आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

मार्ग मादरजात: पीयूष दईया

” अचानक से एक बच्चा
रखता है तीन पत्थर
और कहता है–
यह मेरा घर है।”

मैं नहीं चाहता मेरे
बच्चे भी कभी रखे
–तीन पत्थर।

मित्रावतार देव गजेन्द्र को
निवेदित

कीलित

वह विद्यमान है। विधाता। उसके रास्ते से गुज़रो। पूरी तरह से भुला दिये गये।
रिक्त-स्थल हैं। वहां। भींचे हुए जिन्हें नुकीले कांच-सा खुबता है शून्य। लकीरें उसकी हथेली की।

क्या मार्ग हैं मकड़ीले?

निर्बिम्ब। पवन बहता है उसके रक्तसूखे दिल से, नेतिनातों के भी पदचिह्न छोड़े बिना। गोया बेरोशन बादलों में चोंच-दर-चोंच मारते एक कठफोड़वे के भेस में। सालहसाल। श्मशानी शऊर की वर्णमाला सीखते। संसारी को अपनी काया से पढ़ते। दहला दहला कि गाज गिरी , सिलसिलों के सीने में।
मुश्किलाये।
कौन जाने की खाक जानते। शून्य-बिन्दु लांघते मेटता, चिंचोड़ता कांटे की नोंक पर। हत्याग्रह से निर्मूल छूता है आसराग्रस्त जिसे जानता नहीं।
उसे जाननेवाला कोई नहीं।

धुकधुकी के फाहे सा था कभी पर अब बिना जड़ों के खिला अदृश्य फूलपोश है। किसी इलहामी इति का अनचिन्हा आपा चिन्हे। होनी लेखे में विन्यस्त वही सितम सहने। छीजता।

अपने उवाच से। सोखते सारे सियाह। बरतता। देशनाओं के केंकड़ी रचाव। मर्मफले। वक्फों में विजड़ित। भासते। गोदनाकार। एक चरितार्थ की बींधी बंटाये बिना।

पदचिह्न अपने में। वह बनाता है। सूत्रपर्यन्त तागों से टंके। चुप्पी से आती चीख के।
जिससे उस पार कुछ नहीं, इस पार कुछ नहीं। जिसे अपनाने को कुँए की छाया जैसे कुँए के बाहर नहीं जाती गोया बाद में कभी एक स्वप्न के छाया-चित्र में। रक्त-दाग़ न होना। रेत लेता है गला धारदार चाकू से।

अब कोई उपाय नहीं। न प्रकाश का, न निजात का।
चुप घर में।
मूमुर्षू कीलित रहा।

बांच बज़र्ख़

दिल, हज़ार दास्तां।

बिना क़िस्से, बिना कल्पना के।
बिना छाया के मूंजदार फंदों से बना लगता मादरजात। एक बारहबानी बिजूका या नमक का पुतला। गूंगी ऊब सना , उत्सउचाट। घट गये में से छूट निकला। न जाने कैसे एक भगोड़ा या भेदभोपा। भाषा द्वारा परित्यक्त , सान्तगोपन। जलता तिल तिल , सड़ता तिल तिल का अमल-अक्स एक दिड्मूढ़ दानिश्ता। हाल हलक में रखे , चाल चुल्लू में। हज़ार हंटरों की मार से हौसलाहारा। हलफ़हर्फ़ क्या उठाता जब निशान सारे उपसे रहे मार के। हक़ीम हार !

हा हन्त, हे हरि।

जब तलक वह अपने सारे दांतदार नक्शों की कुर्की कर पाता तब तक उसे बुरी बलाओं से बचाना छोड़ दिया गया होता। वह उनके हवाले होता। रोज़ाना से सराबोर लिहाज़ का लफंगा बने या उचित का उचक्का या भलाई का भीषण या कतई का कसाई या दोबारा का दुभाषिया या पुल का दल्लादूत। अलभ्यलोभी या फोकीफरोश।

फलितआपा गोया। झक्की मति का करमजला बने।

गधे पर सींग जैसे।

असंख्य बाल रहते उसके शरीर में–अन्दर के लौंदों तक में उग आते। न जाने जीव से। चीख़ताता वह मुझे बख़्शो। जाग जाना चाहता। काग़ज़ों में।
चुप होता।

यह बिन पते का ऐबदार शख़्स।
सारे अमूर्तन ऐसे फेंकता लगता मानो कभी पितरों के पास जाकर आग फेंकेगा। अपने इकलौतेपन से चेताया इतना वेध्य कि किसी को छुरा तक उठाने की ज़हमत नहीं।

