आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

रंग अभी गीले हैं: मलयज

०९.१.७२

भाई शाह साब,

आपका बड़ी एकात्म उदास-विह्‌वलता से भरा वह कार्ड मुझे मिला था । तत्काल उसका उत्तर मैं न दे सका । जिस गहरी अनासक्त पीड़ा से उद्भूत वे शब्द थे उसका जवाब मैं किन शब्दों से देता । बस महसूस करके रह गया । इस चुप रह जाने में आपके प्रति अन्याय तो मैंने जरूर किया, इस अन्याय केप्रति अपने को धिक्कारता भी रहा । पर गहराई का जवाब कम गहराई या उथली गहराई से देना अपने प्रति भी अन्याय करना होता । फिर सोचा कि आपकी वर्तमान मनःस्थिति में शायद शब्द से अधिक सार्थ वर्ण की रेखाएं हों । अतः इस वर्ष का एक कार्ड भेजा । पिछले बार वाला आपको बड़ा पसंद आया था न…

परसों से बुखार में पड़ा हूँ । अभी भी उससे मुक्त नहीं हूँ । दो दिन की छुट्टी और लेनी पड़ेगी आजकल दिल्ली में शीतलहर चल रही है । मुझ जैसे नाचीज का धराशायी हो जाना क्या मुश्किल । आज तबियत को थोड़ी राहत है, ऐसे में बिस्तर पर पड़े पड़े आपको खत लिखने में कॉंपती उंगलियों के बावजूद एक अजब तरह का आनन्द आ रहा है । आपको शायद पता नहीं रानीखेत की अपनी बहुत सी डायरियाँ मैंने बुखार में तपते हुए ही लिखी हैं । इस वक्त आपको खत लिखते समय रानीखेत की उस छोटी सी मोटी मोटी सलाखोंदार कोठरी का चित्र मेरी आँखों के आगे उभर आया है । रात का काम है । कोठरी से लगे पोस्टआफिस में देर तक रूक कर काम करने वाले दो चार पहाड़ी बाबुओं की आवाजें आ रही हैं । सलाखों के सामने देवदार के पेड़ों का एक झुंड है, थोड़ा ऊंचाई पर । उसके दूसरी तरफ नीचे बाजार को रास्ता घूमता हुआ चला जाता है । कोठरी में मिट्टी के तेल की कुप्पी जल रही है । एक चारपाई भर डाल सकने वाली उस छोटी सी कोठरी उस कुप्पी की रोशनी में तकिए पर डायरी रखे मैं कुछ लिख रहा हूँ । बाहर की साँय साँय – हवा की, कहीं टिड्डियों की….जैसे अनस्तित्व मूर्तिमान हो उठा हो, और सिर्फ वह तेल की कुप्पी ही अस्तित्व का चिन्ह हो, मैं भी नहीं, डायरी भी नहीं, सिर्फ वह तेल की कुप्पी…..मेरी उस तेल की कुप्पी का खर्च एक आना रोज का था, रोज शाम को जा कर मोदी की दुकान से भरवा लाता था । करीब करीब रात भर ही जलती रहती थी। इसी कुप्पी की रोशनी में मैने रामचरितमानस के आदि से अंत तक कई बार पाठ किए होंगे । वहां किताबें ही क्या मिलती जो पढता। मानस का उतना मनोयोगपूर्ण एकाग्र पाठ कभी न कर सका । उस दर्मियान कविताएं भी खूब लिखीं ।…..

लेकिन मैं जरूरत से ज्यादा बहकता जा रहा हूँ । मेरे जीवन के अविस्मरणीय प्रसंगों में रेलवे स्टेशन और प्लेटफार्म बहुत निजी प्रसंगो की श्रृंखला लिए हुए है । क्या इंसान नॉस्टेल्जिया के बिना भी रह सकता है ? मेरा ख्याल है बिना नॉस्टेल्जिया के जीवन बड़ा फीका और अधूरा होगा । मेरे दिमाग मे कई जगहों के कई रेलवे स्टेशन और उनके प्लेटफार्म हमेशा केलिए अंकित हो गए हैं । आपके साथ इस बार प्लेटफार्म पर बिताए गए कुछ घंटे भी एक ताजे चित्र के समान है । उन्हें अभी छुऊंगा नहीं, क्योंकि रंग अभी गीले हैं ।

हमारे एक मित्र हैं, इस वक्त जापान में हैं,उन्हें पुरानी क्रिस्तानी सिमिट्रियों से बड़ा लगाव था । इलाहाबाद में रसूलाबाद तरफ और मैक्फार्सन लेक की तरफ ऐसी कई सिमिट्रियॉं थी । वे कभी कभी साइकिल पर बिठाकर हमें वहां ले जाया करते थे । लगता था कि शुरू विक्टोरियन युग में चले आए हैं, या कि क्रिष्टिली दो जोठी के जमाने में । मसूरी के कैमन्स बैक रोड वाली सिमिट्री भी मेरे दिमाग पर बहुत दिन तक छायी रही । लगता है कि बहुत सी अंग्रेजी कविताओं को तब तक महसूस नहीं किया जा सकता जब तक आप किसी पुरानी सिमिट्री को महसूस न कर लें ।

इस वक्त मुझे बहुत कुछ याद आ रहा है । याद करना जैसे इस वक्त अपने मुक्त करना है । किससे ?

