामले में नहीं, तो प्रेम करने के मामले में कैसे आप दूसरे ओछे लोगों की तरह सिर्फ़ रूपसौन्दर्य के पीछे भागने वाले होते। पार्वती निश्चित रूप से बहुत सुन्दर होगी, फिर भी मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि आपने सिर्फ़ उसका रूप देखकर ही प्रेम नहीं किया होगा। पहल भी आपने नहीं, पार्वती ने ही की होगी। मैं अपने अनुभव से कह सकती हूँ कि आपसे दूर होकर भी वह आपको अब भी उतना ही प्यार करती होगी।”

”नहीं, वह अपने घर-परिवार में बहुत सुखी है।”

”यह तो एकदम दूसरी बात है। निश्चित रूप से सुखी रहे, बल्कि आप भी यही चाहते होंगे कि वह सुखी रहे; लेकिन मैं कोई और ही बात कह रही थी। ……आप मेरी ही उदाहरण लीजिए न! माना कि आप भी रूपवान हैं, लेकिन मैं आपके तेज से आपकी दीवानी बनीं। वाकई आपके तेज को कोई स्त्री एक बार भर नज़र देख ले तो वह आमरण आपको भूल न सकेगी। फिर पार्वती कैसे भूल सकी होगी!”

देवदास अब तक अपने आँसू पोंछ चुका था। चन्द्रमुखी को रोकते हुए कहा, ”आज तुम ये कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो! क्या हो गया है तुम्हें!”

चन्द्रमुखी उसकी अकुलाहट देखकर खुद को हँसने से न रोक सकी। बोली, ”जो आदमी प्यार न करता हो उसे अपने प्यार की बात कहना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। लेकिन मै यहाँ अपनी नहीं, पार्वती की बात कर रही हूँ तो मुझे थोड़ी तो छूट मिलनी ही चाहिए न देव बाबू!”

”मुझे आए बहुत देर हो चुकी चन्द्रमुखी। अब चलना चाहिए।” देवदास उठ खड़ा हुआ।

उसे इस तरह चलने को उद्धत देख सहसा चन्द्रमुखी मिन्नतदारी पर उतर आयी। बोली, ”थोड़ी देर और रूक जाइए। आज मैंने पहली बार होशो हवास में देखा है। आज पहली बार आपको मैंने आपके जानते छुआ है। आपको पता नहीं आपके दोनों हाथों को अपने हाथों में लेते हुए मुझे जाने कितने सालों बाद असीम सुख मिला है।” यह कहते हुए वह हँस पड़ी। उसे इस तरह हँसता देख देवदास चौंक गया। उससे हँसने का कारण पूछा तो वह बोली, ”कुछ नहीं, बस यों ही एक बात याद आ गयी थी।……दस साल पहले पड़ोस के एक लड़के के प्रेम में फँसकर मैं घर से भाग आयी थी। मैं समझती थी कि मेरा प्रेमी मुझसे इतना अधिक प्यार करता है कि मेरे लिए अपनी जान तक दे सकता है। लेकिन एक दिन एक छोटे से गहने को लेकर हम दोनों में इतना अधिक झगड़ा हुआ कि वह जो घर से निकला तो लौटा ही नहीं। मन को समझाने के लिए मैंने यह मान लिया कि वह मुझसे प्यार करता ही नहीं था वरना एक छोटे से गहने के लिए मुझे छोड़कर क्यों चला जाता!” चन्द्रमुखी फिर से हँसने लगी। बोली, ”बताइए न देव बाबू, उस समय मेरी उम्र ही क्या थी। यही कोई चौदह-पन्द्रह साल। कहाँ समझती थी दुनियादारी तब, न सीता-सावित्री का ही आदर्श मेरे सामने था। वरना मैं ही क्यों झगड़ पड़ती!”

