आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

अथ आडंबर: आशुतोष भारद्वाज

Art: Sunita

मतियाया 

सागर लहराया .
तरंग की पंखयुक्त वीणा पर
पवन से भर उमंग से गाया .
फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती
किरण-अप्सराएँ भारहीन पैरों से थिरकीं

जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल बदलती .
दूर धुँधला किनारा
झूम-झूम आया, डगमगाया किया .
मेरे भीतर जागा
दाता
बोला :
लो, यह सागर मैंने तुम्हें दिया .

हरियाली बिछ गई तराई पर,
घाटी की पगडण्डी
लजाई और ओट हुई-
पर चंचला रह न सकी, फिर उझकी और झाँक गई .
छरहरे पेड़ की नई रंगीली फुनगी
आकाश के भाल पर जय-तिलक आँक गई .
गेहूँ की हरी बालियों में से
कभी राई की उजली, कभी सरसों की पीली फूल-ज्योत्स्ना दिप गई,
कभी लाली पोस्ते की सहसा चौंका गई
कभी लघु नीलिमा तीसी की चमकी और छिप गई .
मेरे भीतर फिर जागा
दाता
और मैंने फिर नीरव संकल्प किया :
लो, यह हरी-भरी धरती यह सवत्सा कामधेनु मैंने तुम्हें दी
आकाश भी तुम्हें दिया
यह बौर, यह अंकुर, ये रंग, ये फूल, ये कोंपलें,
ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ,
ये मैंने तुम्हें दीं .
आँकी-बाँकी रेखा यह,
मेड़ों पर छाग-छौने ये किलोलते,
यह तलैया, गलियारा यह
सारसों के जोड़े, मौन खड़े पर तोलते
यह रूप जो केवल मैंने देखा है,
यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैंने जिया,
सब तुम्हें दिया.
एक स्मृति से मन पूत हो आया .
एक श्रद्धा से आहूत प्राणों ने गाया .
एक प्यार की ज्वार दुर्निवार बढ़ आया .
मैं डूबा नहीं उमड़ा-उतराया,
फिर भीतर
दाता खिल आया.
हँसा, हँस कर तुम्हें बुलाया :
लो, यह स्मृति, यह श्रद्धा, यह हँसी,
यह आहूत, स्पर्श-पूत भाव
यह मैं, यह तुम, यह खिलना,
यह ज्वार, यह प्लवन,
यह प्यार, यह अडूब उमड़ना
सब तुम्हें दिया .
सब
तुम्हें
दिया .

निर्वैयक्तिकता को ब्रहम सूत्र मानने वाले अज्ञेय द्वारा अपने भीतर किसी दाता के सहसा जाग उठने के उपलक्ष्य पर कही इस कविता को अगर उनकी ही प्रस्तावनाओं को नकारते प्रथम पुरुष आख्यान के संशयमुक्त स्वयंसिद्ध स्वर की मानिंद पढ़ा जा सकता है तो औदात्य की एक दुर्लभ पैरोडी बतौर भी जहाँ कवि का दाता तरंग की पंखयुक्त वीणा पर पवन के उमंग भरे गायन को सुन जाग जाता है, जाग जाने के उपरांत कह जाता है:

लो, यह सागर मैंने तुम्हें दिया.

पैरोडी, क्योंकि दाता के जाग पड़ने की प्रक्रिया और तदनुपरांत प्रतिक्रिया बड़े ही अतिरंजित, अभिनयोचित औदात्य की पैरोडी से आबाद है.  फेन-झालरदार मखमली चादर पर भारहीन पैरों से थिरकती किरण अप्सराओं से दैनिक दृश्य, जो अपनी रूह में नितांत छायावादी है, से गुजर कवि को सहसा एहसास हो जाता है यह समूची जलराशि उसकी ही तो है, समूचा सागर वह झटके से दान कर बैठता है.

