आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

नदी के द्वीप: प्रतीक और विचार – प्रणय कृष्ण

Art: Sunita

हम नदी के द्वीप हैं.

हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए.
वह हमें आकार देती है.
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं.

माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं.
किंतु हम हैं द्वीप. हम धारा नहीं हैं.
स्थिर समर्पण है हमारा. हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के.
किंतु हम बहते नहीं हैं. क्योंकि बहना रेत होना है.
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं.
पैर उखड़ेंगे. प्लवन होगा. ढहेंगे. सहेंगे. बह जाएँगे.

और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?
रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे.
अनुपयोगी ही बनाएँगे.

द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप. यह अपनी नियती है.
हम नदी के पुत्र हैं. बैठे नदी की क्रोड में.
वह बृहत भूखंड से हम को मिलाती है.
और वह भूखंड अपना पितर है.
नदी तुम बहती चलो.
भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, सस्कार देती चलो. यदि ऐसा कभी हो –

तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के,
किसी स्वैराचार से, अतिचार से,
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे –
यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल,
प्रावाहिनी बन जाए –
तो हमें स्वीकार है वह भी. उसी में रेत होकर.
फिर छनेंगे हम. जमेंगे हम. कहीं फिर पैर टेकेंगे.
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार.
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना.

अज्ञेय की कविता “नदी के द्वीप” (१९४९) प्रतीक और बिम्बों में सम्प्रेषित एक विचार है. यों तो नई कविता के ज़माने से हिंदी में एक रूढ मान्यता यह रही आई है कि आधुनिक काव्यभाषा बिम्बधर्मा होती है और वक्तव्य उससे अलहदा अकाव्यात्मक चीज़ है, लेकिन नई कविता के शीर्ष कवि और सिद्धांतकार अज्ञेय ने महज इस कविता में ही नहीं, बल्कि अपनी अनेक कविताओं में प्रतीक-बिम्ब और वक्तव्य की परस्पर अपवर्ज्यता को अमान्य किया है. उनकी अनेक कविताएं आत्मवक्तव्य हैं या फिर उनकी रचना-प्रक्रिया, काव्य की सैद्धांतिक प्रस्थापनाएं, विरोधियों से विवाद, जीवन-दर्शन, ज्ञान-मीमाँसा संबंधी काव्यात्मक वक्तव्य सरीखी हैं. ऐसी कविताएं अज्ञेय ने हर दौर में लिखीं. उदाहरण के लिए कवि (1932),रहस्यवाद(1937), वर्ग-भावना-सटीक(1941) ,समाधि-लेख(1946),सत्य तोबहुत मिले(1954) शब्द (1954), मैं वहाँ हूं(1954), हमने पौधे से कहा(1954), नयी कविता:एक सम्भाव्य भूमिका(1955), मैं तुम्हारा प्रतिभू हूं(1955),देना जीवन(1955), जितना तुम्हारा सच है(1955), कवि के प्रति कवि(1956), हम कृती नहीं हैं(1956), लौटे यात्री का वक्तव्य (1957), मैनें कहा पेड(1957) मैनें देखा एक बूंद(1958), नया कवि: आत्मस्वीकार(1958), नए कवि से (1958), नया कवि:आत्मोपदेश (1958), पाठक के प्रति कवि (1960), चक्रांत शिला-8 (1961), चक्रांत शिला-16(1961), पक्षधर(1965), दिया हुआ; न पाया हुआ(1968), क्यों कि मैं(1968), दोनों सच हैं(1969), कविता की बात(1969),हट जाओ, बौद्धिक बुलाए गए (1976 के बाद), इतिहास-बोध(1980) आदि. इनमें से कुछ कविताएं निस्संदेह ऐसी हैं जिनमें दर्शन या विचार अनुभूति की बिम्बभाषा में पूरी तरह घुल चला है जैसे “मैंने  देखा एक बूंद” या “चक्रांत शिला-8 और 16″, लेकिन ज़्यादातर कविताओं में ऐसा नहीं है जहाँ वक्तव्य बिम्बों में व्यक्त अनुभव-संश्लेष से मिलकर विचार को मूर्त. करते हैं. यदि ऐसी कविताओं को”विचार कविता” (अज्ञेय द्वारा ही व्यवहार किया गया शब्द) माना जाए, तो कहना होगा कि अज्ञेय ने विचार-कविताएं कम नहीं लिखीं, भले ही उन्हें ऐसी कविताओं से खुद ही ऐतराज़ रहा हो. “विचार-कविता” शीर्षक टिप्पणी (भवन्ती,1972) में वे लिखते हैं,

 “विचार-कविता” की जड में खोखल यह है कि विचार चेतन क्रिया है जबकि कविता की प्रक्रिया चेतन और अवचेतन का योग है जिसमें अवचेतन अंश अधिक है और अधिक महत्वपूर्ण है…………..”विचार कविता” का समर्थक यह कहे कि उसमें एक स्तर रचना सर्जना का है, साथ ही दूसरा स्तर है जिसमें कल्पना से प्राप्त    प्राक-रूपों बिम्बों में चेतन आयास से वस्तु या अर्थ भरा गया है, तो यह उस प्रकार की कविता कोअलग से पहचानने में योग देगी. पर यह आपतित बनी रहेगी कि यह दूसरा स्तर तर्क-बुद्धि का स्तर है, रचना़ का नहीं: अर्थात “विचार कविता” कविता नहीं, कविता विचार है. और ऐसा है तोउसकी ” कविता” पर विचार करने के लिए उसके ” विचार” को अलग रख देना होगा या प्रसंगेतर मान लेना होगा.