देवदास ने फिर से कहा, ”चन्द्रमुखी मैं चलता हूँ।”

अचानक चन्द्रमुखी उग्र हो गयी, ”ऐसी भी क्या जल्दी है! और कौन-सा डर है जो आपसे थोड़ी-थोड़ी देर में जाने को कहलाता है।” फिर मद्धम पड़कर समझाइश के स्वर में बोली, ”देखिए देव बाबू, जितनी नफ़रत आप मुझसे करते हैं, मैं भी उतनी ही अपने आप से करने लगी हूँ। इसलिए मुझसे डरने की कोई बात नहीं। थोड़ी देर और बैठिए।”

देवदास बैठ गया तो चन्द्रमुखी ने पूछा कि वह विवाह क्यों नहीं कर लेता। देवदास हँसने लगा। बोला, करना तो चाहता हूँ चन्द्रमुखी, लेकिन मन ही नहीं मानता।”

”मन को मनाते क्यों नहीं?” चन्द्रमुखी भी परिहास के ही स्वर में बोली, ”अपना घर हो, अपना परिवार हो, तो आदमी को असीम सुख-शान्ति मिलती है। इसके अलावा इसमें मेरा भी एक स्वार्थ है। जब आप विवाह कर लें तो मुझे अपने घर में रख लें। आपकी, आपकी पत्नी और बच्चों की सेवा करूँगी और मज़े से रहूँगी।”

सुनकर देवदास हँसने से खुद को रोक न पाया। बोला, ”ठीक है, जब ब्याह कर लूँगा तो तुम्हें बुलवा भेजुँगा।” वह देर तक हँसता रहा। चन्द्रमुखी सिर नीचे झुकाए कुछ सोचने में लग गयी थी। बोली, ”आपसे एक और बात पूछने का मन कर रहा है।”

”क्या पूछना चाहती  हो?”

”यही कि आज इतनी देर तक आप मुझसे बातें करने को राजी कैसे हो गए?”

”तो क्या मैंने कोई गलती कर दी?”

”मेरे कहने का यह मतलब नहीं था। मुझे तो बहुत अच्छा लग रहा है। मेरे लिए यह एकदम नया अनुभव है कि पहली बार बिना शराब की मध्यस्थता के न सिर्फ आपने मेरा मुँह देखा, मुझसे इतनी सारी बातें भी की।”

देवदास गम्भीर हो गया। बोला, ”मेरे पिताजी की मृत्यु हो गयी है चन्द्रमुखी। इस कारण अभी शराब नहीं पी सकता।”

”तो फिर अब आप कभी पिएँगे भी नहीं -यह तय रहा।”

”हमेशा के लिए तो कुछ भी तय नहीं किया जा सकता चन्द्रमुखी।”

चन्द्रमुखी ने फिर से देवदास के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले लिया, बोली, ”अपने आपको बरबादी के रास्ते न ढकेलने के लिए आपको शराब छोड़ना ही पड़ेगा देव बाबू!”

देवदास ने एक फीकी हँसी दी। उठ खड़ा हुआ, बोला, ”अब मुझे वाकई बहुत देर हो गई है चन्द्रमुखी। मुझे निकलना चाहिए अब।….. और सुनो, जहाँ कहीं जाना मुझे सूचित अवश्य कर देना। एक बात और, जरूरत पड़ने पर निःसंकोच मुझे बताना।”

चन्द्रमुखी ने देवदास के पैर छुए। बोली, ”मेरी भी एक विनती है कि जब कभी आपको मेरी सेवा की जरूरत पड़े, आप भी मुझे बताइएगा।”

देवदास ‘अच्छा’ कहकर चला गया। चन्द्रमुखी दुबारा उससे मिल सके, मन-ही-मन यह प्रार्थना करने लगी।