मासूम सीरत सबसे छली जाती।

हमेशा वह राह भूले जिस पर उसे चलना होता , उसकी नियति के रूप। अपने यतीम यकीन को चकलाघरी तरतीब देते। दुनियावीदीठ दोगली लगती , हर बिरादरी बौनी। सबके अंग के रंग घात के घाव सरीखे लगते , कसैले कौए के पंख से काले काज। हलहुजूर के हलकों में हाजिरी लगाते जान लेते कि हर ओर हंगामा हाज़िर का है। ढोंगी ढंग से ढिंढोरा पीटते। कटीली काट वाली कपटी कलम के काईंये। चोपाये चिलम पीते चौपाली। पीड़ाप्रसूत बांझ मज्झिम में गुडुप् गुडुप उसे दोमुंहा सांप बना देते। दोनों ओर सच्ची रीढ। पीठ और सीने दोनों को सोखती। अमूर्ताकार। प्रयासपाली में जन्मते प्रवत्तिपूत , निवृत्तिपूत। रस्साकशी करते जुड़वां। एक दूसरे के व्यक्त अव्यक्त। बहुल बढ़त लेते। द्वार से दोतरफ़ा। मानो वही पाते हुए जो उन्हें पाना है। तत्वमय सत्कारों के संस्पर्श से वंचित।

सचेत सहारा बना रहता, किसी नामकरण का संपोला साया नहीं।

निरंग दिनान्त निर्णीत होता। निदाघ नितम्बों-सा जिन्हें वह लिख नहीं पाता। उसकी ऊंगलियों में दीमकों ने घर कर लिया होता।
आत्मा को शीर्षक देने।
सम्बन्धों के पर्याय असंख्य होते और चूल्हा ज़हर उगलती जबान-सा जलता रहता।

यह मादरजात से गोचर बांचने के बज़र्ख़ तरीक़े होते।

रोज़नामचे में

गोया उसके दस्तखत के अपभ्रंश से बना अरोचक रोज़नामचा।

ऐसे आता जैसे सर्द सरनिगूं पर सर्वत्र स्वामी की तरह सिर उठा कर चला जाता। छूतहा छलनाओं का छिद्रान्वेषी सिरफिरा जो सबके राहरोग देखता फिरता। जान लेता कि जुगनू मछलियां नहीं है वरना सबकी सीप में मोती होते। स्वयं जवाब के। कौन जाने जो ज़बान का इंतज़ार करते भट्टी में तप कर बनी ईंटें ले आते। ज़ख़्मी या अदिव्य। ओझल तलाश में। होनी की हवा निकालते। एक सांस और लेते चलायमान रहते। कहीं व्यतीत में या अन्यत्र घर तलाशने। अपशकुन की तरह।

जहां चंदन की लकड़ी में दीमक नहीं लगती। हमारी धरती। जिस पर सब देखते रहते। जैसे कि मुर्दा वहीं रहता जहां होता, यात्रा नहीं करता पर पानी पर तैर आता।

दूसरों के शब्दों से गोया।
पर्त-पर्त रूपोश।

अपनेआप को सबकुछ बताने बैठता तो।
पता चलता कि उसके तथाकथित शब्द किसी गुब्बारे की तरह जितना फूलते जाते वह भीतर से उतना ही खोखला होता जाता। उसके खोखल खाली नहीं होते, सिफ़र का कौन जाने।

वह इतना खोखला होता लगता मानो सिफ़र को यूं जानने लगा हो जैसे कि वह खाली तो हो पर सिफ़र नहीं जैसे कि खाली और सिफर में कोई ऐसा भेद हो जिसे वह अपने खोखल से जान लेता हो!

तब असली जानना न तो अपने अनुभूत को सोखना होता न उगलना। उससे अनासक्त या उदासीन होना-रहना तो कतई नहीं। वरना तो वह उदासीन का उचित बन जाता या अनासक्त का अब्बास या कतई का कातिल। ग़नीमतगार में !