कल तक यहीं तक लिख सका था । लगता है जितनी जल्दी यह पत्र आप तक भेजना चाहता हूं उतनी जल्दी नहीं पहुंच पाएगा । कल रात से बुखार फिर चढ गया है । अभी दवा से एक गहरी नींद लेने के बाद उठा हूँ । तबियत हल्की लग रही है। और मेरा यह पत्र भी एक डायरी का सा ही रूप लेता जा रहा है ।

आपकी जैसे संपर्क शून्य सी स्थिति रहती है, उससे मेरी स्थिति कोई ज्यादार बेहतर नहीं है ।कहने को यहां क्या नहीं है, पर देखो तो कुछ भी नहीं । मैं भी गीताप्रेस वाली उपनिषद ले आया हूँ और धीरे धीरे पढ़ता हूँ । जिस मनोयोग से आपको पतंजलि का योग दर्शन पढते-गुनते देखा था उतना तो मेरे बूते कानहीं । पर जब तबियत कुछ गंभीर खोजती है तब उसे ही उठाता हूं।

मैंने वह येट्स वाला अनुवाद बहुत ढूंढा मिला नहीं ।

इधर कुछ खास पढने को न मिल रहा है न सूझ रहा है । साहित्यिक चिन्ताओं से ज्यादा कुछ घरेलू भौतिक चिंताएं चित्त को घेरे हुए है । इस बार का जाड़ा बड़ा अनप्रोड्यूसिव रहा …न तो कोई लेख, न कविता ही । आप लिख लिख कर पछताते हैं मैं न लिख पाने से पछताता हूं ।

कविता संग्रह की कुछ प्रतियां पत्नी इलाहाबाद से लायी थीं । स्थानीय कुछ लोगों को दी है । बाहर समीक्षा केलिए भी खुद ही पैकेट बना बना कर भेजना है । यह समयसाध्य और व्ययसाध्य दोनों ही है, अतः अभी कुछ कर न सका । सर्वेश्वर जी को एक कापी दी थी,वे चुप हो लिए हैं। दिनमान में कुछ खबर ही नहीं ।

शमशेरजी से कुछ सप्ताह पहले मुलाकात हुई । वे अभी हाल ही में अपने भाई के पास से लौटे हैं पूरी तरह से आराम करके । अब चूंकि शमशेरजी इतनी दूर चले गए हैं कि उनसे अक्सर मुलाकात नहीं हो पाती । अच्छे हैं, हालांकि पहले जैसे ही दुबले हो कर लौटे हैं ।

ये सब सूचनाएं मैं आपको लिखता चला जा रहा हूं । इन्हें लिखने में मेरा भी खास उत्साह नहीं । क्योंकि आपके साथ पत्र-संपर्क इन सूचनाओं से ऊपर एक बिलकुल ही भिन्न स्तर पर होता रहा है । आपके कार्ड की याद आती है । एक पूरी रचना की सी एकाग्रता उसमें है । और अंत मं कीट्स की पंक्ति से जिस अनायास ढंग से अपनी मनःस्थिति का ज्ञापन किया है वह बेजोड़ है । आपकी स्वयं के प्रति शंकाएं और संदेह, अन्तमर्थन हर बार एक नयी धार लिए हुए होते हैं । ये स्वयं से ऊबे परेशान आदमी का लक्षण तो नहीं है । आपकी शंका आत्मघाती नहीं है । आपकी कविताएं पढ कर मैं एम्बेरेस भी नहीं हुआ । हां, यह जरूर है कि उन पर आपसे बातचीत न हो सकी । हां, आपने मेरी कविता पर जो लंबी टिप्पणी लिखी थी उसके कई अंशों पर मैं एम्बेरेस जरूर हुआ – वह इसलिए कि आप मेरे प्रति तटस्थ नहीं हो सके थे । कुछ उत्साह ज्यादा ही था । शायद इसलिए कि वह सब एक तरंग में लिखा गया था । दुबारा उस पर काम करते तो वह ठीक हो जाता। पर अब तो आपने वह भेज ही दिया है । इन्सिडेन्टली वह कविता शमशेरजी को भी बहुत अच्छी लगी ।

बंधु, अब पत्र समाप्त करता हूं । आप कुछ अपने मन की बातें लिखें । जो गुना हो, पढा हो बताएं । पतंजलि के अपने अध्ययन मे कहां तक पहुंचे? ज्ञान की दो-चार किरणें इधर भी फेंकें । अपने पूर्व पत्र में आने जो रस दर्शन और द्वंद्व दर्शन की विपरीत दृष्टियों ओर उनके संभावित सामंजस्य की बात की थी वह बड़ी गहरी बात थी । वैसे रस दर्शन मेरी समझ में अभी तक पूरी तरह आया नहीं है । कॉन्फि्‌ल्क्ट का दर्शन तो वैसे भोग ही रहा हूं । इस पर कभी जम कर बात करूंगा । आपने इस दिशा में कुछ और खोजबीन की हो तो लिखियेगा । अन्ना ऐरेन्ट की ह्‌यूमन कंडीशन पढने के लिए लाया हूं । पर ज्यों की त्यों धरी है । अब इस बुखार में मस्तिष्क इतना सुन्न पड़ गया है कि शायद ही उसे पढ पाऊं ।

ज्योत्स्नाजी क्या अभी बंबई में ही है ? आ गई हों तो मेरा नमस्कार कहें ।

आपका
मलयज

पुनश्चः आपका तौलिया यहां सुरक्षित रखा है । जोधपुरके बारे में नयी खबर लिखिएगा । नामवरजी यहां आए थे, मुलाकात हुई थी । अपनी किताब उनको दे नहीं पाया । अब पोस्ट से भेजनी पड़ेगी । आप जोधपुर कब जा रहे हैं?