इलाहबाद आकर देवदास ने चन्द्रमुखी को एक लम्बी चिट्ठी लिखी जिसमें कुछ इसी तरह के भाव थे कि मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे दुबारे से प्रेम हो जाएगा, कि प्रेम में मनुष्य को सिवाए दुखों के और कुछ नहीं मिलता, कि किसी को अपना बनाने की ख्वाहिश पालना दुनिया का सबसे बड़ा मजाक है-आदि-आदि। इस पत्र को पाकर चन्द्रमुखी ने क्या क्या सोचा, उसने क्या कुछ लिखा, इसके विस्तार में जाने की कोई जरूरत नहीं। पत्र में देवदास का अन्तर्द्वन्द्व साफ़ स्पष्ट होकर उभरा था। वह कभी चन्द्रमुखी का सामीप्य पाने की कामना करता अगले ही पल चेत जाता, उसे यह सब अनुचित प्रतीत होने लगा। उसे सर्वाधिक दिक्कत इस बात से थी कि यदि चन्द्रमुखी के साथ उसके रिश्ते की भनक पारो को लग गयी तो वह क्या सोचेगी। इस प्रकार उसके मन में कभी पारो तो कभी चन्द्रमुखी समायी होती। दोनों ने एक दूसरे को कभी नहीं देखा था, लेकिन जब कभी वे देवदास के मानस पटल पर एक साथ नमूदार होती उसे लगता दोनों के बीच बहनापा हो गया है। वह अक्सर उन दोनों की एक साथ कल्पना किया करता।

कुछ दिन बीते तो उसका मन इलाहाबद से भी उचट गया धर्मदास के साथ वह लाहौर के लिए रवाना हो गया। यहाँ एक सुखद आश्चर्य उसके हाथ लगा। चुन्नीलाल लाहौर में ही निकला। दोनों दोस्त ने गलबहिया कर पुराने दिनों को याद किया जिस बात का डर था, आखिर वही हुआ। चुन्नीलाल के मिलने के बाद दोनों दोस्तों ने फिर से शराबनोशी शुरू कर दी। हाँ, यह जरूर था कि इस बार देवदास  ने पहले की तरह बेतहाशा शराब नहीं लिया, हद से हद दो प्याली के बाद ही थम जाता। चन्द्रमुखी याद आती, उसके द्वारा शराब न पीने की हिदायत भी याद आती, लेकिन ज्यों ही चुन्नीलाल आता उसके सारे संकल्प एकबारगी भहरा जाते।

लाहोर की आबोहवा देवदास को रास नहीं आ रही थी। शराबनोशी के कारण जिगर में फिर से दर्द शुरू हो गया था। धर्मदास ने जब उससे कहीं और चलने की गुजारिश की तो वह तुरन्त मान गया। तय हुआ कि जितनी जल्द हो सके, यहाँ से कहीं और के लिए रवाना हो जाया जाए। लेकिन इस बीच एक दिन देवदास चुन्नीलाल के साथ जो निकला तो दो दिन तक लौटा ही नहीं। पराया शहर, न जाने किस हाल में होगा वह यह सब सोचकर धर्मदास चिन्तित हो गया। तीसरे दिन जब वह लौटा तो उसे बुखार में पड़ा देखकर धर्मदास की चिन्ताएं और भी बढ़ गयीं। उसकने दोड़धूप कर करके दो तीन डॉक्टरों को बुलाया। दवाएँ चलने लगी। बुखार उतरने के बाद जब धर्मदास ने सुझाया कि न हो तो उन्हें बनारस जाना चाहिए। ताकि माँ के दर्शन हो सकें। देवदास ने उसकी बात को अधबीच में ही काट दिया। बोला, माँ मुझे इस रूप में देखेगी तो क्या सोचेंगी। कहीं और चला जाए।

देवा भला अपनी माँ से क्या छिपाना।

थोड़ा और स्वस्थ हो लूं फिर माँ के पास जाउंगा।

धर्मदास ने सोचा कि न हो तो देवदास को चन्द्रमुखी के पास ही ले जाए। लेकिन पता नहीं क्यों वह चन्द्रमुखी से बहुत नफ़रत करता था सोचा कि खुद तो कभी उसके पास जाने की सलाह नहीं दूंगा लेकिन अगर देवदास जाना चाहे तो रोकूंगा भी नहीं।

