आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

Olav Hauge / ऊलाव हाउगे

Reading Olav Hauge: Rustam (Singh)

I do not feel passionate about any poems. Have not done that for a long time. Naturally, I do not feel passionate about Hauge’s poems either. But that is not the only reason why I do not feel passionate about them. Actually, his poems themselves are beyond any passion and as such do not arouse passion. And that is what attracts me towards them.

Hauge writes about the world that immediately surrounds him, he lives in it, and yet he does not feel a part of this world. He feels that he is at a distance, and this is a distance of whose existence he has slowly become aware, or which he has deliberately acquired over a period. Reading the poems, one can see this distance between Hauge and the world. And the nature of this distance is such that one sees Hauge at one point and the world at another (Hauge himself being at a point in this world), and one sees him pulling away from the world. However, at the same time, there is an invisible string between him and the world, and as he pulls away, the string pulls him back, and he has to keep pulling to get away.

Occasionally Hauge stops and turns back and looks back. He looks back at the world he is pulling away from. The poem is written when he looks back. And it is the expression of that look. Or it captures the feeling expressed in that look.

I think there are two sides to this feeling. On the one hand, it has a desire to acquire a distance from the world. But on the other hand, it has a regret that one has to have this desire. In other words, if there were a chance, Hauge would not like to have this desire. But this chance does not exist. And it does not exist because he realizes that the nature of the world is such that, even if one wishes to do so, one cannot be very close to it: there is always a gap between oneself and the world, a gap which can never be closed.

Why is there this gap between Hauge and the world––or the things that are present in the world? This gap is there because the things––even when he feels close to them––tend to be themselves. In fact, the things are always themselves: they are always situated within themselves, and the feeling of “closeness” or “nearness” on the part of Hauge does not make any difference to this nature of the things. Despite Hauge’s being there around them––being close to them––the things continue to be what they are; they continue to behave the way they have to. But the matter does not end here, for Hauge himself is one of these things, and this being so, he continues to be himself; he continues to be situated within himself and to behave the way he has to. Because of this too, there is always a gap between Hauge and the things around him, and he knows about this as well.

It is this knowledge which makes Hauge one of the least gullible poets I have read. He has no illusions about anything. He knows everything, and nothing can deceive him. Not the sea, not the mountains, not the trees, not the seasons. I wouldn’t even speak of the humans. Hauge saw through them a long time before. Not that he always spurns the humans. Occasionally he mocks at them. But on other occasions, he shows some feeling even for them. However, a lot of his feeling is reserved for the nonhuman things around him. But sometimes, he gets back fully into himself and loses his feeling even for the nonhuman things. For me, some of the most attractive poems of Hauge are written on such occasions. They show him in his utter solitude––his complete aloneness in the world––but they also show him in his full glory as a poet.

हाउगे को पढ़ते हुए: रुस्तम (सिंह)

मुझे कविताओं के लिये आवेग का अनुभव नहीं होता। एक लम्बे अरसे से नहीं होता। स्वाभाविक ही है कि हाउगे की कविताओं के लिये भी आवेग का अनुभव नहीं होता। लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं है उनके लिये ऐसा अनुभव नहीं होने का। दरअस्ल, उनकी कवितायें स्वयं आवेग मात्र से परे हैं और इसीलिये कोई आवेग नहीं जगातीं। और इसीलिये वे मुझे अपनी ओर आकर्षित करती हैं।

लेकिन, इससे मेरा क्या अभिप्राय है कि वे आवेग मात्र से परे हैं?

मेरा अभिप्राय यह है : हाउगे अपने को घेर रहे आसन्न संसार के बारे में लिखते हैं, उस में रहते हैं और फिर भी उस संसार का अंग होना अनुभव नहीं करते। वे अनुभव करते हैं कि वे एक दूरी पर हैं, और यह एक ऐसी दूरी है जिसके होने को ले कर वे धीरे धीरे सजग होते गये हैं, या एक ऐसी दूरी जो एक अर्से में सायास अर्जित की गयी है। कविता पढ़ते हुए आप इस दूरी को देख सकते हैं : हाउगे और संसार के बीच। इस दूरी की प्रकृति कुछ ऐसी है कि हाउगे एक बिंदु पर दिखायी देते हैं और संसार दूसरे पर (हाउगे स्वयं इस संसार में एक बिंदु पर हैं) , और हम देखते हैं कि हाउगे बहुत प्रयत्नपूर्वक स्वयं को संसार से परे खींच रहे हैं। लेकिन उनके और संसार के बीच एक अदृश्य रस्सी है; जितना वे अपने को दूर खींचते हैं, रस्सी वापस खींचती है और उन्हें अपने को निरंतर दूर रखने के लिये खींचते रहना पड़ता है।