२१.५.७२

भाई शाह साब,

आपका ११ तारीख का पत्र यथासमय ही मिल गयाथा । उत्तर अब जा कर दे पा रहा हूँ । आप इस देरी पर कुढ़ रहे होंगे, जानता हूँ । पर एक तो मैं श्री कृष्णगोपाल वर्मा से मिलकर कुछ निश्चित जान लेना चाहता था और दूसरे इधर कई निहायत वाहियात घरेलू झंझटों में फंस गया था । दोनों में ही कई दिन निकल गए । कल रात वर्माजी से मुलाकात हुई । वे सौभाग्य से अभी दिल्ली में ही हैं- देहरादून २/६ तक जाएंगे । कापियाँ जांचने में और दूसरे पारिवारिक मामलों में वे बेतरह उलझे रहे । आपका पत्र उन्हें मिल गया था, उससे वे मुतासिर भी दीखे । अब शायद दो-एक दिन में कापियों से निबट कर वे आपको उत्तर देंगे – ऐसा उन्होंने कहा । उनकी बातचीत से दो-एक बातें साफ हुई ।

१. दिल्ली कैपस के कालिजों में किसी बाहर के आदमी को लिया जाना बहुत संदिग्ध- लगभग असंभव है । उन कालिजों में यहीं के पास किए विद्यार्थियों को तरजीह दी जाती है और हर साल फर्स्ट क्लास में निकलने वालों की कमी नहीं है ।

२. नान-कैंपस कालिजों में वर्मा अपने कालिज के हेड आफ डिपार्टमेंट श्री कोहली के साथ सारा जोर लगा देंगे कि आपको किसी परमानेंन्ट वेकेन्सी में जगह मिल जाय। ऐसे कोई दस-बारह कालिज हैं । हिन्दुस्तान टाइम्स में विज्ञापन निकलते ही आप सबमें अप्लाई कर दीजिए । पूरे विवरण के साथ, अंग्रेजी में प्रकाशित लेखों के विशेष विवरण के साथ ।

३. बीए और एमए में आपने अपना नंबर प्रतिशत नहीं लिखा था, यह वर्मा जी को चाहिए ।

तो यह स्थिति है । पर आपने इस संबंध में जो अपने मन की विकल निराशा और हताशा व्यक्त की उसने मुझे बहुत पीड़ित किया । बंधु, आप इस बारे में लिखकर मुझे परेशानी में डाल रहे हैं, यह ख़याल आपके मन में कैसे आया ? वर्माजी के साथ मेरे संबंध ऐसे आत्मीय नहीं है कि उनकी तरफ से मिली आपकी निराशा मुझसे वर्मा जी और अपने संबंध में कोई एम्बेरेस्मेंट पैदा करे। आपका दुख मैं ज्यादा अपना करके समझ सकता हूँ और उसी के सामने मेरी कोई जवाबदेही भी है । आपके मसले को ले कर बार बार वर्माजी के पास जाने में न तो मुझे का कोई एम्बेरेस्मेंट है न उनके साथ संबंध में किसी खिंचाव की आशंका, न कोई अपनी परेशानी। ठीक है, वर्माजी ठीकठाक आदमी है, मरे लिए उनके दिल में आदर जैसी कोई चीज है । पर इससे ज्यादा कुछ नहीं । उनके जिन्दगी के मोमेन्ट्स कोई और है , मेरे कोई और । अलग अलग , अभी तक । वे मेरे लिए अभी तक एक अमूर्त व्यक्ति ही हैं, क्योंकि उनके सिवाय कुछ खयालातों के किसी अन्तरंग पहलू से मैं वाकिफ नहीं । अतः सच मैं उन्हें ठीक से नहींजानता । आपके बारे में उन्होंने ही पहल की थी । आपके लेखों की चर्चा अक्सर हुई । और उसी का अंजाम है कि वे आपमें इतनी ‘रूचि’ रखने लगे कि यहॉं आपको लाने की सोचें । अब इस ‘रूचि’ में ठोस वास्तविकता कितनी है, कितना कुछ उनके बूते का है, कितना कुछ वह कर सकते हैं, इसका मुझको कुछ अंदाजा नहीं । इसीलिए कहा न मैंने कि वे मेरे लिए एक अमूर्त साफ-सुथरे समझदार भद्र लोक हैं। अतः मित्र, आप यह कभी ख्याल में न लाएं कि आपके इस इतने अहम मसले को लेकर वर्माजी के तई किसी अप्रिय जवाबदेह से ग्रस्त हो सकता हूं । कहा तो आपने भी नहीं, पर आपके मन में बात यही शायद घुमड़ रही हो ।