देवदास को भी चन्द्रमुखी का ख्याल आया, लेकिन वह धर्मदास से उसके बारे में कोई बात नहीं करता था। इसलिए उसे बुलाने या उसके पास जाने का ख़याल सिर्फ़ ख़याल भर बनकर रह गया। कुछ दिनों बाद जब देवदास की तबीयत में थोड़ा और सुधार हुआ तो उसने धर्मदास से कहीं और चलने की बात की। धर्मदास पराये शहरों में रहते रहते ऊब चुका था। बोला देवा अब और इधर उधर भटकने से क्या मिलेगा। या तो तालसोनापुर लौट चलो, या फिर माँ को पास बनारस ही चले चलो।

लेकिन देवदास फिर इलाहाबाद के लिए रवाना हुआ। चुन्नीलाल उसे छोड़ने स्टेशन तक आया। इलाहाबाद में उसका स्वास्थ्य थोड़ा और सम्भला। उसने धर्मदास को बुलाकर कहीं और चलने के लिए कहा। देवदास की इच्छानुसार दोनों बम्बई आ गये। बम्बई की आबोहवा बहुत कुछ कलकते जैसी ही समशीतोष्ण थी। यहाँ का मौसम देवदास को रास आ गया और उसके स्वास्थ्य पर इसका धनात्मक असर हुआ।

एक दिन धर्मदास ने देव का मूड अच्छा देखकर कहा कि अब कोई परेशानी न हो तो माँ से मिलने बनारस चला जाए। देवदास ने साफ़ मना कर दिया। बोला यहाँ की जलवायु बहुत अच्छी है अभी कुछ दिन और रहना चाहता हूँ। इस प्रकार देवदास को बम्बई में रहते लगभग एक साल हो गया।

फिर एक दिन अचानक देवदास की तबीयत बिगड़ी और उसे अंग्रेजी अस्पताल में भरती कराना पड़ा। कुछ दिन अस्पताल में रहने पर के बाद जब देवदास बाहर आया तो अबकी धर्मदास ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा कि वह बनारस लौट चले, लेकिन देवदास यही सोचा करता था कि कहने को तो इस दुनिया में सभी अपने हैं कितने सगे हैं – माँ है, भाई-भाभी है, पार्वती और चन्द्रमुखी भी हैं, लेकिन देखा जाए तो कोई भी अपना नहीं। देवदास कहीं और जाना चाहता था वह हमेशा हमेशा भागते रहना चाहता था।

जहाँ उसकी तबीयत की बात है तो दिन प्रतिदिन उसकी हालत खराब होती जा रही थी। जिगर का आकार बढ़ गया था और तिल्ली की भी शिकायत थी। हमेशा बुखार और खांसी। देवदास का रंग काला स्याह पड़ चुका था। शरीर भी पूरी तरह गल कर ठठरी भर रह गया था। उंगलियों पर दाग और चितियां घिनौनी शक्ल अख्तियार कर चुकी थीं।

धर्मदास ने प्लेटफार्म पर सामान रखते हुए पूछा कहाँ की टिकट लूं देवा ?

घर ही चलो।

धर्मदास ने खुशी खुशी हुगली की टिकट कटाई और दोनों रेल में सवार हो गए। शाम होते-होते देवदास की हालत खराब होने लगी। उसने धर्मदास से कहा, लगता है घर नहीं पहुँच सकूंगा। सुनकर धर्मदास रोने लगा। जब रेल बनारस से गुजर रही थी देवदास बेहोश पड़ा था। मुगलसराय में जब उसकी आँखे खुली तो धर्मदास ने पूछा क्या पटना उतरकर किसी डॉक्टर से कोई दवा ले ली जाए ? लेकिन देवदास ने मना कर दिया।

भोर होते न होते जब देवदास की आँखे खुलीं, रेल पांडुआ स्टेशन पर लगी थी। धर्मदास वहीं फर्श पर सो गया था। देवदास ने एक बार उसके माथे से हाथ लगाया, लेकिन उसे जगाया नहीं। चादर लपेटी और चुपके से रेल से उतर गया। स्टेशन परिसर के बाहर दो तीन गाड़ीवाले ऊँघ रहे थे। देवदास ने उन्हें जगाकर हाथीपोता ले चलने को कहा। बारिश हुई थी और हाथीपोता तक ले जाने वाला रास्ता खराब हो चुका था सो कोई गाड़ीवाला वहाँ तक जाने को तैयार न हुआ। कोई पालकी भी न मिली तो देवदास निराश हो गया। एक गाड़ीवाले ने पूछा, जाना बहुत जरूरी हो तो कहिए किसी बैलगाड़ी वाले से बात करूं।

क्यों भाई, बैलगाड़ी को वहाँ तक पहुँचने में कितना वक्त लगता है अमूमन?

