आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

हमारे सगे मुर्दे भी एक जगह नहीं जलाते: लालसिंह दिल

Art: Sunita

पंजाबी से अनुवाद: प्रितपाल सिंह 

 

लाल सिंह दिल की चिट्ठी

समराला नहीं रहता अब मैं

पता बदल गया है

नया अभी मिला नहीं

बस्ती यह भी पूछती है

पहले क्या काम करते थे

 

मर भी गया तो

मौत में मरकर भी नहीं मरा

जल भी गया तो

आग में जलकर भी नहीं जला

नहीं मिलता जब तलक नया पता

चिट्ठी-पत्री

कविता के मार्फ़त करना

जज़्बे की खु़दकुशी

मैंने चाहा चाँद पर लिखूं

तेरे नाम के साथ नाम अपना

मैंने चाहा हर ज़र्रे के साथ

कर दूँ साँझी खुशी

तेरी दिलबरी में

मेरा हाल था कुछ ऐसा

मैं तेरी प्यारी बातों का

क्यों नहीं पा सका भेद

 

तू  मुझे फिर नहीं मिली

 

अकेले भी नहीं मिल सकी

मैं अपनी साधना में

कैसे कैसे जंगल नहीं फिरा

कैसे कैसे सागर नहीं तिरा

कौन से आकाश नहीं टोहे

कुछ भी तुझ से मगर

तेरा नहीं मिला

मातृभूमि

 

प्यार का भी कोर्इ कारण होता है ?

सुगंध की भी कोर्इ जड़ होती है ?

सच का कोई हो ना हो

झूठ कभी बेमकसद नहीं होता !

तेरे नीले पहाड़ों के कारण नहीं

न नीले जल के लिये

यदि ये बूढ़ी माँ के बालों जैसे

गहरे रंगे भी होते

तब भी मैं तुझको प्यार करता

इन दौलतों के खजाने

मेरे लिये तो नहीं

 

प्यार का कोर्इ कारण नहीं होता

झूठ कभी बेमकसद नहीं होता

खजानों के सांप तेरे गीत गाते हैं

तुझे सोने की चिड़िया कहते हैं.

शाम का रंग

शाम का रंग फिर पुराना है

जा रहे हैं बस्तियों की ओर फुटपाथ

जा रही झील कोर्इ दफ्तर से

नौकरी से लेकर जवाब

पी रही है झील कोर्इ जल की प्यास

चल पड़ा है शहर कुछ गाँवों की राह

फेंक कर कोर्इ जा रहा है सारी कमार्इ

 

पोंछता आ रहा कोई धोती से खून

कमज़ोर पशुओं के शरीर से आरे का खून

 

शाम का रंग फिर पुराना है

छोड़ चले हैं एक और गैरों की जमीन

छज्जे वाले

जा रहा है लम्बा वादा

झिड़कियों का भण्डार लादे

 

लम्बे सायों के साथ साथ गधों  पर

बैठे हैं शिशु

 

पिताओं के हाथ में कुत्ते हैं

माताओं की पीठ पीछे बंधे पतीले हैं

पतीलों में माओं के बच्चे सोये हैं

 

जा रहा है लम्बा वादा

कंधों पर उठाए झोंपडी के बांस

भूख के मारे यह कौन चीख रहा है ?

ये किस भारत की ज़मीन रोकने जा रहे हैं ?

 

नौजवानों को कुत्ते प्यारे हैं

वे कहां पालें

महलों के चेहरों का प्यार ?

 

वे भूखों के शिकार छोड़ चल पड़े हैं

किन्हीं गैरों की जमीन की ओर

 

जा रहा है लम्बा वादा

इनकों क्या पता है ?

कितने बंधे कीलों के साथ

जलाये जाते हैं रोज लोग

जो छोड़ भी नहीं सकते

बस्तियों को किसी रोज

जा रहा है साथ साथ

बस्ती के पेड़ों का साया

पकड़ रहा है गृहासक्त पशुओं के पैर

घर के वियोग में तड़पते प्यार के पैर

जा रहा है लम्बा वादा

जा रहा है लम्बा वादा

हर जगह

जाति

मुझे प्यार करती है

गैर-जाति की लड़की

हमारे सगे मुर्दे भी

एक जगह नहीं जलाते

 

One comment
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  1. Beautiful poetry !

    I tried to find his poetry in punjabi but more regional is the language more is the hipocrasy exercised by those self appointed guardians of poets n bechari poetry. Anyhow thanks a lot for taking it here.

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