चेतन- अवचेतन, विचार-कल्पना, तर्कमूलक वक्तव्य-सौंदर्यमूलक वक्तव्य कोज्ञान और सम्प्रेशण की मानवीय प्रक्रिया में अलगाया नहीं जा सकता. इसीलिए कविता में जब ये नितांत अलग और अस्म्बद्ध रूप में आते हैं, तो कृत्रिमता का आभास देते हैं. जिस कल्पना-शक्ति को अज्ञेय कविता के लिए सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं और निस्संदेह वह है भी, उसे कालरिज ने चेतन और अचेतन, विचार और बिम्ब, सामान्य और ठोस, प्रातिनिधिक और वैयक्तिक, समानता और भिन्नता, परिचित और नवीन, संघटन और भाव, आकलन और उत्साह, कृत्रिम और प्राकृतिक जैसे विरुद्धों का सामंजस्य करनेवाली शक्ति बताया था. जैसे-जैसे विज्ञान और तर्क के युग में कविता की ज़रूरत पर ही सवाल उठने लगे, वैसे-वैसे पश्चिम के कवियों और काव्यशास्त्रियों  ने बचाव की मुद्रा में ज्ञान के चेतन पहलू, विचार, तर्क ,प्रातिनिधिकता आदि को विज्ञान के खाते डाल काव्य के अचेतन मनोवैज्ञानिक स्रोत , प्रभाव और भूमिका पर बल दिया. आगे चलकर मनोविश्लेषणवाद और लेवी स्ट्रास जैसे संरचनावादी नृत त्वशास्त्रियों के प्रभाव से कविता में अवचेतन और प्राक-बिम्बों पर बल देते हुए कल्पना-शक्ति की भी इन्हीं सन्दर्भों  में व्याख्या होने लगी. कविता की इस तरह की समझ विकसित होने के पीछे एक और प्रमुख कारण था पूंजीवादी समाज के असमाधेय अंतर्विरोधों, निरंकुश व्यक्तिवाद और मानसिक अलगाव की समस्याओं से निजात के तौर पर मानव मन के आदिम, प्राकृत मूलों तक पहुंचना जहाँ ये सारे अंतर्विरोध लय होसकते थे और वर्गों, व्यक्तियों , राष्ट्रों में विभाजित मानवता एक सार्वभौम आधार पा सकती थी. इस रास्ते सोचने वालों के लिए आध-बिम्बों में व्यक्त मनुष्य का सामूहिक अवचेतन कविता का आदर्श बन गया. अंतर्मुखता, क्षण के अनुभव में मानव-नियति का साक्षात्कार, अंतर-दृष्टि की कौंध में समग्रता और पूर्णता का प्रकाशन- कुल मिलाकर मानव जीवन के बिखराव के बीच पूर्णता की झलक को देखना और दिखलाना कविता की अनकही भूमिका मानी गई. कविता की इस धारणा और भूमिका को मानने वाले जीवन के पार्थिव, भौतिक साधनों और संबंधों के पुनस्संगठन की पथरीली लम्बी राह के साथ-साथ कविता कोपनपता नहीं देख पा रहे थे. जो पार्थिव, वास्तविक और भौतिक था, उसका जो और जितना हिस्सा निरपेक्ष चेतना (चेतन+अवचेतन)के स्तर पर रूपांतरित होचुका हो, वही कविता के लिए ग्राह्य था. भले ही इस रास्ते के बहुत से हमसफर वस्तुगत आदर्शवाद के हामी अर्थात यह मानने वाले रहे हों कि आदर्श भी वास्तव से उदभूत होता है, किंतु आदर्श कोही सत्य और वास्तव कोतथ्य मानने के चलते वे विगत वास्तव के चिन्ह सामूहिक अवचेतन या परम्परा में ही देख पाते थे या यों कहें कि इनके लिए समूह का अवचेतन या परंपरा इतिहास का स्थानापन्न थी.

आइए देखें कि हम “नदी के द्वीप” को कविता की किस कोटि में रख सकते हैं. कालरिज के ही एक जुमले का इस्तेमाल करें तोयह कविता उस कला का नमूना है जिसे “figured language of thought’ कह सकते हैं. “भवंती” से ऊपर उद्धृत अज्ञेय के कथन से ज़ाहिर होता है कि वे कविता में विचार को सृजन के अवचेतन प्राक-बिम्बात्मक स्तर के बाद चेतन आयास से भरा गया अर्थ मानते हैं. क्या इस कविता के भी ये दो स्तर हैं?यदि हैं तोक्या हम इस कविता के विचार को कविता से अलग प्रसंगेतर मानकर सिर्फ कविता का भावन कर सकते हैं? यदि कविता और विचार को अलगाना असंभव हो, तो क्या कविता का मूल्यांकन स्वत: ही विचार का भी मूल्यांकन नहीं हो जाएगा? हमारी समझ से इस कविता में प्रतीकों के माध्यम से सर्वोपरि एक विचार सम्प्रेषित होता है. विचार प्रतीकों में ढाले गए हैं या प्रतीकों में अर्थ ढाला गया है ,इसका निर्णय कर पाना मुश्किल भी है और अप्रासंगिक भी. पहली पंक्ति में ही प्रतीकार्थ स्पष्ट किया गया है- “हम नदी के द्वीप हैं”.  “हम” यानी व्यक्तिवाचक सर्वनाम. व्यक्ति और उसका तत्व यानी व्यक्तित्व ही नदी का द्वीप है. (बहुवचन में “नदी के द्वीप”). कविता का पहला वाक्य एक संदेश, घोषणा या वक्तव्य है- तार्किक या सत्यापनीय नहीं ,बल्कि आनुभविक और सौंदर्यात्मक. जैसे-जैसे कविता खुलती है, वैसे वैसे प्रतीकों का एक समीकरण उभरता है-