बाबू ठीक ठाक बता नहीं सकता। रास्ता बहुत ही खराब है। दो दिन से कम क्या लगेगें।

देवदास मन ही मन सोचने लगा कि क्या दो दिन तक वह बच भी सकेगा। लेकिन जो हो, पार्वती को उसने वचन दिया था कि चाहे जैसे हो, मरने से पहले वह एक बार उसके पास जाएगा, इस आड़े वक्त पारो से जुड़े न जाने, कितने अच्छे बुरे प्रसंग उसकी आँखों के आगे से गुजरने लगे। हाँ, जब तक जीवित है तब तक तो कोशिश कर सकता है। दो दिनों तक जिन्दा रहेगा या नहीं बाद का प्रश्न है।

जब देवदास बैलगाड़ी पर सवार हो रहा था, उसे माँ की याद हो आई। चन्द्रमुखी का चेहरा भी एक पल के लिए आँखों के सामने तैर गया। कुलटा और कलंकिनी समझे जाने वाली चन्द्रमुखी आज देवदास के लिए पवित्र बन चुकी थी अपनी माँ के साथ उसे याद करना देवदास को ज़रा भी गलत न लगा। देवदास यह सोचकर भावुक हो गया था कि अब इस जन्म में दुबारे से उसकी मुलाकात न माँ से हो सकेगी और न ही चन्द्रमुखी से। दोनों को तो एक अरसे तक उसके मरने की खबर ही न मिल सकेगी। पारो या अन्य किसी स्त्रोत से माँ को खबर हो भी जाय चन्द्रमुखी को तो इसकी भी सुविधा नहीं।

बरसात ने रास्ते को कीचड़ पानी से भरकर दुर्गम बना दिया था, बैलगाड़ी बहुत धीरे धीरे चल पा रही थीं। कहाँ कहाँ जब पहिया किसी गड्ढे में जा फंसता तो गाड़ीवान को उतरकर उसे निकालना, धक्का लगाना पड़ता। सोलह कोस का यह सफर, प्रतीत होता था कि कभी न पूरा होगा। साँझ के समय जब हवा चलने लगी तो देवदास की हालत बिगड़ने लगी। वह कांपने लगा। पूछा, क्यों भाई अभी कितना रास्ता और बाकी है?

बाबूजी, अभी सुबह ही तो आप चले हैं, अभी तो आधा रास्ता भी पूरा नहीं हुआ।

मेरे पास वक्त बहुत कम है, जितनी जल्दी हो सके ले चलो भाई। मैं तुम्हें बख्शीश में मोटी रकम दूंगा।

रात होने के साथ ही देवदास बेदम होकर गिर पड़ा। रात कब बीती, उसे पता न चला। तड़के जब आँख खुली तो गाड़ीवान से पूछा, अभी और कितना चलना बाकी है।

छह कोस रह गये हैं बाबूजी।

भाई थोड़ा और तेज चलाओ। मेरे पास समय बहुत कम है।

गाड़ीवान कुछ समझ नहीं सका। फिर भी बैलों को टिटकारी मार कर प्रेरित करने लगा कि वे जल्दी चलें। देवदास की तबीयत और से और खराब होती जा रही थी। दोपहर हुई तो गाड़ीवाले ने गाड़ी रोककर बैलों का सानी पानी किया और खुद भी रोटी खाने बैठ गया। देवदास ने पूछा, बाबूजी, आप भी थोड़ा खा-पी लें।

भूख नहीं है। हाँ, प्यास लगी है। थोड़ा पानी पिला दो।

गाड़ीवान ने नजदीक के ताल से लाकर देवदास को पानी पिलाया। खा पीकर फिर से हाँकना शुरू किया। शाम होते ही देवदास की नाक से खून रिसने लगा। बूंद बूंद टपकते खून को रोकने की गरज़ से देवदास ने अपनी नाक दबा ली तो साँस लेने में दिक्कत होने लगी। मुँह खोलकर साँस लेना शुरू किया तो दाँतों के पास से खून रिसने लगा। घबराकर गाड़ीवान से पूछा, भाई और अभी कितना रास्ता तय करना बाकी है ?