उसका खोखल कभी खाली नहीं होता न सिफ़र। वह महज़ अपने खालीपन को गहराता लगता।

मन मारकर, हालत हारकर भी कोरे काग़ज़ के सामने करमलौ लगाने बैठा रहता। लिखने की। लिखने में न लिखे को उजागर करने की। यह पहचानने की कि वह न लिखे में होगा न न लिखे में , उजागर का कौन जाने क्योंकि मन मारकर , हालत हारकर काग़ज़ कोरे के सामने करमलौ लगाने बैठा रहता। जो न करम में बदल पाता न लौ में न मन में न मार में न हालत में न हार में न कोरे में न काग़ज़ में।

उसे पता होता कि कोरे में काग़ज़ का इल्म नहीं पर कौन जाने वह उसी इल्म का कोरा हो जो काग़ज़ लिखने से उजागर होता हो, कोरे में।
तब न वह कोरा रहता, न काग़ज़ बस उजागर होता चला जाता। ऐसे जैसे कि जान लेने की जान में , हर पाठ में , हर इल्म में , हर जात पर छाये छाये।

जिसमें लौंकती उसकी उंगली का फोड़ा मुंह में ही फूट पड़ता, रोज़नामचे में नहीं।

उत्तीर्ण

जहां मादरजात काल्पनिक में यूं झांक लेता जैसे वह कांच से बना हो।

नामतः। वाणी के नीवरण। दाग़ डालनेवाले। कभी अन्तरंग में वाचाल , कभी चुप्पे। अन्तरालों में प्रस्तुत सम्बोधी का कायाकल्प करते। उसे संदिग्ध बना देते , जन्मजात। बांस की खाली पोंगरी सा शरीर न कोयला हो पाता न राख। ख़ून जलाकर गलेपड़ी अधजली लकड़ी सा धुआंता रहता। न जलना जान पाता न बुझ पाता। मसानी तासीरतपा इंतज़ार में रहता।

फटेहाल माथा क़िल्लती क़िले में कुकुरमुत्तों सा मज़ाक़ लगता तो शर्म के मारे भाग पड़ता।
पांव पालने से बाहर पड़ते।

रहते न रहते।

विरल से विरत, विचित्र से मोहग्रस्त।
बहुत दूर देखता, बहुत पास देखता। पूर्वापर। सिफ़रसफ़रसिफ़त। सिराते-सिराते , निश्चिह्न पर नहीं।

जिसके बीच कुछ नहीं रहता जैसे कि पोळापन माटी-मटके का।
जहां वह अब भी वैसा ही बना रहता, पहले जैसा। एक सन्तरण नियन्ता जिसे कभी शब्द जी नहीं पाते पर उस पर मातम मनाते लगते। इतने सत्यापित कि काल्पनिक लगते।

यह सत्य का स्वदेश होता जिसका कोई अर्थ नहीं निकल पाता।

जैसे हिजड़े जिनके पूर्वज तो होते, वंशज नहीं। अकेले से बने और डरावने। जैसे उसके शब्द जिनमें जातक के बाद न कोई है न कभी हो सकेगा , पहले वालों का कौन जाने। न रोशनी उन्हें गर्भित कर पाती न कोई गोद ले पाता। वे हिजड़े प्राणियों से बने रहते। सबसे अकेले, लीनवेत्ता।

स्वप्न-पात्र से अभिनीत। स्वरसेंध से स्तम्भित।
आंसुओं के जीवाश्म छोड़े बिना।
शून्यशील में संख्य सखियों जैसे संखिया संशय कल्लोल करते लगते पर लपकता लहजा भाड़ में अन्ततः चला जाता खरामा खरामा, टर्र टर्र भोंदुई-सा फिसड्डी बने। जानता होता कि पानी मर गया है।

उत्तीर्ण का।

छाया

अपनी मौलिक मौत का मुंतज़िर बने।

अनाश्रय से परे, अनागन्तुक को जाने बगैर। प्रारब्ध के प्रति प्रस्तुत। पुरूषार्थी भवितव्य से जीवन की दोपहर में प्रवेश करते जब छाया सबसे बौनी होती लगती। यूं अनजान मानो अनाद्र अनुभूत का आवरण।
सारा अदृश्य अपनी पीठ पर डाले।

एक वाक्य में मरने के लिए सचमुच एक सही जगह जिसमें जीने का पता उसी तरह नहीं चल पाता जिस तरह औलाद अपनी फ़ितरत नहीं पहचान पाती। फ़ितरत जिससे फरारी नामुमकिन बनी रहती। लाइलाज जैसे।

अगणित की गणिका।
इतनी पारदर्शी लगती कि न जाने कितनों के दर्दनाक में हाथ डाले रहती।
ऐसे कि अथाह थाहरोधक लगने लगता।