पर क्या यह सब मेरी कल्पना है ? अब देखिए, आपका पत्र जिस वक्त आया मैं भी ब्रदर्स कारमाजोव पढ रहा था । उसे पढने की तात्कालिक प्रेरणा आपके इसके पहले वाले खत ने ही दी थी (इसमें ज्योत्स्नाजी का भी कुछ श्रेय है) और मैंने उसे पढना जो शुरू किया तो वह सिलसिला अभी तक चल ही रहा है । लगता है ब्रदर्स कारमाजोव जैसी कृति एक बार पढ कर कभी खत्म नहीं की जा सकती । या शायद पढकर कभी भी खत्म नहीं की जा सकती, उसके पढने का सिलसिला हमेशा जारी रहता है । एक बात शायद आपने और नोट की हो, यह आदमीको कितना मुलायम कर देता है, सॉफ़्ट, कोमल, संवेदनशील । भावनाएं किस कदर नर्म हो जाती हैं । और ऐसे होना कोई आश्चर्य भी नहीं । ब्रदर्स कारमाजोव के खूंख्वार, हत्यारे, शराबी, अर्द्धपागल, सनकी सब कितने कोमल हैं,भीतर से कितने नर्म – अपने तमाम रिटेरिक के बावजूद, अपनी तमाम भावनात्मक जोशखरोशी, आक्रामकता के बावजूद । सब कितने अनवेनरेबल हैं । आपने सही लिखा था, इससे बढकर ह्‌यूमन चरित्र कहीं नहीं मिलेंगे । दरअसल आपके इस वक्तव्य ने ही मुझे यह उपन्यास पढ़ने को विवश कर दिया ।

इसी संदर्भ आपके इस पत्र की एक बात याद आ गयी और मैं चाहता हूं कि आप अपने पत्र में इसका खुलासा करें । आपने लिखा है कि दास्तोवस्की मार्क्सवाद का प्रत्याख्यान है और ईवान भावी रूस का प्रोफेट(कुछ इसी तरह के शब्द है) । आपकी यह दो स्थापनाएं मुझे बड़ी सारगर्भित लगती हैं, और रहस्यात्मक भी । कृपया इसे स्पष्ट करें । ब्रदर्स कारमाजोव को पढते समय आपके ये दो सूत्र बराबर मेरे मन में चल रहे हैं, पर इनका अर्थ नहीं खुल रहा है । करीब ६०० पेज पढ चुका हूँ । कल परसों तक तक बाकी खत्म कर दूंगा ।

दास्तोवस्की और टाल्सटाय वाला प्रश्न मैंने आपको उकसाने के लिए पूछा था । दोनों की जो तुलना आपने की है वह बहुत सही है ।

यह सब पढते पढते आपकी आंखें बेजार हो चुकी होंगी । आप प्रतीक्षा कर रहे होंगे मैं आपके महानिबंध पर कब कुछ कहूँगा । बंधु, उस लेख के बारे में विस्तृत लिखने लायक क्षमता का इस वक्त अभाव पा रहा हूं । बस उसे पढकर ऐसा लगा था कि चिंतन का इतना विस्तार-कई शताब्दियों की संसृति का इतिहास जैसा – और इतनी गहराई आपने एक निबंध में जो भर दी उसकी प्रक्रिया कितनी लम्बी, एकान्त, एकाग्र और चुनौतीपूर्ण रही होगी और आपने कैसे उसे धारण किया होगा । लेख पहली बार पढते समय मैंने कुछ प्वाइंट्स मन में नोट किए थे, उन्हें लिखने की सोचा था, पर रह गया । आज दुबारा लेख पढने की कोशिश की, लेकिन पहले पत्र लिख डालूं क्योंकि लेख पढने में आज इतवार का पूरा दिन निकल जाएगा । और आपको पत्र डाल देना आज बेहद जरूरी है – वैसे ही काफी देर हो चुकी है । तो वे प्वाइंट्स दुबारा ताजा नहीं हो सके । बस इस संदर्भ में एकबहुत अस्पष्ट सा विचार मन में अब भी बना हुआ है कि आपने जितना बड़ा फलक लिया है वह शायद शायद शायद शायद शायद आवश्यकता से थोड़ा ज्यादा बड़ा हो गया है । उस फलक को ठोस बनाने में तथ्य पूरी तरह नहीं जुट पाए हैं । इसी से बाद में चलकर लेख की कई महत्वपूर्ण स्थापनाएं (और मौलिक स्थापनाएं) प्रबलरूप से पुष्ट नहीं लगतीं । बस, इतना ही वह विचार है । इसके बारे में कुछ विस्तार से लेख दुबारा-तिबारा पढने पर ही लिख सकूंगा । पर हाँ, जिस मुद्दे से आपने बात शुरू की, जितनी दूर तक अपनी खोजपूर्ण दृष्टि फेंकी, जितना श्रमसाध्य यह सब था, उसे देखकर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ । पढकर सचमुच और सच्ची खुराक पाने का सुख मिला । ऐसी खुराक बार बार पाने की भूख पैदा हुई । और इसके लिए आपकी दाद देता हूँ ।

