आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

अजनबीपन की गंभीरता में : प्रशांत श्रीवास्तव

Art: Samia Singh

आवाज़

 

उनकी आवाज़

नहीं जा पाती

उनकी परछाईयों से आगे

 

और हम गिनने लगते खामोशियाँ

जबकि कुछ कहा गया

कुछ ऐसा

जैसे ठिठके हुए हिरण ने कहा हिरण से

और वो जो पानी की परछाईं-सी कौंध गई

मौत नहीं थी

स्मृति का एक कोना टूट कर गिरा था

 

वो आ रहे हैं

वो अपनी आवाज से भी पुरानी किसी जगह से आ रहे हैं

उनके साथ हैं उनके शब्द

और टुकड़ा-टुकड़ा आवाज़

 

किसी बच्चे की उंगलियों से छूटी तितली-सी

तेज हवा में उड़ गये बादल के टुकड़े-सा

एक विलंबित राग सी हवा में दूर तक उछाली गई

कहाँ जा कर टूटती है आवाज़??

 

सब पास-पास हैं

थोड़ी सी जगह में इतने सारे आदमी कि

धूप के झरने की नहीं बची जगह

पाँव तले अंधेरों में

अनसुने शब्द अनजानी चीजों से टकराते
उनके रास्ते नहीं चमकता कुछ भी

और अगली सुबह बुहारे हुए मौन के टुकड़ों के पास

किरचों में पाई जाती

उनकी आवाज़

 

अजनबी

 

अपने अजनबीपन की गंभीरता में

भूल रहा खुद को

 

भूलना याद का गुमना है

याद भूले को पा जाना

सिर्फ़ उतना सा ही चौकन्नापन चाहिये

सड़क पार करते दाएँ-बाएँ की याद जितना

 

भूलना भी नहीं है सहजवृत्ति

एक सोची-समझी कारवाई सी होती है याद
और याद का न होना भी

 

रोशनी अपने रास्ते से नहीं भटकती

हमारे भूलते ही थोड़ी-सी तिरछी, थोड़ी-सी टेढ़ी हो कर

हमें याद आती है

तब पौधों की जड़ आकाश पर छा जाती

बारिश धरती पर उगने लगती

कहानियाँ अपने अंत से आगे बढतीं हैं

 

धमनियों में विकृत लहु की याद

और बरौनियों पर अब थोड़ी सी राख है

 

मेरे शब्द उपासना और मृत्यू के बीच झूलते हैं

मेरे कहने में जो छूटा हुआ-सा है

धड़कनों के अंतराल-सा

वो रिक्तताओं की स्मृति से भरा है

 

मेरे ही बीच कहीं खो गये हैं

संबंधों के जीवाष्म और उनमें लिपटी मेरी पहचान

एक टेढ़े मुँह वाला अजनबी

जबकी मेरे बिस्तर पर दिखता है रोज

मैं खुद को

अपने अजनबीपन की गंभीरता में

भूल रहा हूँ

 

चुप

 

बैठ जाते पकड़ कर

किसी लगभग भूल चुकी गज़ल का अधभूला

मिसरा

दोहराते बार-बार बकायदा चढ़ा लेते जुबान पर और क्या बात है

के जवाब में एक मासूम मुस्कान-सा कुछ

 

करीने से सजे अपने कमरे में लगा कर आग

तड़कती लकड़ीयों की ले आते चिंगारी थोड़ी-सी

पर लाल आँखों में रात बहुत देर खत्म हुई

किसी फ़िल्म का एक हिस्सा होता

 

तार उलझ जाते इतने कि टुकड़ों और कई

गांठों के बाद भी नहीं आता कोई सिरा हाथ

 

लग जाते देखने दूर क्षितिज की ओर

शाम का धुंधलका बोझिल-सी हवा

चाँद-तारे घर लौटते पंछि

घुस आते ज़हन में जो बकायदा एक बकवास होती

 

बेहद खराब लिखावट में कटा-पिटा सा कुछ दर्ज़ होता

नीचे एक हस्ताक्षर एक पता एक नंबर

एक अदृश्य बोतल में कर सीलबंद

निकल जाते दोहराते वही मिसरा

इच्छाओं के समंदर में

फेंकते पूरी ताकत से

 

चुप रह कहाँ पाते???

 

खुदा माफ़ करे

 

खुदा माफ़ करे

मगर मौत के पहले तुम्हारे चेहरे पर

वैसी ही रोशनी थी जैसी

लोगों ने देखी थी मदर के चेहरे पर.

एक भयावह शान्ति!

कामनाओं के अंत

और खुद को हर जुर्म के लिये क्षमा कर देने से जो उपजती है

वैसी एक आभा

’भरोसा रखो’ कहते रहना का अभ्यास जैसे

चस्पां हो चेहरे पर और बिन कहे भी

मृत चेहरे पर वही दिखे और कुछ देर को तो

सचमुच भरोसा हो जाये

 

खुद यकीन करना मुश्किल हो

अगर तुम देखो अपना वो चेहरा

मौत से ठीक पहले

कहाँ दिखते वो सूक्ष्म परजीवी

त्वचा के नीचे जो कुतरते रहे तुम्हारी उन्नत अभिलाषाएं

 

मरे हुए चेहरे पर आँखों की जगह

नहीं दिखती तलाश

और ओठों की जगह प्यास नहीं दिखती

कफ़न के नीचे छुप जाता वो हाथ

जिसकी मुट्ठी अब तक खुली नहीं

 

मौत के थोड़ी ही देर बाद छू कर अपना तन

तुम मान लेते कि ठंड यकीनन बहुत है

कि बर्फबारी के आसार से हैं और आग के इंतजामात बहुत कम

सफ़ेद पड़ चुके नाखूनों की तुम्हें तकलीफ़ होती

 

अपनी उंगलियों से

दुनिया को निशब्द निहारती अपनी आँखों की पलकें समेटते

खुद अपनी भीड़ में शामिल हो जाते

और काफ़िले में मौजूद मेरी ही तरह

अपनी मौत के पहले अपने चेहरे की उस रोशनी को याद कर

तुम भी कहते –

 

भला आदमी था

जन्नतनशीं हो

खुदा माफ़ करे.

 

 

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