द्वीप = व्यक्तित्व = शिशु

नदी = संस्कृति/परंपरा = माँ

भूखण्ड = समाज = पिता

इस समीकरण में द्वीप या व्यक्तित्व की प्रधानता है क्योंकि वही उस संबंध को परिभाषित करता है, उस संबंध का वाचक है जो नदी और भूखण्ड का उससे है. व्यक्तित्व, संस्कृति और समाज, इन तीनों पदों के दो-दोप्रतीक हैं. हरेक पद के दो प्रतीक इसलिए हैं कि बाकी के दोनों पदों से उसके संबंध कोएक ही प्रतीक पूर्णत : व्यक्त नहीं कर पा रहा. हर पद के दो प्रतीक अर्थ की समग्रता से एक दूसरे के पूरक हैं. प्रतीकों का एक स्तर प्राकृतिक है (द्वीप, नदी, भूखण्ड) और दूसरा मानवीय( शिशु , माँ, पिता) और ये दोनों स्तर मिलकर प्रकृति और मनुष्य के अविभाज्य सृष्टि-संबंध के बोध को उदबुद्ध करते हैं. बगैर वक्तव्य की शक्ल में आए जो अनायास सम्प्रेषित होता है, वह यह कि व्यक्तित्व, संस्कृति और समाज जितने मानवीय हैं उतने ही प्रकृत भी. यह बात प्रतीकों के अर्थ से नहीं, बल्कि उनकी प्रतीक-व्यवस्था के दुहरे विन्यास से व्यंजित है. इस प्रतीक-व्यवस्था और उसमें अन्तर्निहित विचार का हम संक्षेपण करें (जिसकी इजाज़त मुझ जैसे अध्यापक को कवि दे ही देता) तो बात कुछ यों निकलेगी- व्यक्तित्व, संस्कृति और समाज में वही संबंध है जो द्वीप, नदी और भूखण्ड में या और शिशु, माँ और पिता में. ज़ाहिर है कि इस संक्षेपण से बात बहुत नहीं बनेगी क्योंकि इतना कहने से संबंध का स्वरूप प्रकाषित नहीं होता. कवि वक्तव्यों और संबोधनों की एक पूरी श्रृंखला के ज़रिए इस संबंध के स्वरूप को उदघाटित करता है. कविता भले ही वक्तव्य न होती हो, किंतु उन कविताओं में वक्तव्य बहुधा अपरिहार्य हो जाते हैं जिनमें एक पूरा विचार सम्प्रेषित करने की कवि की इच्छा होती है. ऐसी कविताओं में बहुधा एक पूरे विचार के सम्प्रेषण के लिए प्रतीक-व्यवस्था को वक्तव्य का सहारा चाहिए होता है. दूसरे, विचार की प्रकृति में सटीकपन (precison) होता है, इसलिए बिम्ब की अनेकार्थता और खुलेपन की जगह विचार के सम्प्रेषण  में प्रतीक की अर्थगत स्पष्टता और सिथरता ज़्यादा काम की चीज़ होती है. लेकिन वक्तव्य की ज़रूरत तब होती है जब कवि कोप्रतीकों में पहले से चले आ रहे अर्थों की परतें काट अपना अर्थ भरना होता है या फिर प्रतीकमात्र विचार का पूरा भार वहन नहीं कर पाते. कविता में माँ और शिशु के बीच संबंध से नदी और द्वीप के बीच संबंध की समानता कोई बहुत नयी सूझ नहीं है. बहुत पीछे न भी जाएं, तो सुमित्रानंदन पंत की मशहूर कविता “नौका विहार” के एक बिम्ब में हम इस समानता को देख सकते हैं- “माँ के उर पर शिशु-सा, समीप, सोया धारा में एक द्वीप”. प्रतीक-व्यवस्था के दोनों स्तरों की निकटता, समानता और सामंजस्य से ज़्यादा महत्वपूर्ण है प्रतीकार्थ को वहन करने की इनकी सापेक्षिक क्षमता. नदी का प्रतीक संस्कृति की चिरंतनता और परिवर्तनशीलता, दोनों को व्यंजित करता है. यह प्रवाह ही है जो आपातत: विरोधी दिखनेवाले इन दोनों गुणधर्मों को एक करता है. नदी मनुष्य की पुरातनतम स्मृतियों में से है. पठार, पहाड, समुद्र जैसे प्राकृतिक रूपाकार बहुसंख्यक मानव समुदाय से दूस्थ हैं, जबकि नदी नज़दीक है, जिसका प्रत्यक्ष अनुभव पीढी-दर-पीढी मनुष्य को होता रहा है. सभ्यताएं नदी घाटियों में विकसित होती रहीं हैं. लिहाजा चिरंतनता, परिवर्तनशीलता के साथ-साथ मनुष्य के साथ आत्मीयता भी संस्कृति का वह गुण है जोनदी के प्रतीक से व्यंजित होता है. नदी कोमाँ कहने का औचित्य यह है कि नदी जीवनदायिनी और आत्मीय है. ( कविता की दुनिया में वह इसीलिए कहीं माँ है तो कहीं बहन, कहीं बन्धु. संत एकनाथ के लिए चंद्रभागा बहन है, तोअज्ञेय की एक कविता का शीर्षक है “बंधु हैं नदियाँ”)) जहाँ समतल ज़मीन, पहाड, पठार, समुद्र  से कुछ पाने के लिए मनुष्य को बदले में अपना श्रम (जोतने-बोने, खनन या डिंलिंग के ज़रिए)देना पडता है, वहीं नदी हमारी प्राथमिक ज़रूरतों के लिए हमसे कुछ लेती नहीं. अलबत्ता बढी हुई ज़रूरतों के लिए हम बांध वगैर ह बनाने का श्रम ज़रूर करते हैं.