क्या यह फार्म अज्ञेय को अभीष्ट-अभिलक्षित थी, या उनके अनदेखे-अनजाने ही यह कविता पैरोडी बन गयी या उनकी सृजन प्रक्रिया अथवा आख्यायकीय स्वर में ही कुछ ऐसा  अंतर्निहित है जो उनकी अनुभूति को, स्वत: ही एक स्वयंभू पैरोडी में स्खलित कर देता है?

कहानी या उपन्यास की तरह कविता का भी आख्यायकीय स्वर – प्रथम, द्वितीय या तृतीय पुरुष – होता है जो न सिर्फ उस कविता का प्रेक्षण स्थल निर्धारित करता है कि कविता को किस धरातल से देखा जाये बलिक उसका परिप्रेक्ष्य चीन्हने में भी मदद करता है.

कर्इ अन्य की तरह अज्ञेय की यह कविता भी प्रथम पुरुष स्वर में, जो अपने निजत्व के उफान से आबाद है, अपने को कहती है, खुद ही अपने स्वर को वैधानिक होने का प्रमाण पत्र देती चलती है, कवि द्वारा बहुप्रस्तावित ‘निर्वैयक्तिक’ अभिव्यक्ति को विस्थापित कर जाती है. निर्वैयक्तिक होने की पहली शर्त ही आत्मसंदेह, अपनी निगाह व क्षमता पर, है. यही संशय मनुष्य को समर्थ बनाता है कि वह अपने निजी व्यापार से उपर उठ चीजों को वृहद फलक पर दृश्य कर सके. भोक्ता व रचयिता के मध्य अलगाव स्थापित नहीं हो सकता जब तलक रचयिता अपने भोक्ता की हरेक हसरत-हरकत पर संदेह कर, उनकी वैधता को परख खुद को उसकी आकांक्षाओं के पाश से मुक्त नहीं कर लेता. भोक्ता की आकांक्षायें सर्जक को सम्मोहित करती, छलती हैं, उसके अनजाने ही उसकी वाणी को बांध लेती हैं. इस व्यामोह में कैद रचयिता वह क्षमता खो देता है कि अपने भोक्ता की चाहनाओं की वैधता का निर्मम मूल्यांकन कर सके.

क्या अज्ञेय अपने भोक्ता की आकांक्षाओं के बंधक हुये थे? अज्ञेय को अपने नायक के भीतर दाता भाव के जन्म पर, ‘सब कुछ दिया’ कहने की उसकी आधिकारिकता-अर्हता पर जरा भी शुबहा नहीं. दिलचस्प यह भी कि इस दाता को साधारण वस्तुओं के दान में रुचि नहीं. मानता है वह यह प्रदत्त है उसे कि अधिकारी है वह दाता होने का .. सागर, सवत्सा कामधेनु, आकाश दान करते जाने का. यह नायक नहीं ही गौर करता कितने साधारण दृश्य, कितनी सरलीकृत प्रक्रिया उसे दाता बना देती है.

तरार्इ पर बिछी हरियाली या घाटी की पगडंडी को लजाकर ओट होते देखना या गेहूं की हरी बालियों में दिप गयी सरसों की पीली फूल-ज्योत्सना से गुजरना काफी है उसे यह उद्घोषित करने के लिये ..

मेरे भीतर फिर जागा

दाता:

और मैंने फिर यह नीरव संकल्प किया :

लो, यह हरी-भरी धरती — यह सवत्सा कामधेनु — मैंने तुम्हें दी:

आकाश भी तुम्हें दिया

 

**

यह रूप जो केवल मैंने देखा,

सब तुम्हें दिया.

यह अलग ऐसा कोर्इ विशिष्ट स्वरूप नहीं जो केवल उसने देख डाला हो: घाटी की पगडंडी, तरार्इ पर बिछी हरियाली में क्या था जो केवल उसने देखा वह नहीं कहता या जिससे गुजर उसके भीतर दान की आकांक्षा का जन्म लेना प्रमाणित होता हो. अपनी दृष्टि व उसकी अर्हता पर कोर्इ संदेह नहीं इस नायक को. माने बैठा है वह उसका चक्षुपात सदैव अदभुत, अनमेल वस्तुओं पर ही होगा, वह दाता होने की पात्रता हासिल कर लेगा. प्रकृति के प्रति बड़ा ही छायावादी नजरिया है इस नायक का. अत्यंत रोमानी. एक मुग्ध सैलानी. संशय की इस अनुपस्थिति से ही उसका दाता भाव अर्जित नहीं आरोपित लगता है, वह दानवीर होने की योग्यता अर्जित करने के लिये कोर्इ प्रयत्न नहीं करता दीखता है.

