आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

कथाकार: संगीता गुन्देचा

क्या मैं अब कुछ भी लिख सकता हूँ मसलन यह कि तेरी माँका चूत । लेकिन मैं अचानक लिखने बैठा ही क्यूँ ? मुझे कुछ भी लिखे हुए तीन बरस हो गये। यह क्या चीज है जो मुझे बेचैन कर रही है। यह मेरे मन में बार-बार क्या घुमड़ रहा है, जो मेरे रोकने पर भी नहीं रूक रहा है । मैं कहानी लिखना नहीं चाहता । मैं नहीं जानता मैं क्या लिखना चाहता हूँ, बस यह कि मेरे भीतर कुछ घुमड़ रहा है।

बीच-बीच में कई मित्रों और प्रकाशकों के ख़त मिले। मैंने उन्हें खोला ही नहीं । मुझे पता है उन खतों में क्या रहा होगा । मेरे प्रति संवेदना व्यक्त की गयी होगी या किसी पुरस्कार के लिए मेरा नाम सुझाया गया होगा, जिसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हो सकूँ या मुझसे लिखने का आग्रह किया गया होगा।

मैं उन्हें कैसे बताऊँ कि कहानियाँ अब मेरे पास नहीं आती या शायद मैं ही उनके पास नहीं जा पाता। कॉलेज के दिनों में मैं संजू को अपनी कहानियाँ सुनाने के लिए कितना बेचैन रहता था । संजू ने कक्षा में “राम की शक्तिपूजा” की जो व्याख्या प्रस्तुत की थी, उससे पूरी कक्षा कितनी चकित हुई थी, साथ ही वह प्रोफ़ेसर आनन्द मोहन की लाड़ली भी हो गयी थी। उसने सीता के प्रति राम के अगाध प्रेम को राम की शक्ति की तरह देखने की कोशिश की थी।

हमारा कॉलेज अंग्रेजों के जमाने में बनी एक विशाल इमारत में शाम छः बजे से लगता था। आजादी के बाद इस इमारत में विधानसभा लगने लगी थी। विधानसभा के लिए अरेरा पहाड़ी पर एक नयी इमारत बन जाने के बाद यह जगह हमारे कॉलेज को मिल गयी थी। श्यामला पहाड़ी पर यह अकेली इमारत थी। सूर्यास्त के बाद यहाँ से खड़े होकर अपने शहर की इमारतों, गलियों, सड़कों, उन पर भागती गाड़ियों को देखना शहर में रहते हुए भी शहर से बाहर होने जैसा था।

जिस दिन मैंने अपनी पहली कहानी लिखी, मैं उसे संजू को सुनाने के लिए कॉलेज पहुँचा । संजू कक्षा में थी। मैं कक्षा खत्म होने का इन्तजार करने लगा। कक्षा से निकलकर बारामदा पार करते हुए वह प्रोफ़ेसर आनन्द मोहन के साथ पुस्तकालय चली गयी। मैं बाहर बगीचे में दूब पर बैठा खिड़की से उसे कोई जरूरी किताब ढूँढते हुए देखता रहा। फिर मैं गुस्से में एक चिट्ठी लिखकर और चिट्ठी के साथ अपनी कहानी छोड़कर घर चला आया । माँ ने सूरज डूबने से पहले खाना खा लिया था। बाबूजी मेरा इन्तजार कर रहे थे। मैं उनसे यह कहकर कि मुझे भूख नहीं, अपने कमरे में चला आया और ‘अरण्य काण्ड’ खोलकर पढ़ने लगा। पढ़ते-पढ़ते नींद लग गयी थी। फ़ोन की घण्टी से अचानक मेरी तन्द्रा टूटी। मैंने घड़ी की ओर देखा, उसके दोनों काँटे बारह के आगे जा चुके थे। माँ और बाबूजी की नींद तब तक लग गयी थी। मैंने फ़ोन का रिसीवर उठाकर जैसे ही हेलो कहा, वहाँ से आवाज आयी, ‘सॉरी।’ वह आवाज संजना की थी। ‘मैंने बिलकुल अभी तुम्हारी कहानी पढ़कर खत्म की । क्या हम कल कक्षा से पहले मिल सकते हैं?’

