आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

वार्ताकार की वाणीः हकु शाह और पीयूष दईया

(Images courtesy Parthiv Shah.)

वार्ताकार की वाणीः पीयूष दईया

वरिष्ठ चित्रकार, शिक्षाविद् व शीर्षस्थानीय लोकविद्याविद् हकु शाह जड़ों के स्वधर्म में जीने-सांस लेने  वाले  एक  आत्मशैलीकृत  व  प्रतिश्रुत  आचरण-पुरूष  हैं:  एक  अलग  मिट्टी  से  बनी  ऐसी मनुष्यात्मा जिनकी विरल उपस्थिति का आलोक जीवन के सर्जनात्मक रास्ते को उजागर करता है गो कि हमारे समय में अब कोई उस पर चलता हुआ दिखता नहीं – विधाता ने अपने कारखाने में ऐसे प्राणी बनाना बंद कर दिये हैं , मानो। उनके सादगी भरे व्यक्तित्व में निश्छल स्वच्छता है और स्वयंमेतर  के  साथ  मानवीय  साझे  की  वत्सल  गर्माहट।  उनकी  हंसमुख  जिजीविषा  में  निरहंकारी नम्रता व लाक्षणिक सज्जनता का रूपायन है और उनका कलात्मक अन्तःकरण ऋजुछन्दों में सांस लेता है। गहरा आत्मानुशासन उनका बीजकोष है।

दरअसल, हकु शाह स्वदेशी पहचान के जौहरी व मर्मवेत्ता है और वे अकादमिक धारणाओं के रूढ़ चौखटों  व  तथाकथित कोष्ठकों से  बाहर आकर सर्जना का अपना उर्वर उपजीव्य  पाते  हैं । बोलचाल  की  वाचिक  लय  में  विन्यस्त  उनकी  आवाज़  में  आदमियत  की  ज़मीनी  आस्था  के  जो विविधवर्णी स्वर सुनायी पड़ते हैं उनके पीछे एक ऐसा असाधारण विवेक व मजबूती है जो संसारी घमासान के  ऐन  बीचों बीच अवस्थित  रहते  हुए  भी अपने उर्वर आत्म – अपनाआपा – को सलामत रख  पाने  का  आदर्शात्मक  साक्ष्य  हमारे  सामने  इतने  सहज  व  चुपचाप  तरह  से  रखता  है  मानो पांख-सा हल्का हो। यह एक अलग तरह की रोशनी व चेतना है जिसमें सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों पर अडिग आग्रह – अहिंसा, प्रेम व आनन्द – का संदेश यूं उजागर है गोया उनके वजूद का शिलालेख हो जिसे बांचने का मतलब स्वावलम्बी समाज-रचना व जीवन के सहज चरितार्थन के सुंदर काव्य में खिलना व सांस लेना है।

जनवरी से जून, दो हज़ार सात के दरमियान हकु शाह के साथ उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर एकाग्र लगभग सत्तर घण्टों का वार्तालाप सम्पन्न हुआ था और उनके दृष्टि-परास के बहुलायामों से  विन्यस्त  यहां  प्रस्तुत  पाठ  इन्हीं  वार्ता-रूपों  से  बना  है  जो  राजकमल  प्रकाशन,  दिल्ली  से शीध्रप्रकाश्य पुस्तक ”मानुष” का एक किंचित्‌ सम्पादित हिस्सा है।

यह पाठ वत्सल संदीप (मेहता) के लिए

आभळा-आतम: हकु शाह

गुजरात में सूरत जि़ले के एक गांव वालोड़ में मेरा जन्म हुआ था। गांव के नज़दीक ही वेडछी आश्रम है। यह लगभग सारा  क्षेत्र ही आदि-वासियों का है और बारडोली के बहुत क़रीब होने की वजह से महात्मा गांधी और सरदार पटेल जैसी राष्ट्रीय हस्तियों के  चिन्तन  व कर्म का  गहरा असर  इस  क्षेत्र  पर  रहा  है।  मेरे  गांव  में  मुख्यतः  तीन जातियों के लोग है–देसाई , वणिक व काज़ी। इनमें से ज़्यादातर ज़मींदार है और मेरे  पिता  इनमें से  एक  थे। ज़मींदारों का जीवन जनजातीय समुदायों के  शोषण  पर आधारित  था लेकिन  मेरे  पिता  बहुत  दूर  तक  इसके  एक अपवाद  थे।  मेरे  पिता को प्रकृति  से  गहरा  प्रेम  था  और  नदी  किनारे  बैठना  उन्हें  बेहद  पसंद  था  या  वे खेत-खलिहानों की ओर सैर करते  थे। सभी लोग उन्हें बादशाह कहते  थे। हालांकि दुनिया की नज़रों में वे कोई बहुत व्यावहारिक व्यक्ति नहीं थे। अलस्सुबह दो या तीन बजे  आप  उन्हें  गीता  पढ़ते  या  दोपहर  में  अपने  किसी  मुस्लिम  दोस्त  के  घर  की आराम-कुर्सी पर नींद लेते देख-पा सकते थे। कभी कभी, आधीरात के क़रीब उन्हें खोजते हुए नदी-तट की  रेत पर जब एक सफ़ेद कपड़ा फरफराता  दिखता तो आप यह समझ जाते थे कि वहां जो सोये हैं वह बादशाह हैं , ध्यानस्थ।  आदि-वासियों को वे अपना दोस्त मानते थे और उन्हीं के साथ चाय बनाते , खिचड़ी पकाते , वहीं खाते-सोते , उठते-बैठते। दशहरे के दिन गांव में जो कोई भी दाखिल होता उसे तो मेरे दादा एक पैसा भी देते थे। हमारे पास लगभग सौ एकड़ भूमि थी लेकिन मेरे पिता की मृत्यु के समय हमारे पास ज़मीन का एक छोटा टुकड़ा तक नहीं बचा था।

मेरी  मां  एक  समृद्ध  परिवार  से  थी।  बहुत  व्यावहारिक  व  प्रतिभाशाली।  बारडोली सत्याग्रह के दौरान ( यह अंग्रेज सरकार को कर न देने का आन्दोलन था ) वे सारा दिन  तो  अपने  घर  में  बन्द  रहती  लेकिन  अंधेरा  होने  पर  बाहर  आ  जातीं  क्योंकि सरकारी कारिंदे  अंधेरा  होने के  बाद  मकान  में  नहीं  आ  सकते  थे।  रात  में  घर के दरवाजे खोलने के बाद मेरी मां दो काम करती थी :  कुएं से पानी लाती और गरबा नृत्य करने में रमती , जिसे देखने फिर सारा गांव जमा हो जाता।

क़रीब आठ बरस का रहा होऊंगा जब मैंने अपने दो-तीन दोस्तों के साथ शिशु नामक एक पत्रिका निकाली जिसमें मेरी भी कुछ कविताएं शामिल थीं। कुछ खास मौक़ों पर मेरी कविताओं के  लिए उपयुक्त  शब्द खोजने में मेरी मां मदद करती  थी। मेरी एक बहन नीरू बहुत अच्छा गाती  थी,  रसोई  घर में काम करते करते  भी। दूसरी बहन भद्र लोगों के बीच भी गाती थी। मेरी तीसरी बहन दक्षा भी वही वनस्थली , सूरत में जनजातीय  विद्यार्थियों को  पढ़ाती  रही।  मेरे  भाई  बाबूभाई और  भाभी  तरला  ने अपने जीवन का ज़्यादातर समय जनजातीय समुदाय में पढ़ाते हुए ही बिताया है और उनके दोनों बच्चे–उर्विन व स्वाति–वहीं आदि-वासी बच्चों संग ही पढ़े हैं।

हमारे  विद्यार्थी  मंडल – जिसका  कि  मैं  एक सक्रिय सदस्य  था  – की  गतिविधियां  भी दिलचस्प थी हालांकि आज के सन्दर्भ में हो सकता है वे बेमेल जान पड़े। हम सारे गांव को यह कविता गाते हुए जगाते थे :

जागो जागो जन जुवो/देखो

रात गयी ने भोर भयी

यह नहीं मालूम कि हमारी इन पंक्तियों को गाने से किसी तरह की राष्ट्रवादी भावनाओं का संचार होता था या नहीं लेकिन इतना ज़रूर है कि यह गांववालों को अपने बिस्तरों से ज़रूर उठा देता था ! वालोड में अपने स्कूल के आरम्भिक दिनों से ही चित्रांकन में मेरी रूचि थी। गांधी जी और सुभाष चन्द्र बोस प्रभृति नेताओं के छायाचित्रों को हूबहू बनाने की कोशिश करता था और  सारी जगह  रेखा-चित्र  बनाता  रहता  था।  हमारे कला-शिक्षक,  चिन्तामणि देसाई  एक  जिंदादिल  व्यक्ति  थे।  उन्हे  मेरे  बनाए  रेखा-चित्र  बहुत  पसंद  आते  थे।

विद्यालय का पूरा माहौल एक सुंदर गांव जैसा था।

समाज में व्याप्त शोषण को अपने रेखा-चित्रों में अंकित करते हम प्रदर्शनियां आयोजित करते थे। टिन के बक्सों में इन्हें एक गांव से दूसरे गांव तक ले जाते और लोगों के घरों  के  सामने  चौपाल  वगै़रह  पर  इन्हें  प्रदर्शित  करते।  इन  गतिविधियों  में  –  झाडू लगाकर सड़कों को साफ़ करना  , दीवारों को प्रेरणास्पद नारों से सजाना, गांव के बाहर रहने वाले डूबळा आदि-वासियों को रात में लालटेन लेकर पढ़ाने जाना, उन्हें चिकित्सकीय मदद सुलभ करना, नृत्यनाटिका  व गरबा करना, गांव गांव  घूमना, चरखा चलाना, प्रार्थना करना वगै़रह  – समाजवादी गीतकार व चित्रकार कुलिन पंड्या हमारी  प्रेरणा के  मुख्य  स्त्रोत  थे।  साल के  अन्त  में  मनोरंजन के कई  खेल  भी  हम आयोजित करते थे जिनमें सभी सक्रियता से भाग लेते थे। उन्हीं दिनों हमने दो बड़े जुलूस भी निकाले थे। एक था गाली विरोधी दिन और दूसरा था मच्छर विरोधी दिन।