ऐसा नहीं प्रथम पुरुष स्वर सदा ही स्वयंभू-स्वप्रमाणित होता है. इसी विधा में आख्यायक द्वारा अपने को नकारती अनेक कथायें मिलेंगी. इस स्वर की सबसे बड़ी शक्ति यही है कि इसमें कही गयी कथा कुछ ऐसा आत्मीय अवकाश रच देती है जहाँ पाठक पाठ से कहीं सघन तादात्म्य महसूस कर सकता है, रचनाकार भी मनचाहे रस्ते से अपने पात्र के भीतर गहरे उतर उसकी रूह उघाड़ सकता है.

मैं एक बीमार आदमी हूं…  मैं एक जलनखोर आदमी हूं. मैं एक बदसूरत आदमी हूं. मुझे लगता है मेरे कलेजे में कोर्इ रोग घुसा हुआ है. लेकिन मुझे अपने रोग के बारे में जरा भी नहीं पता, ठीक ठीक नहीं मालूम आखिर मुझे क्या बीमारी हुर्इ है. मैं इसके लिये किसी डाक्टर से भी संपर्क नहीं करता, कभी नहीं किया, यधपि मैं दवार्इयों और डाक्टरों का सम्मान करता हूं. और फिर मैं घनघोर अंधविश्वासी भी हूं ….(मैं इतना तो शिक्षित हूं ही कि अंधविश्वासी न होउं, लेकिन मैं अंधविश्वासी हूं) नहीं, मैं अपनी जलन की वजह से डाक्टर की सलाह नहीं लेता.

पसरे हुए पिशाच सा यह मकान मानो गिरते गिरते संभल गया हो और अब संभलते संभलते गिर रहा हो.

इस उपमा तक पहुंचने में मुझे काफी कष्ट हुआ. कर्इ बार उठकर टहलना और बैठकर हाँफना पड़ा. जब सर पर बाल हुआ करते थे तो कर्इ बार टहलने की बजाय उन पर हाथ फेरने से भी कलम चल जाया करता था. फिर एक दौर ऐसा भी आया था जब बाल बहुत तेजी से उड़ने लगे थे और बचे खुचे कमजोर बालों को खींचने से ही उपमायें उतरा करतीं थीं. और फिर आखिर खोपड़ी बिल्कुल खाल हो गयी.

पाठक अदम्य गुरत्व से खिंचा आता है तकरीबन सौ वर्षों के अंतराल में लिखी गयी इन दो कृतियों .. नोटस फ्राम द अंडरग्राउंड और दूसरा न कोर्इ .. की पहली पंक्ति में उभरते ‘मैं’ की और  उसकी आत्म-भर्त्सना व उपमाओं में अपना ‘मैं’ टटोलने, जो ‘वह’ या ‘वे’ में संभव नहीं होने पाता, जहाँ एक तटस्थ अवकाश पाठक व नायक के मध्य हमेशा खिंचा रहता है. ‘मैं’ से विकसित होते आख्यान की भूमि पर आत्मचिंतन व क्षिद्रान्वेषण बड़े ही सुलभ हो आते हैं. तृतीय पुरुष में कही कथायें भी अक्सर प्रथम पुरुष की ओर मुड़ जाती हैं ज्यों ही उनके किरदार आत्मचिंतन की मुद्रा में आते हैं. स्ट्रीम आफ कांशसनैस तो प्रथम पुरुष स्वर में ही विकसित होती है.