बंधु, अन्ततः आवेग वालों ने मेरी कविता पर आपकी और एक किन्हीं प्रसन्नकुमार मिश्र की टिप्पणियॉं भेजी और मैंने उन पर अपनी टिप्पणी भी लिख कर भेज दी । आपकी टिप्पणी इस बार पढकर कुछ दूसरे ही प्रकार का अनुभव हुआ । कुछ यह पहले से कटी-छंटी भी लगी, ज्यादा चुस्त । बात के मर्म तक आप पहुंच सके हैं । आपको यह गलतफहमी हुई कि मैं उससे संकोच में पड़ गया — शायद संकोच कुछ है, पर उस तरह का नहीं । मतलब आपके असामर्थ्य की तरफ से नहीं, इससे समर्थ समीक्षा भला कोई क्या लिखेगा । मैं इस संकोच को ठीक से व्याख्यायित नहीं कर पा रहा हूँ । शायद वह इस वजह से हो कि मैं इतना डिजर्व नहीं करता । आप शायद मुझे जरूरत से ज्यादा अहमियत दे गए । और शायद इसीतरह आप मुझमें यह कसक भरी चाह पैदा कर गए कि काश मैं सचमुच इतनी समर्थ कविता कर सकता । आपकी यह टिप्पणी पढकर कुछ विचित्र-सी कैफियत हुई । मैंने उस पर जो लिखा है उसका सार-संक्षेप देते नहीं बन रहा है । लेकिन मेरे मूल-स्वर को आप पहचान लेंगे इतना मुझे विश्वास है ।

अशोक जी के दो पत्र इधर मुझे मिले थे । मेरी कविता पर वे ‘पहचान’ में लिख रहे हैं, खुशी की बात है । पहचान-३ के लिए वे मुझसे ६४ पृष्ठों की नई पुरानी आलोचनात्मक सामग्री चाहते हैं । क्या ख्याल है आपका? तृप्तिभर पानी के बजाय क्या यही दो दो बूंद पानी हम लोगों के नसीब में है? आपसे भी उन्होंने यह प्रस्ताव किया है । ऐसा उन्होंने लिखा था । अशोक जी की नीयत बड़ी साफ है और इस तरह के नये विचार और योजनाएं उनके दिमाग में आते रहते हैं यह सचमुच बड़ा उत्साहवर्द्धक लगता है । पर अपने आलोचनात्मक कृतित्व की शुरूआत को ६४ पृष्ठों की कोठरी में घुसेड़ने को जी नहीं करता । यह मन की बात है। वैसे ख्याल कोई बुरा नहीं । अपनी राय लिखें ।

नामवरजी से एक दिन अनायास ही मुलाकात हो गयी थी । गर्दन पर मांस चढ़ आया है, काफी हृष्ट-पुष्ट दीखने लगे हैं साथ ही ठस भी । यह एक इम्प्रेशन है, कोई टिप्पणी नहीं ।

अच्छा बंधु, ‘कल्पना’ क्या बंद हो गयी? इधर अरसे से दिखायी नहीं दी । आप अब सुस्थिर होंगे । मैदान तो इस वक्त जल रहे हैं । पहाड़ पर सुशीतल पवन का आनंद लेते हुए आजकल किस चिन्तन-कर्म में लगे हैं । तबियत की खिन्नता और उदासी दूर हुई कि नहीं । यहाँ तो लगता है सूर्यदेव तीन साल की गर्मी का इकट्ठा ब्याज समेत वसूल करने पर तुले हैं ।

ज्योत्स्ना जी को नमस्कार कहें । पत्र लिखें-पहाड़ की ठंडी हवा की तरह मैदान में जलते इस जन-मन को जिलाएं ।

सस्नेह आपका
मलयजे

१८.६.७२

भाई शाह सा’ब,

इस बार पत्र देने में आपको सचमुच अक्षम्य रूप से देर हुई है । मैं पिछले हफ्ते ही आपको पत्र लिखने का इरादा रखता था । आपकी प्रतीक्षारत मनःस्थिति का ख्याल आते ही आपको तत्काल पत्र लिख डालने के लिए कसमसाता– पर इधर कोई ऐसी चीज जबरदस्त जरूर रही है जो इसके बावजूद, मुझ पर एक आशंकित जड़ता बन कर छाई रही है । चाहें तो इसे इस साल की भीषण गर्मी कह लें, चाहे रोज रोज दफ्‌तर जाने की रूटीन, चाहे आपको पत्र लिखने लायक मानसिक एकान्त की कमी– ऐसा एकान्त जिसमें मैं अपने बिखराव को समेट सकूं । नहीं भाई, आपका यह ख्याल सही नहीं है कि मैं बहुत संतुलित व्यवस्थित किस्म का आदमी हूँ । मैं भी बहुत ज्यादा अव्यवस्थित अराजक जिन्दगी जी रहा हूं । क्षोभकारी परिस्थितियाँ मेरी भी शक्ति को तोड़ रही है, घरेलू संघर्ष और समस्याओं के संदर्भ मेरे साथ भी लगे हुए हैं । और दुर्भाग्य से मेरे पास मेरा अपना कोई समय नहीं बचता– सुबह से शाम तक मैं घर को ही दे दिया गया होता हूँ । आपको ढाई-तीन घंटे का पलायन मिल जाता है, मेरा वैसा भी नसीब नहीं । मेरी ट्रेजिडी यह है कि मैं घर को संपूर्णतः कभी भी भूल नहीं पाता । और स्थिति नहीं है-जैसा कि आपने लिखा-कि संघर्ष करते करते संघर्ष अर्थहीन लगने लगता है ।