वहीं गांव में नदी – वाल्मीकि  – थी और मुझे कुछ ऐसा याद पड़ता है कि मैं चालीस डोल पानी तो बहुत बार वहां से भर कर लाता था।

डोबडु नाम का आदि-वासी वाद्य-यंत्र मुझे बहुत प्रिय था। उसका गहरा अनुनादी स्वर मुझे  इतना  विमोहित  कर  देता  था  कि  मैंने  उस  पर  सैकड़ों  रेखा-चित्र  बनाए।  हम विद्यार्थी  एक अखाडे़/व्यायामशाला  में  एकत्र  होते।  यह  एक  उजाड़ जगह  थी  जिसे हमने एक जीवन्त  स्थल में बदल  दिया  था  –  वहां पौधे लगाये  थे, गोबर से ज़मीन लीप दी  थी और इसे अपना कार्यालय बना  लिया  था, सारे ज़रूरी उपकरण  भी ले आए थे। अखाड़े की धूसर दीवारों को हमने मिट्टी रंगों से रंग दिया था – टूटे दातूनों की मदद से। यह स्थल इतना मनभावन बन गया था कि सभी गांववासी इसे देखने आ गये थे।

यह चालीस से पचास का दशक था। हम परोड़/भोर में गांव में घूमते हुए गाते थे:

जागजो जागजो नवे प्रभात जागजो

भारत ने अंग अंग हर्ष ना उठे तरंग

हर वह बालक जो विद्यालय की वार्षिक परीक्षाओं में बैठता था, होनहार माना जाता था और जो सातवीं कक्षा में सफल हो जाता उसे शिक्षक की नौकरी मिल सकती थी। मैं इस इम्तिहान में सफल रहा था और ड्राइंग में भी। अलावा इनके कोविद ( हिन्दी ) व विनीत ( हिन्दुस्तानी ) परीक्षाओं में भी। मुझे चरखा कातना बहुत पसंद था। मैं एक दिन में क़रीब एक मीटर कपड़े जितना सूत कात लेता था।  वालोड में मैट्रिक पास करने के बाद मैंने श्री नरहरि पारीख के साथ महादेवभाई की डायरी लिखने के लिए लहिया का काम किया। वे रोज़ाना महादेवभाई की गांधी जी के जीवन पर लिखी जा रही डायरी में से कुछ पन्ने मुझे बोल कर लिखवाते थे। मुझे हर पृष्ठ के हिसाब से मेहनताना मिलता था, मेरे जीवन का पहला रोज़गार।

अब समस्या यह थी कि मैं आगे की पढ़ाई के लिए कहां जाऊं ? शांतिनिकेतन बहुत दूर लगता था इसलिए यह तय हुआ कि मैं मुम्बई में जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट में जाने के लिए कोशिश करूं या बडौदा में ललित-कला विभाग में जाने के लिए। मुम्बई में मुझे  खारिज़  कर  दिया  गया।  विडम्बना  देखिए  कि  मुम्बई  में  जिस  प्रोफ़ेसर  ने  मुझे खारिज़  किया  था  बहुत  बरसों  बाद  मैं  उन्हीं  के  साथ  एक  कमेटी  में  था, कला-विद्यार्थियों के कार्य का साक्षात्कार लेने वास्ते ! बडौदा में प्रवेश-परीक्षा के लिए मैंने टेराकॉटा का बैल बनाया था। बेंद्रे , जो वहां के प्रमुख थे , बोले–”बहुत बढिया” हालांकि मैं इसे लेकर सजग था कि मेरे बैल में दरारें पड़ सकती है।

बडौदा में उन दिनों ललित-कला विभाग हाल ही में शुरू हुआ था और उसका अपना अलग से कोई भवन नहीं था। श्री मार्कण्ड भट्ट हमारी फेकल्टी के डीन चुने गये थे जो अमेरिका से एम. ए. की डिग्री लेकर लौटे थे। श्रीमती हंसा मेहता वाइस चांसलर थी। उन्होंने सभी के बीच यह कहा था कि अगर यह संकाय, एक कलाकार भी बना सका तो वे अपने इस उद्यम को सार्थक व सफल करार देंगी। कला-शिक्षकों की टीम बहुत ऊर्जावान थी और पढ़ाने के ढंगों में शांति-निकेतन व जे. जे. स्कूल का सम्मिश्रण था। प्रोफे़सर बेंद्रे, के. जी. सुब्रह्‌मण्यन व शंखो चौधरी  विद्यार्थियों के प्रति बहुत ही वत्सल व मददगार थे और सभी के बीच लोकप्रिय भी। आधी रात में क्लास-रूम में अपने वुडकट पर काम करते शांति दवे याद आते हैं। शिक्षण सिर्फ़ नियत घंटों तक ही सीमित नहीं  था। मणि साहिब  ( सुब्रह्‌मण्यन  ) कभी कभी  हमारे साथ  बैठते  थे और बहुत फुर्ती से दस या पन्द्रह जल-रंगों में चित्र बना देते थे। कभी कभी वे ज़मीन पर खडिया से रेखांकन करते हुए हमसे वार्ता करते और समझाते।

प्रो.  बेंद्रे  ईजि़ल/काष्ठ-घोड़ी  पर  ध्यान  केन्द्रित  करते।  वे  विद्यार्थियों  की  मदद करते – रंगों के साथ, उनकी रंग-पट्टिकाओं को साफ़ करने में और उन्हें कला के पहले सोपान पढ़ाते। जब वे प्रदर्शन-निरूपण करते थे तब पूरे वातावरण में एक तरह का  अभिभूत  मौन  व्याप्त  रहता।  विद्यार्थियों  के  साथ  शंखो  चौधरी  का  रिच्च्ता  इतना दोस्तीभरा था कि बहुधा वे शंखो के घर पर अपने अपने काम करते पाए जाते। स्वयं शंखो,  वुड/काष्ठ  या  स्टोन/पाषाण  पर  एक  श्रमिक  की  भांति  काम  करते।  उन्हें यात्राओं, नाट्य प्रदर्शनों , मेलों के आयोजन वग़ैरह का बहुत शौक था और के. जी. सुब्रह्‌मण्यन  भी  इन  गतिविधियों  में  पूरी  प्रमुखता  व  सक्रियता  से  भूमिका  निभाते  थे। शिक्षकों व विद्यार्थियों के बीच आत्मीय सम्बन्ध था, इतना कि विद्यार्थी कभी भी अपने शिक्षकों के घर जा सकते थे।

विश्वविद्यालय परिसर का समूचा वातावरण एक बड़े कुटुम्ब जैसा था।  बडौदा के अपने सुखद दिनों की याद मेरे लिए एक गहरी सांत्वना के बतौर तब उभरी जब १९९१ में मैं कैलिर्फोनिया में ”डेविस स्कूल ऑफ़ एनवायरमेंटल डिजाइन” में पढ़ा रहा था। मैंने एक विद्यार्थी से – जो मेरे पास सहायक के बतौर था – अपना एक ख़त डाक  में  डालने  के  लिए  कह  दिया  तो  यह  जान  कर  मुझे  गहरा  आश्चर्य  हुआ  व धक्का-सा लगा कि वहां इसे एक बड़ा अपमान माना गया और बहुत ही असमंजसपूर्ण स्थिति बन गयी।

बडौदा-कॉलेज का पारिवारिक माहौल, जहां समय की कोई पाबंदी नहीं  थी, और  शिक्षकों  व  विद्यार्थियों  के  बीच  के  नज़दीकी  व  गहरे  रिश्तों ने  उन  दिनों  के  समूचे परिवेश को रचनात्मकता के लिए बहुत उर्वर व प्रेरक बना दिया था। एक ही शिक्षक कई विद्यानुशासनों को सम्भालने में सक्षम व दक्ष थे। इसलिए विभिन्न संकायों के बीच परस्पर सरल सम्प्रेषण  व  विचार-विमर्श  भी  होता  रहता  था। सारा आग्रह  रचनात्मक कार्य पर एकाग्र रहता था, डिग्री या डिप्लोमा पर नहीं। रचनात्मकता व अनुशासन के सर्वोत्तम उदाहरण  स्वयं  शिक्षक  थे – अपने  एकाग्र  व सतत उद्यम, कौशल  व कडी मेहनत के जरिये।  विद्यार्थियों और  शिक्षकों दोनों के बीच वर्ग, समुदाय या उम्र का कोई भेद नहीं था।  थ्योरी  की  कक्षाएं  संगीत  व  नृत्य  के  विद्यार्थियों  के  साथ  लगती  थीं,  विभिन्न विद्यानुशासनों के  बीच  अन्तःक्रिया  को  प्रोत्साहित  करती।  व्याख्यान  देने  व प्रदर्शन-निरूपण के लिए कई मूर्धन्य कलाकार आमन्त्रित किये जाते थे।  अपने कॉलेज के दिनों में यद्यपि मैं गम्भीर आर्थिक मुश्किलों से गुज़र रहा था लेकिन इसके  लिए  मुझे कभी  हतोत्साहित या संत्रस्त  नहीं  किया गया। उन्हीं  दिनों जहां  मैं रहता था उसके पीछे एक नगीनभाई करके भी रहते थे जो इंजीनीयरिंग की पढ़ाई कर रहे थे। वे मेरा बहुत ध्यान रखते थे। बहुत बार शाम में जब घर पहुंच कर कमरे का दरवाज़ा खोलता, वहां दरवाज़े में से सरकाये गये कुछ रूपये मिलते। मैं जानता था कि नगीनभाई  ही  मेरी  मदद  करते  हैं।  एक  बार  कॉलेज  की  ओर  से  जब  हम  किसी कला-शिविर के लिए दूसरे शहर जा रहे थे, वे मुझे रेलवे स्टेशन छोड़ने आए। उनका ध्यान मेरे बक्से की ओर गया जिस पर ताला नहीं लगा था, वे समझ गये कि रूपयों के अभाव की वजह से ही ऐसा है। वे चुपचाप स्टेशन के दूसरी ओर गये और तुरन्त ही एक ताला खरीद लाए। ताला मेरे बक्से  पर लगाकर चाबी मुझे थमा दी।