नदी जिस तरह द्वीप के उभार, सैकत, कूल को गढती है,उसके बाहरी और भीतरी रूपाकारों को गढती है, संस्कृति वैसे ही व्यक्तित्व की रूपरेखा, चाल-चलन , चरित्र और मूल्यबोध को. नदी और माँ , दोनों प्रतीकों के इस्तेमाल से संस्कार का व्यापकतर अर्थ ध्वनित होता है, जो भौतिक और आतिमक, शरीर और मन दोनों के संस्कार का वाचक बनता है. माँ बच्चे को नहलाती-धुलाती है, कपडे पहनाती है, बदन की मालिश करती है, दूध पिलाती है और इस तरह उसके शरीर को गर्भ के बाहर भी गढती और आकार देती है. दूसरी ओर वह उसकी पहली शिक्षिका होती है जो उसे नीति का, जीवन मूल्यों का, प्यार, विश्वासों और मान्यताओं का संस्कार देती है, उसके मन को गढती है. संस्कृति अज्ञेय के निकट व्यक्तित्व के लिए इसी भूमिका में है. लेकिन जिस तरह शिशु माँ के गर्भ से निकलकर स्वतंत्र अस्तित्व हासिल करता है, बचपन, यौवन और वयस्कता की सीढियाँ चढते उत्तरोत्तर माँ से अलग अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित करता है, उसी तरह व्यक्ति भी संस्कृति से रूपाकार और संस्कार पाने के बावजूद मूलत: स्वतंत्र अस्तित्व रखता है. संस्कृति के प्रति समर्पण और स्वतंत्र अस्तित्व तथा असिमता के बोध का योग ही व्यक्तिमत्ता है. इस कविता का प्रतीक विधान परिवार का रूपक बनाता है जिसमें संस्कृति, समाज और व्यक्तित्व क्रमष: माँ, बाप और शिशु हैं , साथ ही साथ नदी, भूखण्ड और द्वीप भी- Þहम नदी के पुत्र हैं. बैठे नदी की क्रोड में. वह वृहद भूखण्ड से हमकोमिलाती है. और वह भूखण्ड अपना पितर है.

“नदी तुम बहती चलो. भूखण्ड से जो दाय हम को मिला है, मिलता रहा है, माँजती, संस्कार देती चलो”

पाठक यह लक्ष्य किए बगैर नहीं रह सकता कि कविता में कुल इतनी ही पंक्तियाँ भूखंड के बारे में हैं. कवि यह इनकार नहीं करता कि भूखण्ड (समाज/पिता) से द्वीप (व्यक्तित्व/शिशु ) का रिश्ता है, लेकिन यह रिश्ता अप्रत्यक्ष है, औपचारिक है, दूरस्थ है, कम आत्मीय है, ज़रूरत भर का है. सचमुच द्वीप से भूखण्ड दूर ही होता है और नदी ही दोनों कोमिलाती है, उसी तरह जैसे माँ ही बच्चे को पिता का संज्ञान कराती है. शिशु पैदा होने के साथ माँ पर ही निर्भर है अपनी मूलभूत जैविक और आतिमक ज़रूरतों के लिए. यदि माँ न बताए तो शिशु प्रामाणिक तौर पर नहीं जान सकता कि उसका पिता कौन है. पिता के साथ उसके रिश्ते का एकमात्र प्रमाण माँ ही है. जब तक परिवार और निजी संपत्ति का ऐतिहासिक रूप से विकास नहीं होगया, तब तक पिता और भी हाशिए का जीव था जिसकी शिशु के लिए पिता रूप में पहचान की कोई ज़रूरत भी नहीं थी और और न ही उसके शिशु या माँ के प्रति कोई कर्तव्य निधारित थे. कह सकते हैं कि शिशु के अस्तित्व में लाए जाने के जैविक साधन के अलावा पिता की कोई अन्य परिभाषा नहीं थी. लेकिन इस प्रतीक-विधान में एक परिवार उभरता है, रूपक के बतौर. परम्परागत परिवार में पिता बाहरी काम करता है, कमा कर लाता है और बच्चों की देखभाल और पूरी गृहस्थी माँ का जिम्मा है. बच्चे बहुधा पिता से आत्मीय नहीं होपाते. पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में एक-दो पीढी पहले तक उच्च कुल का कहलाने वाले परिवारों में पिता सबके सामने बच्चों को गोद में भी नहीं उठा सकता था, ऐसी रवायत थी. पिता का अंश बच्चे में है,           पितृसत्तात्मक समाज में उसकी संपत्ति का वह वारिस भी है और चुकाना भी उसे पितृ-ऋण ही है ( भूखण्ड़ से जोदाय हमको मिला है…), बावजूद इन सब चीज़ों के, बच्चे से उसका सम्बंध अप्रत्यक्ष, अनात्मीय, औपचारिक और ज़रूरत के तकाज़े  से नियमित होता है. अज्ञेय इस कविता में व्यक्ति, समाज और संस्कृति का ऐसा ही संबंध देखते हैं. व्यक्तित्व के लिए संस्कृति आंतरिक है, उसकी जीवनी शक्ति है जबकि समाज अपेक्षया बाहरी है, जो जीने का साधन मुहैया कराता है. समाज का संज्ञान भी संस्कृति की मध्यस्थता से ही सम्भव है. कविता के प्रतीक विधान में जो विचार आकार लेता है उसमें समाज के प्रति जवाबदेही तो है, लेकिन व्यक्तित्व के निर्माण में उसकी भूमिका द्वितीयक है, प्राथमिक नहीं, बाहरी है, भीतरी नहीं. यहाँ सचमुच विचार को कविता से अलगाना असंभव ही है. कोई भी विचार किन्हीं वस्तुओं से उदभूत होने के चलते वस्तुपरक तो होता ही है, लेकिन साथ ही साथ ऐसी अन्य वस्तुओं, संबंधों, परिघटनाओं की ओर संकेत और उनका प्रतिबिम्बन भी करता है जिनसे उसका प्राथमिक उदभव नहीं हुआ है यानी संकेत परकता भी विचार का एक गुण है. कोई भी विचार अमूर्त  नहीं होता. वह अपना रूप लेकर जन्मता है- काव्य-बिम्ब में, धार्मिक प्रतीकों और कर्मकांडों में, गणितीय प्रमेयों में या वैज्ञानिक सूत्रों  में. कोई कह सकता है कि एक ही विचार काव्य-बिम्ब और गणितीय प्रमेय में एक साथ मूर्त नहीं होसकता. अज्ञेय जब विचार-कविता या कविता-विचार की बात करते हैं, तो शायद वे कविता और विचार के अलगाव की जगह ( मेरी निगाह में ) मूर्तन में उपजे विचारों के वैशिष्ट्य की बात कर रहे लगते हैं. यानी यदि कोई कवि एक ही विचार को अपनी कविता में कलात्मक बिम्ब और निगमनमूलक तर्क, दोनों रूपों में रखे तोवह एक ही विचार न होगा और कविता में भी टूटन दिखाई देगी. “नदी के द्वीप” कविता के विचार जिस प्रतीक-विधान में मूर्त  हुए हैं, उससे भिन्न प्रतीक-विधान में वे मूर्त  नहीं होसकते थे. प्रतीक-विधान की अनन्यता विचार और प्रतीक का अभेद ही है. दरअसल प्रतीक या संकेत -विधान तोविचारमात्र की प्रकृति में निहित है. न्यायबद्ध तर्क या गणितीय प्रमेय भी संकेत -विधान ही तो है, और भाषा खुद भी तो. अज्ञेय ने ऊपर उद्धृत “भवन्ती” से लिए गए कथन में जो प्रश्न उठया है वह मेरी समझ से यह होना चाहिए कि – क्या मूर्तन के अलग-अलग स्तर या प्रणालियाँ विचारों की ही अलग- अलग प्रकृति का प्रमाण नहीं हैं? क्या कलात्मक बिम्बों में मूर्त कोई विचार वैज्ञानिक सूत्र में अनुवादेय है?. ये प्रश्न रचनाकार के लिए ज़्यादा महत्व के हैं, लेकिन आलोचक के लिए? आलोचक तो कवि नहीं है. वह स्वयं कविता नहीं कर रहा. क्या वह कविता में मूर्त  विचार को समाजशास्त्र, राजनीति-विज्ञान, दर्शन या प्राकृतिक विज्ञानों की संकेत-पद्धतियों के बीच रख कर नहीं परख सकता? अगर आलोचक को इसकी मुमानियत है तो यह आलोचक से कवि होने की माँग है. क्या प्रतीक-विधान की अनन्यता और विचार और प्रतीक के अभेद की हिफाज़त खुद आलोचक के लिए भी ज़रूरी है?