अच्छा यह बताइए इस बीच श्री के. जी. वर्मा का पत्र आपको मिला कि नहीं? पिछले एक हफ्ते में वर्माजी से दो बार मुलाकात हुई । वे आपको पत्र लिखने का जिक्र कर रहे थे । दूसरी बार मिलने पर भी आपके बारे में पूछ रहे थे । कहीं न कहीं वे अपने को आपको लिए जिम्मेदार महसूस करते हैं । ऐसा मुझे लगा । उनकी बातचीत का टोन कुछ क्षमायाचनापूर्वक था । आपके इस पत्र की चर्चा थी । उनका पत्र पा कर आपका क्या ख्याल बना ? वर्मा जी जून के अंतिम सप्ताह में आपका दिल्ली रहना आवश्यक मानते हैं जिससे वे आपकी कनवेंसिंग कर सकें । उन्होंने आपको अप्लीकेशन की छः कापियाँ भी भेजने को कहा था । उसका आप क्या कर रहे हैं ? उन्हें आपने पत्रोत्तर दिया या नहीं ? जहाँ तक मैं वर्माजी को समझ पाया हूँ वे आपको दिल्ली लाने के बारे में तो सिनसियर हैं, नैतिक रूप से अपने को कमिटेड भी मानते हैं चाहे मेरे सामने ही । जहाँ तक उनकी सामर्थ्य – सीमा की बात है, हो सकता है आपकी रीडिंग सही हो । फिर भी एक बार कोशिश कर देखने में क्या हर्ज है ? है न ? इस विषय में लिखिए- और आ रहे हों तो अपने प्रोग्राम के बारे में भी ।

भइया आपने तमो मुझमें दास्तोयवस्की का भूत ही जगा दिया । मुझको अपने आप पे हैरत होती है कि कैसे इतने दिनों इस लेखक से दूर रहा — क्राइम एण्ड पनिशमेंट- सन- ५६ में पढी थी बड़ी बेढब मनःस्थिति में । उस वक्त दिमाग कच्चा ही था । उस पूरी किताब का बस एक इम्प्रेशन — या उसके एक दृश्य का इम्प्रेशन मन पर अमिट रहा था- वही घोड़े को मार मार कर कचूमन निकालने वाला (वह दृश्य इसी पुस्तक में है न ?) । अजीब सुररियलिस्ट किस्म का दृश्य, बड़ा आतंक छोड़ने वाला और आकर्षित करने वाला । कितनी इंटेंसिटी है उस दृश्य में, कितनी विशदता । और क्या प्रभाव छोड़ता है वह ! आज भी याद है । दास्तोयवस्की मुझे उस दृश्य की वजह से ही याद था । लेकिन अब जा कर आपकी प्रेरणा से उसका वास्तविक परिचय मिला । फिर आपने ब्रदर्स कारमाजोव की पृष्ठभूमि का जो ब्यौरा दिया है उससे चीजें और भी साफ हुई । दास्तोयवस्की को अभी तक मैंने मानवीय नियति और मानवीय संघर्ष (कितने गोल-मोल शब्द हैं न?) के रचनाकार के रूप में ही देखा था, अब लगता है कि उसके कृतित्व में ‘आइडिया’ कितना प्रधान है। उसकी एक अपेक्षाकृत कम – परिचित किताब ए रॉ यूथ मुझे मिल गयी है, आजकल उसे ही पढ रहा हूँ । यह ब्रदर्स कारमाजोव के पहले लिखी गयी थी । इसमें दास्तोयवस्की ने रैडिकल युवावर्ग को पूरी सहानुभूति से चित्रित किया है । द…. में तो उसने रैडिकल युवावर्ग को बहुत सख्त तरीके से कंडम किया है । ब्रदर्स कारमाजोव, जो उसकी अंतिम कृति है, में उसने संतुलन से काम लिया है । मुझे फिर भी लगता है कि दास्तोयवस्की अंत तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया । अपने अंतिम दिनों में एन्टी-रेडिकल होते हुए भी वह रचनात्मक स्तर पर कहीं न कहीं आस्था और उग्रपंथी विचारधारा से जूझता रहा । असल में यह तनाव ही उसे आज भी ताजा बनाए हुए है । ए रॉ यूथ पढने के पहले तुलनात्मक दृष्टि पाने के लिए -और अपनी एक बहुत पुरानी ख्वाहिश पूरी करने के लिए – मैंने वार एंड पीस भी पढनी शुरू की थी । २०० पेज पढ़ते पढ़ते दास्तोयवस्की की तरफ फिर ध्यान मुड़ गया और यह नई किताब पढ़नी शुरू की । वार एंड पीस पढने में तो रोचक है, पर वह तनाव नहीं जो जो हमारी आज की मनःस्थिति में इतने भारी भरकम उपन्यास को हमसे पढवा ले । इतनी फुर्सत-मानसिक किसे है जो रच रच कर महाकाव्य शैली में लिखे यह विराट मानव-ड्रामा को पढ़े? पर यदि दास्तोयवस्की को पढ़े-बिना निस्तार नहीं तो वार एण्ड पीस को पढ़े बिना भी निस्तार नहीं । टाल्सटाय की सृष्टि भी उतनी ही सशक्त और अद्भुत है जितनी कि दास्तोयवस्की की । इधर मैंने वार एंड पीस की रूसी फिल्म भी देखी । इसने भी इस कृति के ग्रेंजर को उभारा । इसी का परिणाम है कि आजकल मियाँ मार्क्स कुछ पिछड़ गए हैं । वैसे भी गर्मी में मार्क्स की दाल नहीं गल सकती । यह बताइये कि हज़रते मार्क्स से आपका कभी साबिका हुआ है ?