स्वयं वह छाया जो बार बार कपड़े यूं बदलती जैसे रास्ते बदलती चौंक चौंक जाती। भयावने चौराहों से या अपने सोपानों के तिलिस्म में लोप होती। छटांक भर छोरी-सी। गर टाट उलट लेती तो पता लगता कि ग्रह टाले जा सकते थे। उलटी इबारतों की शुतुरमुर्गी चालों के। जिनमें सुमिरन पाटी तो रहती पर खड़िया नहीं।

जैसे स्वयं वह छाया। जिसमें मादरजात अच्छे से रह सकता।

और रोटी के रेतीले रंगों से बने लगते दूसरे के दुख यूं सुनता होता जैसे घड़ी की टिक् टिक् में रातोंरात के साल। वल्लरी की झिर्रियों से झांकते गलते ठूंठ के पीछेओर।
इतर-फितर बिलकुल।

लकड़ीली दिल्लगी पर डेढ़ घड़ी दिन चढ़ा होता पर भाप छाया जैसे जमी रहती।
चिलका पड़ता फिर धूमिल धब्बे में बिखर जाता।

पूर्ववत् पुनः

तोतला इतिवृत्त छपर छपर करता।

पानी में खेलता तो वह महावर में या रक्त में बदल बदल जाता लगता। दिन में तारे दिखायी देने लगते तो उन्हें अपनाता। सांस लेता। योजन-योजन। पथरीले डग भरता। कहीं उफनता वाचाल विवरणों में या कहीं विस्तार लेता। कमर तोड़े सर्वंसहा। काली हांड़ी में खदबदाता वाष्पवासी। ठोस से अठोस की काठिन्य कोख में आता। भटकता। अपने बनाए शेष श्लेष नामों से। पिण्ड छुड़ाता। औंधे मुंह गिरता। उसूलन ऐन फलता-फूलता। भाड़े का अनाड़ी। मुमकिन का मखौल उड़ाता। अनर्गल अर्जन करता। सिवा जीने के कोई और चारा नहीं मिलता सो निरुद्धार में ठहरा मात्र लगता। जनेऊधारी चिठ्ठियों के केंचुआ अक्षरों के आर-पार। निवेदित। हरे समंदर गोपी चंदर के खेल में।

पूर्ववत् पुनः।

न किंचित् में से।
सम्भ्रान्त। भवितव्य के।

अरजअरजी खड़कती। हृदय ह्नासता। चिंदी चिंदी। तिरस्कृत। सींचती , रोशनी। नाडियों में अकृत। पथनेत्री लोप हो जाती। पंचतत्वों को अगोरती दिगन्तदीठ तक। पराङ्मुख। भेंट किए बिना , अपना प्रतिभाग जाने बगैर। आर्त्तपगा आपसी निजस्व। अघोरी आदतों-सा। स्वस्तिलिपि पढ़ने की प्रतीक्षा में। भजते। प्रखर प्रत्याशा के प्रपातप्रहार। भूंकते भजन। कंटीले कण्ठ से निकलती टापों का पिघलता तारकोल। पसरा पसरा। निरासनामा।

ग्रस लेता विभुचाप।

सफ़ेद स्याही से सना सिसकना सुनायी देता। बूंदों से अलग समुद्र ढूंढता। मुखरित ऋतुओं पर तरसती प्रियता तकती रहती। काई लगा सन्नाटा। दुःसह प्राप्य। फुंक गये छप्पर के न जाने कैसे बचे रह गये तिनके। खोंता उतना ही बड़ा बन पाता जितनी बड़ी आंख। जमीनी जीवित के बुझौव्वल छल्लों में कहीं ऊपर उठते। अल्पता अभिषिक्त। सधता निर्वचन। नागफनी के कांटों फंसा। तात्पर्य तद्रूप। एकदम अन्तरतर। मौनी। मृत्यु से बना लगता जीवन वैसे नहीं जैसे छुरा खोल में। दण्डित का। निर्दिष्ट लक्ष्य-स्थलों का अन्तर्भेदक। कंटीली गतियों से निःसृत होता नादीदा नींव तले तक टोहता रहता।
उघड़ते उन्नयन। व्यतीत। उपेक्षित। उजाला। पार्थिव की हथौड़ी ठकठकाते। निर्दोष निर्धनता के निर्जनवास में।