दिलचस्प कि यह स्वर, जिसमें अपने आख्यायक के प्रति निर्मम अनेक कृतियां अपने को उदघाटित करती हैं, अज्ञेय की कविता के संदर्भ में ऐसा आत्मवक्तव्य बन जाता है जहाँ कवि को नायक से संपृक्त कर देखना असंभव हो जाता है. कवि व नायक एक दूसरे के प्रतिबिंब हैं यहाँ. इसी वजह से अज्ञेय के भोक्ता व रचयिता के मध्य कोर्इ अवकाश नहीं यहाँ. सर्जना प्रक्रिया अधपकी व अमूमन अतिरेकपूर्ण अनुभूति को परिष्कृत-परिमार्जित कर, अनुशासित करती है, जो यहाँ एकदम नदारद है. भोक्ता ने जो कुछ भी अनुभूत किया कवि बिना परखे उसे कविता में प्रत्यारोपित कर देता है.

समूची कविता में यह ध्वनि अंतर्निहित है कि प्रथम पुरुष आख्यायक कवि को कविता पर प्रक्षेपित करता हुआ निर्वैयक्तित्ता  को नकारता हुआ, पहले ही समस्त क्षमताओं, गुणों को हासिल कर आया है और कविता में महज उनका पुनर्निरूपण कर रहा है. अगर यह दाता भाव अर्जित होता तो कवि के स्वर में दंभ के बजाय दीनता बरसती, यात्रा की थकान, गिरने से आयी घुटनों पर खरोंच, माथे पर बहता पसीना शब्दों पर रिसता.

शब्द उसकी आंतरिक यात्राओं में उठाये जोखिम के वाहक नहीं बनते, उसके अपने आत्म के संग एडवैंचर्स की कथा नहीं कहते, किन स्थलों पर वह जूझा, टूटा, स्खलित हुआ नहीं बतलाते; शब्द महज माध्यम हैं उसके लिये अपनी उपलबिधयों की गाथा सुनाने के.

गजब का पैगंबरी अंदाज, दातागान का.

तत्सम की तुरुप चाल चल यह दाता अपनी दृष्टि की दैनिकता दुबकाने का, औदात्य का महल निर्मित करने का प्रयास तो करता है लेकिन इस इस स्तुतिगीत की सतह उघाड़ देखिये आपको अज्ञेय के भीतर तड़फड़ाता एक असुरक्षित नायक मिलेगा. यह भूल भी जाइये इस दाता के समस्त अनुभाव निर्मित तो बड़ी मेहनत से हुये हैं लेकिन उनमें मयकश मांसलता, तिरकती तबियत का अभाव है, कि पगडंडी को लजाकर ओट होते देखने भर से हो जाता दाता का आविर्भाव बड़ा निष्प्राण लग सकता है, कि दाता की मुद्रा अनूभत कम आरोपित अधिक प्रतीत होती है. यह प्रश्न एकबारगी न भी उठाइये कि दाता वाकर्इ जाग पड़ा या महज यह कल्पना की गयी उसके जागने पर कैसा घटित होता होगा और उस कल्पना के आधार पर लिख लिया गया.

अज्ञेय के व्यकितत्व से प्रभावित हुये आप इस दाता की पात्रता-क्षमता पर प्रश्न न भी करें, मान भी लें लघु नीलिमा तीसी को चमकता देख भर महत शिखर पर बैठा यह नायक बड़ी फुर्ती से कामधेनु, समूचा आकाश दान कर सकता है लेकिन इसके भीतर दुबका बैठा असुरक्षा का एहसास आप अनदेखा नहीं कर सकते. असुरक्षा कि उसके दातागान के किसी स्वर में कोर्इ सुराख, मुद्रा में कोर्इ मुर्दारी न रह जाये.

इस नायक को संज्ञान है यही महत मुद्रायें उसके दाता को स्वत: प्रमाणित बना सकती हैं कि दाता के जाग उठने महज से, इस जाग उठने के संकोच स्वीकार से कविता पैगंबरी औदात्य का दावा नहीं करने पायेगी. इसलिये उसे पूरा मंच चाहिये कि वह अपने दाता को तमाम चीजों का दान करते दिखला सके. आयो घोष बड़ो ब्योपारी. दान करेगा तो पूरे राज्य में मुनादी बजवा कर. मौन दान, अपने स्व का, इसे स्वीकार नहीं.