इधर श्री परमानंद श्रीवास्तव एक लेख के लिए मेरे पीछे पड़े हुए हैं । निराला पर लेखों की कोई पुस्तक संपादित कर रहे हैं । मुझे सरोज-स्मृति पर लिखने को कहते हैं । किताब छपने पर ५० रूपये का पारिश्रमिक भी दिलवाने को कहा है । किताब नीलाभ प्रकाशन से छपेगी । आपका पता भी पूछ रहे थे । शायद आपको लिखा हो । निराला में अभीतक तो मेरी कोई गति नहीं है । एक दिन सरोज-स्मृति लेकर बैठा, कोई तार ही नहीं जमा । ‘कान’ तो मेरे हैं नहीं, और निराला बहरे लोगों के लिए शायद नहीं है। कुछ आप ही उकसाइये न- कुछ नुक्ते बताइये ।

शाह साब, आपने अपने पत्रों में से कविताएं ढूंढने का काम बड़ा जबरदस्त किया । चलिए, अब इसी बहाने आपके सामने साबित कर दूँ कि मैं कितना ‘व्यवस्थित’ हूँ । आपके सब पत्र एक बक्से में बंद है मेरे तमाम तरह के अल्लमगल्लम कागजातों के साथ इस बक्से के ऊपर पत्नी के कपड़ों वगैरह क भारी-भारी बक्से रखे हुए हैं- आखिर गृहस्वामिनी के आगे बेचारे लेखक के कृतित्व की बिसात ही क्या । उस बक्से को निकालने और आपके पत्रों को ढूंढ कर कविताएं निकालने का काम बड़ा डरावना है । फिर बंधुवर, यह मुझे अच्छी तरह याद है कि जो कविताएं मुझे पसंद आई थी वे आपने धर्मयुग वगैरह में छपा दीं । अब तो मैं आपकी नयी कविताओं के बैच की प्रतीक्षा कर रहा हूँ । आपकी कविताएं इधर बदले हुए अंदाज में आ रही है । आपको याद है न, एक बार मैंने आपकी कविताओं के बारे में थोड़ी संक्षिप्त चर्चा आपसे की थी, पत्र में, उसके बाद से आपके बारे में काफी आश्वस्त हुआ हॅं । जरूरत सिर्फ यही है कि आप गद्य की तरह कविता भी तेजी से लिखते रहें, बहुत सी बकसास के बाद भी अच्छे रत्न भी निकलेंगे । आप मेरी तरह अतिशय कांशस नहीं हैकि एक अच्छी कविता लिखने को जीवन-मरण का प्रश्न बना दें । आप अपने को काफी छूट देते हैं, आप काफी फ्री हैं, अतः आप काफी प्रयोग कविता के साथ करते रहे हैं । इस प्रक्रिया में कूड़े के साथ हीरा जरूर निकलता है । वैसे यहॉं आपके संदर्भ में ‘कूड़ा’ शब्द कुछ ज्यादा सख्त (बेमानी) शब्द हो गया लेकिन देखिए न, कविता की आपकी प्रक्रिया में कविता आपके लिए कैथार्सिस का काम करती है, कविता आपको हल्का करती है, मुक्त करती है । जबकि मुझे तो कविता लिखने की प्रक्रिया दुखी बनाती है, बांधती है, रूंधती है । साल भर में एक कविता भी लिख ली (अच्छी चाहे बुरी) तो यही एक बड़ी उपलब्धि हो जाती है । इसीलिए मुझे अपनी प्रक्रिया के विपरीत प्रक्रियावाली कविताएं लिखने वाले से अपने लिए आशा जागती है, प्रेरणा मिलती है । हमारे इलाहाबाद के मित्र श्री शिवकुटीलाल वर्मा की काव्य प्रक्रिया भी आप जैसी ही है । उनकी राईटिंग इनडिफरेंट होती है, असमतल, पर उसमें कहीं नायाब हीरे भी होते हैं । आपके यहाँ भी यही है । आप कविता प्रक्रिया के प्रति मेरे जैसे कांशस तो नहीं है, पर उसके परिणाम के प्रति मुझसे कहीं ज्यादा कांशस हैं आपकी आत्मशंका का यही कारण है । क्या मैं गलत कह रहा हूं ?

तो बंधुवर, इधर के अपने लेखन की बानगी कब दिखा रहे हैं ? और हॉं, मेरे पुराने आग्रह- ललित निबंध लिखने के- अल्मोड़ा की ठंडी हवा में सुबह के एकान्त ढाई घंटों को पाकर भी आपने क्या किया ? पहले कभी कभी आप एप्रिल फूल दिवस पर अपनी खासी मन-तरंग का परिचय देते थे, वह भी इधर काफी अरसे से आपने बंद कर रखा है । आप कुछ बहुत ज्यादा सीरियस होते जा रहे हैं ।

भाई अशोक जी का क्या हाल है? इधर उनकी चुप्पी फिर शुरू हो गई है बदस्तूर । पहचान-२ का तो पता नहीं । आपका कुछ है उसमें ?