आंख वह। आवाज़। काया।

कच्ची गोलियों से खेलती दिखती तो महसूसने मात्र से मितली यूं आने लगती मानो वह हरेक की त्वचा में ही थी। बंदरबांट करती। आंख मारती या लकीर पीटती। किरच किरच तृषार्त। शीतलहर बहती रहती। इतर तुच्छताओं को पोंछती। अनर्थकारी। क्षुधित कोप। दुःस्वप्न-सा भाग्य। दुर्दान्त जिघांसाएं या ऊसर ध्वनियां।
तजने में। विभव-जीव।
झिर आते चकत्ते ज्यों प्रांगण में छींटे।

टप्प से सीसे का परदा-सा पड़ जाता।

जतन लाख

अलोप।

चदरिया के बारे में मादरजात को पता नहीं चल पाता। लाख जतन कर लेता पर उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता। मैली या साफ़ कैसे करता जबकि वह उसकी पहुंच से परे बनी रहती। वह थी भी या नहीं यह तक उंगली रखना कठिन होता सो वह माफ़ी मांगता रहता।
कोरा ही रहा ऐसा धोखा होता।

पुरख़ुलूस।

जतन लाख कर लेता पर शब्द की कोशिकाएं मर चुकी होती। उन्हें फिर से चलता फिरता नहीं कर पाता। संबंधों से अभावग्रस्त। किन्हीं टूटे हुए परों को भले चिपका लेता पर पक्षी उड़ नहीं पाता। अपने को बरजता रहता। बदलने से या फिर से वही सब पाने को जो उसने खो दिया होता। सकल जड़ों संग। जीने का मर्मफला सारांश। दस्तेग़ैब का अजाना।
गोशे गोशे में पिघलता। अभेद्य बना रहता।

लौटता एकर्षि।

उसी मार्ग से फिर। जैसे गया था वैसे। छूंछा छूंछा मुमुक्षु। माध्यम को फाड़ने का यत्न करते। अपने मजमून निःसहाय एकाकी लगने लगते। सांकल बंधे। सयानों से सुने स्वर चीकटजमे। आत्मार्थ। विदूषक की भूमिका में आ जाते। सूत्रधार। उसकी गहराइयों में उन चट्टानों की तरह लुढ़कते जिन्हें वह कभी ठोकर देना चाहता या कठोर जबान की बैठक बना लेता या खड़खड़ाते सूखे पत्ते जो पकने से पहले डाल छोड़ देते पर कभी बैसाखी में नहीं बदल पाते। गर्द-आलुदा पन्नों-से। हर रंग में शर्मसार।

बढ़त लेते।
विज्ञप्त होता। मादरजात। जांघजल तक। बनत बांधता। कहीं खाली जगह से।

असलियत का भेदिया। चला जाता। एकदम। कंधे उचकाए।
अशरीरी राहगीर।

अपना चूल्हा ठण्ड़ा कर देता।

बींट बोल पर

बींटों की बांबी-सी बन जाती पर कबूतरी गुटरगूं कभी बंद नहीं होती।

फ़िजूलगोई अदला-बदली करती लगती मुहिमजोई से।

पिछले नातों पर कानाफूसी चलती रहती पर वह कान नहीं देता। साफ़ ज़बान की नीयत पर छोड़ देता। नाटे नाते सब बेवजह टूटने लगते। तपाक तपाक। डीलडौल ढह जाता। कतिपय कमबख़्त चहलकदमी करने लगते। फोकटी फदफद करते रंजित रजील। रातों के साल। खुरदरे ऐतराज़ों वाला अपना कहना जारी रखते। सारे नेक काम वहां करते रहते जहां किसी की नज़र नहीं जाती। कहीं जुर्रतें खूंटी पर लटकी बोसिदा बरसाती मानिन्द लगने लगती तो कहीं मौजूद लोग कूच कर जाते।

नज़रचोर का आना-जाना बना रहता।

कभी वाकई बरस पड़ता , कभी दरवाज़े में सर डाल कर हामी भरता। अपने साथ किये गये हर पहलू बाबत सुलूक को याद रखना ठीक लगने लगता। यूं अपने खौलाते ख़ून को दराजों में डाल लेता। गाफिल घड़ियां काम अपना बदस्तूर करती रहती। सारी ज़िदगी की नेकनामी बरबाद कर दी जाती पर इस तर्जमय रवैये को समझना बहुत मुश्किल जान पड़ता। सुलह के लहजे का सच आखिर एक मज़ाक़ बन जाता। पछतावे के तौर पर जाना जाने लगता। मरघिल्ला मामला इतना गया-गुजरा लगता कि कोई भी आगे सिफारिश तक करने की ज़हमत नहीं उठाता। होशियारी से मुलाकातें टाल लेते हज़रतों की हवाइयां तब भी उड़ने लगती। क्षणार्ध में कौंधते कुल निचोड।