हमारा सम्बन्ध इतना भीना व मौन तरह से स्पन्दित था।

फिर बहुत बरसों बाद जब मैं एन. आई. डी. में नौकरी कर  रहा  था, वे अचानक से आए। उन्होंने मुझसे कहा  कि वे एक मदद के  लिए मेरे पास आए हैं। उन्हें दो सौ रूपयों की ज़रूरत थी। मैंने फ़ौरन ही अपने सचिव को बुलाकर उन्हे दो सौ रूपये दे दिये। वे एकदम से आश्चर्यचकित हो गये कि बिना आनाकानी किये, बिना बातचीत के मैंने इतने सारे रूपये दे दिये। मैंने उनसे कहा था कि उन्होंने मेरे लिए जो किया है वह इससे कई गुना ज़्यादा था।  सच्चा  व्यवहार  ही दूसरे का  दिल जीतता  है। झूठ कभी सच नहीं  होता लेकिन यह हमेशा चिपक कर रहता है सो इससे दूरी रखना ही अच्छा है। क़ॉलेज में रहते हुए मुझे कभी गरीबी का अहसास नहीं हुआ। हालांकि खाने-पीने-रहने में जो तकलीफ़ थी, रंग से लेकर काग़ज़ तक में जो तकलीफ़ थी, जाने आने में होने वाली जो  दिक़्कतें थी, दूसरी  भी कई बातें  थी लेकिन इन सभी में कभी ऐसा लगा नहीं कि मैं निर्धन हूं या कि तकलीफ़ में हूं। मुझे हमेशा लगता था कि ये जीवन जीने की रीत है। रूपयों के साथ कुछ बहुत सीधा नाता कभी नहीं रहा।

मुझे याद आता है कि उन्हीं दिनों मैंने अपने पिता को एक ख़त लिखा था और उन्होंने मुझे सात रूपये का मनीआर्डर भेजा था।  कर्तव्य मेरे लिए हमेशा आकांक्षाओं से ज़्यादा महत्वपूर्ण रहे हैं। मेरे चित्त व आत्म की बनावट सम्भवतः  भिन्न  रही है। मान लीजिए  कि मेरे पास  सिर्फ़ एक रूपया हो और अचानक से एक लाख रूपये आ जाए तब  भी मेरे  लिए दोनों बराबर है। इसमें कुछ अलग होता नहीं। मेरे दूसरे मित्र फ़िल्में देखने जाते थे, फै़शनेबुल कपड़े पहनते थे, बड़ी जगहों पर खाना खाने जाते या सैर सपाटा करते  थे लेकिन इन चीज़ों ने मुझे कभी प्रभावित नहीं किया। मैं अपनी चीज़ें कर रहा था और उन्हीं में डूबा रहना अच्छा लगता था। बहुत पहले से यह मेरे मन में साफ़ रहा है कि हमें वैसे ही रहना-होना चाहिए जैसे कि हम है।

अपने आरम्भिक  पालन-पोषण के  प्रभाववश  वैसे  भी  मैं  दूसरों से  एक  तरह से  भिन्न जीवन ही जी रहा था। यह एक तरह से अपने पहले के जीवन-सिद्धान्तों के बीजों को पानी देने व सींचने जैसा ही  था – रोज़ाना दो-तीन  घंटें सूत कातता, अपने कपड़े खुद धोता, अपना खाना भी खुद ही बनाता, और अपने बर्तन मांजना तो मेरे लिए बच्चों-सा एक खेल था। अक्सर मेरे पास दूध या ब्रेड नहीं होती थी। बहुधा खिचड़ी बनाता था। जब ज़्यादा समय नहीं होता तो मैं शीरा, आटे या सूजी से बना हलवा , फूल गोभी और पापड़ खाता। एक बार मेरे पास  सिर्फ़ कुछ  सिक्के ही बचे  थे। मैंने रेलवे स्टेशन के नज़दीक की एक दुकान से कुछ भजिया ( पकोडे ) खरीदे। अब मेरे पास दस पैसे बचे थे। मैंने भजिया इसलिए खरीदे थे कि उन्हें खा कर ख़ूब पानी पीने के बाद आपको ऐसा लगता है मानो आपने पूरा खाना खाया हो – पेट भरा-सा लगता है। ललित कला के अपने विभाग की ओर जाते समय रास्ते में मैंने जब भजिया का पैकेट खोला, एक चील जैसा पक्षी पता नहीं कहां से अचानक आकर मेरे भजिया ले उड़ा। मेरे पास खाली काग़ज़ बचा रहा और वह भी उड़ गया। मैंने अपनी स्थिति को स्वीकार कर लिया। वहीं रास्ते से कुछ भुने हुए चने खरीदे , अपने पास शेष बचे दस पैसों से। पहनने के  लिए  मेरे  पास  ज़्यादा जोड़ी कपड़े  नहीं  होते  थे।  मैं  रात  में अपना कुर्ता पायजामा धोता और केवल एक तौलिया शरीर पर लपेट लेता ताकि अगले दिन मैं धुले हुए साफ़ कुर्ता पायजामा पहन सकूं। उन्हीं दिनों अपनी प्रायोगिक परीक्षा के लिए मुझे एक चित्र बनाना था जिसके लिए चालीस दिन मिले थे। लेकिन मेरे पास काम करने के लिए रंग तक नहीं थे और मैंने कॉलेज जाना बंद कर दिया था यह बहाना कर के कि मैं बीमार हूं। फिर किसी तरह फिर जब मैंने रंगों का बंदोबस्त करके चित्र बनाया तो मुझे उस साल की फैलोशिप का अवार्ड मिला।

बहुत बार मेरे पास कैनवास या बोर्ड तक नहीं होता था और रंग भी बहुत थोड़े-से ही रख पाता था। लेकिन चित्र बनाने की मेरी इच्छा बहुत गहरी थी। एक बार मैंने चित्र के पीछे  चित्र  बनाया  था – कैनवास के उलटे ओर।  यह  वह कैनवास  था  जिस  पर दोनों ओर चित्र थे।

मैं कह नहीं सकता कि मेरे शिक्षकों को मेरी इस हालत का पता था या नहीं। इतना ज़रूर लगता था कि वे मुझे थोड़ा भिन्न तरह से सम्मान देते हैं। मुझे ठीक याद है कि कला-विभाग  की  एक  अलमारी  में  कुछ  रंगों  का  सामान  रखा  गया  था – सम्भवतः ज़रूरतमंद विद्यार्थियों की सहायतार्थ। तब बेंद्रे सर ने मुझे उसमें से रंग की ट्यूब दी थी।

एक बार मैं कार्डबोर्ड के ऊपर जेसो-ग्राउण्ड कर रहा था–सफे़द लगाते समय बीच में कुछ दरारें सी आने लगी। मैंने उन्हीं दरारों से एक चित्र बना डाला। तभी प्रो. बेंद्रे की नज़र इस पर पड़ी और उन्होंने बहुत उल्लसित  स्वर से कहा–”बहुत अच्छा, बहुत अच्छा।” कहा कि इसे ग्वालियर में लगने वाली चित्र-प्रदर्शनी के लिए भेजो। जो फिर  मैंने  किया। सुब्रह्‌मण्यन  भी कभी कभी  मेरे  चित्र  पर काम करते  थे। उन्हें  यह करते हुए देखना बहुत आह्‌लादक होता था। काम ही मुख्य चीज़ थी। कॉलेज के अपने इन्हीं सालों में मुझे दो छात्र-वृत्ति भी मिलती थी। इनमें से एक हमारे रिश्तेदार थे जो मुम्बई से यह राशि भेजते थे। दूसरी वृत्ति भावनगर से आती थी – यह वृत्ति कौन  भेजता  था  इसका  मुझे आज  तक  पता  नहीं  है।  पहली  वृत्ति से चालीस रूपया और दूसरी से तीस रूपया आता था। गांधी जी और आदि-वासियों के प्रति मेरी खास भावनाओं व कड़ी मेहनत करने की मेरी क्षमता के प्रति मेरे शिक्षक सजग थे और आदर्शवाद व सेवा भाव के प्रति मेरी प्रतिबद्धता को लेकर उनके मन में सम्भवतः मेरे लिए अधिक सम्मान था।

सुब्रह्‌मण्यन और बेंद्रे मेरे गुरू थे लेकिन उनकी चित्र-शैली, शिक्षण का ढंग व दैनंदिन का जीवन मुझसे बिलकुल अलग था। बेंद्रे व सुब्रह्‌मण्यन दोनों के स्वभाव में भी खासा फ़र्क़ था। बेंद्रे के परिवार के साथ मेरा सम्बन्ध था – मैं उनके जीवन्त व तूफ़ानी बेटे को पढ़ाता  था। मणि साहिब एक मुकम्मल  शिक्षक  थे और उनके जीवन व कार्यों में अद्भुत एकमेकता थी, जिससे मैं बहुत प्रभावित था। उनकी पत्नी सुशीला और बेटी उमा  भी  सहृदयवान  थे।  पिछले  चालीस  सालों  से  मेरे  पूरे  परिवार  के  साथ  उनका घनिष्ठ नाता बना हुआ है। वे पूरी तरह से भारतीय संस्कृति में रचे-बसे ऐसे शख़्स है जिनके पास एक मौलिक अन्तर्दृष्टि व उच्च मानवीय-मूल्य है।