कविता में दाता महज एक बार जाग शांत नहीं हो जाता. किसी अभिनेता की पुनरावर्तीय मुद्रा, पाश्र्वगीत की टेक, बारंबार मचल उठता है दाता .. जाग पड़ने, दान देने को तैयार ही बैठा हो.

लेकिन क्या इस स्वत:प्रमाणित होने का दावा करते दाता पर, इसकी अनुभूति व अर्हता पर संदेह करना उचित? और क्या यह दाता अभिनेता महज इसलिये कि इसके अनुभाव निपट नाटकीय हैं या कुछ तत्व कहीं और भी हैं जो इसकी अभिनेयता को उघाड़ जाते हैं?

पहले प्रश्न का जवाब थोड़ा तो जार्ज आरवेल देंगे. महात्मा गांधी पर 1949 में वे लिखते हैं .. एक संत तब तक अपराधी माना जाना चाहिये जब तक वह निरपराध न घोषित न हो जाये.

यानी अज्ञेय के दाता की क्षमता पर तब तलक संदेह किया जाये, उसे अभिनेता माना जाये जब तलक इसका विपरीत सिद्ध न हो जाये.

और इसका विपरीत साबित करने के लिये अन्यत्र कहीं, असल में सर्वत्र ही अज्ञेय की खुद अपनी पुनरावर्तीय मुद्रायें ही उनके दाता को कटघरे में लाती हैं, उसे एक अभिनेता बनाती हैं.

जिस संग्रह से इस जाग उठे दाता को लिया गया उसकी ही भूमिका मसलन.

अज्ञेय जो अपने दाता का महत स्वरूप इस कविता में प्रस्तावित करते हैं, धुर विपरीत हैं उस कवि के जो जिस किताब से यह कविता ली है — चुनी हुर्इ कवितायें — उसकी भूमिका में कहता है…

इस चयन का पाठक यदि इसे पढ़ने के बाद मेरे सम्पूर्ण काव्य संग्रह सदानीरा – भाग 1-2 तथा उत्तरकालीन नयी रचनाओं की ओर आकृष्ट नहीं होगा तो मुझे निराशा होगी, यह स्वीकार करने में मुझे संकोच नहीं है. ऐसे पाठक के काव्य-प्रेम और काव्य-विवेक को भी मैं अधूरा समझूंगा, ऐसा भी मैं (अहंकारी कहाने का संकट उठा कर भी!) स्वीकार करूगा…. यह संग्रह पढ़ने के बाद वह ऐसा न समझ ले कि अज्ञेय के काव्य को पूरा जान लिया बलिक इसके विपरीत यही अनुभव करे कि अज्ञेय के काव्य को पूरा पढ़ना जरूरी है.

जिस कवि का रचनात्मक-आत्म इतना सीमित है कि वह अपने पाठक की समझ पर निस्संकोच संदेह करता है (खुद अपनी समझ पर, अपने दाता पर कोर्इ शुबहा नहीं उसे), खुद को अंहकारी मानने की भी जेहमत लेता है अगर इस किताब के पाठक उसकी समूचे कृतित्व की ओर नहीं मुड़ते, जो अपने पाठक को इतनी भी मोहलत नहीं देता कि वह उनकी कविताओं का अपनी इच्छानुसार पाठ कर सके, वह कवि अपने नायक को र्इसामसीही मुद्रा में सर्वस्व दान करता दिखलाता है. रचनाकार के अंतर्विरोध कोर्इ नयी सूचना नहीं. आप इन्हें अमूमन नजरअंदाज कर सकते हैं, देते हैं यह मान यह मानवीय स्वभाव है लेकिन अगर वह उसकी कला की बुनियाद पर ही प्रहार करे तब? अज्ञेय के आत्मवक्तव्य उनकी काव्य-स्थापनाओं को ही नकार दें तब?