बस पहुँच ही गये समझिए। दो कोस रह गये हैं। नौ दस बजे पहुँच ही जाएगें।

देवदास ने मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की कि बस इतनी देर और रूक जाओ। गाड़ीवान से कहा, हो सके तो थोड़ा और तेज चलाओ, नहीं तो बहुत देर हो जाएगी।

बाबूजी, आप ऐसे क्यों कह रहे है?

देवदास भला इस सवाल का क्या जवाब देता। गाड़ी चलती रही, लेकिन जहाँ रात के दस बजे पहुँचने की बात थी वहाँ बारह बजे के आसपास पहुँची। भुवन चौधरी के घर के आगे पीपल का एक पेड़ था, जिसके चारों ओर गोलाई में एक पक्का चबूतरा था। गाड़ी वहीं आकर लगी। गाड़ीवान ने भीतर झांककर देवदास को पुकारा, लेकिन भीतर से कोई आवाज़ न आयी। गाड़ीवान सशंकित हो गया, झिझकते हुए पूछा, बाबूजी, क्या सो गये हैं, उठिये, हम पहुँच गए हैं।

देवदास ने आँखे खोली, कुछ कहना चाहा, लेकिन होंठ भर हिले, कोई आवाज़ न निकली। गाड़ीवान डर गया। बोला, बाबूजी उठिए, देखिए हम हाथीपोता ग्राम पहुँच गये हैं।

देवदास ने उठना चाहा लेकिन उठ न सका। उसकी आँखों में अटके आँसू टपक पड़े। गाड़ीवान ने गाड़ी से पुआल खींची और पीपल वाले चबूतरे पर बिछा दिया। किसी तरह देवदास को सहारा देकर गाड़ी से उतारा और चबूतरे पर बिछाये पुआल पर लिटा दिया। देवदास ने काफी मशक्कत के बाद अपनी जेब से सौ रूपये का नोट निकालकर उसे दे दिया।

चारों ओर मध्यरात्रि का सन्नाटा था। गाड़ीवान समझ गया कि देवदास ज्यादा देर का मेहमान नहीं। उसने देवदास को चादर ओढ़ा दी और सिरहाने लालटेन रख दिया। इसके बाद वह खुद उसके पैताने जाकर बैठ गया।

सवेरा होते ही पूरे गाँव में यह हल्ला मच गया कि कोई भद्रलोक जमींदार की हवेली के आगे चबूतरे पर मरणासन्न अवस्था में पड़ा है। एक एक करके लोग वहाँ जमा होने लगे। जब चौधरी बाबू को इसकी खबर मिली तो उन्होंने फौरन एक आदमी को दौड़ा दिया कि जाकर किसी डॉक्टर को बुला लाए। वे खुद भी चबूतरे के पास आ गए। देवदास ने आँखे खोली, सबको देखा। कुछ कहना चाहा, लेकिन कह न सका। गाड़ीवान जितना कुछ जानता था, लोगों को बता रहा था। लेकिन आखिर यह भद्रलोक कौन है और हाथीपोता में किसके घर जाना चाहता था इस बात का पता न चल सका। गाँव के लगभग प्रत्येक घर से कोई न कोई वहाँ उपस्थित था। लेकिन कोई न बता सका कि यह आदमी उसका रिश्तेदार या जान पहचान वाला है। डॉक्टर ने आकर देवदास की नब्ज टटोली और उसे कुछ ही देर का मेहमान बताया। सुनकर लोग हाय हाय करने लगे। घर में जब पार्वती तक यह खबर पहुँची तो वह भी अफ़सोस करके रह गयी।