प्रसंग से जुडी एक बात यह है कि व्याख्या कविता की शर्तों पर उसके भीतर से होगी या बाहर से भी? “हम नदी के द्वीप हैं”- इस पंक्ति से हम इस प्रतीक-विधान के सिर्फ एक प्रतीकार्थ को ही जान पाते हैं, दूसरे प्रतीकों के प्रतीकार्थ कहे नहीं गए. हम यह कैसे जानते हैं कि नदी माँ संस्कृति और भूखण्ड पिता समाज के लिए आए प्रतीक हैं. ज़ाहिर है कि ऐसा अर्थ करना व्यक्ति और द्वीप के कविता में बताए गए समीकरण पर आधारित अनुमान मात्र नहीं है, बल्कि अज्ञेय के अन्य टेक्स्टों से भी अनुमानित, अनुमोदित है. कविता के प्रतीक-विधान यानी मूर्त  विचार में निहित पूर्वग्रह भी बगैर बाह्य सन्दर्भों के उदघाटित नहीं होते. मसलन माँ, पिता और शिशु का जो पारिवारिक रूपक लिया गया है, वह किस तरह के परिवार के संबंधों का वाचक है? पिता का काम बाहरी और माँ का दायरा भीतरी, यह संबंध कुलीन परिवारों का है, न कि निम्नवर्गीय परिवारों का जहाँ दोनों बाहर श्रम करते हैं, रोज़ी कमाते हैं. उनके काम के दायरे स्पष्टत: बंटे नहीं हैं. ( यों विचार के कुलीन उदगम के संकेत कोई चाहे तो कविता की शब्दावली की उच्चपाठीय तत्समाश्रितता से भी ग्रहण कर ही सकता है, जबकि आलोचकों ने अज्ञेय को गैर-रूमानी भावबोध के लिए तदभव का अनुपम प्रयोगकर्ता माना है.) भूखण्ड, पिता और समाज, तीनों पुरुषवाचक हैं. बाहर काम करनेवाले पुरुष की श्रम से दृढ माँसपेशियाँ और स्वभाव की परुषता भूखण्ड के कड़ेपन, खुरदुरेपन के समतुल्य हैं. समाज को कवि ऐसा ही देखता है. जबकि नदी तरल है, मृदु है, माँ की तरह और संस्कृति भी कवि के लिए ऐसी ही है. मुझे पता नहीं कि किसी नारीवादी विचारक को ̧ यह प्रतीक-विधान कैसा लगेगा. बहुत सी नारीवादी विचारकों ने स्त्री के लिए प्राकृतिक उपमानों को अच्छा नहीं माना है क्योंकि वे मानती हैं कि ऐसे उपमान नारी की सनातन रूढ छवि को पुष्ट करते हैं जिसके अनुसार नारी और उसकी यौनिकता प्रकृति की तरह स्वच्छंद, स्वयं को मर्यादित करने में अक्षम है, अत: मर्यादित किए जाने को पुरुष की दरकार रखती है. लेकिन इस कविता में तोप्रतीक प्रकृति से लिया गया है, जब कि प्रतीकार्थ संस्कृति है यानी खुद भारतीय परम्परा में प्रकृति और संस्कृति का द्वैत इस प्रतीक-व्यवस्था के ज़रिए मिट सा जाता है.