विद्यार्थियों व  शिक्षकों के देश के  विभिन्न  भागों से सम्बन्धित होने के कारण सभी के बीच एक अलग तरह की अन्तःक्रिया सम्भव हो पाती  थी – एक  विशाल कैनवास के जरिये जो  असल  में  पूरा  भारत  था  और  संसार  जिसने  हमारे  शिक्षण के  विषय को आकार दिया।

यह सब मेरे लिए इसलिए भी स्फूर्तिप्रद था क्योंकि मैं एक अपेक्षाकृत छोटी जगह से आया था। मैं हमेशा कला में नयी खोजों से स्वयं को उर्वर महसूस करता था। वहां का पूरा  परिवेश  बहुत  जीवन्त  था।  हालांकि  पढ़ाई  के  हमारे  विषयों  का  परास  विस्तृत था–इंग्लिश,  गुजराती,  मनोविज्ञान,  सौन्दर्यशास्त्र,  संसार  का  इतिहास  और संगीतशास्त्र वगै़रह लेकिन ऐसा कभी नहीं लगा कि यह बोझ है। कला के पाठ्यक्रम में ड्रॉइंग, पेंटिंग, वुडकट, लिथोग्राफी, स्कल्पचर वग़ैरह शामिल थे। इनके अलावा भी हम कई चीज़ें कर सकते थे। अधिक आग्रह प्रायोगिक पक्ष पर था। ऐसा नहीं था कि डिग्री का डिप्लोमा से ज़्यादा महत्व हो। विद्यार्थियों में ज्योति भट्ट, शांति दवे, विनय त्रिवेदी, रतन परिमू, रमेश पंड्या, राघव कनेरिया, वगै़रह थे।  लेकिन  आज  जिसे  ”बडौदा  स्कूल” कह कर  अभिहित  किया जाता  है  उसकी कोई प्रासंगिकता मेरे मन में नहीं है –  उन  दिनों वहां होने-सीखने-जीने का ही मेरे  लिए केन्द्रीय मतलब है। हालांकि एक स्वस्थ कला-परिदृश्य की निर्मिति में कलांदोलनों की अपनी भूमिका है लेकिन मैं कभी इसमें उतरा नहीं। साठ के दशक में बहुत लोगों ने मुझे यह कहा कि मुझे अमूर्तन में काम करना चाहिए लेकिन मेरे मन में अपनी दिशा बनने लगी थी और मैंने यह चुनाव किया कि मैं अपने अन्तःकरण के प्रति सच्चा बना रहूंगा। मेरी इसी प्रतिश्रुति ने मुझे कभी भी किसी फौरी आंदोलन या फ़ैशन के बहाव में आने से बचाया। यह एक बड़ा जोखिम था जिसे मैंने स्वीकार किया।

जब मैं बडौदा में कला के अन्तिम वर्ष का  विद्यार्थी था तब मेरे  स्टुडियो के पास ही एक नॉर्वे से आयी कलाकार रहती थी जिनका नाम ऐबे था। वह चित्रकर्म में संलग्न रहती थी। मैं उन परिणामों को देखकर चकित रह जाता था जो उसके चित्रों से मिलते थे।  खास  तौर  से  जिन  रंगों  का  इस्तेमाल  वह  करती  थीं  उन्हें  लेकर  मैं  कभी  भी आश्वस्त नहीं हो पाता था। वे मुझे गारे से सने हुए लगते थे। मैं बुद्धुओं की तरह यह सोचता रहता था कि आखिर रंग तो ये वे ही है – लाल ,पीले ,भूरे वग़ैरह और ट्यूब भी वही है तब वह यह क्या करती है, कैसे लाती है वह, जो मुझे गारेदार कीचड़ जैसा लगता है ? बहरहाल, यह उसका अपना संसार था। रंगों की अलौकिक शक्ति और उनको बरतने के असंख्य ढंगों के बारे में यह मेरी दीक्षा के पहले दौर थे।

स्नातक की अपनी पढ़ाई पूरी कर मैं वापिस अपने गांव चला गया, वहीं पास में वेडछी आश्रम  (१९५५-५७)  में  टीचर्स  ट्रेनिंग  विभाग  और  उत्तर  बुनियादी  उच्च  विद्यालय  में ड्रॉइंग का शिक्षक बन कर। उन दिनों मासिक वेतन के रूप में मुझे १३७ रूपये मिलते थे।

वहां मैंने प्रस्तावित किया कि आश्रम में रहने वाले सभी लोग – स्टाफ, विद्यार्थी, और उनके  परिवार  के  सदस्य  सभी  किसी  एक  खास  दिन  कुछ  कला-सृजन  में  प्रवृत्त होंगे –  आश्रम के प्रमुख जुगतराम भाई भी। हमारे साथ आश्रम में शिवाभाई भी बतौर अतिथि अपने कुछ कामकाज के लिए वहां रह रहे थे जो पूरे भारत में कपास/कॉटन पर अपने शोध व अध्ययन के लिए जाने जाते थे। उन्होंने कपास के पौधे का रेखांकन किया था। अपने बनाए इस रेखांकन को मुझे देते-दिखाते वे बोले- ”कॉटन के बारे में अपने तथ्यों को मैंने इतनी स्पष्टता से पहले नहीं जाना था, और न ही स्वयं को इतना आनन्दित महसूस किया था जितना आज कर रहा हूं।”  विद्यार्थियों के  इम्तिहान  भी  इसी  तरह  लिए जाते  थे।  मैंने  यह सुझाव  दिया  था  कि प्रत्येक  विद्यार्थी आश्रम में अपने  लिए एक खास जगह चुने और उसे अपनी तरह से सुंदर  व जीवन्त  बनाए  लेकिन  वहीं  उपलब्ध  स्थानीय  सामग्री  तक  स्वयं को  सीमित रखते  हुए।  और  दूसरा  यह  था  कि  सभी  अपनी  पसंद  की – वहीं  उपलब्ध साधन-सामग्री को  बरतते  हुए  एक  शिल्प-कृति  बनाए। और अन्ततः सभी  एक  चित्र बनाए। इसके  लिए उन्हें दो या तीन  दिनों का समय  दिया गया। कभी कभी  रात में जब मैं आश्रम का चक्कर लगाता, विद्यार्थियों को कुछ न कुछ करते हुए पाता – कोई पेड़ों के बीच कुछ बना रहा होता, कोई टहनियों व पत्थरों वग़ैरह से किसी शिल्प को जन्म दे रहा होता।

जनजातीय  जीवन-संसार  से  मेरा  परिचय –  जैसा  कि  मैं  पहले  व्यक्त  कर  चुका हूं –  क़ॉलेज के दिनों से ही शुरू हो गया था। स्नातक की पढ़ाई करने के बाद जब मैं इसी वेडछी आश्रम में शिक्षक रहा तब उस इलाक़े में कोटवाळिया नाम की जाति के लोग  रहते  थे  और  बांस  से  बहुत  सुंदर  चीज़ें  बनाते  थे।  उनका  एक वाद्ययंत्र- ढोबडु – मुझे बचपन से ही बहुत पसंद था, आज भी है। धीरे धीरे मैं उनके क़रीब जाने लगा, उनसे मेरा जुड़ाव व लगाव पनपने लगा। मैं देखता था कि अपनी चीज़ें बेचने के लिए वे बारह क़िलोमीटर दूर एक दूसरी जगह – बारडोली – जाते थे।

उनकी  शरीराकृति को  देखना  मुझे  बहुत  भाता  था, उनकी  गेंहुआं  त्वचा  देखता  था इसलिए नहीं कि उसे अंकित करना है, बस देखता था और डोबडु का स्वर सुनता था।  उनमें  एक  खास  तरह  की  प्यूरिटी  है  जिसको  मान  देना  चाहिए।  लोक  व जनजातीय परम्पराओं का यह पहलू भी मुझे उन्हीं दिनों से बहुत महत्वपूर्ण जान पड़ने लगा था कि अपनी सृजन-सामग्री का निर्माण बहुधा वे स्वयं ही करते हैं हालांकि अपने चित्र-कर्म में मैं यह नहीं कर पाया हूं – कैनवास से लेकर रंग और अपनी छोटी करनी तक अगर मैं स्वयं ही बना पाता तो क्या बात थी ! गो कि एक चित्रकार के रूप में अपने चित्रों में मैंने क्या पाया व उपलब्ध किया है इसका पता उसमें व्याप्त सौंदर्य-तत्व से लग सकता होगा।

बहरहाल।

फिर समय आया जब मेरे माता-पिता ने बड़ौदा जाकर रहने का निर्णय लिया – ताकि मेरे भाईयों व बहनों की आगे की पढ़ाई जारी रखी जा सके। उनकी पढ़ाई व अपनी रोज़मर्रा  की  ज़रूरतों  के  लिए  हमें  लगभग  दो  हज़ार  रूपयों  की  ज़रूरत  थी।  यह अपेक्षित धन मैंने विमल शाह के लिए ३०० चार्ट बनाकर जमा किया, जो ग्राम विकास के  लिए सघन  क्षेत्र-योजना नामक  परियोजना के  प्रमुख  थे। उन्होंने  प्रत्येक चार्ट के लिए उदारतापूर्वक मुझे सात रूपये दिए जबकि बात पांच रूपये देने की थी।