कभी कभी हाउगे थमते हैं और मुड़कर देखते हैं। मुड़कर देखते हैं, उस संसार की ओर जिससे वे अपने को दूर खींचते हैं। कविता तभी लिखी जाती है जब वे मुड़कर देखते हैं। और यह – कविता – उस देखने की अभिव्यक्ति है। या उस अनुभूति की जो उस देखने में अभिव्यक्त होती है।

इस अनुभूति के दो पक्ष है. एक ओर इसमे यह कामना है कि संसार से एक दूरी अर्जित करनी है. और दूसरी ओर यह अफ़सोस है कि इस कामना से बचा नहीं जा सकता. दूसरे शब्दों में, यदि मौका होता, हाउगे को ऐसी कामना करना पसंद नहीं होता. लेकिन यह मौका होता ही नहीं. और यह नहीं होता क्यूंकि हाउगे यह पहचानते हैं कि इस संसार की प्रकृति ही ऐसी है कि यदि कोई चाहे भी तो, संसार के बहुत निकट हो नहीं सकता – आप के और संसार के बीच एक अंतराल बना रहता है, ऐसा अंतराल जिसे मिटाया नहीं जा सकता.

हाउगे और संसार के बीच, या हाउगे और उन वस्तुओं के बीच जो संसार में है, यह अंतराल क्यों है? अंतराल इसलिए है कि वस्तुएं तब भी जब हाउगे उनके बहुत निकट चले जाते हैं अपना होना नहीं त्यागतीं.

वस्तुएँ सदैव अपने होने को थामे रखती हैं, वे सदैव अपने भीतर ही स्थित रहती हैं और हाउगे की ‘निकट’ या ‘दूर’ होने की अनुभूति उनके स्वभाव पर कोई फर्क नहीं डालती. हाउगे के उनके आस पास बने रहने से- उनके निकट होने से- अविचलित वस्तुएँ वही बनी रहतीं हैं जो वे हैं; वे वैसे ही व्यवहार करती रहती हैं जैसे उन्हें करना होता है. लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं होती. हाउगे भी इन वस्तुओं में से एक हैं, और ऐसे होकर, वे वही बने रहते हैं जो वे हैं; वे अपने भीतर स्थित रहते हैं, और वैसे ही व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें करना होता है. इस बात के कारण भी हाउगे और उनके आस पास की वस्तुओं के बीच एक अंतराल बना रहता है और हाउगे इसे जानते भी हैं.

और इसी ज्ञान के कारण हाउगे मेरे पढ़े कवियों में सबसे कम सरलमति (gullible) हैं. उनमें किसी भी चीज़ के बारे में कोई विभ्रम नहीं है. वे सब जानते हैं, कुछ भी उन्हें छल नहीं सकता. न समुद्र, न पेड़, न पहाड़, और न ऋतुएँ. मनुष्यों का तो मैं ज़िक्र तक नहीं करूंगा. उनके आर-पार तो हाउगे बहुत पहले ही देख चुके थे. ऐसा नहीं है कि मनुष्यों को वे धिक्कारते भर हैं. कभी कभी वे उनकी खिल्ली भी उड़ाते हैं. हाँ, कुछ दूसरे अवसरों पर उनमें मनुष्यों के प्रति कुछ भावना दिखती है. यद्यपि उनकी भावना का अधिकांश आस पास की अमानवी वस्तुओं के लिए सुरक्षित है.

कभी कभी वो अपने असल रंग में आते हैं और अमानवी वस्तुओं के लिए अपनी भावना तक खो देते हैं. मेरे निकट हाउगे की कुछ सबसे आकर्षक कवितायें ऐसे ही अवसरों पर लिखी गयी हैं. वे कवितायें उन्हें उनके पूर्णतम अकेलेपन में दर्शाती हैं – लेकिन वही कवितायें उनके कवि को उसके पूर्णतम गौरव में भी दर्शाती हैं.

(अंग्रेज़ी से अनुवाद: गिरिराज किराडू)

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