समाज और संस्कृति के लिए क्रमश: पुरुष ( भूखण्ड/पिता) और स्त्री ( नदी/माँ) प्रतीकों का प्रयोग 19वीं सदी में भारतीय पुनर्जागरण द्वारा सृजित द्वैतों के मेल में ही है. पार्थ चटर्जी के अनुसार राष्ट्रवादी परियोजना ने औपनिवेशिक राज्य के साथ राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष और आंदोलन में जाने से काफी पहले ही सांस्कृतिक संप्रभुता के एक स्वायत्त क्षेत्र का निर्माण कर लिया था. जहाँ 19वीं सदी के प्रथमार्द्ध  में समाज सुधारकों ने धर्म और समाज सुधार के लिए औपनिवेशिक शासकों के कानूनी तंत्र की मदद ली. वहीं 19वीं सदी के अंतिम तीन दशकों में नए मध्यवर्गों से बने राष्टंवादी नेतृत्व ने एक ऐसे सांस्कृतिक दायरे का निर्माण किया जो कि औपनिवेशिक शासन के हस्तक्षेप से मुक्त संप्रभुता का दायरा था. सामाजिक संस्थाओं और व्यवहारों कोराष्टंवाद ने दो हिस्सों में बांटा.. उसकी परियोजना में भौतिक दायरा बाहरी है और आध्यात्मिक दायरा भीतरी है. भौतिक दायरे में अर्थव्यवस्था, राज-काज, विज्ञान, तकनीक आदि आते हैं, जिनमें पश्चिम की श्रेष्ठता स्वीकार्य है, जिसे सीखकर दक्ष बनना है ताकि पश्चिम का उसकी ही जमीन पर मुकाबला किया जा सके, दूसरी ओर आध्यात्मिक  दायरा भीतरी है, जो कि जाति की सांस्कृतिक अस्मिता का क्षेत्र है जहाँ भारत की पश्चिम पर श्रेष्ठता स्वयंसिद्ध है. इस परियोजना की संकेत-व्यवस्था में घर/बाहर, स्त्रीत्व/पौरुष, आध्यातिमक/भौतिक, आंतरिक/बाह्य, सांस्कृतिक/समाजार्थिक  जैसे द्वैतों के समीकरण बने. अज्ञेय की इस कविता के प्रतीक-विधान में यदि हम एक ओर आंतरिक, सांस्कृतिक, स्त्रीत्व और दूस री ओर बाहरी,सामाजिक, पौरुष का समीकरण पाते हैं , तो यह पुनर्जागरण की विरासत ही है. तभी से संस्कृति स्त्रीत्व है, आत्मा को गढ़ने वाली है, राजनीति, समाज आदि से पहले है, स्वायत्त है. इस कविता के विचार की प्रतीक-व्यवस्था औपनिवेशिक समय से राष्ट्रवादी उभार की चली आती हुई संकेत -परम्परा में ही अवस्थित हैं. हमारी समझ से इस परम्परा के संदर्भ के बगैर इस कविता के प्रतीक-विधान का औचित्य हम कुछ कम समझेंगे. इस कविता में अज्ञेय ने जो प्रतीक लिए हैं, वे सामान्य संज्ञाएं हैं. मसलन नदी एक सामान्य संज्ञा है. यदि हम इस कविता के विचार की आनुवांशिकी में निहित संस्कृति का स्त्रीत्व समझेंगे, तभी हम समझ सकेंगे कि कवि ने प्रतीक के रूप में किसी खास नदी की जगह “नदी” जैसी सामान्य संज्ञा क्यों ली है. अलग- अलग नदियाँ/नद उनसे जुडे मिथकों के आधार पर पुल्लिंग या स्त्रीलिंग हैं. यदि एक ओर गंगा, कावेरी, गोदावरी हैं, तो दूसरी ओर ब्रह्मपुत्र , दामोदर और नर्मदा भी. संसार की सभी प्रमुख भाषाओं में अलग-अलग नदीनद के इसी तरह अलग- अलग जेंडर हैं. हिंदी भाषा में सामान्य संज्ञा “नदी” स्त्रीलिंग है और इसी लिए प्रतीक-रूप में कवि के विचार के लिए सर्वथा उपयुक्त. ठीक इसी तरह भूखण्ड सामान्य संज्ञा होने के चलते पुल्लिंग है, वर्ना पहाड भी भूखण्ड है और घाटी भी, एक पुल्लिंग और एक स्त्रीलिंग. द्वीप सामान्य संज्ञा के बतौर पुल्लिंग है. यहीं और इसी प्रतीक में यह समस्या आती है कि व्यक्ति-स्वातं«य क्या सिर्फ पौरुशेय है?

अज्ञेय ने इन सामान्य संज्ञाओं के ज़रिए व्यक्तित्व, संस्कृति और समाज के बीच जोसंबंध स्थापित किया है, वह आदर्शात्मक-प्रतीरूपात्मक (ideal-typical) है, विशिष्ट नहीं . ऐसा नहीं कि अज्ञेय यह जानते या मानते न रहे हों कि संस्कृतियाँ बहुवचनीय हैं और समाज तथा व्यक्तित्व से उनके संबंध भी एक से नहीं हैं. लेकिन उन्होंने जो संबंध इस कविता में प्रस्तुत किया है वह उनकी निगाह में आदर्श है, दूसरे शब्दों में संस्कृति, समाज और व्यक्तित्व के जिस संबंध को वे भारतीय आदर्श मानते हैं, उसे ही विश्वजनीन और सार्वभौम बनाकर प्रस्तुत करते हैं. प्रतीक-विधान की एकवचनीयता का यही कारण है. अब यह अलग बात है कि इन संबंध के क्षेत्र में भारतीयता भी कितनी एकवचनीय है. क्या लोक-संस्कृति, अभिजन संस्कृति, वैदिक संस्कृति, मध्यकालीन संस्कृति, आधुनिक संस्कृति, शूद्र  संस्कृति, ब्राह्मण संस्कृति आदि का व्यक्ति और समाज से संबंध का एक ही आदर्श-भारतीय प्रारूप सम्भव है?