यह भी कि इस भूमिका में लक्षित संकीर्णता और उसके बरअक्स दाता की उदात्तता अज्ञेय की चिरंतन मुद्रायें हैं. अपनी कविताओं में वे सभी सर्जकों को केवल आंचल पसार लेने को प्रेरित करते हैं तो उन्हीं कविताओं को ले अपने आत्मवक्तव्य में इतने र्इष्र्यालु हो उठते हैं कि अपने पाठक को असहमति तो दूर अपाठ का भी अवकाश नहीं देते.

या तो उनके वक्तव्य आडंबरी या कवितायें पोली पैगंबरी. गर माने कि आत्मवक्तव्य कविताओं के बरअक्स कहीं प्रामाणिक-प्रतिनिधि होंगे तो स्वत: प्रमाणित होने का दावा करती यह कविता उनके वक्तव्यों द्वारा अप्रमाणित हो जाती हैं, स्वयंभू अर्हता पर हमारा शुबहा सत्यापित हो जाता है, उनका दाता अभिनेता में, उसकी मुद्रायें अनुभाव में निगमित हो जाती हैं.

और पैरोडी? पैरोडी इसलिये कि कविता अपने पाठ व प्रभाव में औदात्य व दाता भाव की बड़ी रोचक विदूषकीय पैरोडी करती दीखती है. अरस्तु काव्यशास्त्र में एक ग्रीक लेखक के बारे में बतलाते हैं कि उन्होंने एक विशिष्ट किस्म की पैरोडी र्इजाद की थी, चर्चित कविताओं के शब्द किंचित बदल उदात्त को उपहास में रूपांतरित कर देते थे.

अज्ञेय का अभिनेता एक अन्य विधि अपनाता है, वाणी तो कमोबेश उदात्त नायक की ही चुनता है लेकिन उसे संदर्भ से काट देता है. दान तो वह कामधेनु ही करता है, फर्क इतना महज कि यह दान पोस्ते की लाली से चौंक भर जाने पर ही फलित हो जाता है

छरहरे पेड़ की नयी रंगीली फुनगी

आकाश के भाल पर जय-तिलक आंक गयी.

**

फिर भीतर

दाता खिल आया

**

सब तुम्हें दिया.

सब

तुम्हें

दिया.

संदर्भहीन, अनुभूति के बरअक्स अननुपातिक शब्द जो अपनी अतिरंजना में उस अनुभव को ही उपहासित होता छोड़ जाते हैं इस कविता की विशेषता हैं. यह कविता अपना शब्दकोशीय प्रमाण पत्र तो लहराती है लेकिन उस शब्द के शक्ति स्त्रोत का संधान नहीं करने पाती. शब्द हैं लेकिन वह गुण जो उन्हें प्राण उर्जा प्रदान करता है, कुंआरी कुम्हलाती लिपि को कमनीय काया देता है नदारद है. इन अक्षरों की जैविकीय कोशिकायें बतलाती हैं बहुत ही अलंघ्य-अलक्षित सी टैस्ट टयूब में, निरे यांत्रिकी समीकरणों से इनकी देह रची गयी है : डिजायनर संतान कोर्इ जिसके पिता ने बहुत तोल मोल कर उनका स्वरूप निर्धारित किया है और इस प्रक्रिया में वे बड़े फर्जी, जाली बन गये है. अत्यधिक अनुपात में चिरे होंठ, प्लासिटक सर्जरी के बाद अतिविशिष्ट कोण में तराशी नाक, मैनीक्यूर के बाद भयंकर सफेद पड़ गयीं बारीक उंगलियां .. समूची देह पर पिता के विभासित वीर्य व मां के गुनगुने गर्भ की छुअन तक नहीं.