एक आदमी ने देवदास के मुँह में थोड़ा पानी डाला। देवदास ने उसे एक बार कृतज्ञता भरी नजरों से देखा, फिर आँखे मूंद ली। कुछ देर उसकी धौंकनी चलती रही, फिर एक हिचकी आई और अन्ततः देवदास मर गया।

अन्तिम संस्कार की बाबत लोगों में चर्चा होने लगी। किसी को देवदास की जाति का पता नहीं था सो सभी उसे छूने में हिचक रहे थे। थाने में इतला कर दी गयी। पुलिस ने आकर जाँच पड़ताल की, गाड़ीवान से दो एक सवाल पूछे। मृतक की नाक और मुँह मे लगे खून से इस तथ्य की पुष्टि हुई कि वह अपनी बीमारी से ही मरा है। तलाशी ली गई तो उसकी जेब से दो पत्र मिले। एक पत्र तालसोनापुर से किसी द्विजदास ने बम्बई में किसी देवदास को लिखा था और दूसरे पत्र में देवदास के ही नाम बनारस में किसी हरिमती देवी का लिखा हुआ था। बायें हाथ पर अंग्रेजी में डी.डी. गुदा हुआ था। जेब में पडी चिट्ठियों और हाथ पर गुदे गोदने के सहारे मृतक की शिनाख्त देवदास के रूप में की गयी। मृतक के हाथों में पड़ी नीलम की अंगूठी की कीमत डेढ़ सौ रूपये आँकी गयी। मृतक ने जो कुछ पहन रखा था उसकी एक फेहरिस्त बना ली गयी। यह सारा काम भुवन चौधरी और महेन्द्र की देखरेख में सम्पन्न हुआ। तालसोनापुर का नाम सुनकर महेन्द्र चौंका था, यह तो नई माँ के मायके का आदमी है। अगर माँ एक बार आकर उसे देख लेंती तों ……………….

भुवन चौधरी तैश में आ गए, शिनाख्त हो चुकी है अब तुम्हारी माँ आकर अलग से क्या पहचानेंगी ?

थानेदार भी हँसने लगा, इस छोटे से काम के लिए मालकिन को क्यों कष्ट देना। हाँ अगर शिनाख्त नहीं हो पाती तो और बात थी।

जाति का पता अब तक नहीं चल पाया था। अन्ततः इस काम के लिए चांडालों को बुलाया गया। वे देवदास की लाश को खींचकर ले गए और जैसे तैसे जला दिया। जलाने का समुचित प्रबन्ध न होने के कारण लाश ठीक से जल नहीं पायी थी, अधजली लाश को ले जाकर भगाड़[iv] में फेंक दिया गया। चील कौवों की दावत हो गयी। वे अधजली लाश पर टूट पड़े।

सुबह जब पार्वती ने यह सब सुना था तो काम में बझी होने के कारण ठीक से ध्यान नहीं दिया था। लेकिन जब चारों ओर इसी बात की चर्चा होने लगी तो वह अपनी उत्सुकता रोक नहीं पायी। नौकरानी को बुला कर पूछा, बाहर कौन आदमी मरा है?

नौकरानी गमगीन आवाज़ में बोली, न जाने कौन था। शायद उसको यहीं पर मरना बदा था तभी बेचारा सारी रात यहाँ पड़े पड़े अन्त में सुबह सुबह कूच कर गया।

सुनकर पार्वती दुखी हो गयी। पूछा क्या किसी को भी नहीं पता चला कि वह व्यक्ति कौन था ?

महेन्द्र बाबू को सब पता है।

पार्वती ने महेन्द्र को बुलाया और इस बाबत जानकारी चाही। महेन्द्र ने कहा, आप ही के मायके का कोई देवदास था।

पार्वती सन्न रह गयी। तुम्हें कैसे पता चला कि वह देवदास ही है?