किसी जलते लाक्षागृह की याद दिलाते।
अफवाहों के धूमिल स्वर फैलने लगते तो यह ख़बर की तरह होता। सारे निदान निरस्त होते चले जाते। हैरान कि यह कैसे पर वह सिर-पैर तक नहीं जान पाता। सब कुछ ढाक के तीन पात में बदल जाता।

ऐसे कि मादरजात जिद्द पर अड़ा रहता और कसूरवार करार दे दिया जाता।

मींजाई

चाहता तो पहाड़ी बाज की तरह अपने घोंसले में लौट जाता पर यह हवा होती जो उसके पत्तों की दिशा तय करती। हर शब्द खांटी भट्टीतपा। परिभाषित। खालिस हरसिंगार-सा झर जाता।

वह आईना बिना तोड़े बाहर आता। टिकली-सा घूमता। भूले से भी कहीं नहीं पहुंचता। दूसरों की उड़ाई खिल्लियों को कांख-तले दाबे खाद-पानी की तरह काम में लाता। भूसी से चावल अलग करता। मींजाई। करघे पर सूत भर बुनता। केंचुली उतरा। पीछे हटता चला जाता। लदा-फदा न अंटा पड़ा , सेमल की रुई सा जाल खींच लेता। सिरफिरा फटीचर समझ लिया जाता। फूहड़ फूंक-सा। फकत , फिजूल।

असीसती उजलता। सिक्का उछाल।

जल्लादी वश्यता का सामना करता। पालकी ढोने वाले बाजू पालने में बदल जाते। नमक के लिए अब कोई जीभ लपलपाती दिखाई नहीं देती। जीभवाले आदमकद खीसे निपोरने-से चुनौती देने लगते। चर्बीदार चर्चाओं में मशगूल छीछालेदर करते रहते। चीमड़ कर्कश। मुंह फेर लेते।

तो समझ में आने लगता।

फूलों से लदा पौधा, फलों से झुका पेड़।

दैनिक दरिद्रता के अस्पताल के पहले खाने में। खाट तोड़ते खाली पड़े पड़े। निवालों के लिए तरसता रहता। न कहीं काम करता न पगार पाता। प्रायः पूंछ उठाता, गोबर करता। निंदित दुर्वह को सानन्द गले लगाता। कृतकृत्य। निरानन्द क्लान्ति से भर जाता। सूना नाकारा। विभोर विहंसता।

जीते-जी भंगार।

भूली दिनांकों में छूट गये को बीनते। कितनी बारिशों में भींगते कितने चौराहे। सब में से होकर गुजरता पर किसी से कुछ न कहता। जीवनी के जबड़ों से फिसलते। अपने शब्द खण्ड़हर में बदल देते। पूरी तरह मरने का वास्ता देते। खरपतवार-से उगते। हींसते बिना काटता रहता। अपने पुनरुत्थान के झूठमूठ से बने।

उर्वर। सुभाषित।
सच होने, नित्यप्रति। क्रमशः उच्छिष्ट पर मार्का लगे। सबकुछ मसखरे सा सरल मान लेता। मुंह से उफ तक न करता।
हर दिन अपने क़िस्से ले आता, थोथे।

इसी धरती पर जहां वह छुटिट्यां बिताने आया होता या गुइयां ढूंढ़ने। फूल इतना खिलते कि डाली से झर जाते। बिना गंतव्य के गोता लगाने वाले भला कहां मिलते जो बीजक गुनते।
व्यवह्नतः।
जैसे साया। कभी ऊपर नहीं आता।

जब भी लिखने बैठता, अमावस आ जाती। मुठ्ठी में कुछ हासिल नहीं करना होता पर मारकेश बाज़ नहीं आता। टुकड़े फेंकता रहता देवता, वह देखता रहता। सूखने पर सरोवर। हंस उड़ कर चला जाता।

रोशनी को ओछा करता अंततः। कुप्पी से तेल रीत जाता।

और मादरजात टूटे दांत-सा फिका जाता।

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  1. your hindi is great piyush. its a new language.

  2. Very beautiful. I liked it very much. Waiting for your books which are in pipeline.

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