आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

लामकां हैं भाषा : नंदकिशोर आचार्य

1. लामकां हैं भाषा

कवि का कोई घर नहीं होता
तलाश ही होती है केवल
वह रहता दिखता तो है
    भाषा में वैसे
पर परिन्दा आकाश में जैसे ।

लामकां हैं भाषा
जिसमें नहीं बन सकता
मकां कवि का – किसी का भी –
उड़ते ही रहना है उसे
ठहरा कि लो यह गिरा ।

कवि इसीलिए घर नहीं
घर के बिंब रचता है
जिनमें बसी रहती है
बस उसी की बास ।

2. कवि का ईश्वर

केवल एक शब्द है ईश्वर
  – कोरा भ्रम
कैसे कवि हो तुम –
भला शब्द से बड़ा सच क्या है?
वही तो है कवि का ईश्वर !

3. लौटा देना चाहे मुझे

समुद्र हो तुम
जिस में डूब जाना चाहता हूँ मैं –
मैंने कहा।

नहीं रखता कुछ अपने पास
समुद्र् सब लौटा देता है –
लहराते हुए तुमने दिया
    यह उत्तर ।

लौटा देना चाहे मुझे
जैसे समुद्र् लौटा देता है
पर उछाल कर अपनी लहरों पर
कर अपने जल से तर-ब-तर

लो मान लिया मैंने
जो तुमने कहा –
चुप क्यों हो समुद्र्
तुम फिर ?

4. रुक भी जाना कभी

आना जैसे
आती है साँस*
जाना जैसे
वह जाती है

पर रुक भी जाना
    कभी
कभी जैसे वह
रुक जाती है

* साँस की तरह से आप आते रहे जाते रहे – मख्दूम

5. सच में नहीं होगा जो

पानी कहता हूँ
कभी मुझे जब
कहनी होती प्यास।

कहता हूँ सपना
कहना होता है जब सच
जो खो बैठा है आस।

लेता हूँ तुम्हारा नाम
ढूँढना होता है जब
खुद कोई मुक़ाम।

पुकारता हूँ – ईश्वर
मृत्यु का करना होता
जब भी कोई बखान ।

व्यंजना में होता है सच
सच में नहीं होता जो
खोने में जो मिलता
मिलने में जाता है खो।

6. बेहतर था

होने को यदि
स्मृति ही होना है
    आख़िर
बेहतर था
रहता प्रतीक्षा में
    अनवरत !

7. मैं बुनूंगा सपना

सपना हो तुम मेरा
पर मैं हूँ तुम्हारा सच

सच कितना झूठ होता है
मुझ से
जाना होगा तुमने
कितना सच होता है सपना
तुमसे जाना है मैंने

जिसको सच चुनना हो
      चुने
मैं तो बुनूंगा
    सपना

8. बुनता हूँ जब

बुनता हूँ जब
रेशा-रेशा
ख़ुद को उधेडता हूँ
होता जाता हूँ
ख़ुद से निकलता धागा
पर जो बुना जाता है
वह नहीं होता मैं

तुम जो बुने जाते हो
क्या कभी पाते हो
अपने में मुझको ?

9. बहुत हुआ

बहुत हुआ
ख़ाली कर जाओ सब –
क्यों कोई मुझ को भरे
    मुझ में मरे ?

मैं ख़ाली
हो जाना चाहता हूँ अब –
होना ख़ाली

पर चाहत बची हो
तो ख़ाली हूँगा कब?

10. मेज़ भर की दूरी

‘चलते हैं जहाँ चलना है’ –
कहते हुए
मेज़ पर फैला दिया नक़्शा:
सागर-चोटी
मैदान-घाटी
नदी-रेगिस्तान
कितने पास थी हर ज़गह से हर ज़गह
मेज़ पर पूरी दुनिया
सिमट आयी थी

कभी मेज़ भर की दूरी
क्या इसीलिए
दुनिया भर की दूरी
बन जाती है?

11. एक दुनिया है

एक दुनिया है
जिसने बनाया है मुझे
एक दुनिया है
जो मैंने बनायी है

किस काम की दुनिया है वह
जिसने बनाया है उसे
उसकी नहीं हुई वह?

कितना बेमानी हूँ मैं भी
जिसने यह दुनिया बनायी पर
जो अपनी दुनिया का नहीं हुआ?

12. निर्मल के गद्य जैसा हो

अन्ततः गद्य होना है उसे
तो हो –
वही गर नियति है उसकी –
पर निर्मल के गद्य जैसा हो

तुम्हें ही लिखना है जब उसे
इतना भर संशोधन कर दो
जीवन-संध्या के गद्य में मेरे
अपने संवादों का
स्मरण भर
भर दो!

4 comments
Leave a comment »

  1. anubhuti ko chhune wali kavitayen hai

  2. eati khubsurat sapna bunne ke bad jee to nahi karta ki kuch kahna shesh rah gaya lekin shabd ke pare jane ki koshish to ki ja sakti hai…
    bohot avhi lagi sapne ki dunia, nirmal ke gadye ki tarah ban jane ki tamanna..
    kaushlendra

  3. Dear Acharyaji,

    Wish you and all Happy and Prosperous deepawali.

    मेज़ पर पूरी दुनिया
    सिमट आयी

    Yes

  4. 1. लामकां हैं भाषा
    कवि का कोई घर नहीं होता
    तलाश ही होती है केवल
    वह रहता दिखता तो है
    भाषा में वैसे
    पर परिन्दा आकाश में जैसे

    adhunik hindi kavita mein vartman mein shesh rahi kavita
    asha jagrat karti hai
    hindi kavya jagat
    ko shikhar per pahuchane wali kavita ko patra mein sthan deker aapne (sampadakji)
    apni chayan shamta ka pariuchay diya…
    thanx
    aacharya…huymesha aacharya hi rehte hai….wo swasth rehe esi prathna ke saath

Leave Comment