उनकी जेब में दो चिट्ठियां थीं, एक किसी द्विजदास की लिखी हुई ………………………….पार्वती ने बीच में ही कहा, हाँ हाँ वे उनके बड़े भाई हैं।

दूसरा पत्र बनारस से किसी हरिमति देवी का था।

हाँ वे उनकी माँ है।

दोनों ही चिट्ठियां देवदास को ही सम्बोधित थी और उनकी बाँह पर डी.डी. गुदा हुआ था।

हाँ पहली बार जब कलकता गये थे तो उन्होंने गुदवाया था।

उंगलियों में नीलम की अंगुठी थी।

जनेऊ के मौके पर तायाजी ने उपहार में दी थी। इतना कहते हुए पार्वती पागलों की तरह बेतहाशा दौड़ पड़ी, महेन्द्र हक्काबक्का रह गया। पीछे पीछे दौड़ते हुए पूछा, माँ आप कहाँ जा रही हैं ?

अपने देव दा के पास।

लेकिन अब तक तो चांडाल उनकी लाश को ले जा चुके होंगे।

पार्वती बिना कुछ कहे दौड़ती रही। महेन्द्र ने आगे जाकर उसका रास्ता रोक लिया। पार्वती ने तेज नजरों से महेन्द्र को घूरा और कहा क्या तुम मुझे पागल समझ रहे हो? हट जाओ, मेरा रास्ता छोड़ो।

सकपका कर महेन्द्र ने पार्वती का रास्ता छोड़ दिया। पार्वती बाहर निकल आयी। नौकर चाकरों में भगदड़ मच गयी। चौधरी बाबू ने पूछा, यह सब क्या हो रहा है?

महेन्द्र ने कहा, माँ बाहर देवदास से मिलने जा रही है।

चौधरी बाबू चिल्लाकर बोले, और तुम सब क्या कर रहे हो, पकड़ो उसे बाहर मत जाने दो।

महेन्द्र के साथ साथ नौकर चाकर भी दौड़ पड़े। पार्वती नीम बेहोशी में भागी जा रही थी। सबने मिलकर उसे पकड़ा और खींच कर अन्दर ले गये। दूसरे दिन जाकर पार्वती को होश आया। एक नौकरानी से पूछा क्या देव दा रातभर उसी चबूतरे पर पड़े हुए थे और उनके पास कोई नहीं था। जवाब में न नौकरानी कुछ कह सकी और न ही इसके बाद पार्वती कुछ और पूछ सकी।

पाठकों, इसके बाद पार्वती का क्या हुआ, वह कब सम्भल सकी और फिलहाल उसकी क्या हालत है? इसके विस्तार में जाना अनावश्यक है। हाँ, इस उपन्यास को पढ़ने वाला हर पाठक देवदास की परिणति से हिल गया होगा। मैं यहाँ अपने पाठकों से यही कहना चाहूँगा कि आप लोगों में से किसी का कभी देवदास जैसे किसी व्यक्ति से परिचय हो तो उसके लिए ईश्वर से यही प्रार्थना कीजिए कि अपनी जिन्दगी में, चाहे वह जितने भी कष्ट उठा ले, लेकिन उसकी लावारिसों जैसी मौत न हो। यह सत्य है कि कोई भी व्यक्ति मृत्यु से परे नहीं है। सबको एक न एक दिन मरना ही है। लेकिन मरते वक्त कोई अपना पास हो और उसका स्पर्श मिले तो मृत्यु भी उतनी दुखदायी नहीं होती। भगवान इस सुख से किसी को भी वंचित न रखे, भले ही वह व्यक्ति अपने होने में देवदास मुकर्जी ही क्यों न हो।

(बांग्ला से अनुवाद: कुणाल सिंह)


नोट्स

[i] शादी-ब्याह करवाने वाले बिचौलिए-अनुवादक
[ii] हॉस्टल-अनुवादक
[iii] कलकते के निकटवर्ती बंगाल के दो जिले – अनु.
[iv] बंगाल में लगभग प्रत्येक गाँव में एक ऐसी जगह होती है जहाँ जानवरों की सड़ी गली लाशें, कूड़ा इत्यादि फेंके जाते हैं इसे भगाड़ कहते हैं

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