बीच में जब भी मैं अपने गांव जाता, ख़ूब रेखा-चित्र बनाता। क़ॉलेज के पहले साल से यह मेरा अभ्यास रहा था और अपनी यात्राओं के दरमियान भी। बीच  बीच  में जब  मैं  गांव जाता  था  तब कला-कार्य के  लिए  हमारे  गांधी-दृष्टि  व विचार से जुड़े लोग कुछ न कुछ कार्य बताते रहते थे जिन्हें मैं पूरे मनोयोग से करता रहता था। इसी भांति आदि-वासी लोगों के बीच भी जाना बराबर होता रहता था।  कलकत्ता में जब बुनकर सेवा केन्द्र (१९५९-६२) में काम कर रहा था तो मैं एक सस्ते होटल की एक छोटी-सी बरसाती में एक दूसरे युवा के साथ साझेदारी में रहता था। यह युवा अस्थमा का मरीज़ होने पर भी रात में अपनी आखिरी सिगरेट तक उस समय भी पीने से बाज नहीं आता जब सर्दियों की वजह से हमें अपना बिना खिड़की वाला कमरा बंद करना पड़ता था। वह कमरा मेरे लिए किसी जेल से भी ज़्यादा बुरा था। सारा कमरा हमेशा सिगरेट के तिक्त धुएं से भरा रहता। लेकिन क्या किया जा सकता था ? उस कमरे में इतनी जगह भी नहीं थी कि मैं अपने कुछ ज़्यादा चित्र वहां रख सकूं जबकि मेरे  चित्रों की संख्या बढ़  रही  थी। मेरा अच्छा  भाग्य  कि एक  स्कूल के प्रिंसिपल –  जो मेरे परिचित थे – का घर बहुत बड़ा था और उनके घर की दीवारें कुछ उस तरह से थी मानो किसी गैलरी की हो। उन्होंने मेरे सम्मुख यह प्रस्ताव रखा कि मैं अपने चित्र उनके घर पर लगा दूं। इससे मुझे गहरी राहत मिली। तब भी, एक दिन उनकी आठ बरस की बिटिया ने मुझसे कहा – ”मेरी मां और मेरे पिता के बीच रोज़ झगड़ा  होता  है।”  मैंने  पूछा  क्यों  ?  उसका जवाब  था – ”मेरी  मां कहती  है  कि  वे आपके चित्रों को घर पर नहीं रखना चाहती जबकि मेरे पिता को वे बहुत पसंद है।” उन्हीं  दिनों  हिमानी  खन्ना  ने कलकत्ता  में  थियेटर  रोड  पर अशोक आर्ट  गैलरी का आरम्भ किया था और वे मेरे चित्र देखना चाहतीं थीं। उन्होंने मेरे प्रिंसिपल मित्र के घर पर ही चित्रों को देखा और उनमें से दो चित्र कुछ ही दिनों में बेच दिए और वापिस कुछ और चित्रों के लिए आईं। प्रिंसिपल की पत्नी को यह देख कर गहरा आश्चर्य हो रहा  था  कि  एक  गैलरी  की  मालकिन  इन  चित्रों  की  प्रशंसा  कर  रही  है।  जबकि प्रिंसिपल इस सारे प्रसंग पर स्वयं से ही हंसे। दोनों ही अपने सोचने में ईमानदार थे और अपनी तरह से सही भी।

उन्हीं दिनों हिमानी खन्ना ने मेरे सम्मुख यह प्रस्ताव रखा कि वे ऐसे ग्रीटिंग कार्डस मुद्रित  करें  जिसमें  मेरे  मूल  रेखांकन  हो।  प्रस्ताव  आर्कषक  था,  मुझे  पसंद  आया। हाथ-काग़ज़ पर दुहरी तह वाला कार्ड हिमानी ने डिजाइन किया – ऊपर मेरा काली स्याही से बनाया हुआ मूल रेखांकन रहता था और अंदर ग्रीटिंग्स का मुद्रित मजमून। कार्ड के  पीछे  नीचे की ओर यह  मुद्रित  रहता  था:  हेंड-ड्रॉइंग  बाय  हकु  शाह। यह  पूरा कार्ड वे दो रूपये में बेचती थी–एक रूपया मेरा , पचास पैसा मुद्रण का और बाक़ी पचास पैसा गैलरी का।  उन दिनों ये कार्ड बहुत बिकने लगे थे। लोग आते और कहते–”आइ वांट टेन ऑर ट्वंटी हकु शाह (कार्डस्‌)”।

कलकत्ता में ही जब मैं बुनकर सेवा केन्द्र में काम कर रहा था तब चार्ल्स इम्स पूरा भारत गीता लेकर घूमे थे और नेशनल स्कूल ऑफ़ डिजाइन के संकल्पना-प्रारूप पर काम कर  रहे  थे –  तभी  उन्होंने  अपनी  वह  रिपोर्ट  भी  तैयार की  थी  जिसमें  उन्होंने ”लोटा” को लेते हुए भारतीय डिज़ाइन-दृष्टि को उजागर किया था। जब एन. आइ. डी. की स्थापना हुई तब पुपुल जयकर और गीरा साराभाई के जरिये उन्होंने मुझे एन. आइ.  डी.  में काम करने के  लिए  बुला  लिया।  एक  नये  डिजाइनर के  लिए  भारतीय कला-परम्परा की अमूल्य धरोहर का एक संग्रह बन सके तो यह एक बहुत बड़ी बात होगी, यह सोच कर मैंने वहां काम करना शुरू किया। यह वह दौर था जब भारतीय डिजाइन-दृष्टि के बहुलायामी अर्थाशय कुछ बहुत  स्पष्ट नहीं  थे। तब एन. आइ. डी. का तात्विक ढांचा अभी बना नहीं था। उन्हीं दिनों दुनिया के नामचीन डिजाइनरों द्वारा बनाया  हुआ  एक  बड़ा  संग्रह  ”आधुनिक  कला  संग्रहालय”  ने  एन.  आइ.  डी.  को भेंट-स्वरूप दिया था। एन. आइ. डी. में रहते हुए मैंने रिसोर्स पर्सन के नाते ग्रामीण शिल्प  व कलाओं  पर  अनुसंधान  ही  नहीं  किया  बल्कि  हमने  पूरे  भारत  में  गांव  गांव जाकर कला-वस्तुओं का संग्रह करना भी शुरू किया था। एन. आइ. डी में मुझे काम करने की इतनी स्वतन्त्रता दी गयी कि मुझे कहा गया कि मैं वहां रहते हुए ऐसा कुछ भी कर सकता हूं जो मैं करना चाहूं। मैंने  भारतीय देशज  डिजाइन  पर काम करना शुरू  किया। यह कोशिश  रही  कि हमारी यह जीवित  थाती बची  भी  रहे और वृहत्तर समाज के सम्मुख इसे रखा भी जा सके। पांच चीज़ों में मेरा ध्यान खास तौर से बराबर बना रहा – रातडी गांव में किया गया शोध, कच्छ के दीवाल-रिलीफ कार्य, मधुबनी चित्रकला, अय्‌नार के घोड़े व ग्राम-देवता और माता नी पछेडी। उन दिनों इस बारे में भी सोचना मुझे ज़रूरी लगने लगा था कि जो काम मैं कर रहा हूं उसे विद्यार्थियों संग कैसे जोड़ा जाय क्योंकि मेरी नज़र में यह विरल सम्पदा भारत का बीज-कोष है। हम सभी वहां रहते हुए अपनी अपनी तरह से स्थायी महत्व के काम में लगे थे।

एक बार मैं कच्छ के एक गांव भूजोड़ी गया। मैंने वहां सफे़द मिट्टी की बहुत सुंदर दीवार देखी जिसे वहां की एक बहन, हांसु बहन ने बनाया था। मैंने हांसु बहन से पूछा: आप दीवार पर मिट्टी से जो विविध प्रकार की चित्रकारी – रिलीफ वर्क – करती  हैं,  यह  तो  ठीक  है लेकिन  साथ  साथ  ये  छोटे  छोटे  आभळा/  दर्पण  क्यों लगाती  है? उनका कहना था–”हम लोग अपने घरों में एक दीप जलाती हैं  तो हज़ार दीप  इस दर्पण को लेकर अपने आप जलते हुए  दिखाई देते  हैं।” ठीक इसी तरह मैं कुम्हारों के घर रोज़ जाता और वहां से मैंने एन. आइ. डी. के ही लिए मिट्टी से बने बर्तन व अन्य शिल्प-कृतियों का संग्रह  किया। कुछ और चीज़ें  भी  थी। जैसे ”माता नी पछेडी”। यह कपड़े पर लोहे की काट का काला रंग और फटकरी का लाल रंग लेकर हाथ से बनी तूलिका से बनाई जाती है। यह सब कला की चाक्षुष सम्पदा की भांति है।

भारत में डिजाइन जीवन का एक भाग है। एक दफ़ा एक आदि-वासी ने मुझसे कहा: राच तो छे पण भात पण जोइए : वस्तु तो है पर भात/डिजाइन भी चाहिए या वस्तु तो है पर भात नहीं है। दरअसल मानवीय होने में भात संलग्न है : यह सकल जीवन का एक हिस्सा है। डिजाइन-अभिवृत्ति व प्रकार्य इसमें अन्तर्निहित है। आप किसी भी वस्तु को ले और आप पाएंगे कि रूप व अलंकरण या कहे सौन्दर्यशास्त्र इससे जुड़ा है। सम्भवतः डिजाइन के भारतीय इडियम को समझना बहुत कठिन है। एक मायने में अगर यह बहुत सादा-सरल है तो इसकी सूक्ष्म तहों में जाने पर पता चलता है कि यह एक अत्यन्त जटिल किस्सा है। इसके लिए हुंवनो तक को बतौर उदाहरण रखा जा सकता है। मुझे याद पड़ता है कि फिनलैंड के नामचीन डिजाइनर वीरकाला को एन. आइ. डी.  में  बतौर सलाहकार जब आमन्त्रित  किया गया  था  तब  मैं अपने  एक दूसरे सहयोगी मित्र गजानन उपाध्याय के साथ उन्हें विभिन्न शिल्प-रूपों के हुनरमंदों से मिलवाने भी ले जाता था और एक तरह से जनजातीय व ग्रामीण शिल्प कला से उन्हें  आत्मीय  भी  बना  रहा  था।  अपनी  रिपोर्ट  में  फिर  उन्होंने  लिखा  कि  परदेसी सलाहकार  भारतीय  डिज़ाइन  के  लिए  सलाह  नहीं  दे  सकते।  यह  अपने  में  इतनी विलक्षण व अपार तथा चप्पे चप्पे में व्याप्त है कि इसकी थाह लेना ही कठिन है।