‘आवेग’ वालों से देर जरूर हुई है पर मेरा ख्याल है कि प्रसन्न ओझा ‘चिति’ वालों से ज्यादा समझदार आदमी है । देर भी हिन्दी समीक्षकों-लेखकों की लेट लतीफी के कारण ही हुई । उस आदमी का यह निश्चय कि बिना ठीकठाक सामग्री के अंक नहीं निकालेगा, कम से कम मुझे बहुत अच्छा लगा । ‘चिति’ वाले भले जरूर हैं, पर उनकी दृष्टि अभी साफ नहीं है । सामग्री का चयन बहुत नहीं जमा ।

‘वाग्देवी’ के अभी दर्शन नहीं हुए । इतनी मोटी किताब को रजिस्ट्री से भेजने का खर्च कुछ कम तो न होगा ।

जुलाई के प्रथम सप्ताह में करीब १५ दिनों की छुट्टी ले रहा हूँ । अपने गांव ममेरे भाई की शादी में जाना है । इलाहाबाद होते हुए जाऊंगा । तभी शायद ‘वाग्देवी’ मिले ।

धर्मयुग में ज्योत्स्नाजी के किए गुजराती कविताओं के अनुवाद बहुत अच्छे ले । पढ़ने पर कविताएं बड़ा अच्छा अनुभव देती हैं । ज्योत्स्ना जी को मेरी बधाई दीजिएगा ।

सर्वेश्वर जी तो आजकल रूस गए हुए हैं । पता नहीं कब लौटेंगे । मेरी करीब ७-८ महीने से उनसे भेंट नहीं हुई है। ‘कल्पना’ में जो लेख छपा है उन पर जगदीश गुप्त का उससे प्रसन्न नहीं थे । अपनी आलोचना से वैसे भी वे प्रसन्न नहीं होते ।

दिल्ली में साहित्यिक बंजरपन और भी बढ़ गया है । सब तरफ सूना । नामवर जी दिल्ली में होते हुए भी पता नहीं किस फिराक में रहते हैं । सुना है कि यहीं हैं इन दिनों । मैं राजकमल जाता नहीं, अतः भेंट भी कैसे हो । वैसे अब भेंट करने का उत्साह भी नहीं । शायद मतलब भी नहीं । गर्मी के मारे सब घरों में ही दुबके हैं, कुछ दूसरे शहरों में चले गए हैं, अतः साहित्यिक चर्चा-संलाप का वह अति घटिया सुख भी इधर नहीं है । वैसे भी मुझे लगता है एकमात्र साहित्य-चर्चा का सार्थक सुख सिर्फ आपके साथ ही रह गया है । शुद्ध, सच्ची और आत्मीय चर्चा । इधर अपने अपने पर्वत -अनुभवों का आदान-प्रदान हमने किया था, कुछ उसी की प्रेरणा रही होगी । मैंने ‘लहर’ को सन-६२ की डायरी का एक खासा अंश भेज दिया था । जून में आ रहा है । रानीखेत, कौसानी के मेरे आत्मीय क्षणों की स्मृति है । आपको जरूर पढ़ाऊंगा । आपको रस आएगा ।

मैंने आपको पत्र जरूर देर से लिखा है, पर आप उत्तर लिखने में देर नहीं करेंगे, ऐसी आशा दुराशा तो नहीं है । इधर आपने जो गुनन-मनन किया उसका सार-संक्षेप मुझे भी बताएं । सारे संदर्भ द्वंद्व के क्षणों के बावजूद इन चिन्तन-क्षणों की वजह से ही जिन्दगी सहज हो उठती है । आपने अपने पारिवारिक द्वंद्व का जो छोटा सा संकेत-चित्र दिया था उसने मन को बहुत छुआ। सच पूछिए तो हमारी ब्रदर्स कारमाजोव की पूरी विचार-बहस में आत्मीय घरेलू समस्याओं के इन ज्वलंत तीखे क्षणों का बोध मित्या की बेबनावट आत्मीयता जैसा ही है । मित्या के सामने वह पूरी बहस कितनी अमूर्त लगती है, कितनी दूर, जबकि मित्या अपनी तमाम कमजोरियों के साथ हमारे उन्हीं संघर्ष के क्षणों कीतरह कांक्रीट और अपना सगा है । परिवार के ये संघर्ष क्षण । मानसिक त्रास के क्षण । हम अपनी बहस द्वारा इस क्षण का तिरस्कार नहीं करते, सिर्फ उसे कुछ और अधिक सहज बना देते हैं । दूसरी ओर, बहस की सेंसुअस उत्तेजना के लिए संघर्ष के ये खटानेवाले, तोड़ने वाले क्षण भी कितने जरूरी है उसे सार्थक बनाने के लिए ।

स्नेह सहित
आपका-मलयज

पुनश्चः आजकल घर में तीन प्राणी हैं- मैं, पत्नी और छोटा भाई । माता-पिता शादी के सिलसिले में दो दिन हुआ चले गए हैं

2 comments
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  1. shaah saab aksar malyaj ki baten kiya krte the….unhone btaya tha ki unke paas malyaj k kai patr hain…in patron ko pratilipi ke madhyam se padh kr inke mahtwa ka andaza lgaya ja sakta hai…inka pustakakaar prakashan hona chahiye…shaah saab yadi itna jtan kr saken to malyaj ka kaha kuch aur samne aayega…

  2. patra parhkar pata chala ki malayaj ke itne achhe patra shah saheb ke paas the. yeh jannkar aur achha laga ki in patron ka prakashan bhi ho gaya hai. puri pustak parhne ka man ho aaya.

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