इस कविता के प्रतीक-विधान में समाज सबसे कमतर महत्व रखता है. अज्ञेय की एक और प्रसिद्ध कविता है-“यह दीप अकेला”, यह कविता भी “नदी के द्वीप” की तरह सेकेंडरी और स्नातक के पाठयक्रमों में प्राय: पाई जाती है, संभवत: इसलिए कि इन दोनों कविताओं में कवि के समाज और व्यक्ति के संबंधों के बारे में ऐसे स्पष्ट विचार प्रकट होते हैं जो कि इन कक्षाओं के विद्यार्थियों के लिए सुग्राह्य  हैं. “यह दीप अकेला” की आरंभिक पंक्तियाँ हैं- “यह दीप अकेला, गर्व भरा है मदमाता इसको भी पंक्ति को दे दो. ” एक अकेला दीप और दीपों की पंक्तियाँ- व्यक्ति और समाज का यह अत्यंत सरलीकृत समीकरण है. “नदी के द्वीप” में फिर भी इतना सरलीकरण नहीं है. समाज सिर्फ व्यक्तियों का समुच्चय नहीं है. वह व्यक्तियों और समूहों के बीच जटिल अंत:क्रिया और संबंधों से निद्र मत होता चला जाता है. जिस तरह संस्कृति एक चिरंतन, सतत परिवर्तनशील प्रवाह है, (नदी से प्रतीकित) वैसा ही समाज भी है.भूखण्ड कहने से उसका यह अभिलक्षण प्रकट नहीं होता. पितर कहने से महज आनुवांशिकता प्रकट होती है जो फिर भी भूखण्ड कहने में निहित आपेक्षिक परिवर्तनहीनता का कुछ हद तक परिहार करती है. मोटे तौर पर संस्कृति मूल्यों, अवधारणाओं, अभिरुचियों, चिन्तन, कला, दर्शन और नैतिकताओं का क्षेत्र माना जाता है यानि उसकी उत्पतित में मानस की भूमिका का ज़्यादा महत्व है. आचार्य नरेंद्र  देव के शब्दों में “संस्कृति चित्त की खेती है”. लेकिन मानस या चित्त भी जिन भौतिक कर्मों से नियमित है, उसका क्षेत्र समाज है. व्यक्ति कर्म और मूल्यों के क्षेत्र में एक साथ जन्मता है. संस्कृति उसे समाज से नहीं परिचित कराती. वह प्रत्यक्षत: समाज में ही जन्म लेता है. आदिम समाजों में ही आदिम संस्कृति ने जन्म लिया. अकेले मनुष्य ने नहीं , समूहबद्ध मनुष्य ने ही संस्कृति की रचना की. समाज और संस्कृति को अलगाना असंभव है. वे व्यक्ति के अनुभव में वैसे अलग नहीं हैं जैसे भूखण्ड और नदी या माता और पिता. विडम्बना यह है कि जिस कविता में यह प्रस्तावित है समाज की अपेक्षा संस्कृति स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण में अधिक महत्वपूर्ण और प्राथमिक भूमिका निभाती है, उस कविता का प्रतीक-विधान परिवार का रूपक उभारता है जोप्रधानत: सामाजिक इकाई है.

इस कविता की प्रतीक-व्यवस्था को एक अलग तरीके से भी देख सकते हैं. पहले कहा गया है कि व्यक्तित्व,संस्कृति और समाज के प्रतीक एक स्तर पर क्रमष: द्वीप, नदी और भूखण्ड हैं और दूसरे स्तर पर शिशु, माँ और पिता. क्यों न हम इन्हें प्रतीकों के दोस्तर न मानकर प्रतीकों के प्रतीक मानें? यानी जिस तरह व्यक्तित्व, संस्कृति और समाज के प्रतीक क्रमश: द्वीप, नदी और भूखण्ड हैं, उसी तरह द्वीप, नदी और भूखण्ड के प्रतीक क्रमष: शिशु, माँ और पिता हैं. ऐसा देखने पर अर्थ-ग्रहण में थोडा फर्क आता है. खासतौर पर कविता के उस आखीरी हिस्से कोजब हम देखें जहाँ नदी का विनाषकारी चित्र उपसिथत हुआ है-

“तुम बढो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे,

यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा, कीर्तीनाशा, घोर कालप्रवाहिनी बन जाए”

तो हमें स्वीकार है वह भी…….नदी के दोनों रूप मनुष्य अनुभव करता है. सामान्यत: वह जीवनदायिनी है, लेकिन बाढ आने पर वह तबाही भी खूब मचाती है. नदी के ये दोनों रूप क्या मातृरूप से प्रतीकित होसकते हैं? अगर मिथक का सहारा लें तोअवष्य क्योंकि हिंदू मिथकों की दुनिया में मातृशक्ति दोनों रूपों में आती है. वह अन्नपूर्णा है तोकाली भी. यानी संस्कृति का प्रतीक नदी और नदी का प्रतीक माँ लेने पर अर्थात “प्रतीक का प्रतीक” वाला विधान मानने पर कोई अर्थगत असामंजस्य नहीं जान पडता. लेकिन यदि हम दुहरे प्रतीकों वाला विधान मानें और नदी और माँ, दोनों को संस्कृति का समानांतर प्रतीक मानकर चलें, तोऊपर उद्धृत कविता की आखीर की पंक्तियों के अर्थ-ग्रहण में वैसी सहजता नहीं रह जाएगी. माना कि नदी और मातृशक्ति दोनों में सृजन और विनाश, दोनों गुणों का निवेश है, लेकिन संस्कृति में? क्या संस्कृति व्यक्तित्वों का विनाश भी कर सकती है? थोड़ा  सोचने पर मिथक नहीं ,किंतु इतिहास ज़रूर हमारी मदद करेगा. इस कविता में व्यक्तित्व का केंद्रीय गुण है स्वातंत्र्य. इतिहास गवाह है कि तमाम ऐसे दौर आए हैं जब संस्कृति या परंपरा के जोर पर स्वातंत्र्य की चेतना को नष्ट  किया गया, जब गैलीलियो जैसों को चर्च के आगे झुकना पडा, जब पुरोहितवाद में संस्कृति का पतन हुआ और स्वतंत्र मेधा कोउसने नष्ट किया, आदि. मुझे नहीं पता कि स्वयं कवि कोयह अर्थ-प्रक्रिया इष्ट  होती या नहीं. प्रतीक और मिथक तो तब भी सगोत्रीय हैं, लेकिन प्रतीक को अर्थ के लिए इतिहास सहारा दे! कवि की पंक्ति है-