अगले दिन संजू ने मेरी कहानी पढ़कर प्रोफ़ेसर आनन्द मोहन को सुनायी। वे चुप रहे। यह उन्हें कहानी अच्छी लगने का संकेत था। कहानी में कोई किरदार न था, बरसात में भीगते शहर का वर्णन था। हालाँकि उस कहानी में शहर को किरदार न कहना गलत होगा। अगले दिन प्रोफ़ेसर आनन्द मोहन ने रेणु का ‘मैला आँचल’ मुझे भेंट किया। अब उन लोगों के साथ मैं भी पुस्तकालय जाने लगा था। कक्षा खत्म होने के बाद हम कॉफी हॉउस चले जाते । वहाँ किसी दक्षिण भारतीय बेरे को फ़िल्टर कॉफी लाने के लिए कहकर हम लोग आराम से बैठ जाते। प्रोफ़ेसर आनन्द मोहन ने अपने युवा दिनों में महाप्राण निराला को देखा था। उन्होंने हमें बताया कि अपने आखिरी दिनों में वह बहुत कम लोगों से मिलते थे, अगर उनके पास कोई अतिथि पहुँच जाता तो वे अपने लिए बनाया खाना उसे खिलाकर खुद भूखे रह जाते थे। बातों ही बातों में कई बार संजू को घर पहुँचने में देर हो जाती, मैं और प्रोफ़ेसर साहब उसे घर छोड़ने जाते।

एक दिन प्रोफेसर आनन्द मोहन ने पुस्तकालय से किताब ढूँढकर मुझे और संजू को ब्रॉड्स्की की ‘नोबेल स्पीच’ पढ़कर सुनायी । संजू को कविता से बहुत लगाव था, यह बात प्रोफ़ेसर साहब भी जानते थे और मैं भी। उस दिन प्रोफ़ेसर साहब को कैम्पस में छोड़कर मैं जब संजू को छोड़ने उसके घर गया, वह सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बोली, ‘क्या तुमने कभी कविता लिखी है ?’

कई बार मेरा मन होता कि मैं एक कविता लिखकर संजू से वह सब कहूँ जो मैं उससे कह नहीं पा रहा था। एक दिन मैंने उसके हाथ में एक कागज थमाया और कहा, ‘यह रही कविता।’ उसने कागज खोलकर कुछ पँक्तियाँ बुदबुदायी और कहा ‘यह तो महाकवि की है।’ मैंने कहा, ‘कविता उसी की होती है, जिसको उसकी जरूरत हो।’ यह सुनकर संजू के चेहरे पर आयी खिलखिलाहट ने हमारे पूरे दिन को उजाले से भर दिया था।

मैं जो भी लिखता रहा, संजू ही मेरी पहली पाठक और आलोचक रही। कई बार वह मेरी कहानियों के नाम बदल देती थी। ‘वापसी’ कहानी का नाम उसने यह कहकर बदल दिया था कि शीर्षक में पूरी कहानी नहीं खुलनी चाहिए। लिखते-लिखते जब मुझे कुछ सूझना बन्द हो जाता, वह कुछ पढ़कर सुनाने लगती। बारिश के दिन थे। मैं ‘बहरूपिया’ कहानी के अन्त को लेकर परेशान था। संजू रसोईघर में चाय बनाते हुए बोली थी, ‘उसे थोड़ी देर रहने दो, वह खुद ही अपने को पूरा कर लेगी।’ मेरी अधिकतर कहानियों के शीर्षक उसी के दिए हुए हैं। मैंने सारी कहानियाँ और दो उपन्यास यह सोचते-सोचते पूरे किये थे कि वे उसे अच्छे लगेंगे भी या नहीं।

‘अरेबियन नाईट्स’ में शहराजाद बादशाह को कहानियाँ इसलिए सुनाती चली जाती है कि अगर वह कहानी सुनाना बन्द कर दे तो उसे मौत के घाट उतार दिया जाएगा। मैं कहानियाँ इसलिए सुना सका क्योंकि संजू जीवित थी। उसको गये तीन बरस हो गए । इस बीच मैंने कुछ नहीं लिखा लेकिन अब मेरे सीने में बार-बार कुछ घुमड़ रहा है। कहानी नहीं कुछ भी। मसलन सब्जी के ठेले पर साहित्य समाज का दर्पण सुरेश कुमार गुप्ता एण्ड सन्स लड़कियाँ तरह जानती चूहे के बिल में अस्तित्ववादी कविताएँ स्वप्निल चक्रवर्ती फैजाबाद मंगलसंगीत कृशकाय फोटोग्राफर कुछ चिन्तनशील विचारक ऑउट सी हो रही गुजरते तमाम के सिलसिलों के मद्देनजर स्तब्ध हैं बुद्धिनाथ श्रीवास्तव यथा परिवार, प्रकृति, प्रेम, दीवाने गालिब फटाक्‌

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