मुझे लगता है कि वह डिजाइन-दृष्टि जो समग्र जीवन का अनुषंग नहीं बन पाती बहुत दूर तक नहीं जा सकती। जहां तक भारत में डिजाइन की शिक्षा का ताल्लुक़ है तो हमें  यह  खयाल  में  रखना  चाहिए  कि  यहां  डिजाइन  को  लेकर  उस  तरह  से  कभी प्रशिक्षित  नहीं  किया  जाता  था  जिन  अभिप्रायों/आशयों  में  इसे  हम  आज समझने-प्रशिक्षित करने लगे हैं। डिजाइन में कृति-वस्तु की उपयोगिता एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत में डिजाइन का उपयोगिता/यूटीलिटी के साथ एक अद्भुत व अद्वितीय क़िस्म का योजन/मिश्रण रहा है। यहां जीवन के बहुतेरे ऐसे कारक है जो एक कृति-वस्तु में अन्तर्गुम्फित रहते हैं। आप एक झाडू ले या एक घड़ा या चरखा या लोटा  या  साड़ी – इन  सभी  का  वातावरण/परिवेश, रचना-उपादान/मटीरियल, तकनीक, व्यक्ति जिसने इसे बनाया है , सामाजार्थिक व जातीय पृष्ठभूमि और सारे समय  काम  करता  परिवर्तन – इन  सभी  तत्वों  व  अन्य  भी  बहुत  कुछ  से  एक

डिजाइन-वस्तु का  गहरा  सरोकार  रहता  है।  गुजराती  में  बहुत  अच्छे  से  इसे  व्यक्त किया  गया  है –  घडवुं  :  अनुभव के जरिये  उत्कर्ष  आना।  परिवर्तन,  देश-काल  और चीज़ों के मुताबिक आता हैः यों वस्तु और बेहतर होती जाती है। मुख्य बात यह है कि हमारे आज के डिजाइनर्स हमारी पारम्परिक डिजाइन-दृष्टि का अवगाहन करें और उसके अपने  विशिष्ट सौन्दर्य-मर्म  व  मूल्य-बोध का।  यहां  हरेक वस्तु से जीवन प्रतीकिकृत है। यह सिर्फ़ भौतिक/पदार्थमय मूल्यों का ही मसला नहीं है कि मटीरियल वगैरह को बहुत अच्छे से बरता व इसका ध्यान रखा गया है बल्कि इससे  इतर  मूल्य  भी  इसमें अवतरित  है और  मर्म उसी  में  छिपा  है। जैसे कोठी जो महज कोठी नहीं है क्योंकि उससे कृष्ण भी जुड़े हैं : इस प्रतीकधर्मिता को जाने बगैर भारतीय डिजाइन संसार में दाखिला मिलना सम्भवतः सम्भव नहीं। अब इसे आप किसी भी औपचारिक विद्याशाला में  सिखा नहीं सकते। यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी जन्म से लेकर मृत्यु तक आजीवन अनवरत चलती रहने वाली प्रक्रिया है।

पलट कर अब जब उस समय के बारे में सोचता हूं तो लगता है  कि हम सभी की भूमिका नींव की ईंट जैसी  थी। इस दौर ने  स्वयं मेरी  निजी सोच व जीवन को  भी समृद्ध व फलप्रद बनाया। इस दरमियान अनेक  विभूतियों जैसे नाकाशिमा,  जिराड, लियो लेनोइ, कार्ते  ब्रेसॉ, एडरियन  फ्रूटीगर  वगैरह  से  शुरू  हुई  मित्रताओं  का सिलसिला  आज  तक  भी  स्पंदित  है।  और  भारत  की  सांस्कृतिक  धरोहर  को सहेजने-संवारने  व  आगे  ले जाने  में  चार्ल्स  इम्स के  योगदान को  भुलाया  नहीं जा सकता –  वे एक प्रकाश-स्तम्भ की भांति है। उनके साथ मेरा नाता बहुलायामी था और उनके संग-साथ के कई संस्मरण अब भी मन में ताज़ा है।

एक प्रसंग यों बना: अहमदाबाद में एक जगह फुटपाथ के एक कोने में पिछले लगभग पचास सालों से एक झोंपड़ी है। झोंपड़ी के बाहर एक छोटा-सा मंदिर है। वहां रात में लोग मण्डली बनाकर भजन-कीर्तन करते हैं तथा दिन में खटिया बुनते देखे जा सकते हैं। मुझ में झोंपड़ी को अंदर से देखने की इच्छा जब गहराने लगी तो मैंने पाया कि वह झोंपड़ा जिसे मैं रोज़ाना ही देखता  रहा हूं उस में अंदर जाए तो वहां एक बड़ा-सा पालना/घोडियूं रखा है। झोंपड़ी के अंदर की दीवाल पर एक बहुत सुंदर व बड़ा चित्र भी बना हुआ था जिसकी रंगाभाएं पूरी झोंपड़ी के वातावरण को आह्‌लादक बना रही थी।  मंदिर और वहां काम करते लोग और एक बूढ़े दादा और खेलते बच्चे मुझे आज भी भली भांति याद है।

मुझे लगा कि यह स्थल चार्ल्स इम्स को बेहद पसंद आएगा। इम्स के सम्मुख मैंने यह प्रस्ताव रखा कि उन्हें वह झोंपड़ी देखनी चाहिए–भले ही पांच-दस मिनिट के लिए।

उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार किया। हम वहां गये। इम्स ने लगभग पैंतालीस मिनिट तक झोंपड़ी के कोने-अन्तरों तक को बहुत बारीकी से देखा और वहां –  झोंपड़ी के भीतर व बाहर –  की कुछ तसवीरें ली। जिनमें वही रखा पालना तथा वहां खेलते बच्चे वगै़रह शामिल थे। मेरे मन में लगातार यह विचार चलता रहा कि उस महान आत्मा को उस झोंपड़ी  में  ऐसा  क्या  दिखा  कि  वे  वहां  पांच-दस  मिनिट के  बजाय करीब  पैंतालीस मिनिट तक रहे ?

तब मैं यह समझ नहीं सका कि उन्होंने वहां क्या देखा होगा। गरीबी ? चित्र ? पालना ? बच्चे ? फुटपाथ ? इस घटना के लगभग दो सालों बाद डाक से मेरे पास एक लिफाफा आया। खोलकर देखा, पाया कि उसमें अलग अलग कोणों से खींची गयी उसी झोंपड़ी की कुछ तसवीरें थीं। एक बड़ा छायाचित्र दादा का था जिसमें वे अपनी गोद में एक छोटे बच्चे को लिए थे। इस तसवीर में अस्सी साल के दादा का झुर्रीदार हाथ और इस पर पोते का निर्मल, कोमल हाथ मानो दोस्ती बनाए रखे थे। इम्स ने अपने खत में लिखा था कि उन्होंने उस झोंपड़े में दादा और पोते के सम्बन्धों की पूरी एक दुनिया देख ली थी। खत पर उन्होंने लिखा था – योर फैमिली : तुम्हारा परिवार।

इसी तरह कैलिफोर्निया में एक बार हम चार्ल्स इम्स के घर पर उनकी पत्नी रे के साथ बाहर बरामदे में कुछ लोगों के साथ बैठे थे। अचानक से कहीं से इम्स मेरे पास आए और मेरे कान में एक गाना गुनगुनाने लगे। यह गाना प्रचलित लेडीबग का गाना था। बोले–”देखो।” उन्होंने वहीं ज़मीन पर जाते हुए एक लेडीबग/सोन पाखरा की ओर मेरा ध्यान दिलाया।

उन्हीं दिनों एक दिन वहीं उनके घर पर हम सभी के कुछ मित्र-परिचित जमा थे और वे यह सूचीबद्ध कर रहे थे कि मुझे कैलिफोर्निया में क्या क्या देखना चाहिए। एक बहन ने कहा कि डिज़्नीलैण्ड देखना चाहिए। तभी बगल वाले कमरे से इम्स अपनी चाल से चलते  हुए  आए  और  कहा–”हकु  डिज़्नीलैण्ड  नहीं  जाएगा,  इन्हें  वॉट्स  टॉवर दिखाइए।” वॉट नाम के एक शिल्पी ने यह टॉवर सिरामिक्स के छोटे छोटे टुकड़ों से बनाया  था। यह उसी के नाम से  वहां बहुत  प्रसिद्ध  भी  था–एक अद्भुत कलाकृति जैसे।

फिर इम्स एक बार एन. आइ. डी. के सिलसिले में अहमदाबाद आए हुए थे। हमारे घर बच्चों के साथ पतंग उड़ाने आए। हम सब लोग बाहर बरामदे में बैठे थे और इम्स बीच बीच में बच्चों के साथ आकाश में पतंगों को ऊंची उड़ाते हुए पतंगों के रंग और गति के बारे में बात करते जाते थे। तभी – पता नहीं क्या सोच कर- वे मेरे नज़दीक आए और मुझे वहीं एक कोने की गली में ले जाकर मेरे कान में बोले–”हकु, भारत जैसे देश में कारीगर व कारीगरी के लिए कुछ करना चाहिए।”