“तुम्हारे आल्हाद से या दूस रों के किसी स्वैराचार से- अतिचार से

तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे,………”

इतिहास दूसरों के स्वैराचार या अतिचार से नदी और संस्कृति, दोनों के प्रदूषण  और तज्जनित जीवन और स्वातंत्र्य के विनाश का गवाह है, जबकि मिथकों में मातृ शक्ति के प्रलयंकारी रूप की कल्पना मिलती है. लेकिन कवि सिर्फ दूसरों के अतिचार को ही नहीं, बल्कि नदी के अपने आल्हाद को भी वैकलिपक रूप से प्रलयंकारी भूमिका का कारण मानता है. नदी के अर्थ में यह आल्हाद प्रत्यक्ष अनुभव का विषय  है जहाँ कोई बाहरी कारक नहीं, बल्कि नदी का प्राकृतिक उफान भी विनाश का कारण बनता है. इस उफान को लाक्षणिक तौर पर आल्हाद कहने में कोई समस्या नहीं है. मिथक के सहारे मातृशक्ति के अर्थ में काली या श्यामा का नर्तन भी आल्हाद ही है जो प्रलयंकारी है. लेकिन अगर मूल प्रतीकार्थ तक जाएं तो संस्कृति के अर्थ में आल्हाद और विनाश में कोई रिश्ता न तो इतिहास और न ही मिथक के सहारे बन पाएगा. ऐसे में “प्रतीक़ के प्रतीक” वाला विधान मानना अधिक ठीक है क्योंकि तब एक प्रतीक दूसरे का प्रतीकार्थ होगा और इस प्रकार उस प्रतीक का स्वतंत्र अर्थगत जीवन होगा. वह एक साथ प्रतीक और प्रतीकार्थ होगा. इस कविता की खास प्रतीक-व्यवस्था में जहाँ दूसरों के अतिचार से प्लावित नदी का संस्कृति के एक खास आचरण के प्रतीक के रूप में निर्वाह हो जाता है, वहीं अपने आल्हाद से प्लावित नदी स्वयं प्रतीकार्थ है जिसका प्रतीक है आल्हाद या उन्माद में नर्तन करती मातृरूपा आद्यशक्ति (माँ). ऐसे में मानना होगा कि कविता में प्रतीक का अपना अर्थगत जीवन भी होता है जो ज़रूरी नहीं कि मूल प्रतीकार्थ के साथ सामंजस्य में ही हो; बल्कि संभव है कि उसकी अर्थगत संगति दूसरे प्रतीक से हो.

अवान्तर ही सही, लेकिन इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि “नदी के द्वीप” उपन्यास से इस कविता का कुछ ख़ास रिश्ता नहीं है. इसकी तस्दीक खुद अज्ञेय ने की है. उपन्यास में समाज, संस्कृति और व्यक्तित्वों का अंतर्संबंध विषय नहीं है, बल्कि स्वतंत्र व्यक्तित्वों के आपसी रिश्तों से कथा बुनी गई है, ज़ाहिर है कि कविता में इसके लिए अवकाश नहीं था क्योंकि कविता सामान्य संज्ञाओं में प्रतीकों की श्रृंखला के ज़रिए एक अवधारणा विकसित करती है जबकि उपन्यास विशिष्ट  व्यक्तियों के अनुभव से बना है. कविता में विचार की प्रधानता है जबकि उपन्यास में अनुभव की.

अंतत: इस कविता में जो विचार उभरता है, वह कवितामात्र के बारे में अज्ञेय की धारणा के कारण ही है. कविता में अवचेतन की प्रधानता की धारणा ही कविता के प्रतीक-विधान में व्यक्तित्व की स्वतंत्रता के स्रोत के रूप में समाज( जोकि मानवीय भौतिक कर्म का क्षेत्र है जिसमें राजकाज, तकनीक, विज्ञान, अर्थव्यवस्था की तर्कमूलकता होती है) की अपेक्षा संस्कृति के भीतरी, संस्कारी, प्रधानत: अवचेतनात्मक स्वरूप को तवज्जो दिए जाने का कारण बनती है.

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  1. द्वीप = व्यक्तित्व = शिशु

    नदी = संस्कृति/परंपरा = माँ

    भूखण्ड = समाज = पिता
    इन समीकरणों के माध्‍यम से जिस तरह परत दर परत व्‍याख्‍या प्रणय जी द्वारा अज्ञेय की इस कविता कि की गई उससे समाज संस्‍क़ति और व्‍यक्तिव के आपसी संबंधो के कई अनसुलझे विचारों के द्वंद्व उभरते हैं साथ ही अज्ञेय के इन विचारों पर भी नए सिरे से प्रश्‍न उठता है जिसमें उन्‍होंने कला या कविता में विचारों का होना कभी आवश्‍यक नही माना .

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