इन शब्दों के जन्म से पहले कवि अपनी कला के साथ उफनते सहवास में नहीं डूबा. कला की देह पर कवि के उन्मत नाखूनों के निशान नहीं तड़पे, कवि की छाती पर कला के आकुल दांत नहीं फिसले. इन अक्षरों को ममताकुल गर्भ नहीं हुआ जहाँ वे मां के नाभि पर स्पर्श महज से स्पंदित होते अलंघ्य मौन में अपने होने को चीन्ह पाते, पिता के वीर्य का ओज नहीं मिला जो उनकी पुतलियों को अजन्मी हसरतों से दीप्त कर पाता. अपनी कृत्रिमता में ये अक्षर इतने अजनबी, पराये लगते हैं किसी मशीन से निकल कर सीधे कागज पर उतर आये हैं. इनकी आंखों पर किसी नाना की झलक मारती, न ठोड़ी बुआ का स्मरण कराती. इनकी बांयी बांह पर न बरसों पहले दिवंगत हुर्इ दादी सा काला मस्सा, न बालों में मंझली चाची सी सुनहली लहक उतरती. इनकी मज्जा उस थ्री पीस सूट की तरह है जिस पर बाजार में हुर्इ ड्रार्इक्लीनिंग की सूखी चमक भले हो लेकिन साबुन बटटी से रगड़ी और पानी में ऐंठ कर निचोड़ी गर्इ बुर्शट से उठती तबियतवाली महक नहीं है.

और उसकी वजह एकमात्र यह कि अज्ञेय के ‘मैं’ की अदायें तो औपनिषदीय लेकिन वह अहम ब्रह्मास्मि-सा ओजस्वी नहीं, बलिक निरा निर्वीय. हमन है इश्क मस्ताना मसलन जब कहते हैं कबीर तो उनकी वाणी में वह ज्योति पुंज दीप्त होता है जो उनके जगत से आजाद रहने को प्रमाणित करता है.

उनके बरअक्स अज्ञेय का स्वर बड़ा पोपला प्रतीत होता है. जो कंठ से उपजता तो है, कोमल मसूड़ों, होंठों से गुजर प्रस्फुरित भी होता है लेकिन दांतों के अभाव में सामर्थ्य नहीं पाने पाता. दांत जो किसी पोले-पोपले स्वर को काबू में कर उसमें शकित फूंकते हैं, अज्ञेय के यहाँ नदारद हैं. दोस्तोयवस्की का ‘मैं’ इस कदर आलोडि़त-उद्वेलित इसलिये ही कर पाता है क्योंकि उनका कठोर जबड़ा उनकी वाणी पर घनघोर अंकुश बनाये रखता है.

अज्ञेय भूल जाते हैं बीसवीं सदी की रचना ‘मैं’ की सिद्धि के उदघोष से प्रस्थान नहीं कर सकती, उसे आत्म का क्रूरतम परीक्षण करना ही होगा, अपनी पात्रता की निर्मम मीमांसा करनी होगी, उस प्रक्रिया में उतरना ही होगा जिस से गुजर वह यह सवत्सा धरती दान करने का सामथ्र्य हासिल करता है, जिसके अभाव में उसके शब्द यहाँ वहाँ से बीन कविता में लटका भर दिये लगते हैं.

महान कवितायें आध्यात्मिक सूक्तियां नहीं होतीं कि एक घोषणात्मक पंकित महज की बैसाखी पर पाठ अपने को प्रमाणित कर ले जाये. रचना का आंतरिक ही नहीं बाहय विधान भी होता है जिसके आधार पर वे अपने होने को सत्यापित करती है. कोर्इ रचना धर्मग्रथों की भांति न तो स्वत:प्रमाण्य होती है न ही अखबार की खबर सी परत:प्रमाण्य बाहय तथ्यों पर ही आधारित होती है.

अपने अस्तितिव को एक रचना जितना अपने कहे से प्रमाणित करती है तो जो वह छुपा ले जाती है उससे भी. और कर्इ अर्थों में तो अनकहे से ही कहे को सत्यापित करती है. विकट समस्या अज्ञेय की कि वे सब कुछ, वह भी बड़े अतिरंजित स्वर में कह जाना चाहते हैं, और जो नहीं कहते, मसलन अपनी अर्हता पर संदेह, वह उनके कहे को निष्प्रमाणित कर देता है. अज्ञेय नहीं ध्यान देते कि कविता किसी अनुभव का उत्सव तो मना सकती है, किसी अनुभूति की वजह नहीं हो सकती, उसे उस पाठ विशिष्ट के उपभोग हेतु निर्मित नहीं कर सकती.