अब इम्स ठहरे डिजाइन की दुनिया के राजा जैसे। डिजाइन के बारे में उनकी आंख और दिल इतना साबुत है कि लगता है उन्होंने सारी गहराइयों को जान लिया था। ”लोटा” पर उनका  चिन्तन सर्वविदित है ही। समूचे  भारत की सांस्कृतिक  धरोहर के प्रति उनकी चिन्ता, सरोकार व जागरूकता का प्रमाण स्वयं उनके अपने जीवन-कर्म से ही पता चल जाता है –  मुझ अकिंचन पर उनका यह वत्सल स्नेह मेरी अपनी निजी व अविस्मरणीय निधि है। वे मुझे आज भी प्रेरणा देते हैं। एक प्रसंग याद आता है: एक पुरानी कार में मैं तथा चार्ल्स इम्स उनके दफ़्तर जाने के लिए चल पड़े। गाड़ी चलाते चलाते वे अपनी इस पुरानी कार के बारे में बताते  रहे  कि यह उन्हें  कितनी पसंद है और क्यों। हम लोग नाइन ऑ वन, कैलिर्फोनिया के उनके दफ़्तर आ पहुंचे। वहां उन्होंने कांच की एक छोटी अलमारी में एक ऑक्टोपस पाल रखा था। पानी से भरी  इस अलमारी  में ऑक्टोपस आहिस्ता आहिस्ता  घूम  रहा  था।  दफ़्तर  में  दाखिल होते ही इम्स इस ऑक्टोपस से यूं बातें करने लगे मानो अपने किसी पुराने दोस्त से मिल रहे हो। मुझसे कहने लगे–”देखो, यह ऑक्टोपस कैसे चलता है , देखो।”

इम्स ने अलमारी के ऊपरी कांच पर पंजे को दबाकर अपना हाथ रखा मानो कांच पर छाप उपसाना चाहते हो। मुझसे कहने लगे–”देखो तो सही, देखो यह ऑक्टोपस किस  तरह  चल  रहा  है।  यह  मैं  आपको  दिखाता  हूं।  मेरी ऊंगलियां  जिस  तरह  से खिसकेंगी-चलेंगी, यह भी उसी तरह से चलेगा। यह मेरा अनुसरण करेगा।”

ऐसा ही हुआ भी।

पानी में आहिस्ता आहिस्ता घूमते हुए वह ऑक्टोपस ऊपर आता था। जैसे जैसे इम्स का हाथ व ऊंगलियां ऊपर की ओर सरकते जाते थे वैसे वैसे ऑक्टोपस उनकी इस हरकत की पालना करता था। इम्स ने मुझे बताया कि उन्हें वाच्चिंग्टन में एक एक्वेरियम डिजाइन करना है इसलिए यह  ऑक्टोपस  यहां  रखा  गया  है।  एक  एक्वेरियम  डिजाइन  करने  के  लिए  पानी, जीव-जन्तु की  गति  व  अन्य  चीज़ों का  इस  तरह  व  इतनी  बारीकी  से  उनका  यह अध्ययन करना मुझे गहरे तक प्रभावित कर गया।

उनके दफ़्तर को देखकर लगता था वहां बहुत सारी परियोजनाओं पर एक साथ काम हो  रहा  हो।  एक  बड़ी-सी  मेज़ के  इर्द-गिर्द लोग काम कर  रहे  थे।  वह  मेज़  एक  संग्रहालय जैसी लग रही थी। वहां की हरेक चीज़ आला दर्जे की थी जिसमें इम्स की छाप साफ नज़र आती थी।  दोपहर में मैं और उनकी पत्नी, रे, बाहर बागीचे में सोच-विचार करने के लिए बाहर आए। सुंदर, खुली जगह। उनकी पत्नी एक टोकरी लिए थी जिसमें बहुत सारी चीज़ें थी मानो उसमें एक छोटा-सा संग्रहालय ही हो ! वे धीरे धीरे अपनी जादुई टोकरी से सावधानीपूर्वक चीज़ें  निकालने लगीं जो जापानी तहज़ीब  व तरीक़ों की याद  दिलाता लगता था। जिधर हम बैठे थे उसकी बायीं तरफ़ दफ्‌तर की दीवार दिखाई देती थी।

तभी उधर के एक कोने से आवाज़ आई–”हकु, देखो। क्या तुम्हें पता है ऑक्टोपस कैसे चलता है?”

और वे इम्स थे।

इम्स टेढे़-मेढ़े, आहिस्ता आहिस्ता, ऑक्टोपस की माफिक चलते चलते हमारे पास आए।

मुझे एक डिज़ाइनर के व्यक्तित्व का, कार्य का, पाठ मिल गया।

किसी भी काम में लगन व धुन व आत्मीयता का समावेश होने पर ही काम में ”रस” आ सकता है। काम में पोत आएगा। वास्तव में तो उस काम में स्वयं वह सर्जक ही दाखिल हो जाएगा।

जैसे यहां चार्ल्स इम्स ऑक्टोपस बन गये थे।

आम जन की अपार  रचनात्मक  शक्ति को लेकर  इम्स  इतने  प्रभावित  थे  कि जब  वे नेहरू प्रदर्शनी पर काम कर रहे थे तो उन्हें प्रदर्शनी के लिए श्री शारदा प्रसाद द्वारा तैयार किये गए मसौदे से यह पता चला कि एक झाडूवाला भी भारत का प्रधानमन्त्री होना चाहिए। उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि अपने इस काम के  सिलसिले में वे एक  झाडूवाले  की  तसवीरें  लेना  चाहेंगे।  उन्होंने  मुझसे  इस  बारे  में  चर्चा  की। अहमदाबाद की ही एक गली – मीठा खड़ी –  में जो व्यक्ति झाडू निकालता था, वह मुझे इसके लिए उपयुक्त लगा। मैं उसे लेकर इम्स के पास गया। यह शख़्स उन्हें भी ठीक लगा। उन्होंने कहा  कि अगले  दिन हम तसवीरें लेंगे। दूसरे  दिन मैं और इम्स मीठा खड़ी पहुंचे। वह व्यक्ति वहां नहीं था। इम्स कुछ अशांत से स्वर में मुझसे बोले कि यह क्या है ? मुझे उन्हें विनम्रता से यह कहना पड़ा कि यहां ”अपोइंटमेंट” नहीं चलता। आप धीरज रखे, वह ज़रूर यहीं आसपास कहीं होगा। थोड़ा आगे जाने पर वह व्यक्ति अगली गली में झाडू लगाते हुए नज़र आ गया। तब इम्स पास ही के एक घर के ऊपर गये और उसी  घर के एक कमरे की  खिड़की से उन्होंने अलग अलग कोणों से उस झाडूवाले की तसवीरें खींची जिन्हें मैं छायांकन कला के नायाब नमूने की तरह लेता हूं। और तो और खिड़की से तसवीरें लेने के बाद जब उनकी नज़रें कमरे पर पड़ी तो उन्होंने पाया कि सौराष्ट्र की एक बहन के इस घर व इसकी साज-सज्जा में गहरा कलात्मक सलीका है। यह उन्हें इतना पसंद आया कि उन्होंने झटपट कमरे की भी कुछ तसवीरें ले ली।

बहरहाल!

कलकत्ता और फिर बाद में मुम्बई में क्रमशः ड़े खड़े ईज़ल पर काम करने की आदत मुझसे छूट गयी। तब से मैं नीचे ज़मीन पर बैठ कर ही काम करता हूं। कभी कभी स्टूल या सीढी भी लेता हूं, जब इनकी ज़रूरत महसूस होती है। कुदरती रोशनी में काम  करना  मुझे  बहुत  पसंद  है।  चित्र  को  लेकर  ऐसा  कभी  नहीं  होता  कि  नहीं करूं-नहीं करूं ऐसा कभी नहीं होता। मेरा हाथ कभी भी यह नहीं बोलता कि अब मत करो…करो…करो ही होता है हमेशा। सर्जन का आनन्द बहते पानी जैसा है मानो झरना हो।

कोई  भी सृजनात्मक कृत्य कभी  भी  नहीं  मरता,  वह  हमेशा  नवोन्मेषित  व  पल्लवित होता रहता है। कभी पुराना नहीं होता। सम्भवतः यही एक इकलौती चीज़ है जो कभी ख़त्म नहीं होती। पूर्व की कोई कृति हो या उससे पहले की, वह आज भी प्रेरणा का स्त्रोत है।  कलाकार धन है – समाज व संसार का। यह कलाकार ही है जो हमें समझाता-सिखाता है कि इन्द्रियों को धारधार बनाए रखना चाहिए। यूं पहले से मेरे जीवन में यह अधूरापन रहा है कि मैं एक मोची जैसे कील नहीं  डाल  सकता।  एक  स्कूटरवाला  जैसे  स्कूटर  चलाता  है  वैसे  स्कूटर  नहीं  चला सकता। एक सुथार रंदा लगाता है और सफ़ाई करता है वैसी सफ़ाई नहीं कर सकता।

जब  भी कुछ देखता हूं जैसे चांद या  किसी की बनाई हुई बांसुरी या कुछ और तो लगता है कि मैंने देखा नहीं है। फूल या कुछ भी इतने साल में मैंने देखा नहीं है या कुछ किया नहीं है। मैं कपड़े पहनता हूं, नहाता-धोता हूं , बाहर निकलता हूं –  ठीक हूं कि नहीं यह बार-बार पता नहीं लगता। याद नहीं पड़ता कि औरों की तरह अपना

मुंह आइने में देर तक देखता रहा होऊं। कुछ भी कितना करना चाहिए कितना नहीं, यह भी पता नहीं लगता। पर मन में अनवरत बात चलती रहती है। इसीलिए जब कोई रूपचित्र की  बात करता  है  तो सोचता  रहता  हूं। जब  मैं  घर से  बाहर  निकलूं,  मेरा कुर्ता-पायजामा ठीक होना चाहिए , बाल ठीक से बनाए होने चाहिए , कुर्ते पर बटन सही लगे है या नहीं–यह पता नहीं लगता कि मैं ठीक हूं कि नहीं ! हालांकि यह बात मुझे कुछ बहुत ठीक नहीं जान पड़ती कि मैं ठीक हूं तो सब ठीक है। सामने भी कोई है इसे हिसाब में ले के स्वयं को साफ-सुथरा व चोखा रखना भी मेरा धर्म होना चाहिए। शरीर की अपनी गंध/वास होती है तो कपड़े भी सामने वाले के लिए ठीक ही होने चाहिए।

मुझे होता है कि मैं थोड़ा पांव ज़्यादा खोल दूं ताकि ठंडी हवा लगे–लोग कहते हैं कि सामने लोग है तो क्या वे लोग पसीने के ऊपर इत्र छिड़क कर आएंगे – तो ठीक है ?

कभी  कभी  सोचता  हूं  कि  जब  भी  मैं  निराश  हूं  तब  पौधे  का  नया  निकला  हुआ पत्ता/पान  देख  लूं।  या  घड़ा  देख  लूं।  प्रकृति  किसी  भी  जीव  की  सबसे  बड़ी  व मूल्यवान  मित्र है। प्रकृति कलाकार की गोद है। हालांकि कुछ  चित्रकारों सहित ऐसी कलाधाराएं  भी  रही  हैं  जो  प्रकृति  के  साथ  कलाकार  के  इस  तरह  के  सम्बन्ध  को नकारती है। जिस तरह एक कलाकार परम्परा व जीन से संलग्न है ठीक वैसे ही वह प्रकृति से अलग नहीं हो सकता। यूं दिखने में भले कुछ भी हो , चित्र कैसा भी दिखे लेकिन उसमें प्रकृति का अंश आता ही है। प्रकृति और मनुष्य की गति समझना भी एक पाठ है, ज्ञान है।

कभी पत्ती या फूल या किसी चीज़ को जन्म लेते हुए देखना चाहिए। चीज़ें अव्यक्त से व्यक्त में आती हैं और  व्यक्त से अव्यक्त में चली जाती है  :  व्यक्त-अव्यक्त के इस संधिस्थल,  इस  घड़ी  का  गवाह  मनुष्य  को  होना  चाहिए।  दुनिया  में  बहुतों  ने  यह अनुभव  किया होगा और मुझे हमेशा यह लगता  रहा है  कि मैं  क्यों नहीं कर सका।

इतनी बड़ी बात हर पल घट रही है और कुछ भी पता नहीं है, तकलीफ़ होती है। यह हर पल को जीने की कोशिश करने जैसा है : जीवन अनमोल है : जीवनधर्म का संदेश है : हमें आनन्द लेना व आनन्द बांटना चाहिए। अच्छा काम आज व अभी हो जाना चाहिए , बाद के लिए नहीं रखना चाहिए।

जीवन में मैंने जो बोला है वह करा है तो इसलिए कि मुझे लगता है कि हरेक मनुष्य को अपनी लकीर खींचनी चाहिए–कहां तक जाना , कहां तक नहीं जाना। मुझे यह बहुत  ज़रूरी  लगता  है।  अपनाआपा  ,  अपना  पोत  निर्मित  करना  है  तो  एक  लकीर खींचना  बहुत ज़रूरी  है  हालांकि  हम जानते  हैं  कि  बहुत लोग  इससे असहमत  होंगे क्योंकि लकीर  खींचा  कि  शराब नहीं  पीऊंगा और  एक  दिन  पी कर अच्छा लगा तो लकीर चली गई मगर उन क्षणों में लगता है कि बहुत मज़ा आया हालांकि यह एक बहुत बड़ी चूक है।

मेरे हिसाब से आत्मानुशासन से ही एक आरोग्यवान जीवन बनता है। लकीर को तोड़ कर चलने में जो मज़ा मिलता दिखता है वह असल में मज़ा नहीं, दुख है। हालांकि गिराने वाले आपको यह बोलने व सुझाने से बाज नहीं आएंगे कि लकीर को तोड़ दो, यह कुछ काम की नहीं है।  निर्बल  स्वयं  व्यक्ति हो जाता है, अन्यों का इसमें कोई कसूर  नहीं।  बहुत  सम्भव  है  कि  सृजन  के  लिए  उद्दीपन  की  ज़रूरत  महसूस  हो लेकिन वह शायद हवा के एक ठण्डे झोंके से भी मिल सकती है। पशु, पक्षी, पौधे, किसी को भी भूख की चिन्ता नहीं होती , मनुष्य ही को होती है , अकेले। मैं बार बार यह कहता आया हूं कि हममें से हरेक में सौन्दर्य की एक नैसर्गिक वृत्ति है और मुझे नहीं लगता कि गरीबी और सौन्दर्य का कोई सम्बन्ध है।

पिछले दिनों में खोजने पर लगता है कि हर दस साल में जीवन जीने का चित्त-सांचा बदल जाता  है।  हरेक फ्र ेम  हर  दस  सालों  में  भिन्न  है।  यह  बताता-जताता  है  कि ”मनुष्य” होना-रहना ही एक अमूल्य चीज़ है , बाकी सब क्षणभंगुर है। हां, स्मृतियां जीवन का अपरिहार्य  हिस्सा  है–हमें उन्हें  पूरा मान देना चाहिए–भूल से  भी उन्हें भगाने की कोशिश विफल ही होगी। मुझे आज भी ऐसे सपने आते हैं कि मैं मिट्टी के तेल की लाइन में खड़ा हूं या घर में पानी नहीं है। एक बार जब पानी था तो वह भी फेंक दिया था क्योंकि लोगों ने कहा कि इसमें ज़हर है। एक समय वह भी था जब पानी तक नहीं था घर में। कई दफ़ा यादें इतनी तीव्र हो जाती हैं कि हम उन्हें भूल जाने की कोशिश करते हैं – लेकिन वे कभी जाती नहीं, वे वहां बनी रहती हैं। आप उन्हें कितने ही परतदार पत्थरों से दबा ले लेकिन वे उनमें से भी उठ कर ऊपर आ जाती हैं। सुख-दुख की याद सीमित नहीं  रहती। यह जो लगता है  कि आज कुछ समय अच्छा बीता या कुछ ख़राब ; यह हमारी पूरी ज़िंदगी का होता है।  फिर आंसू तो जीवन की एक  भेंट है। यह बहुत गहन है। दुख के आंसू, सुख के आंसू। आंसू आत्मा के बहुत क़रीब है , इन्हें विश्लेषित करना बहुत कठिन है, लगभग असम्भव। दुख होगा ही जीवन में लेकिन आनन्द भी वही बाजू में खड़ा है, उसे हम देखे-जीए। वे पल जो दुखी करते हैं , गुस्सा लाते हैं, उन्हें जाने देना चाहिए – थोड़ा घूम-टहल कर आ जाना चाहिए क्योंकि सुख के पल राह देख रहे हैं।

हमें कभी खालीपन नहीं लगना चाहिए , अकेला लगे वह ठीक है। कर्म ऐसा करें कि समय लगे मानो कम पड़ गया हो। अन्तिम सांस तक कर्मलीन  रहना चाहिए। चलते रहें  करते  रहें,  चलते  रहें  करते  रहें–इसमें  कोई  अन्य  मापदंड  आडे़  नहीं  आने चाहिए – भले एक रूपया हो कि एक करोड़ , दोनों सरीखे ही तो है। क्या हम यह नहीं जानते कि यह ”मैं” अन्ततः मिट्टी में मिल जाता है–फिर यह पूरी ज़िंदगी ”मैं , मैं” क्यों करना ?

समय खुंट (कम हो) जाता है, वही जीवन है। जीवन की अपनी परिभाषा में मुझे लगता है कि जीने के दरमियान समय कम पड़ना ही चाहिए ; हमेशा यह रहना चाहिए कि  अभी  कुछ  काम  करना  और  बाक़ी  रह  गया  है  लेकिन  हरेक  पल  रसमय  होना चाहिए। हरेक पल एक जादुई डब्बी है।

एक व्यक्ति अपनी जीवन-ऊर्जा का तीस प्रतिशत से ज़्यादा उपयोग शायद ही करता है – अधिकतर  वह अपनी ऊर्जा का अपव्यय  ही करता लगता  है। यह जानना  बहुत ज़रूरी है कि हम अपनी शक्ति का उपयोग किस तरह से करे। अपने चारों ओर जब नज़र डालता हूं तो पाता हूं कि ज़्यादातर लोग खाने-पीने-रहने के अन्दर ही खेलते हैं। स्पष्ट तो कबीर जैसे सिद्ध-पुरूष ही होंगे जो जीवन को समझ गये; वैसे लोग बहुत ही कम होंगे, बहुत ही कम। जीवन में हम समय बहुत गंवाते हैं – किस-के हिसाब से वो पता नहीं है – अब मैं तिहत्तर साल से ऊपर का हूं मगर लगता है मानो पांच साल का ही हूं। बाक़ी सारे साल कहां गये सब ? अभी मुझे बच्चों की भांति गोल घूमना है, दौड़ना है। किसने यह छीन लिया?

जितनी तरह की चीज़ों में एक वक्त में मैं रहता हूं – उन्हें कभी एकदम से छोड़ कर कहीं चल दूंगा- न जाने किस यात्रा की ओर।

शरीर के साथ का नाता कितना गहरा होगा इसका मुझे इल्म नहीं था। धूप-छांव में देखते-जीते-अनुभव करते जीवन चलता चला। सांसें अविरत मेरी बन कर मेरे साथ रही। मैं उसे लेकर सुख-वैभव की तलाश में दर दर घूमा-भटका।

धीरे धीरे जब मेरे शरीर के अपने पुर्जे हर घड़ी बरत लिये जाने के बाद दुख देने लगे तब मालूम पड़ा कि शरीर की यह क़ीमत है। जब पहला दांत गया, ऐसा लगा मानो मेरा आपा ही गया – उसे जब मिट्टी में दबाया तो वह मेरा ही एक टुकड़ा था। शरीर चलता है पर हम उस पर उतना ध्यान नहीं देते और धीरे धीरे एक एक पुर्जा मिट्टी बन जाता है।

अब मेरी कथा मेरे शरीर ने बहुत सुनी: यह कभी जताता भी है लेकिन एक दिन यह अपने आप चुप हो जाएगा।  और मेरा अपनाआपा मुझसे कोई छीन नहीं सकता।

2 comments
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  1. looking things in such a way is a rare gift of nobility

  2. fir fir padhata hoon, har baar naya aur marmik lagata hai! kitna sunder aur marmsparshi!

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