यहीं से उनके यहाँ घनघोर शैल्पिक दोष भी उमड़ता है. एरर आफ स्टाइल. सूक्त वाक्य कह गुजर जाना चाहते वे अनदेखा करते हैं कि एक उत्कृष्ट रचना परत दर परत खुद को उदघाटित करती है, अर्थ बतलाती नहीं, शब्दों के मध्य घर्षण महज से पाठक को उसका संधान करने का अवकाश देती है, कि वह शब्दों के प्रज्जवलन की आंच में अपने को तपा सके. राह नहीं चलाती, आभास भर देती है. हैमलेट के पोलोनियस जो कहते थे.. पहले छलती है, फिर दिशा दिखलाती है.

नेति नेति कहता चलता अंतत: अर्थ तक पहुंचता ऐसा अविश्वसनीय आख्यायक (अनरिलाइबिल नैरेटर) ही वह कथा कह पाता है जो पाठक की चेतना झिंझोड़ देती है. दूसरा न कोर्इ का खुद पर ही संशय किये जाता नायक जो लगातार पाठक को विमोहित-भ्रमित करता है. फैरी एंड द अलैक्जैंडर मसलन, बर्गमैन मृत किरदारों को दूसरे काल में ले जा, बगैर दर्शक को एहसास हुये, जीवित कर काल का विभ्रम पैदा कर देते हैं. ऐसी कृतियां जो खुद पर संशय से प्रस्थान करती हैं ही उस स्पेस में जाने पाती हैं जहाँ पाठ व पाठक की चेतना अपने उत्कर्ष पर पहुंचती है. इसके बरअक्स अज्ञेय की निगमनात्मक स्वघोषित सिद्धि व भक्तिकालीन दानवीर मुद्रा आधुनिक पाठ में प्रामाणिक नहीं लगती.

अज्ञेय को रत्ती भर भी अपने पर संशय होता तो इस दाता को वे एक भीषण आयरनिकल नायक में कायांतरित कर सकते थे जो दान करने की अपनी महत आकांक्षा और दान को असमर्थ मानवीय अक्षमता के मध्य फंसा है. ऐसे में उनका औदात्य भले क्षीण पड़ता, स्खलित भी होता लेकिन उनका दाता कहीं मानवीय, आधुनिक नजर आता बजाय एक मध्ययुगीन आस्थावान भक्त के. अपने औदात्य का आवरण क्या उन्हें वहाँ पहुंचने से रोकता रहा जहाँ वे एक सच्चे आसितक को आधुनिक संदर्भों में निरूपित कर सकते थे? क्या वे नहीं समझ पाये या समझना चाहते रहे कि कभी तो यह नकाब उतरेगा और उनका नायक पैरोडी करता नजर आयेगा?

अज्ञेय के इस उदात्त ‘मैं’ ने, जो उनकी रचनाओं में अन्यत्र भी चला आता है, इस कदर विमोहित किया पिछली पीढि़यों को कि वे अनदेखा करती रहीं कि काफका और दोस्तोयवस्की भी दरअसल आत्म की ही तलाश में थे और काफका के यहाँ तो प्रथम पुरुष भी नहीं था. फास्टिंग आर्टिस्ट – उनकी महानतम कहानियों में से एक – निरे निस्संग तृतीय पुरुष स्वर में कलाकार व समाज के संबंधों को कहती है, अपनी क्षुद्रता को स्वीकारते कलाकार को कह़ती है, इस दाता या असाध्य वीणा के केशकंबली की भांति औदात्य का कोर्इ महल नहीं खड़ा करती, बड़े बारीक, संशयाकुल स्वर में अपने को नगण्य मानते कलाकार के आत्मदान को प्रस्तावित करती है.

दिलचस्प हो सकता है यह जानना भी अज्ञेय किसी पानी के जहाज, स्ट्रैथफर्ड, पर चल रहे थे पोर्ट सहद और मार्सेल के बीच ठीक पचास वर्ष पहले .. उन्तीस अप्रैल उन्नीस सौ साठ .. जब उनका यह दाता सहसा मचल उठा था.

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